ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / मैं अपने बचपने में लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

मैं अपने बचपने में लौट जाता तो मज़ा आता.

मैं अपने बचपने में लौट जाता तो मज़ा आता.
शरारत से सभी को मुंह चिड़ाता तो मज़ा आता.
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बहोत संजीदा भी खामोश भी रहने लगा हूँ मैं,
कोई शोखी से मुझको गुदगुदाता तो मज़ा आता.
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मेरी तनहाइयों को चीर कर आता कोई साया,
खुशी से, मुझको सीने से लगाता तो मज़ा आता.
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ज़रा सी भी नहीं है फ़िक्र मेरी उसको, सुनता हूँ,
किसी सूरत मैं उसको भूल पाता तो मज़ा आता.
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उसे एहसास कब है वो मुसलसल ज़ुल्म ढाता है,
कोई उसपर भी थोड़ा ज़ुल्म ढाता तो मज़ा आता.
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मैं साहिल पर खड़ा हूँ, मेरा हमदम दूर है मुझसे,
वो मेरे साथ होता, गुनगुनाता तो मज़ा आता.
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चलो अच्छा हुआ मैं उसकी महफ़िल में नहीं पहोंचा,
उसे जब बिजलियाँ मुझ पर गिराता तो मज़ा आता.
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मेरा हमसाया जाने कब सलीका सीख पायेगा,
मुहब्बत से कभी आँखें मिलाता तो मज़ा आता.
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