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शनिवार, 6 सितंबर 2008

शबनम की एक बूँद

ये ज़िन्दगी भी हो गई, शबनम की एक बूँद.
होते ही सुब्ह खो गई, शबनम की एक बूँद.
होकर फ़िदा गुलों के जवाँ-साल जिस्म पर,
मोती सा कुछ पिरो गई, शबनम की एक बूँद.
क्या जानिए शुआओं ने क्या इस से कह दिया
जाकर कहीं पे सो गई, शबनम की एक बूँद.
देखा, तो नम से हो गए मेरे तअस्सुरात,
मुझमें ये क्या समो गई, शबनम की एक बूँद.
आंसू छलक के उसके जो आरिज़ पे आ गए,
इस शहर को डुबो गई, शबनम की एक बूँद।

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[फ़ोटो चित्र : ईलिया]