शनिवार, 21 जून 2008

पसंदीदा शायरी / 'जिगर' मुरादाबादी

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]
दास्ताने-गमे-दिल उनको सुनाई न गई
बात बिगडी थी कुछ ऐसी कि बनायी न गई
सब को हम भूल गए जोशे-जुनूं में लेकिन
इक तेरी याद थी ऐसी कि भुलाई न गई
इश्क़ पर कुछ न चला दीदए-तर का जादू
उसने जो आग लगा दी वो बुझाई न गई
क्या उठायेगी सबा ख़ाक मेरी उस दर से
ये क़यामत तो ख़ुद उनसे भी उठाई न गई

[ 2 ]
अगर न जोहरा-जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे जिंदगी ,कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़ो-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बलाए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वह्म रहा मुद्दतों कि जुरअते-शौक़
कहीं न खातिरे-मासूम पर गरां गुज़रे
हरेक मुक़ामे-मुहब्बत बहोत ही दिलकश था
मगर हम अहले-मुहब्बत कशां-कशां गुज़रे
जुनूं के सख्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आए, जवां-जवां गुज़रे
खता मुआफ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या-क्या हमें गुमाँ गुज़रे
उसी को कहते हैं दोज़ख उसी को जन्नत भी
वो जिंदगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को खबर न हुई
रहे-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मुआमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
बहोत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद 'जिगर'
वो हादिसाते-मुहब्बत जो नागहाँ गुज़रे

[ 3 ]
बराबर से बच कर गुज़र जाने वाले
ये नाले नहीं बे-असर जाने वाले
मुहब्बत में हम तो जिये हैं जियेंगे
वो होंगे कोई और मर जाने वाले
मेरे दिल की बेताबियाँ भी लिये जा
दबे पाँव मुंह फेर कर जाने वाले
नहीं जानते कुछ कि जाना कहाँ है
चले जा रहे हैं मगर जाने वाले
तेरे इक इशारे पे साकित खड़े हैं
नहीं कह के सबसे गुज़र जाने वाले

[ 4 ]
हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हमसे ज़माना ख़ुद है, ज़माने से हम नहीं
मेरे जुबां पे शिकवए-अहले-सितम नहीं
मुझको जगा दिया यही एहसान कम नहीं
यारब हुजूमे-दर्द को दे और वुसअतें
दामन तो क्या अभी मेरी आँखें भी नम नहीं
ज़ाहिद कुछ और हो न हो मयखाने में मगर
क्या कम ये है कि शिकवए -दैरो-हरम नहीं
मर्गे-'जिगर' पे क्यों तेरी आँखें हैं अश्क-रेज़
इक सानेहा सही, मगर इतना अहम् नहीं

[ ५ ]
इक लफ़्ज़े-मुहब्बत का अदना सा फ़साना है
सिमटे तो दिले-आशिक फैले तो ज़माना है
क्या हुस्न ने समझा है, क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है
वो हुस्नो-जमाल उनका, ये इश्क़ो-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का बहाना है
अश्कों के तबस्सुम में, आहों के तरन्नुम में
मासूम मुहब्बत का मासूम फ़साना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ, इतना तो समझ लीजे
इक आग का दरया है और डूब के जाना है
आंसू तो बहोत से हैं, आंखों में 'जिगर' लेकिन
बिंध जाए सो मोती है, रह जाए सो दाना है

***************************

शुक्रवार, 20 जून 2008

पुरानी शराब / हैदर अली ‘आतिश’ दिहलवी

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]
सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या
कहती है तुझको खल्क़े-खुदा गाइबाना क्या
ज़ेरे-ज़मीं से आता है गुल, सोज़ ज़रबकफ़
क़ारूं ने रास्ते में लुटाया ख़ज़ाना क्या
ज़ीना सबा का ढूँढती है अपनी मुश्ते-ख़ाक
बामे-बलंद, यार का है आस्ताना क्या
चारों तरफ़ से सूरते-जानां हो जलवागर
दिल साफ़ हो तेरा तो है आईना-खाना क्या
तब्लो-अलम है पास न अपने है मुल्को-माल
हम से ख़िलाफ़ होके करेगा ज़माना क्या
यूँ मुद्दई हसद से न दे दाद तो न दे
आतिश गज़ल ये तूने कही आशिक़ाना क्या
[ 2 ]
इंसाफ़ की तराजू में तोला, अयाँ हुआ
यूसुफ़ से तेरे हुस्न का पल्ला गराँ हुआ
मादूम दागे-इश्क़ का दिल से निशाँ हुआ
अफ़सोस, बे-चराग़ हमारा मकाँ हुआ
देखा जो मैं ने उसको समंदर की आँख से
गुलज़ार आग हो गई, सुम्बुल धुंवां हुआ
तू देखने गया लबे-दरया जो चाँदनी
उस्द्तादा तुझको देख के आबे-रवां हुआ
इन्सां को चाहिए के न हो नागवारे-तब'अ
समझे सुबुक उसे जो किसी पर गराँ हुआ
अल्लाह के करम से बुतों को किया मुतीअ
ज़ेरे-नगीं क़लम-रवे-हिन्दोस्तां हुआ
क़ातिल की तेग़ से रहे-मुल्के-अदम मिली
आहन हमारे वास्ते संगे-निशाँ हुआ
फ़िकरे- बलंद ने मेरी ऐसा किया बलंद
आतिश ज़मीने-शेर से पस्त आसमां हुआ
[ 3 ]
वहशते-दिल ने किया है वो बियाबाँ पैदा
सैकड़ों कोस नहीं सूरते-इन्सां पैदा
दिल के आईने में कर जौहरे-पिन्हाँ पैदा
दरो-दीवार से हो सूरते-जानां पैदा
बाग़ सुनसान न कर इनको पकड़ कर सैयाद
बादे-मुद्दत हुए हैं मुर्गे-खुश-इल्हाँ पैदा
रूह की तर्ह जो दाखिल हो वो दीवाना है
जिसमे-खाकी समझ उसको जो हो ज़िन्दाँ पैदा
बे-हिजाबों का मगर शहर है अक्लीमे-अदम
देखता हूँ जिसे, होता है वो उरयां पैदा
एक गुल ऐसा नहीं होवे खिज़ाँ जिसकी बहार
कौन से वक्त हुआ था ये गुलिस्ताँ पैदा
मूजिद इसकी है सियह-रोज़ी हमारी 'आतिश'
हम न होते तो न होती शबे-हिजरां पैदा
[ 4 ]
तेरी मस्ताना आंखों पर न गर्दिश का असर देखा
मए-गुलरंग से सौ-सौ तरह पैमाना भर देखा
मुसाफ़िर ही नज़र आया, नज़र आया जो दुनिया में
जिसे देखा, उसे आलूदए- गर्दे-सफ़र देखा
नया ग़म्ज़ा किया सैयाद ने अपने असीरों से
किया आज़ाद उसे, जिस मुर्ग़ को बे बालो-पर देखा
ख़बर इक दिन न ली, पूछा न हाल अपने फ़क़ीरों का
वो शाहे-हुस्न, हमने बादशाहे-बेखबर देखा
तड़पते देख कर मुझको कहा हंस कर ये उस बुत ने
खुदा के दोस्त को रंजो-अलम में बेशतर देखा
बदख्शां-ओ-यमन छाना, लगाए गोते दरया के
न लब सा लाल, ऐ 'आतिश', न दंदां सा गुहर देखा
[ 5 ]
आशियाना, न क़फ़स औ न चमन याद आया
आँख खुलने भी न पायी थी कि सैयाद आया
एक दिन हिचकी भी आई न मुझे गुरबत में
मैं कभी तुमको न ऐ अहले-वतन याद आया
सोज़िशे-दिल मेरी क्या बनके क़लम लिक्खेगा
मोम हो हो के है बह जाने को फ़ौलाद आया
सज्दए-शुक्र ज़मीं पर न करूँ मैं क्योंकर
आसमां से है मेरा रिज़के-खुदादाद आया
देखले फिर ये तमाशा नज़र आने का नहीं
सामने आंखों के है आलमे-ईजाद आया
दर्गहे-यार मुरादों की महल है 'आतिश'
शाद याँ से है गया, जब कोई नाशाद आया
***********************

गुरुवार, 19 जून 2008

मुक्तिबोध ने कहा था

1. जनता का साहित्य'

जनता का साहित्य', जनता को तुरत समझ में आने वाला साहित्य हरगिज़ नहीं. अगर ऐसा होता तो किस्सा तोता-मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते. साहित्य के अन्दर सांस्कृतिक भाव होते हैं. सांस्कृतिक भावों को ग्रहण करने के लिए, बुलंदी, बारीकी और खूबसूरती को पहचानने के लिए, उस असलियत को पाने के लिए जिसका नक्शा साहित्य में रहता है, सुनाने या पढने वाले की कुछ स्थिति अपेक्षित होती है. वह स्थिति है उसकी शिक्षा, उसके मन का सांस्कृतिक परिष्कार. किंतु यह परिष्कार साहित्य के माध्यम द्वाराताभी सम्भव है जब स्वयं सुनाने वाला या पढने वाले की अवस्था शिक्षित की हो. [ फरवरी 1953 ]

2. 'प्रगतिशीलता' और मानव-सत्य

'मनुष्य-सत्य' का अनादर करने वाले साधारण रूप से दो परस्पर विरोधी क्षेत्रों से आते है. एक वे, जो मात्र क्रांतिकारी शब्दों का शोर खड़ा करने वालों के हिमायती के रूप में अपने सिद्धांतों की यांत्रिक चौखट तैयार रखते हैं - जो उसमें फिट हो जाय वह प्रगतिशील, और जो उसमें कसा न जा सके वह प्रगति-विरोधी. यह उनका प्रत्यक्ष, परोक्ष, प्रस्तुत और अप्रस्तुत, मुखर और गोपनीय निर्णय होता है. ये लोग उत्पीडित मध्य-वर्ग के जीवन के तत्त्वों से दूर अलग-अलग होते हैं. भले ही ये लोग शाब्दिक रूप से गरीबी के कितने ही हिमायती क्यों न हों, इनका व्यक्तित्व स्वयं आत्मबद्ध, अहंग्रस्त महत्त्वाकांक्षाओं का शिकार और राग-द्वेष की बहुमुखी प्रवृत्तियों से निपीडित होता है. बोधहीन बौद्धिकता का शिकार, यह वर्ग जिस संवेदनमय कविता की आलोचना करता है, उसकी संवेदनाओं की मूल आधार-भूमि को वह हृदयंगम नहीं कर सकता.

दूसरे क्षेत्र के प्रतिनिधि कष्टग्रस्त जीवन के कारण कवि में उतपन्न हुई अंतर्मुखता का उपयोग अपने लिए करना चाहते हैं. वे उस अंतर्मुखता के मूल उद्वेगों के क्रांतिकारी अभिप्रायों को दबाकर, उस अंतर्मुखता को इस प्रकार से प्रोत्साहन देते हैं की वह अंतर्मुखता अपने प्रधान विद्रोहों से छूट कर अलग हो जाय.

[नई दिशा, मई 1955]

बुधवार, 18 जून 2008

आंखों से जुड़ी कुछ ग़ज़लें / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

सावन की घटा बन के बरसती हुई आँखें
भीगा हुआ मौसम हैं ये भीगी हुई आँखें
ख़्वाबों में उतर आती हैं चुप-चाप दबे पाँव
दोशीज़ए-माजी की चमकती हुई आँखें
ये सोचके जाता नहीं मयखाने की जानिब
आजायें न फिर याद वो भूली हुई आँखें
इस दौर में क्या जाने कोई क़द्र गुहर की
दो बेश-बहा सीप हैं सोई हुई आँखें
रुक कर मेरी नज़रें किसे पहचान रही हैं
शायद हैं ये पहले कभी देखी हुई आँखें
सायल की तरह आई हैं दरवाज़ए-दिल पर
कश्कोले-तमन्ना लिए सहमी हुई आँखें
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दमकते चाँद से रुख पर बड़ी-बड़ी आँखें
बला का रखती हैं अंदाजे-दिलबरी आँखें
मैं जानता हूँ के होती हैं किस क़दर शीरीं
हसीन पलकों के शीशे में शरबती आँखें
किसी को नफ़रतें देती हैं प्यार के बदले
किसी से करती हैं इज़हारे-दोस्ती आँखें
गुलाबी शोख़ लिफ़ाफ़ों में है वफ़ा के खुतूत
छुपी हैं पर्दए-मिज़गाँ में प्यार की आँखें
सहर का नूर भी हैं, रात की सियाही भी
हयातो-मौत की तस्वीर खींचती आँखें
दिलों के बंद खज़ानों को खोल कर अक्सर
जवाहरात परखती हैं जौहरी ऑंखें
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गुफ्तुगू निगाहों की एतबार आंखों का
दिल पे हो गया आख़िर इख्तियार आंखों का
मय में आज साकी ने कोई शै मिला दी है
ढल गया है शीशे में सब खुमार आंखों का
आंसुओं के दरया में डूब-डूब जाता हूँ
ज़िक्र जब भी आता है अश्कबार आंखों का
मस्तिए-शराब इतनी देर-पा नहीं होती
नश'अ और ही कुछ है बावक़ार आंखों का
किस तरह मैं ठुकरा दूँ तुम ही कुछ कहो जाफर
दावतें हैं नज़रों की इन्केसार आंखों का
************************
आरजूओं का जहाँ हैं आँखें
तशना ख्वाबों की ज़बां हैं आँखें
भीग जाएँ तो समंदर कहिये
वरना साहिल की फुगाँ हैं आँखें
ये नहीं हैं तो जहाँ है तारीक
दौलते- माहवशां आँखें
जिनमें गुम हो गया माजी मेरा
कौन जाने वो कहाँ हैं आँखें
कैसे गम अपना छुपाये कोई
तर्जुमाने-दिलो-जाँ हैं आँखें
क्या हुआ आपको जाफर साहब
किस लिए अश्क-फ़िशां हैं आँखें
******************
अपने दामन में लिए शहरे तमन्ना ऑंखें
देखती रहती हैं दुनिया का तमाशा आँखें
यादें बादल की तरह ज़ेह्न पे छा जाती हैं
और अश्कों का बहा देती हैं दरया आँखें
दूर से इन पे समंदर का गुमाँ होता है
पास आने पे नज़र आती हैं तशना आँखें
इनमें सुर्खी भी, सियाही भी, सफेदी भी है
हू-ब-हू अक्स हैं तिरबेनी का गोया आँखें
आँखें मिलती हैं तो बढ़ जाता है कुछ और भी गम
लोग कहते हैं के होती हैं मसीहा आँखें
काम लेते हो हर इक लम्हा तुम इनसे जाफर
हो न जाएँ कहीं बाज़ार में रुसवा आँखें
****************
'चाँद के पत्थर' (1970) काव्य-संग्रह से साभार

रसलीन और बिहारी के दोहे / काव्यानुवाद

अमी, हलाहल, मद भरे, स्वेत, श्याम, रतनार
जियत, मरत, झुकि-झुकि परत, जिहि चितवत इक बार
आबे-हयात, ज़हरे-हलाहल, शराबे-नाब
छलके है चश्मे-सुर्खो-सियाहो-सफ़ेद से
जी उट्ठे, जाँ हलाक करे, खो दे अक़्लो-होश
जिसकी तरफ़ वो शोख़, नज़र भरके देख ले
************
कहत, नटत, रीझत,खिजत, हिलत-मिळत, लजियात
भरे भौन में करत हैं , नयनन ही तें बात
असरार, ज़िद, फ़रेफ्त्गी , खफ़्गिए-कमाल
इजहारे-इश्क, शर्मो-हया का मज़ाहिरा
खुर्दो-कलां हैं घर में सभी इसके बावजूद
जारी है गुफ्तुगू का निगाहों से सिलसिला
************
; शैलेश ज़ैदी

सोमवार, 16 जून 2008

प्रतिष्ठित कुरआन की सूरह 'अल-अस्र' का काव्यानुवाद / शैलेश ज़ैदी

युगों का साक्ष्य देकर कह रहा हूँ मैं
कि है सम्पूर्ण मानव-जाति घाटे में
बचे हैं बस वही,प्रतिबद्ध जिनकी आस्थाएं हैं
सजग हैं कर्म के प्रति जो
ह्रदय की पूरी निष्ठा से
किसी क्षण जो, कभी सच्चाइयों के मार्ग से
विचलित नहीं होते
परिस्थितियाँ भले प्रतिकूल हों,
जो धैर्य मन का खो के, उत्तेजित नहीं होते
युगों का साक्ष्य देकर कह रहा हूँ मैं
कि ऐसे लोग,
घाटों से कभी ग्रंथित नहीं होते.

*****************

बचपन का सैर सपाटा / ज़ोहरा दाऊदी

इस्मत चुगताई को अपने लड़की होने का दुःख पहली बार आगरे की गलियों में हुआ जब लड़कों की तरह उछल-कूद करने और कुलांचें भरने पर पास-पड़ोस और सगे संबंधियों के आक्रोश और टीका टिप्पणियों का निशाना उनको अपनी अम्मा के माध्यम से बनना पड़ा.
मुझे अपने लड़की या बिहारी महिलाओं की शब्दावली में 'बेटी-ज़ात' होने का आभास और दुःख छे वर्ष की अवस्था में पहली बार बग्घी गाड़ी पर बैठने के क्षणों में हुआ.
पटना से नगर नह्सा अपने ननिहाल जाते हुए मुझे बंद बग्घी गाड़ी पर अम्माँ के साथ बैठना पड़ा. भइया ऊपर कोचवान के साथ ठाठ से बैठे. और तो और कोचवान के हाथ से चाबुक लेकर मुझे जलाने के लिए बार-बार उसे लहराते भी थे. मैं ने भइया के साथ बैठने की ज़िद की तो अम्माँ की दांत पड़ी कि कहीं बेटी ज़ात भी लड़कों की तरह कोचवान के साथ बैठते अच्छी लगती है. तभी मैं ने दिल से प्रार्थना की कि अल्लाह मुझे लड़की से लड़का बना दे कि बग्घी की छत पर कोचवान के बराबर बैठ कर चाबुक लहरा सकूं. लेकिन तुरत ही अपनी इस प्रार्थना की स्वीकृति की संभावनाओं से दिल दहल उठा. अगर जो समुच में अल्लाह ने लड़का बना दिया तो फिर भइया की तरह पढ़ना पड़ेगा और पाठ याद न होने की स्थिति में या जी लगा कर न पढने पर पिटाई. क्योंकि उस छोटी सी उम्र में भी इतनी बात तो पता थी ही कि मैं चूँकि लड़की हूँ इस लिए ज़्यादा पढ़ाई लिखाई ज़रूरी नहीं है.बड़ी हुई, शादी हुई और वारे-नियारे हुए. अच्छे 'भाग' और अच्छे 'पति-परमेश्वर' की कृपा से. उन दिनों पैदाइश के साथ ही यह पाठ भी लड़की को पढाया जाता था.
बेटी ज़ात को नोकरी थोडी करना है जो सुबह शाम उसे पढाने के लिए लेकर बैठ जाती हो ? मेरी फुफियाँ अम्माँ को शर्म दिलाया करतीं. सो पढ़ने से जान तो न बचती थी कि अम्माँ को भी धुन थी कि बेटी पढ़-लिख कर कुछ बन जाय. लेकिन भइया की तरह पिटाई भी न होती थी. इसलिए मैं ने मन की पूरी गहराई के साथ पहली प्रार्थना में यह परिवर्तन किया कि अल्लाह बग्घी गाड़ी में बैठने के वक्त मुझे लड़का बना दे ताकि भइया की बराबरी और कोचवान की निकटता प्राप्त हो सके और पढने के वक्क्त लड़की रहने दे कि पिटाई से बच सकूं. पता नहीं फरिश्तों ने किस उकताहट में मेरी दोनों प्रार्थनाएं नोट कीं कि अल्लाह मियाँ के यहाँ ये कुछ उलटी-सीधी होकर पहुंचीं. स्वीकृति तो प्राप्त हुई, मगर लड़की होने का खमियाज़ा तो आम लड़कियों और फिर औरतों की तरह भुगतना ही पड़ा, लेकिन लड़कों की तरह पापड़ बेल कर पढ़ाई और फिर मर्दों की तरह कमाई भी करनी पड़ी. अशरफ भइया जो आगे चलकर कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया के प्रथम पंक्ति के मार्गदर्शकों में शुमार हुए मुझ पर बड़ा रॉब झाडा करते थे. एक तो बेटा ज़ात दूसरे उम्र में मुझसे बड़े.अम्माँ की नज़रों में उन्हें मुझपर दुहरी वरीयता प्राप्त थी. पढाते तो मुझे ख़ाक न थे लेकिन पढाने के नाम पर अपने ज्ञान का रोब ज़रूर डालते थे. एक बार मुझे नीचा दिखाने के लिए अचानक मेरी परीक्षा ले ली.
'अच्छा बताओ - भेड़ और भेडिया में क्या अन्तर है ?
डर के मारे मेरी जान निकल गई कि अब ग़लत जवाब देने पर अम्माँ से ज़रूर शिकायत होगी कि जी लगा कर पढ़ती भी नहीं है. अपनी समझ से मजाक में बात टालने के ख़याल से मैं ने कहा -
'भेडिया खाता है, भेड़ खाते हैं.'
उम्मीद के बिल्कुल विपरीत भइया बहुत खुश हुए और खूब ही खूब शाबाशी दी. शायद भइया को अपने स्कूल के मास्टरों पर रोब जमाने के लिए अच्छा सा वाक्य हाथ लग गया था.
होनी कुछ ऐसी हुई कि यही तीखे कंटीले भइया मेरे राजनीतिक गुरु भी बने. मार्क्स का कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो मैं ने पहली बार उन्हीं की पुस्तकों में से चुराकर पढ़ा और जब उसका एक-एक शब्द मन और मस्तिष्क में घर करने लगा तो मैं ने सच्चे अर्थों में भइया की वरीयता स्वीकार कर ली. यद्यपि इस वरीयता की बुनियाद न उनका लड़का ज़ात होना था न उम्र में मुझ से बड़ा होना. क्योंकि बड़कपन अक्ल से आता है न कि उम्र से. मज़े की बात यह है कि तब से लेकर आज तक मैं उनकी वरिष्टता, योग्यता और श्रेष्ठता को मानती चली आ रही हूँ.
उर्दूनामा से साभार रूपांतरित : परवेज़ फ़ातिमा

पसंदीदा शायरी / क़तील शिफ़ाई

तीन ग़ज़लें
[ १ ]
मंज़र समेट लाये हैं जो तेरे गाँव के
नींदे चुरा रहे हैं वो झोंके हवाओं के
तेरी गली से चाँद ज़ियादा हसीं नहीं
कहते सुने गए हैं मुसाफ़िर ख़लाओं के
पल भर को तेरी याद में धड़का था दिल मेरा
अब दूर तक भंवर से पड़े हैं सदाओं के
ज़ादे-सफर मिली है किसे राहे-शौक़ में
हमने मिटा दिए हैं निशाँ अपने पाँव के
जब तक न कोई आस थी ये प्यास भी न थी
बेचैन कर गये हमें साए घटाओं के
हमने लिया है जब भी किसी राह्ज़न का नाम
चेहरे उतर गये हैं कई रहनुमाओं के
उगलेगा आफताब कुछ ऐसी बला की धुप
रह जायेंगे ज़मीन पे कुछ दाग छाँव के
जिंदा थे जिन की सर्द हवाओं से हम 'क़तील'
अब ज़ेरे-आब हैं वो जज़ीरे वफ़ाओं के
[ 2 ]
राब्ता लाख सही काफिला-सालार के साथ
हम को चलना है मगर वक्त की रफ़्तार के साथ
ग़म लगे रहते हैं हर आन खुशी के पीछे
दुश्मनी धूप की है सायए-दीवार के साथ
किस तरह अपनी मुहब्बत की मैं तक्मील करूँ
गमे-हस्ती भी तो शामिल है गमे-यार के साथ
लफ्ज़ चुनता हूँ तो मफ़हूम बदल जाता है
इक-न-इक खौफ भी है जुरअते -इजहार के साथ
दुश्मनी मुझ से किए जा मगर अपना बनकर
जान ले ले मेरी सैयाद मगर प्यार के साथ
दो घड़ी आओ मिल आयें किसी गालिब से 'क़तील'
हजरते-'जौक' तो वाबस्ता हैं दरबार के साथ
[ 3 ]
रंग जुदा, आहंग जुदा, महकार जुदा
पहले से अब लगता है गुलज़ार जुदा
नग्मों की तख्लीक का मौसम बीत गया
टूटा साज़ तो हो गया तार से तार जुदा
बेज़ारी से अपना-अपना जाम लिये
बैठा है महफ़िल में हर मैख्वार जुदा
मिला था पहले दरवाज़े से दरवाज़ा
लेकिन अब दीवार से है दीवार जुदा
यारो मैं तो निकला हूँ जाँ बेचने को
तुम अब सोचो कोई कारोबार जुदा
सोचता है इक शायर भी, इक ताजिर भी
लेकिन सबकी सोच का है मेआर जुदा
क्या लेना इस गिरगिट जैसी दुनिया से
आए रंग नज़र जिसका हर बार जुदा
किस ने दिया है सदा किसी का साथ 'क़तील'
हो जाना है सबको आखिरकार जुदा
*************************

रविवार, 15 जून 2008

किशवर नाहीद की दो ग़ज़लें

[ 1 ]
हसरत है तुझे सामने बैठे हुए देखूं
मैं तुझसे मुखातिब हो तेरा हाल भी पूछूँ
दिल में है मुलाक़ात की ख्वाहिश की दबी आग
मेंहदी लगे हाथों को छुपा कर कहाँ रक्खूँ
जिस नाम से तूने मुझे बचपन से पुकारा
इक उम्र गुजरने पे भी वो नाम न भूलूं
तू अश्क ही बन के मेरी आंखों में समा जा
मैं आइना देखूं तो तेरा अक्स भी देखूं
पूछूँ कभी गुन्चों से, सितारों से, हवा से
तुझसे ही मगर एक तेरा नम न पूछूँ
ऐ मेरी तमन्ना के सितारे तू कहाँ है
तू आये तो ये जसम शबे-गम को न सौंपूँ
[ 2 ]
कहानियाँ भी गयीं, किस्सा-ख्वानियाँ भी गयीं
वफ़ा के बाब की सब बेज़ुबानियाँ भी गयीं
वो बेज़याबिए-ग़म की सबील भी न रही
लुटा यूं दिल के सभी बेसबातियाँ भी गयीं
हवा चली तो हरे पत्ते सूख कर टूटे
वो सुब्ह आई तो हैराँनुमाइयां भी गयीं
ये मेरा चेहरा मुझे आईने में अपना लगे
इसी तलब में बदन की निशानियाँ भी गयीं
पलट-पलट के तुम्हें देखा पर मिले ही नहीं
वो अहदे-ज़ब्त भी टूटा, शिताबियाँ भी गयीं
मुझे तो आँख झपकना भी था गराँ लेकिन
दिलो-नज़र की तसव्वुर-शिआरियाँ भी गयीं
*****************************

शैलेश ज़ैदी के दोहे

गंगा में स्नान से जब धो आया सारे पाप
जज साहब ! फिर पापी को क्यों दंड सुनाते आप
ईश्वर ने कब किया आपको न्यायाधीश नियुक्त
उसके न्यायलय में होंगे आप भी कल अभियुक्त
निर्दोशी हैं दण्डित होते दोषी फिरें स्वतंत्र
न्यायालय में नित्य हुआ करते ऐसे षड़यंत्र
आरक्षण ने बदला जब कुछ दलितों का संसार
ठाकुर के भी बाप बन गये वह पाकर अधिकार
दहशतगर्दी धर्म है, या है धर्म ही दहशतगर्द
दोनों में मुखरित रहते हैं कुछ कुत्सित नामर्द
अमेरिका ने छेड़ दिया ईराक में जब संगीत
क़व्वाली पर मग्न हुए बुश के सहधर्मी मीत
वामपंथ से जिस दिन से जुड़ गए हैं घर के लोग
नित्य लगाते चाओमीन, बर्गर, पिज़्ज़ा का भोग
पहली है अभिशाप, दूसरी पत्नी है सम्मान
दो विवाह करना भारत में मार्क्सवाद की शान
बच्चे नित्य मदरसों में पढ़ते कुरआन मजीद
मुसलमान हैं फ़ाक़ा करते मुल्लाओं की ईद
सर पर टोपी मढ़कर, ताज़ा कर लिया दीन-ईमान
दौडे-भागे मस्जिद आये, सुन ली जब भी अज़ान
हज को गए थे सोंचके बख्शेगा अल्लाह गुनाह
वापस आकर फिर अपनाली, वही पुरानी राह
रामचंद्र जी का जन्मस्थल दशरथ का प्रासाद
और बाबरी मस्जिद बन गई, जन्मस्थली विवाद
राजपूत अब कथा बांचते, पंडित सेनाध्यक्ष
राजनीति ने जन्म दिया है कलजुग को, प्रत्यक्ष
होती है हर कृष्ण की राधा, मान लो ये सच भाई
अपनी राधा को खुश रक्खो, खाओ दूध मलाई
***************************