ग़ज़ल / शैलेश ज़ैदी / सिलसिला हम उस से लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
ग़ज़ल / शैलेश ज़ैदी / सिलसिला हम उस से लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

सिलसिला हम उस से संबंधों का रक्खें और क्यों.

सिलसिला हम उस से संबंधों का रक्खें और क्यों.
तल्खियां कुछ कम नहीं झेले हैं, झेलें और क्यों.
******
घाव जितने भी दिए हैं उसने ताज़ा हैं सभी,
होने दें कैसे सफल फिर उसकी घातें, और क्यों.
*******
वो कभी व्यवहार से आश्वस्त कर सकता नहीं,
जानकर सब कुछ हम उसकी बात मानें और क्यों.
*******
अपने घर की भी तो हालत कुछ बहुत अच्छी नहीं,
शत्रु इस घर में अतिथि बन-बन के आयें और क्यों.
*******
ठीक है, चाहत में सह लेते हैं हम अन्याय भी,
किंतु ऐसा भी है क्या, अब खाएं चोटें और क्यों.
*******
घुटने भर पानी में करते हैं रोपाई धान की,
काटते हैं भूख की फिर कैसे फ़सलें, और क्यों.
*******
कुछ कहीं संवेदना भी है किसानों के लिए,
आत्म हत्याओं की ये काली घटाएं और क्यों.
*******
छप्परों की हैं नियति सीलन, अँधेरा,भुखमरी,
ऊंची होती जा रहीं अट्टालिकाएं और क्यों.
**************