रविवार, 28 दिसंबर 2008

धर्म, भाषा, वेश-भूषा है अलग क्या कीजिये.

धर्म, भाषा, वेश-भूषा है अलग, क्या कीजिये.
सबकी अपनी-अपनी कुंठा है अलग, क्या कीजिये.
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यह असंभव है कि हम पहुंचें किसी निष्कर्ष पर,
मेरा, उसका, सबका मुद्दा है अलग, क्या कीजिये.
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वो किसी के साथ घुल-मिलकर नहीं रहता कभी,
अपनी धुन में मस्त, चलता है अलग, क्या कीजिये.
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एक ही परिवार में रहते हैं यूँ तो साथ-साथ,
फिर भी हर भाई का चूल्हा है अलग, क्या कीजिये.
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मैं समझता हूँ कि जनता की अदालत है ग़ज़ल,
फ़ैसलों का सबके लह्जा है अलग, क्या कीजिये.
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सुनने में अच्छी बहुत लगती है ये समता की बात,
किंतु सबकी अपनी प्रतिभा है अलग, क्या कीजिये.
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उसके हिस्से में कभी सुख-चैन आया ही नहीं,
उसकी पीडाओं का किस्सा है अलग, क्या कीजिये.
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सब के अपने-अपने सच हैं, अपनी-अपनी है समझ,
एक ही सच सबको लगता है अलग, क्या कीजिये.
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मेरे अंतस में ही ‘काबा’ है, कहाँ जाऊँगा मैं,
मेरा हज, मेरी तपस्या है अलग, क्या कीजिये.
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राष्ट्रवादी कोण से करते हैं विश्लेषण सभी,
आपकी मेरी परीक्षा है अलग, क्या कीजिये.
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