असासा ख़्वाबों का मह्फ़ूज़ कर नहीं पाया ।
के दिल ने अपना कोई हमसफ़र नहीं पाया॥
हमारी आँखों के शायद चेराग़ रौशन थे ,
अँधेरा आया तो लेकिन ठहर नहीं पाया॥
तमाम ख़्वाहिशें यकबारगी सिमट सी गयीं,
मैं उसके कूचे से होकर गुज़र नहीं पाया॥
हमारे गाँव में अब भी है ठाकुरों का कुंवाँ,
घड़ा जहाँ से दलित कोई भर नहीं पाया॥
तवक़्क़ोआत में बारिश की खेत सूख गये,
घटाओं को भी बहोत मोतबर नही पाया॥
न ले सका मैं कोई काम मसलेहत से कभी,
के सादगी ने मेरी ये हुनर नहीं पाया ॥
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