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शुक्रवार, 5 सितंबर 2008

समंदर और साहिल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा


बहोत उदास सा, मगमूम सा ये मंज़र है
दरख्त ऐसे खड़े हैं खमोश, गोया इन्हें
कहीं खलाओं में पोशीदा, तेज़ तूफाँ के
ज़मीं पे आके तबाही मचाने का डर है.
ये साहिलों का तड़पता, गरीब सन्नाटा
ज़बान से जो समंदर की खूब वाकिफ है
अभी-अभी इसे समझाया है समंदर ने
कि दूर-दूर से आए शगुफ्ता चेह्रों को
खला में होती हुई साजिशों का कोई पता
किसी भी तर्ह, किसी पल न तुम बताओगे
किया जो ऐसा तो ख़ुद को कहीं न पाओगे
तुम्हारे सीने में पेवस्त ऐसा खंजर है
जो टूट जाए अगर, आसमान टूट पड़े.
तबाहियों का मुकम्मल जहान टूट पड़े.
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[छाया-चित्र : सैयद, कैलिफोर्निया]