ये ग़लत है के वहां हाशिया-आराई न थी.
देखती जो उसे आँखों में वो बीनाई न थी.
शुक्र है उसने बयानों में तवाज़ुन बरता,
कुछ भी कह देता वो उसकी कोई रुसवाई न थी.
ऐसी फिकरों में बलंदी नज़र आती कैसे,
जिनकी बुनियाद में मुतलक कोई गहराई न थी.
वो महज़ मेरे तसौव्वुर का करिश्मा निकला,
दर हकीकत कोई पैकर कोई अंगडाई न थी.
किस तरह सामने से हो गया मंज़र ओझल,
आँख हमने तो किसी पल कभी झपकाई न थी.
मेरे आँगन में ही वो पेड़ खडा था लेकिन,
फल गिरे उसके जहां वो मेरी अंगनाई न थी.
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सोमवार, 27 अप्रैल 2009
ये ग़लत है के वहां हाशिया-आराई न थी.
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6 टिप्पणियां:
बहुत ख़ूबसूरत अंदाज़े-बयाँ
आखिरी शेर में ख्यालों की परवाज अचंभित कर देती है...
बहुत खूबसूरत और अपने ही दौर की ग़ज़ल है. कभी हमारे घर भी तशरीफ लाईन. हमारे घर का पता है-
www.andaz-e-byan.blogspot.com
'वो महज़ मेरे…'
बहुत ख़ूब।
क्या हुआ साहब? इतनी लम्बी ख़ामोशी!
सर, कहाँ हैं आप?
सब खैरियत से तो है ना?
बहुत दिनों से आपने कोई ग़ज़ल नहीं लगायी तो मन चिंतित हो उठा...
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