बुधवार, 24 दिसंबर 2008

कोई शिकवा कोई उलझन, इधर भी है, उधर भी है.

कोई शिकवा कोई उलझन, इधर भी है, उधर भी है.
बहुत कड़वा कसैलापन, इधर भी है, उधर भी है.
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गँवाए हैं बड़े बहुमूल्य माँ के लाल दोनों ने,
जनाज़ों से भरा आँगन, इधर भी है, उधर भी है.
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कलाएं देश की चौहद्दियों में बंध नहीं पातीं,
कलाकारों को यह अड़चन, इधर भी है, उधर भी है.
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कहीं मिटटी के चूल्हे पर पतीली फदफदाती है,
कहीं सुलगा हुआ ईंधन, इधर भी है, उधर भी है.
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कभी थे एक, अब होकर अलग दुश्मन से लगते हैं,
इसी इतिहास का दर्पन, इधर भी है, उधर भी है.
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घरों के कितने बंटवारे करो, मिटटी नहीं बंटती,
वही पहचाना सोंधापन, इधर भी है, उधर भी है.
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परस्पर हो गयीं विशवास की रेखाएं क्यों धूमिल,
नयी, अनजानी सी धड़कन, इधर भी है, उधर भी है.
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चलेंगी आंधियां तो फूल के पौधे भी टूटेंगे,
सुगंधों से भरा उपवन, इधर भी है, उधर भी है.
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मंगलवार, 23 दिसंबर 2008

समय ने घर के दरवाजों की हर चिलमन उठा दी है.

समय ने घर के दरवाजों की हर चिलमन उठा दी है.
कहीं भीतर से हर इंसान कुछ आतंकवादी है.
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कोई पत्नी को भय से ग्रस्त कर देता है जीवन में,
किसी ने जनपदों की नींद दहशत से उड़ा दी है.
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वही संतुष्ट हैं बस जिनकी अभिलाषाएं सीमित हैं,
वही हैं शांत जिनकी ज़िन्दगी कुछ सीधी-सादी है.
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हमारे युग में उत्तर-आधुनिकता के प्रभावों ने,
हमें धरती से रहकर दूर जीने की कला दी है.
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सभी धर्मों में हैं संकीर्णताओं के घने बादल,
जिधर भी देखिये धर्मान्धता की ही मुनादी है.
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समस्याएँ कभी सुलझी नहीं हैं युद्ध से अबतक,
परिस्थितियों ने फिर भी युद्ध की हमको हवा दी है.
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यहाँ धरती पे भ्रष्टाचार भी है एक अनुशासन,
न जाने कितनों की इस तंत्र ने दुनिया बन दी है.
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उमस, सीलन, घुटन, दुर्गन्ध में हम जी रहे हैं क्यों,
हमारी ही व्यवस्था ने हमें क्यों ये सज़ा दी है.
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ये सब निर्वाचनों के पैतरे हैं, तुम न समझोगे,
दिशा सूई की हमने दूसरी जानिब घुमा दी है.
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सच है कि मैंने आपको समझा कुछ और है.

सच है कि मैंने आपको समझा कुछ और है.
दर-अस्ल मुझको आपसे खदशा कुछ और है.
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गहराई में उतरिये तो क़िस्सा कुछ और है.
इस हादसे के पीछे करिश्मा कुछ और है.
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कहते हैं ज़लज़ले ने मेरा घर गिरा दिया,
हालात का अगरचे इशारा कुछ और है.
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क्यों आज-कल वो मिलाता है बेहद खुलूस से,
कहता है दिल कि उसकी तमन्ना कुछ और है.
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हैरत से देखता हूँ ज़माने की मैं रविश,
उस वाक़ए पे इन दिनों चर्चा कुछ और है.
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करता रहा हूँ वैसे तो उस खुश-अदा की बात,
पर क्या करुँ ग़ज़ल का तकाजा कुछ और है.
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मेरी नज़र कहीं पे है उसकी नज़र कहीं,
कहता हूँ मैं कुछ और समझता कुछ और है.
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सब कुछ तो कह दिया है हुज़ूर आपने मुझे,
अब वो भी कह दें आप जो सोंचा कुछ और है.
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रविवार, 21 दिसंबर 2008

बुश पे जूता चल गया या 'बुश का जूता' चल गया [डायरी के पन्ने 5]

अकबर इलाहाबादी उर्दू के उन हास्य और व्यंग्य के शायरों में हैं जिनकी रचनाएं अपने समय में जितनी लोकप्रिय थीं उतनी ही आज भी हैं इधर मुन्तज़र अल-ज़ैदी का जूता इतना अधिक चर्चित हुआ कि मुझे सहज ही अकबर इलाहाबादी का एक शेर याद आ गया. शेर इस तरह है - "बूट डाउसन ने बनाया, मैंने इक मज़मूं लिखा / मेरा मज़मूं चल न पाया और जूता चल गया." यहाँ एक ओर जहाँ साहित्य की प्रभावहीनता पर चोट की गई है वहीं उपयोगितावादी दृष्टिकोण को भी अर्थ-विस्तार दिया गया है. हिन्दी-उर्दू के समकालीन कवि बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, किंतु कभी कोई क्रान्ति नहीं आती. बीसवीं शताब्दी के सातवें-आठवें दशक की हिन्दी कविता चाकू, बंदूक, गोलियाँ, बारूद से भरी हुई थी. किंतु यह सब एक कागजी खिलवाड़ साबित हुआ. कविता में नारेबाजी भी खूब की जाती है. किंतु यह काल्पनिक नारे न तो मन से निकलते हैं और न दूसरों के मन में प्रवेश करते हैं. अकबर इलाहाबादी का मज़मून भले ही लोकप्रिय न हुआ हो किंतु डाउसन का बनाया हुआ जूता घर-घर में पहुँच गया.
बगदाद में मुन्तज़र अल-ज़ैदी ने पत्रकार के पेशे को व्यावहारिक और नाटकीय बनाते हुए कलम के स्थान पर जूते से काम लिया. बुश की वे कितनी भी कड़ी आलोचना करते उसका आस्वादन केवल एक-दो दिन का होता. किंतु जूता फेंक कर बुश को निशाना बनाने का आस्वादन ऐसा है कि इस की लोकप्रियता निरंतर बढती जा रही है. मुन्तज़र अल-ज़ैदी की पत्रकारिता भाषा की दृष्टि से केवल अरबी तक सीमित थी, किंतु जूते की भाषा अंतर्राष्ट्रीय है. इसे सब समझते और भीतर तक महसूस करते हैं. राजनीतिक दुनिया में इस दस नम्बरी जूते ने जितनी भी हलचल मचाई हो, बाजारवाद ने इसे हाथों-हाथ लिया.
जूते बनाने वाली कंपनियों ने इस जूते को बाज़ार में फैलाने और उसका लाभ उठाने में होड़ लगा दी. टर्की के काब्लर रमज़ान बेदान का दावा है कि चमडे के काले जूते की यह जोड़ी उसकी बनायी हुई थी और इस विशेष डिजाइन का जूता वह दस वर्षों से बना रहा था. अब कोई इसकी पुष्टि करे या न करे, [यद्यपि चीन, लेबनान और ईराक में भी इस जूते के बनने के दावे किए गए] बेदान के जूतों के ग्राहक साड़ी दुनिया में बहुत बड़ी संख्या में पाये गए. ईराक में इन जूतों की पन्द्रह हज़ार जोडियाँ की मांग की गई. दुकाती मोडेल 271 का यह जूता अब अपने नए नाम 'बुश जूते' [The BUsh Shoe ] से पहचाना जाता है. ब्रिटेन के एक वितरक ने इच्छा व्यक्त की है कि वह 'बेदान शू कंपनी' का यूरोपीय सेल्स रिप्रेजेंटेटिव बनाना चाहता है और उसका पहला आर्डर पचानवे हज़ार जूतों कि जोड़ी का है. ख़ुद अमेरिका में अट्ठारह हज़ार जोड़ी जूतों की मांग की जा रही है.
उनतीस वर्षीय पत्रकार मुन्तज़र अल-ज़ैदी जूता फेक कर बुश को मारने के बाद से अबतक खुली हवा के दर्शन नहीं कर सके. उनके जूते भी एक्सप्लोसिव टेस्ट से गुजरने के बाद अपनी सूरत बिगाड़ चुके हैं, भले ही उनका मूल्य पचास करोड़ क्यों न लग चुका हो. किंतु बेदान के जूते इस तरह चल गए कि रुकने का नाम नहीं लेते. कितनी विचित्र सी बात है कि चलाया तो गया बुश पर जूता और चल गया 'बुश का जूता' [The Bush Shoe ].

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सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [क्रमशः10]

[ 60 ]
अँखियाँ हरिकैं हाथ बिकानी.
मृदु मुस्कान मोल इन लीन्हीं, यह सुनि-सुनि पछितानी.
कैसैं रहति रहीं मेरैं बस, अब कछु औरे भाँती.
अब वै लाज मरति मोहि देखत, बैठीं मिलि हरि पांती.
सपने की सी मिलन करति हैं, कब आवतिं कब जातीं.
'सूर', मिलीं ढरि नंदनंदन कौं, अनत नाहिं पतियातीं.

ले लिया मोल मुस्कराहट ने,
बिक गयीं श्याम को मेरी आँखें.
थक गई रोज़ ताने सुन-सुन कर,
फिर रही हैं झुकी-झुकी आँखें.
पहले रहती थीं मेरे काबू में,
अब है अंदाज़ और ही इनका,
देखकर मुझको, शर्म करती हैं,
होके बैठी हैं श्याम की आँखें.
मुझसे मिलाती हैं ये उसी सूरत,
ख्वाब में जैसे कोई मिलता हो,
कब ये आती हैं, कब ये जाती हैं,
जानतीं ख़ुद नहीं कभी आँखें.
नन्द के लाल पर फ़िदा हैं यूँ,
सिर्फ़ उनसे ही मिलती-जुलती हैं,
'सूर' करतीं नहीं किसी पे यकीं,
हो गयीं जबसे बावली आँखें.

[ 61 ]
कपटी नैनन तें कोउ नाहीं.
घर कौ भेद और के आगें, क्यों कहिबे कौं जाहीं.
आपु गए निधरक ह्वै हम तैं, बरजि-बरजि पचिहारी.
मनोकामना भइ परिपूरन, ढरि रीझे गिरधारी.
इनहिं बिना वै, उनहिं बिना ये, अन्तर नाहीं भावत.
'सूरदास' यह जुग की महिमा, कुटिल तुरत फल पावत.

आंखों के जैसा कोई फरेबी नहीं हुआ.
घर के जो राज़ हैं, उन्हें गैरों के सामने,
जाती हैं कहने क्यों,ये बताएं मुझे ज़रा.
मैं रोक-रोक कर इन्हें सौ बार थक गई.
ये बेधड़क निकल गयीं ख़ुद से बसद खुशी.
जाते ही उनके दिल की हुई पूरी आरजू.
ख़ुद श्याम उनपे रीझ गए पाके रू-ब-रू.
इनके बगैर उनको नहीं एक पल करार.
वो सामने अगर न रहें, ये हों अश्कबार.
ऐ 'सूर'! ये हैं सिर्फ़ ज़माने की खूबियाँ.
मिलता है शातिरों को ही फ़िल्फ़ौर फल यहाँ.

[ 62 ]
नैना नैननि मांझ समाने.
टारें टरें न इक पल मधुकर, ज्यौं रस मैं अरुझाने.
मन-गति पंगु भई, सुधि बिसरी, प्रेम सराग लुभाने.
मिले परसपर खंजन मानौ, झगरत निरखि लजाने.
मन-बच-क्रम पल ओट न भावत, छिनु-छिनु जुग परमाने.
'सूर' स्याम के बस्य भये ये, जिहिं बीतै सो जाने.

आंखों में श्याम की मेरी आँखें समां गयीं.
ये टालने से टलतीं नहीं एक पल कहीं.
डूबी हुई हैं इश्क की मय में कुछ इस तरह.
भँवरा कँवल के रस में उलझता है जिस तरह.
कुछ सोचने-समझने की ताक़त नहीं रही.
होशो-हवास उड़ गए उल्फ़त में श्याम की.
दो खंजनों की, मिलने पे तकरार देख कर.
दिल शर्मसार होता है पूछो न किस क़दर.
इक लमहे का फिराक न अच्छा लगे इन्हें.
पल-पल जुगों के जैसा गुज़रता लगे इन्हें.
ऐ 'सूर' ! बस है श्याम का अब इनपे अख्तियार.
जिसपर गुज़रती है वही होता है बेकरार.

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शनिवार, 20 दिसंबर 2008

हम नहीं कहते हमारा साथ चलकर दीजिये.

हम नहीं कहते हमारा साथ चलकर दीजिये.
मोरचों पर प्रोत्साहन तो निरंतर दीजिये.
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मैं कला का हूँ पुजारी, आप हैं जीवित कला,
अपने सौन्दर्यानिरूपण से मुझे तर दीजिये.
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भूख से ये बस्तियां होंगी भला कब तक तबाह,
अब न हो उपवास, कुछ ऐसी कृपा कर दीजिये.
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और कुछ दें, या न दें, इतना तो कर सकते हैं आप,
माँगने वाले की झोली प्यार से भर दीजिये.
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ज़िन्दगी है अब किराए के मकानों की तरह,
उसको सस्ती क़ीमतों में कुछ नये घर दीजिये.
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एक हलकी सी धमक से आपको लगता है डर,
जब नपुंसक है तो फिर ओखल में क्यों सर दीजिये.
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अंग-रक्षक साथ हैं, इतना है क्यों प्राणों से मोह,
बांधिए सर पर कफ़न दुश्मन को टक्कर दीजिये.
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गाँव से भरकर उडानें आप दिल्ली तक गए,
वो भी उड़ने में है सक्षम, उसको भी पर दीजिये.
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शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

मैं अपने बचपने में लौट जाता तो मज़ा आता.

मैं अपने बचपने में लौट जाता तो मज़ा आता.
शरारत से सभी को मुंह चिड़ाता तो मज़ा आता.
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बहोत संजीदा भी खामोश भी रहने लगा हूँ मैं,
कोई शोखी से मुझको गुदगुदाता तो मज़ा आता.
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मेरी तनहाइयों को चीर कर आता कोई साया,
खुशी से, मुझको सीने से लगाता तो मज़ा आता.
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ज़रा सी भी नहीं है फ़िक्र मेरी उसको, सुनता हूँ,
किसी सूरत मैं उसको भूल पाता तो मज़ा आता.
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उसे एहसास कब है वो मुसलसल ज़ुल्म ढाता है,
कोई उसपर भी थोड़ा ज़ुल्म ढाता तो मज़ा आता.
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मैं साहिल पर खड़ा हूँ, मेरा हमदम दूर है मुझसे,
वो मेरे साथ होता, गुनगुनाता तो मज़ा आता.
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चलो अच्छा हुआ मैं उसकी महफ़िल में नहीं पहोंचा,
उसे जब बिजलियाँ मुझ पर गिराता तो मज़ा आता.
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मेरा हमसाया जाने कब सलीका सीख पायेगा,
मुहब्बत से कभी आँखें मिलाता तो मज़ा आता.
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अब किसे बनवास दोगे [राम-काव्य : पुष्प 3]

पुष्प 3 : अनुभवों की खुलती परतों में
[एक]
वैज्ञानिक शब्दाकाश का अक्षर-अक्षर,
उस समय दहशत बन गया था
बसें, रेलगाड़ियाँ,घर और रास्ते
वैचारिक धुन्ध के बीच
तलाश
रहे थे जिजीविषा.
कब्‌रिस्तानी अंधेरों की गहरी गुफाओं में
छिप गये थे
कीडे-मकोडे नुमा खास और आम चेहरे.
चेहरों पर हँस रही थी
वर्तमान की इतिहास-मूलक पीठिका-
एक तीखी हँसी.
और मैं देख रहा था उस हँसी के भीतर
चेहरों के निरन्तर बदलते रंगों का तमाशा.
पर मौत और जिन्दगी के बीच तैरता स्काई लैब,
किसी छाती पर वज्र बन कर नहीं टूटा.
यह देखकर याद आ गया मुझे सहसा
अपने देश के अतीत का एक दिन,
भद्दा, बदनुमा और सियाह दिन.
यानी कैकयी से दशरथ की
वचन-बद्धता का एक दिन.
जो आकाशस्थ सिंहासन को
स्काई लैब की तरह
धरती पर गिराने के लिए काफी था.
उस दिन भी हँसी थी
तात्कालिक वर्तमान की इतिहास-मूलक पीठिका-
एक तीखी हँसी.
कैकेयी पर ,
दशरथ पर
और उस वचन-बद्धता पर,
जिसे दे रही थी रूप और आकार
कामुकता की ठोकर.
[दो]
कितनी विचित्र होती है आदमी की भावुकता
जो छीन लेती है आदमी से उसकी ताकत,
झपट लेती है उसका दिमाग
और हड़प लेती है उसकी वैचारिकता.
मेरे सामने है इतिहास की सच्चाई -
कि भावुकता के क्षणों में,
एक अदना इनसान से किए गए वादे
हाथ और ज़बान दोनों काट लेते हैं,
और बना देते हैं आदमी को
गूंगा और अपंग.
उस समय आकाश हो जाता है सिमटकर बहुत छोटा,
घर के आँगन से भी बहुत छोटा,
और सौन्दर्य-पाश के मध्य छटपटाती
वासना की गन्ध,
बन जाती है वर्तमान का विष
ठिगना हो जाता है वैभव का विराट रूप.
और आदमी हो जाता है,
अपनी ही दुर्बलताओं से पराजित
अपनी ही ग्रंथियों का शिकार.
[तीन]
विद्या और अविद्या के बीच
एक गहरी खाईं है
और यह खाईं देवताओं की पुरी है
उन देवताओं की
जो ऊँचाइयों की अन्तिम हदें छूकर भी
पाताल की तहों में पड़े हैं.
मैंने उन देवताओं को निकट से देखा है,
उनके षड्यंत्रों को भाँपा है,
और रेखाँकित किए हैं उनके सारे दाँव-पेंच
मैंने देखा है कि उनके एक हाथ में है
सरस्वती के चरणों की रज

और दूसरे में मन्थरा की चोटी
और इस रज को चोटी में गूंथकर
वे खड़ा कर देते हैं एक तूफ़ान,
जिससे तार-तार हो जाता है
अनुशासन का परिधान
और परिधान की गरिमा.
देश के समूचे मानसून पर है देवताओं का कब्जा.
आँखों का पानी अगर मर जाए
और हो जाए उसका वाष्पीकरण
,
तो इसमें भी होती है देवताओं की एक चाल
और उनकी हर चाल, चाहे वह नयी हो या पुरानी
नपी तुली होती है.
बाहर से शहद की तरह मीठी
और भीतर से विष में घुली होती है.
न्याय की तुला पर तुलना
देवताओं ने कभी नहीं सीखा.
क्योंकि न्याय के लिये ज़रूरी है विद्या
और विद्या सिखाती है निर्णय की निष्पक्षता.
स्वार्थों के स्पंज से निर्मित देवताओं की गद्दियाँ,
नहीं जानतीं निष्पक्षता का अर्थ.
वे जानती हैं केवल इतना
कि दुर्बलताओं से ग्रस्त आदमी को
किस तरह बनाया जा सकता है
अपने यन्त्रालय का एक पुर्जा.
और किस तरह उड़ा जा सकता है हवा में
उसके कन्धों पर बैठकर.
देवताओं की विद्या
आदमी की विद्या से पूरी तरह अलग है.
देवता रखते हैं आदमी पर गहरी निगाह.
और यह निगाह पकड़ती है आदमी की दुर्बलता.
देवताओं की विद्या का दूसरा नाम है माया
और यह माया एक ठग है,
जिसे आता है आदमी को भीतर और बाहर से लूटना.
जिसे आता है गुलाबों के खेतों में बबूल उगाना.
जिसे आता है सन्तुलित धरती को डाँवाडोल करना.
[चार]
मैं सोचता हूँ कि सर्वशक्तिमान सृष्टा ने
कितने जतन के बाद दी है
आदमी को यह काया.
और इस काया में फूंककर अपने प्राण
इसे बनाया है अपने जैसा.
ताकि वह जो देवता हैं
,
व्यक्त कर सकें इसके प्रति आस्था.
मैं सोचता हूँ कि यह आदमी
क्यों गुमा देता है अपनी वह पूर्णता
जो मिली है इसे सृष्टा से
आदमी होने के नाते ?
क्यों बना लेता है खुद को
कभी देवता और कभी राक्षस ?
क्यों नहीं कुरेदता इसे भीतर तक
आदमी होने का गौरव ?
जबकि इसे पता है कि यही आदमी
जब कर लेता है पूर्णता को प्राप्त,
यानी अपनी साँसों को गिनने के बजाय,
बहने लगता है नदी की तरह शान्त.
और धरती को ऊँचा बहुत ऊँचा उठाकर
उतर जाता है गहरा बहुत गहरा अन्तरिक्ष में.
तो पर्वतों के शिखर झुक जाते हैं इसके समक्ष,
समुद्र बना देता है इसके लिए रास्ता
और मच जाती है देवलोक में हलचल.
मैं देखता हूँ कि राम के राज्याभिषेक की सूचना
बन गई है देवताओं की आँखों की किरकिरी.
देवता करने लगे हैं भीतर तक महसूस
कि ठण्डा पड़ जाएगा सट्टे का बाजार
कि धरती छीन लेगी आकाश से
उसकी सारी शक्ति.
मैं अनुभव करता हूँ कि देवताओं के शोर से
टूट पड़ा है आसमान.
कि सरस्वती ने भर दी है मन्थरा के वक्ष में कूटनीति.
कि ढल गये हैं दशरथ और कौशल्या की मूर्च्छा में
धरोहर स्वरूप धरे हुए वरदान.
मैं अनुभव करता हूँ कि उतर आये हैं देवता
कैकेयी की आँखों मैं,
और थिरक रहे हैं उसकी जीभ के ऊपर.
और महल के कोने में बैठी मन्थरा
होठों को सिकोड़ कर
बजा रही है सीटी.
मैं देखता हूँ अनुभवों की खुलती पर्तों में
एक के बाद-एक बदलते दृष्य
और दृष्यों का यह बदलाव
उकेरता है दृष्यों के वर्तमान की सच्चाई.
[पाँच]
जिस समय घेर रही हों चारों ओर से
आदमी को आग की लपटें.
लपटों में जलता दिखाई देता हो
पिता का चेहरा
,
और झुलस रही हो माँ की ममता.
जिस समय खिसक गयी हो
पाँव के नीचे से धरती.
धरती पर खड़े हों
ढेर सारे हिंसक पशु
पशुओं की गरदन में पड़ी हों,
आत्मीय जनों की मुण्डमालाएँ
और जबड़ों से टपक रहा हो ताजा रक्त.
आदमी के लिए मुश्किल है निर्णय लेना
कि वह क्या करे और कहाँ जाए ?
मैंने देखी हैं इस तरह की घटनाएँ
इसी धरती पर घटते.
मैंने देखा है आदमी को टुकड़ों में बंटते.
मैंने देखा है भरे-पूरे परिवारों को
कागज की तरह कटते-फटते.
और वह जो सिर्फ आदमी नहीं है
पूर्ण मानव है,
जानता है आग की लपटों को शांत कर देना,
जानता है लपटों में फूल उगाना.
राम ने देख लिया था
शहनाई की धुन को मातमी संगीत में तब्दील होते.
राम देख रहे थे विमाता से पराजित पिता को
फालिजग्रस्त.
राम देख चुके थे मामा के आतंक की नग्न तस्वीरें.
तस्वीरों के बीच से उभरती भावी रेखाएँ.
राहु के जबड़ों में फड़फड़ाता चाँद
चाँद के गिर्द मंडलाते काले दैत्याकार बादल
बादलों की लम्बी-लम्बी लाल-लाल जीभें.
संज्ञा- शून्य धरती
चेतना- शून्य आकाश.
जहरीला सर्वनाश.
पर राम अपनी जगह थे शांत
भावुकता से परे
निर्द्वंद्व
, अविचल !
पढ़ ली थीं राम ने लक्ष्मण की तेजाबी आँखें
देख ली थी सीता के मन की हलचल
सुन ली थी अहिल्या की पुकार.
इसीलिए पिता से वचनबद्ध राम
नापने लगे
चौदह वर्षों की यातना का अक्षांश और देशांतर
तैर गई सहज ही एक सौम्य मुस्कान
राम के होंठों पर
याद है आज भी मुझे राम का वह निर्णय
जिस पर किये थे हस्ताक्षर
लक्ष्मण और सीता ने
सुरक्षित है जिस पर युग के अंगूठे का निशान
और वक्त की मुहर
[छः]
मैं उस प्रभात को कैसे कह सकता हूँ प्रभात
जिसके आँचल में फैली है
दूर तक एक सियाह रात
जिसने तान दी है आँसुओं की
एक वृत्ताकार कनात
मैं कैसे कह सकता हूँ
कि सरयू का जल था उस समय शांत
कि जगह-जगह से फट नहीं गयी थी
अयोध्या की धरती
कि दशरथ की आँखों में उमड़ नहीं रहे थे
मौत के बादल

प्रभात भर देता है उपलब्धियों से
आदमी की झोली
पर जहाँ देख रहा हो आदमी चपुचाप
उपलब्धियों को आँखों से दूर होते
जहाँ देख रहा हो आदमी चुपचाप समय को क्रूर होते
वहाँ मैं कैसे कर सकता हूँ प्रभात की कल्पना !
कैसे देख सकता हूँ उजालों के दृश्य !
मैं जानता हूँ कि हर दृश्य के पीछे
होता है आदमी का हाथ
और यह हाथ
जब कर लेता है देवताओं के साथ अनुबन्ध

तो धूमिल पड़ जाती है उजालों की चमक
सांवली पड़ जाती हैं प्रभात की सुनहरी रश्मियाँ.

मैं देखता हूँ राम, लक्ष्मण और सीता को
अयोध्या से करते प्रस्थान.
मैं देखता हूँ प्रभात के उजाले को
रात की सियाही में ढलते.
मैं देखता हूँ माँ के ममत्व को बेटे के साथ चलते.
मैं देखता हूँ दशरथ को पश्चाताप से हाथ मलते.
मैं देखता हूँ कैकयी के माथे पर पसीने की बूंदें.
खुलती जाती हैं मेरे अनुभवों की परतें
एक के बाद एक.
पुकारती हैं मुझको मेरी याद्दाश्तें
.
जगाता है मुझको मेरा विवके.
समा जाता हूँ मैं राम की छाया के भीतर
और बनाता हूँ एक नए प्रभात का नक्शा.
जिसमें बरक़रार रहता है रश्मियों का सुनहरापन.
बरसता है झूमकर उजालों का सावन.
जीता है आदमी आजादी के साथ
स्वस्थ जीवन.
*******

अंधेरे रोशनी की पगडियां बांधे हुए निकले.

अंधेरे रोशनी की पगडियां बांधे हुए निकले.
मगर इस रूप में भी सबके पहचाने हुए निकले.
*******
बज़ाहिर उनके चेहरों पर भी थी मुस्कान की रेखा,
निकट आये तो सब दुःख-दर्द के पाले हुए निकले.
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अनोखी है नशे की दृष्टि से संसद की मधुशाला
यहाँ सब लड़खड़ाते, झूमते, गिरते हुए निकले.
*******
चुनौती दे रहा था जब समय वो मौन थे घर में,
टला संकट तो फिर अंगडाइयां लेते हुए निकले.
*******
मुझे सहयोग की आशाएं थीं, पर जब मिला उनसे,
मेरी ही तर्ह वो हालात के मारे हुए निकले.
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न जाने उसकी महफ़िल में हुआ क्या, ऐसी क्या बीती,
वहाँ से जितने निकले अपना दिल थामे हुए निकले.
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पले थे शान्ति के उजले कबूतर यूँ तो हर घर में,
वो उड़ते किस तरह जब उनके पर काटे हुए निकले.
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वहाँ फुर्सत थी किसको जो हमारी बात सुन लेता,
वहाँ अपनी समस्याओं में सब उलझे हुए निकले.
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सुरक्षा का कवच होता तो हम भी शेर बन जाते,
पड़ी थी जान पर, करते भी क्या, भागे हुए निकले.
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हमारी कथनी-करनी एक हो तो कौन पूछेगा,
हम अपने राजनेताओं से यह सीखे हुए निकले.
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गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

सिलसिला हम उस से संबंधों का रक्खें और क्यों.

सिलसिला हम उस से संबंधों का रक्खें और क्यों.
तल्खियां कुछ कम नहीं झेले हैं, झेलें और क्यों.
******
घाव जितने भी दिए हैं उसने ताज़ा हैं सभी,
होने दें कैसे सफल फिर उसकी घातें, और क्यों.
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वो कभी व्यवहार से आश्वस्त कर सकता नहीं,
जानकर सब कुछ हम उसकी बात मानें और क्यों.
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अपने घर की भी तो हालत कुछ बहुत अच्छी नहीं,
शत्रु इस घर में अतिथि बन-बन के आयें और क्यों.
*******
ठीक है, चाहत में सह लेते हैं हम अन्याय भी,
किंतु ऐसा भी है क्या, अब खाएं चोटें और क्यों.
*******
घुटने भर पानी में करते हैं रोपाई धान की,
काटते हैं भूख की फिर कैसे फ़सलें, और क्यों.
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कुछ कहीं संवेदना भी है किसानों के लिए,
आत्म हत्याओं की ये काली घटाएं और क्यों.
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छप्परों की हैं नियति सीलन, अँधेरा,भुखमरी,
ऊंची होती जा रहीं अट्टालिकाएं और क्यों.
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