सोमवार, 8 सितंबर 2008

मैं तन्हा हूँ, नहीं भी हूँ.


मैं तनहा हूँ , नहीं भी हूँ
के मेरा ज़हन खाली एक पल को भी नहीं रहता
न जाने किन खयालों के सफरनामे
हमेशा सामने रहते हैं जिनको पढता रहता हूँ.
समंदर के मनाज़िर,
शोरिशें,
मौजों की बर्क-आमेज़ तक़रीरें,
रुपहले, रूई जैसे नर्म
मजनूं बादलों के रक्स की थिरकन,
फजाओं से उभरती ताएरों की जानी-पहचानी,
मगर, बेलौस आवाजें
मैं सुनता हूँ
मुझे महसूस होता है
के मैं खामोश-लब, बे-ख्वाब आँखें, मुन्जमिद चेहरा
हथेली पर लिए
बज्मे-तरब में बेहिसो-बेजान बैठा हूँ.
अचानक सारी आवाजें बदल जाती हैं शोलों में
हरारत दौड़कर माहौल के शाने हिलाती है
मुझे भी छू के आहिस्ता से कुछ कहती है कानों में
मेरी बे-ख्वाब आंखों में उतर आतें हैं फिर से ख्वाब
होंठों पर हरारत के लबों का लम्स पाकर
मुनजमिद चेहरे में एक तहरीक सी होती है
ख़ुद को ज़िंदगी के खुश्नावा आहंग से लबरेज़ पाता हूँ
मैं तनहा हूँ, नहीं भी हूँ.
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रविवार, 7 सितंबर 2008

तुझे भी लौट के जाना है / कमलेश भट्ट 'कमल'

तुझे भी लौटके जाना है दूर घर अपने।
संभल के खोल ज़रा आँधियों में पर अपने।
जुलूस में तू अगर साथ भी न आ पाये,
जहाँ भी है तू वहीं से मिला दे स्वर अपने।
तभी तो सोच सकेगा सही-ग़लत क्या है,
गरीब पेट से उबरे कभी अगर अपने।
वो आसमान उठाने की बात करते हैं,
उठा पाये कभी ठीक से जो सर अपने।
मैं ख़ुद को पाता हूँ हर दिन नए से जंगल में,
अजीब किस्म के होते हैं रोज़ डर अपने।
सभी ने ख़ुद ही लड़ी हैं लडाइयां अपनी,
तुझे भी लड़ने पड़ेंगे सभी समर अपने।
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के. एल. 154, कवि नगर
गाजियाबाद, 201002

गली के मोड़ पर है धूप / विष्णु स्वरुप त्रिपाठी

गली के मोड़ पर है धूप नज़रें तो ज़रा डालें।
चलें चलकर वहाँ सीलन भरे सपने सुखा डालें।
बना सकते नहीं जो झोंपड़ों पर फूस के छप्पर ,
वही नारे लगाते हैं नई दुनिया बसा डालें।
ये भीगी ज़िन्दगी जो अलगनी पर टांग रक्खी है ,
कहाँ जाकर निचोडें किस तरफ़ दरिया बहा डालें।
अभी चौपाल में कठपुतलियों का नाच जारी है,
चलो अच्छा है इतनी देर तो फ़ाके भुला डालें।
हुआ अफ़सोस सुनकर भूख से फिर मर गया कोई,
न क्यों इस बात का हम ज़िक्र जलसे में उठा डालें।
इधर ये माजरा, लाशें कफ़न तक को तरसती हैं,
उधर ये खेल, चाहे जब नया परचम बना डालें।
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शनिवार, 6 सितंबर 2008

दो-चार पल ही गुज़रे थे

वैंगाफ की प्रसिद्ध पेंटिंग

दो-चार पल ही गुज़रे थे सम्बन्धियों के साथ.
उठना पड़ा वहाँ से हमें तल्खियों के साथ.
ये कैसी आंधियां थीं कि सब कुछ उजड़ गया,
होता है क्यों ये खेल इन्हीं बस्तियों के साथ.
संकोच हर क़दम पे है कुछ बोलते नहीं
जीते हैं अपने देश में पाबंदियों के साथ.
करते रहोगे याचना, पाओगे कुछ नहीं,
अब न्यायाधीश होते हैं अपराधियों के साथ.
निश्चय ही बच न पायेंगे घर के तमाम लोग
तूफ़ान आ गया है नई बिजलियों के साथ.
जालिम नहीं, दर-असल ये बीमार लोग हैं,
इनको बरत के देखो कभी नर्मियों के साथ.
बांटा किये प्रकाश सभी को तमाम उम्र,
निर्वाह कर न पाये तिमिर-जीवियों के साथ.
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शबनम की एक बूँद

ये ज़िन्दगी भी हो गई, शबनम की एक बूँद.
होते ही सुब्ह खो गई, शबनम की एक बूँद.
होकर फ़िदा गुलों के जवाँ-साल जिस्म पर,
मोती सा कुछ पिरो गई, शबनम की एक बूँद.
क्या जानिए शुआओं ने क्या इस से कह दिया
जाकर कहीं पे सो गई, शबनम की एक बूँद.
देखा, तो नम से हो गए मेरे तअस्सुरात,
मुझमें ये क्या समो गई, शबनम की एक बूँद.
आंसू छलक के उसके जो आरिज़ पे आ गए,
इस शहर को डुबो गई, शबनम की एक बूँद।

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[फ़ोटो चित्र : ईलिया]

ये पायल की झंकार / सुनील वाजपेयी

ये पायल की झंकार खरीदोगे ?
या तन का मधुमय सार खरीदोगे ?
बोलो-बोलो मेरी काया के दीवानों,
माटी का ये संसार खरीदोगे ?
भूखे पेटों का प्यार खरीदोगे ?

जबसे मुझमें सावनी घटा लहराई
गलियों हाटों में खूब है मस्ती छाई
भूखी नज़रों के हवस भरे मयखानों
झूठे अधरों के तार खरीदोगे ?
बोलो-बोलो सौदागरों कुछ तो बोलो
मेरे तन का श्रृंगार खरीदोगे ?

वीणा पायल से झंकृत पतझर सावन
खोया-खोया सा लगता सारा आँगन
इनपर सब कुछ बेमोल लुटाने वालो
सम्मान बेचकर हार खरीदोगे ?
बोलो-बोलो मधु प्यास बुझाने वालो
प्यासों नयनों के वार खरीदोगे ?

अल्हड़पन में हो गया अपावन यौवन
जीवन भर को लुट गया कमाई का धन
खोखले बदन का चषक उठाने वालो
विष में डूबा अंगार खरीदोगे ?
बोलो-बोलो बदलाव के दावेदारों
ये ढलती सी मीनार खरीदोगे ?

नारी हूँ क्या पद्मिनी नहीं बन सकती
तुम पुरुषों की संगिनी नहीं बन सकती
पौरुष की पद मर्दिता बताने वालो
मेरे अन्तर का ज्वार खरीदोगे ?
बोलो-बोलो सर्वस्व लुटाने वालो
मेरा चिर अंगीकार खरीदोगे ?
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शुक्रवार, 5 सितंबर 2008

समंदर और साहिल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा


बहोत उदास सा, मगमूम सा ये मंज़र है
दरख्त ऐसे खड़े हैं खमोश, गोया इन्हें
कहीं खलाओं में पोशीदा, तेज़ तूफाँ के
ज़मीं पे आके तबाही मचाने का डर है.
ये साहिलों का तड़पता, गरीब सन्नाटा
ज़बान से जो समंदर की खूब वाकिफ है
अभी-अभी इसे समझाया है समंदर ने
कि दूर-दूर से आए शगुफ्ता चेह्रों को
खला में होती हुई साजिशों का कोई पता
किसी भी तर्ह, किसी पल न तुम बताओगे
किया जो ऐसा तो ख़ुद को कहीं न पाओगे
तुम्हारे सीने में पेवस्त ऐसा खंजर है
जो टूट जाए अगर, आसमान टूट पड़े.
तबाहियों का मुकम्मल जहान टूट पड़े.
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[छाया-चित्र : सैयद, कैलिफोर्निया]

दूध जैसा झाग / हसन अकबर कमाल

दूध जैसा झाग, लहरें, रेत, प्यारी सीपियाँ।
कैसा चुनती फिर रही हैं मोतियों सी लड़कियाँ।
बाग़ में बच्चों के गिर्दो-पेश मंडलाती हैं यूँ
जैसे अपना, अपना क़ातिल ढूँढती हों तितलियाँ।
वो मुझे खुशियाँ न दे और मेरी आँखें नम न हों,
है ये पैमा ज़िन्दगी के और मेरे दरमियाँ।
बामो-दर उनके हवा किस प्यार से छूती रही,
चाँदनी की गोद में जब सो रही थीं बस्तियाँ।
कल यही बच्चे समंदर को मुकाबिल पायेंगे,
आज तैराते हैं जो कागज़ की नन्ही कश्तियाँ।
घूमना पहरों घने महके हुए बन में कमाल।
वापसी में देखना अपने ही क़दमों के निशाँ।
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वो अपरिचित भी नहीं है / शैलेश ज़ैदी

वो अपरिचित भी नहीं है और परिचित भी नहीं।
जानता हूँ मैं उसे, पर हूँ सुनिश्चित भी नहीं।
उसने भिजवाई थी मुझको सूचना, घर आएगा,
कैसे मैं स्वागत करुँगा, घर व्यवस्थित भी नहीं।
मानता हूँ मैं कि उसपर है भरोसा कम मुझे,
किंतु उसकी ओर से मन कुछ सशंकित भी नहीं।
ये समस्याएँ तो होती हैं सभी के सामने,
इन समस्याओं से मैं किंचित प्रभावित भी नहीं।
सोचता हूँ मैं कि यह सम्मान क्यों मुझको मिला,
मैं तो अपने देश में कुछ ऐसा चर्चित भी नहीं।
जिनका है सम्पूर्ण जीवन लांछनाओं से भरा,
देखता हूँ मैं कि वे नेता कलंकित भी नहीं।
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जय हिन्दी, जय देवनागरी /मगन अवस्थी

दो शब्द : आज हिन्दी दिवस की क्या उपयोगिता रह गई है, यह एक अलग प्रश्न है। किंतु हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि के अनेक प्रेमी ऐसे हैं जो आज भी इसके प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित हैं। हिन्दी के प्रति यही प्रेम इस कविता में द्रष्टव्य है। [शैलेश ज़ैदी]
जय हिन्दी जय देवनागरी।
जय कबीर, तुलसी की वाणी, मीरा की वीणा कल्याणी।
सूरदास के सागर मंथन, की मणि-मंडित सुधा-गागरी।

जय रसखान, रहीम रसभरी, घनानंद, मकरंद, मधुकरी।
पदमाकर, मतिराम, देव के, प्राणों की मधुमय विहाग री।

भारतेंदु की विमल चाँदनी, रत्नाकर की रश्मि मादनी।
भक्ति, ज्ञान और कर्म-क्षेत्र की, भागीरथी भुवन उजागरी।

जय स्वतंत्र भारत की आशा, जय स्वतंत्र भारत की भाषा।
भारत जननी के मस्तक की, श्री शोभा कुमकुम सुहाग री।
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