शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

अब किसे बनवास दोगे [राम-काव्य : पुष्प 3]

पुष्प 3 : अनुभवों की खुलती परतों में
[एक]
वैज्ञानिक शब्दाकाश का अक्षर-अक्षर,
उस समय दहशत बन गया था
बसें, रेलगाड़ियाँ,घर और रास्ते
वैचारिक धुन्ध के बीच
तलाश
रहे थे जिजीविषा.
कब्‌रिस्तानी अंधेरों की गहरी गुफाओं में
छिप गये थे
कीडे-मकोडे नुमा खास और आम चेहरे.
चेहरों पर हँस रही थी
वर्तमान की इतिहास-मूलक पीठिका-
एक तीखी हँसी.
और मैं देख रहा था उस हँसी के भीतर
चेहरों के निरन्तर बदलते रंगों का तमाशा.
पर मौत और जिन्दगी के बीच तैरता स्काई लैब,
किसी छाती पर वज्र बन कर नहीं टूटा.
यह देखकर याद आ गया मुझे सहसा
अपने देश के अतीत का एक दिन,
भद्दा, बदनुमा और सियाह दिन.
यानी कैकयी से दशरथ की
वचन-बद्धता का एक दिन.
जो आकाशस्थ सिंहासन को
स्काई लैब की तरह
धरती पर गिराने के लिए काफी था.
उस दिन भी हँसी थी
तात्कालिक वर्तमान की इतिहास-मूलक पीठिका-
एक तीखी हँसी.
कैकेयी पर ,
दशरथ पर
और उस वचन-बद्धता पर,
जिसे दे रही थी रूप और आकार
कामुकता की ठोकर.
[दो]
कितनी विचित्र होती है आदमी की भावुकता
जो छीन लेती है आदमी से उसकी ताकत,
झपट लेती है उसका दिमाग
और हड़प लेती है उसकी वैचारिकता.
मेरे सामने है इतिहास की सच्चाई -
कि भावुकता के क्षणों में,
एक अदना इनसान से किए गए वादे
हाथ और ज़बान दोनों काट लेते हैं,
और बना देते हैं आदमी को
गूंगा और अपंग.
उस समय आकाश हो जाता है सिमटकर बहुत छोटा,
घर के आँगन से भी बहुत छोटा,
और सौन्दर्य-पाश के मध्य छटपटाती
वासना की गन्ध,
बन जाती है वर्तमान का विष
ठिगना हो जाता है वैभव का विराट रूप.
और आदमी हो जाता है,
अपनी ही दुर्बलताओं से पराजित
अपनी ही ग्रंथियों का शिकार.
[तीन]
विद्या और अविद्या के बीच
एक गहरी खाईं है
और यह खाईं देवताओं की पुरी है
उन देवताओं की
जो ऊँचाइयों की अन्तिम हदें छूकर भी
पाताल की तहों में पड़े हैं.
मैंने उन देवताओं को निकट से देखा है,
उनके षड्यंत्रों को भाँपा है,
और रेखाँकित किए हैं उनके सारे दाँव-पेंच
मैंने देखा है कि उनके एक हाथ में है
सरस्वती के चरणों की रज

और दूसरे में मन्थरा की चोटी
और इस रज को चोटी में गूंथकर
वे खड़ा कर देते हैं एक तूफ़ान,
जिससे तार-तार हो जाता है
अनुशासन का परिधान
और परिधान की गरिमा.
देश के समूचे मानसून पर है देवताओं का कब्जा.
आँखों का पानी अगर मर जाए
और हो जाए उसका वाष्पीकरण
,
तो इसमें भी होती है देवताओं की एक चाल
और उनकी हर चाल, चाहे वह नयी हो या पुरानी
नपी तुली होती है.
बाहर से शहद की तरह मीठी
और भीतर से विष में घुली होती है.
न्याय की तुला पर तुलना
देवताओं ने कभी नहीं सीखा.
क्योंकि न्याय के लिये ज़रूरी है विद्या
और विद्या सिखाती है निर्णय की निष्पक्षता.
स्वार्थों के स्पंज से निर्मित देवताओं की गद्दियाँ,
नहीं जानतीं निष्पक्षता का अर्थ.
वे जानती हैं केवल इतना
कि दुर्बलताओं से ग्रस्त आदमी को
किस तरह बनाया जा सकता है
अपने यन्त्रालय का एक पुर्जा.
और किस तरह उड़ा जा सकता है हवा में
उसके कन्धों पर बैठकर.
देवताओं की विद्या
आदमी की विद्या से पूरी तरह अलग है.
देवता रखते हैं आदमी पर गहरी निगाह.
और यह निगाह पकड़ती है आदमी की दुर्बलता.
देवताओं की विद्या का दूसरा नाम है माया
और यह माया एक ठग है,
जिसे आता है आदमी को भीतर और बाहर से लूटना.
जिसे आता है गुलाबों के खेतों में बबूल उगाना.
जिसे आता है सन्तुलित धरती को डाँवाडोल करना.
[चार]
मैं सोचता हूँ कि सर्वशक्तिमान सृष्टा ने
कितने जतन के बाद दी है
आदमी को यह काया.
और इस काया में फूंककर अपने प्राण
इसे बनाया है अपने जैसा.
ताकि वह जो देवता हैं
,
व्यक्त कर सकें इसके प्रति आस्था.
मैं सोचता हूँ कि यह आदमी
क्यों गुमा देता है अपनी वह पूर्णता
जो मिली है इसे सृष्टा से
आदमी होने के नाते ?
क्यों बना लेता है खुद को
कभी देवता और कभी राक्षस ?
क्यों नहीं कुरेदता इसे भीतर तक
आदमी होने का गौरव ?
जबकि इसे पता है कि यही आदमी
जब कर लेता है पूर्णता को प्राप्त,
यानी अपनी साँसों को गिनने के बजाय,
बहने लगता है नदी की तरह शान्त.
और धरती को ऊँचा बहुत ऊँचा उठाकर
उतर जाता है गहरा बहुत गहरा अन्तरिक्ष में.
तो पर्वतों के शिखर झुक जाते हैं इसके समक्ष,
समुद्र बना देता है इसके लिए रास्ता
और मच जाती है देवलोक में हलचल.
मैं देखता हूँ कि राम के राज्याभिषेक की सूचना
बन गई है देवताओं की आँखों की किरकिरी.
देवता करने लगे हैं भीतर तक महसूस
कि ठण्डा पड़ जाएगा सट्टे का बाजार
कि धरती छीन लेगी आकाश से
उसकी सारी शक्ति.
मैं अनुभव करता हूँ कि देवताओं के शोर से
टूट पड़ा है आसमान.
कि सरस्वती ने भर दी है मन्थरा के वक्ष में कूटनीति.
कि ढल गये हैं दशरथ और कौशल्या की मूर्च्छा में
धरोहर स्वरूप धरे हुए वरदान.
मैं अनुभव करता हूँ कि उतर आये हैं देवता
कैकेयी की आँखों मैं,
और थिरक रहे हैं उसकी जीभ के ऊपर.
और महल के कोने में बैठी मन्थरा
होठों को सिकोड़ कर
बजा रही है सीटी.
मैं देखता हूँ अनुभवों की खुलती पर्तों में
एक के बाद-एक बदलते दृष्य
और दृष्यों का यह बदलाव
उकेरता है दृष्यों के वर्तमान की सच्चाई.
[पाँच]
जिस समय घेर रही हों चारों ओर से
आदमी को आग की लपटें.
लपटों में जलता दिखाई देता हो
पिता का चेहरा
,
और झुलस रही हो माँ की ममता.
जिस समय खिसक गयी हो
पाँव के नीचे से धरती.
धरती पर खड़े हों
ढेर सारे हिंसक पशु
पशुओं की गरदन में पड़ी हों,
आत्मीय जनों की मुण्डमालाएँ
और जबड़ों से टपक रहा हो ताजा रक्त.
आदमी के लिए मुश्किल है निर्णय लेना
कि वह क्या करे और कहाँ जाए ?
मैंने देखी हैं इस तरह की घटनाएँ
इसी धरती पर घटते.
मैंने देखा है आदमी को टुकड़ों में बंटते.
मैंने देखा है भरे-पूरे परिवारों को
कागज की तरह कटते-फटते.
और वह जो सिर्फ आदमी नहीं है
पूर्ण मानव है,
जानता है आग की लपटों को शांत कर देना,
जानता है लपटों में फूल उगाना.
राम ने देख लिया था
शहनाई की धुन को मातमी संगीत में तब्दील होते.
राम देख रहे थे विमाता से पराजित पिता को
फालिजग्रस्त.
राम देख चुके थे मामा के आतंक की नग्न तस्वीरें.
तस्वीरों के बीच से उभरती भावी रेखाएँ.
राहु के जबड़ों में फड़फड़ाता चाँद
चाँद के गिर्द मंडलाते काले दैत्याकार बादल
बादलों की लम्बी-लम्बी लाल-लाल जीभें.
संज्ञा- शून्य धरती
चेतना- शून्य आकाश.
जहरीला सर्वनाश.
पर राम अपनी जगह थे शांत
भावुकता से परे
निर्द्वंद्व
, अविचल !
पढ़ ली थीं राम ने लक्ष्मण की तेजाबी आँखें
देख ली थी सीता के मन की हलचल
सुन ली थी अहिल्या की पुकार.
इसीलिए पिता से वचनबद्ध राम
नापने लगे
चौदह वर्षों की यातना का अक्षांश और देशांतर
तैर गई सहज ही एक सौम्य मुस्कान
राम के होंठों पर
याद है आज भी मुझे राम का वह निर्णय
जिस पर किये थे हस्ताक्षर
लक्ष्मण और सीता ने
सुरक्षित है जिस पर युग के अंगूठे का निशान
और वक्त की मुहर
[छः]
मैं उस प्रभात को कैसे कह सकता हूँ प्रभात
जिसके आँचल में फैली है
दूर तक एक सियाह रात
जिसने तान दी है आँसुओं की
एक वृत्ताकार कनात
मैं कैसे कह सकता हूँ
कि सरयू का जल था उस समय शांत
कि जगह-जगह से फट नहीं गयी थी
अयोध्या की धरती
कि दशरथ की आँखों में उमड़ नहीं रहे थे
मौत के बादल

प्रभात भर देता है उपलब्धियों से
आदमी की झोली
पर जहाँ देख रहा हो आदमी चपुचाप
उपलब्धियों को आँखों से दूर होते
जहाँ देख रहा हो आदमी चुपचाप समय को क्रूर होते
वहाँ मैं कैसे कर सकता हूँ प्रभात की कल्पना !
कैसे देख सकता हूँ उजालों के दृश्य !
मैं जानता हूँ कि हर दृश्य के पीछे
होता है आदमी का हाथ
और यह हाथ
जब कर लेता है देवताओं के साथ अनुबन्ध

तो धूमिल पड़ जाती है उजालों की चमक
सांवली पड़ जाती हैं प्रभात की सुनहरी रश्मियाँ.

मैं देखता हूँ राम, लक्ष्मण और सीता को
अयोध्या से करते प्रस्थान.
मैं देखता हूँ प्रभात के उजाले को
रात की सियाही में ढलते.
मैं देखता हूँ माँ के ममत्व को बेटे के साथ चलते.
मैं देखता हूँ दशरथ को पश्चाताप से हाथ मलते.
मैं देखता हूँ कैकयी के माथे पर पसीने की बूंदें.
खुलती जाती हैं मेरे अनुभवों की परतें
एक के बाद एक.
पुकारती हैं मुझको मेरी याद्दाश्तें
.
जगाता है मुझको मेरा विवके.
समा जाता हूँ मैं राम की छाया के भीतर
और बनाता हूँ एक नए प्रभात का नक्शा.
जिसमें बरक़रार रहता है रश्मियों का सुनहरापन.
बरसता है झूमकर उजालों का सावन.
जीता है आदमी आजादी के साथ
स्वस्थ जीवन.
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