प्रयास मन कभी ऐसे अनर्थ का न करे.
के सुन के बांसुरी, गोकुल की कल्पना न करे.
मैं उसके प्यार को मन में उतार बैठा हूँ,
दवा ये ऐसी नहीं है जो फ़ायदा न करे.
रहेगी कैसे वो जीवित कभी विचारों में,
दिलो-दिमाग़ को आकृष्ट जो कला न करे.
हुआ हूँ उससे अलग, पर ये हो नहीं सकता,
के उसके पक्ष में ये मन कभी दुआ न करे.
पसंद आये न कोई तो साथ क्यों रहिये,
जो साथ रहना है तो दिल कभी बँटा न करे.
न जाने कबसे है नारी विमर्श चर्चा में,
घरों में फिर भी किसी के असर ज़रा न करे.
जमें न पाँव कभी जिसके अंगदों की तरह,
वो लंकाधीशों में जाने का हौसला न करे.
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शनिवार, 18 अप्रैल 2009
प्रयास मन कभी ऐसे अनर्थ का न करे.
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1 टिप्पणी:
पूरी लय में गा गया मैं ये ग़ज़ल....
"मैं उसके प्यार को मन में उतार बैठा हूँ,
दवा ये ऐसी नहीं है जो फ़ायदा न करे" वाले शेर की गहराई इश्क की ऊँचाईयों पर ले गयी और जो दूसर बहुत भाया वो "हुआ हूँ उससे अलग.." वाला
एकदम जुदा-सा अंदाज़े-बयां सर
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