दूध जैसा झाग, लहरें, रेत, प्यारी सीपियाँ।
कैसा चुनती फिर रही हैं मोतियों सी लड़कियाँ।
बाग़ में बच्चों के गिर्दो-पेश मंडलाती हैं यूँ
जैसे अपना, अपना क़ातिल ढूँढती हों तितलियाँ।
वो मुझे खुशियाँ न दे और मेरी आँखें नम न हों,
है ये पैमा ज़िन्दगी के और मेरे दरमियाँ।
बामो-दर उनके हवा किस प्यार से छूती रही,
चाँदनी की गोद में जब सो रही थीं बस्तियाँ।
कल यही बच्चे समंदर को मुकाबिल पायेंगे,
आज तैराते हैं जो कागज़ की नन्ही कश्तियाँ।
घूमना पहरों घने महके हुए बन में कमाल।
वापसी में देखना अपने ही क़दमों के निशाँ।
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शुक्रवार, 5 सितंबर 2008
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