मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

तुम्हारे दिल में हैं लेकिन शरीके-ग़म हैं वहाँ

तुम्हारे दिल में हैं लेकिन शरीके-ग़म हैं वहाँ ।
उपनिषदों में तलाशो हमें के हम हैं वहाँ ॥

बलंदियाँ वो जिन्हें पाने की तमम्ना है।
हमारे जैसों के कितने ही सर क़लम हैं वहाँ ॥

न तुम से पार कभी होगा इश्क़ का दरिया।
के तश्नालब कई गिर्दाबे-चश्मे-नम हैं वहाँ॥

वो जंगलात जहाँ क़ैस का बसेरा है,
वहाँ न जाना, हज़ारों ही पेचो-ख़म हैं वहाँ॥

तलाश जारी है सी मुर्ग़ की परिन्दों में,
ये जानते हुए ख़तरात दम-ब-दम हैं वहाँ॥

बशर के रिश्ते से मेराजे-अब्दहू हैं हम,
रुबूबियत है जहाँ मिस्ले-नूर ज़म हैं वहाँ॥

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

फ़िरऔन मिलते रहते हैं मूसा कहीं नहीं

फ़िरऔन मिलते रहते हैं मूसा कहीं नहीं ।
इज़हारे-हक़ की आज तमन्ना कहीं नहीं॥

छोटी बड़ी हैं कितनी महाभारतें यहाँ,
तीरों से छलनी भीष्म पितामा कहीं नहीं॥

दुर्योधनों के क़ब्ज़े में है द्रोपदी का हुस्न,
मुश्किल-कुशाई के लिए कान्हा कहीं नहीं॥


लैलाएं महमिलों में हैं तस्वीरे-इज़्तेराब,
खोया है जिसमें क़ैस वो सहरा कही नही॥

मिट जाये उसके और मेरे दर्मियाँ का फ़र्क़,
मेरी हयात में ये करिश्मा कहीं नहीं ॥
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फ़िरऔन=मिस्र का अहंकारी सम्राट जिस् ने ख़ुदाई का दावा किया।मूसा= मुसलमानों और ईसाइयों के नबी और यहूदियों के पथ-प्रदर्शक जिन्होंने फ़िरऔन का सर्वनाश किया।,इज़हारे-हक़=सत्य की अभिव्यक्ति । मुश्किलकुशाई=सकट दूर करना । महमिलों=ऊँट पर बाँधने की वह डोली जिसमें स्त्रियाँ बैठती हैं। क़ैस=मजनूं । सहरा=जगल ।

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

लौट कर आयी थी यूं मेरी दुआ की ख़ुश्बू

लौट कर आयी थी यूं मेरी दुआ की ख़ुश्बू ।

दिल को महसूस हुई उसकी सदा की ख़ुश्बू॥

रेग़ज़ारों में नज़र आया जमाले-रुख़े-यार,

कोहसारों में मिली रंगे-हिना की ख़ुश्बू॥

हम ने देखा है सराबों में लबे-आबे-हयात,

माँ की शफ़्क़त में है मरवाओ-सफ़ा की ख़ुश्बू॥

लज़्ज़ते-हुस्न की मुम्किन नहीं कोई भी मिसाल,

लज़्ज़ते-हुस्न में होती है बला की ख़ुश्बू॥

पलकें उठ जयें तो बेसाख़्ता बिजली सी गिरे,

पलकें झुक जायें तो भर जाये हया की ख़ुश्बू॥

हुस्ने-मग़रूर पे छा जाये मुहब्बत का ख़ुमार,

दामने-इश्क़ से यूं फूटे वफ़ा की ख़ुश्बू॥

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रेगज़ारों=मरुस्थलों, जमाले-रुखे-यार=महबूब का रूप-सौन्दर्य,

कोहसारों=पहाड़ों, रंगे-हिना=मेहदी का रग, लज़्ज़ते-हुस्न=सौन्दर्य का आस्वादन, बे-साख्ता=सहज,

हुस्ने-मगरूर=घमंडी सौन्दर्य,

नज़र में हर सम्त बस उसी की है जलवासाज़ी

नज़र में हर सम्त बस उसी की है जलवासाज़ी।
ये दुनिया इन्साँ की ज़िन्दगी की है जलवासाज़ी॥

फ़रेफ़्ता अपने हुस्न पर है वुजूद उसका,
निगारिशे-दोजहाँ, ख़ुदी की है जलवा साज़ी॥

तमाम अशया के सीनों से फूटते हैं नगमे,
किसी के हुस्ने-सुख़नवरी की है जलवासाज़ी॥

ख़याल-आरास्ता हैं नक़्शो-निगारे-ग़ालिब,
वो मीर हैं जिनमें सादगी की है जलवासाज़ी॥

सुनो ये आफ़ाक़-लब हक़ीक़त का है फ़साना,
उफ़क़-उफ़क़ साज़े-दिलबरी की है जलवासाज़ी॥
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हर सम्त=प्रत्येक दिशा, जलवसाज़ी=सौन्दर्यपूर्ण उपस्थिति, फ़रेफ़्ता=मुग्ध, वुजूद=अस्तित्त्व,अशया=वस्तुएं, हुस्ने-सुख़नवरी=काव्य-सौन्दर्य,ख़याल-आरास्ता=कल्पनासे सुसज्जित, नक़्शो-निगार=चित्रांकन, आफ़क़-लब-हक़ीक़त=विश्वमुखर सत्य,उफ़क़=क्षितिज, नायिकत्त्व-युक्त वाद्य

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

सुना है उसके शबो-रोज़ उससे पूछते हैं

सुना है उसके शबो-रोज़ उससे पूछते हैं।
जहाँ में उसके हैं क्या क्या करिश्मे पूछते हैं॥

सुना है उसको ग़ुरूर अपने हुस्न पर है बहोत,
हमी नहीं, उसे दिन रात कितने पूछते हैं॥

सुना है उसके ही जलवे हैं सारे आलम में,
रुमूज़े-इश्क़ है क्या ज़र्रे-ज़र्रे पूछते हैं॥

सुना है रातों को भी नीन्द उसे नहीं आती,
जभी तो उसको हमेशा उजाले पूछते हैं॥

सुना है सारे गुनाहों को बख़्श देता है,
करीम है वो जभी उसको बन्दे पूछते हैं॥
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गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

सूरज की शुआएं शायद थीं आसेब-ज़दा

सूरज की शुआएं शायद थीं आसेब-ज़दा ।

डर था के न हम हो जायें कहीं आसेब-ज़दा॥

हम कुछ बरसों से सोच के ये बेचैन से हैं,

आते हैं नज़र क्यों मज़हबो-दीं आसेब-ज़दा ॥

ये वक़्त है कैसा गहनाया गहनाया सा,

फ़िकरें हैं सभी अफ़्सुरदा-जबीं आसेब-ज़दा ॥

तख़ईल के चूने गारे से तामीर किया,

हमने जो मकाँ, हैं उसके मकीं आसेब-ज़दा ॥

महफ़ूज़ नहीं कुछ द्श्ते-बला के घेरे में,

हैराँ हूँ के हैं अफ़लाको-ज़मीं आसेब-ज़दा ॥

नाहक़ हैं परीशाँ-हाल से क्यों जाफ़र साहब,

इस दुनिया में कुछ भी तो नहीं आसेब-ज़दा॥

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मैं देखता रहूं ता-उम्र जी नहीं भरता

मैं देखता रहूं ता-उम्र जी नहीं भरता।

पियाला शौक़ का शायद कभी नहीं भरता॥

सुपुर्दगी के है जज़बे में बे-ख़ुदी का ख़मीर,

शुआए-ज़ीस्त में रंगे- ख़ुदी नहीं भरता ॥

सफ़ीना ख़्वाबों का ग़रक़ाब हो भी जाये अगर,

मैं आह कोई कभी क़त्तई नहीं भरता ॥

न रख के आता मैं सर मयकदे की चौखट पर,

तो आज साक़ी मेरा जाम भी नहीं भरता ॥

जो ज़र्फ़ ख़ाली है कितनी सदाएं देता रहे।

हवा भरी हो जहाँ कुछ कोई नहीं भरता॥

अना ये कैसी है जो कर रही है तनहा मुझे,

मैं अपनी ज़ात में क्यों सादगी नहीं भरता॥

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सुना है नरग़ए-आदा है रेगज़ारों में

सुना है नरग़ए-आदा है रेगज़ारों में ।
ये कौन यक्कओ-तन्हा है रेगज़ारों में॥

छुपा है सहरानवर्दी में एक आलमे-इश्क़,
बरहना ख़ुश्बुए-लैला है रेगज़ारों में ॥

सुकून-बख़्श नहीं घर के ये दरो-सीवार,
हमार ज़ह्न भटकता है रेगज़ारों में ॥

वो फ़तहयाब हुआ फिर भी हो गया रुस्वा,
वो सर कटा के भी ज़िन्दा है रेगज़ारों में॥

हयात मौत का लुक़्मा बने तो कैसे बने,
कोई तो है जो मसीहा है रेगज़ारों में ॥

समन्दरों का सफ़र कर रहा है मुद्दत से,
वो इन्क़लाब जो प्यासा है रेगज़ारों में ॥

वो एक दरया है क्या जाने रेगे-गर्म है क्या,
उसे तो होके निकलना है रेगज़ारों में ॥

दरख़्त ऐसा है जिसकी जड़ें फ़लक पर हैं,
मगर वो फूलता फलता है रेगज़ारों में ॥
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बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

जहान सिमटा हुआ है लफ़्ज़ों के दायरे में

जहान सिमटा हुआ है लफ़्ज़ों के दायरे में।
हक़ीक़तें मुनकशिफ़ हैं आंखों के दायरे में॥

न जाने क्या ख़ुबियाँ हैं उस में के वो हरेक को,
अज़ीज़तर है तमाम रिश्तों के दायरे में॥

हज़ारों तूफ़ान क़ैद होकर मचल रहे हैं,
फ़सुर्दा बे-ख़्वाब चन्द लमहों के दायरे में॥

वो हादसा कैस था के कोशिश के बाद भी मैं,
समेट पाया न उसको यादों के दायरे में,

फ़ज़ा में ज़र्रात आँधियों का सहारा ले कर,
हमें उड़ायेंगे कल हुयोलों के दायरे में॥

अजब ये मौसीक़ि कुर्सियों की है दौड़ जिसमें,
हुकूमतें आ गयी हैं बच्चों के दायरे में ॥
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लुत्फ़े-दर्दे-लादवा रानाइए-असरारे-ज़ीस्त्

लुत्फ़े-दर्दे-लादवा रानाइए-असरारे-ज़ीस्त्।
इश्क़ की जौलानियाँ हैं पर्तवे- पिन्दारे-ज़ीस्त्॥

शर्हे-मुश्ते-ख़ाक में सह्रा-नवर्दी का है शोर,
कुछ नहीं जोशे-जुनूं जुज़ मत्लए-अनवारे-ज़ीस्त्॥

बे सरोसामानियाँ जब तक रहेंगी हम-सफ़र,
दम-ब-दम होती रहेगी मौत से तकरारे-ज़ीस्त्॥

ख़्वाहिशों की कश्मकश में तय किये कितने पड़ाव,
मुख़्तसर है यूं तो कहने को बहोत मक़दारे-ज़ीस्त्॥

ख़ाके-ख़िर्मन बर्क़ से क्या मांगती नेमुलबदल,
आशनाए-उल्फ़ते-हस्ती न था गुल्ज़ारे-ज़ीस्त्॥

ज़िन्दगी से तोड़ कर रिश्ता जुनूँ के जोश में,
हम लुटा बैठे मताए-ताक़ते-दीदारे-ज़ीस्त्॥

किस भरोसे पर उठाएं ग़म की साँसों का ये बोझ,
इक तरफ़ जीने की ख़्वाहिश इक तरफ़ कुहसारे-ज़ीस्त्॥
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लुत्फ़=आनन्द, दर्दे-लादवा=वह पीड़ा जिसकी चिकित्सा सभव न हो, रानाइए-असरारे-ज़ीस्त=जीवन के रहस्यों का सौन्दर्य,जौलानियाँ=स्फूर्ति, पर्तवे-पिन्दारे-ज़ीस्त= जीवन परिकल्पना की छाया, शर्हे-मुश्ते-ख़ाक= एक मुटठी धूल की व्याख्या,सहरानवर्दी=जगल-जगल मारे फिरना, जोशे-जुनूं=दीवनगी का उत्साह, मतलए-अनवारे-ज़ीस्त=जीवनक्षितिज का प्रकाश, बे-सरो-सामनियाँ=अस्तव्यस्तताएं, तकरारे-ज़ीस्त=जीवन का टकराव, ख़ाके-ख़िर्मन=घोंसले की राख, बर्क़=बिजली, नेमुल-बदल=बदले में वैसा ही,आशनाए-उल्फ़ते-हस्ती=अस्तित्त्व के प्रेम से परिचित,मताए-ताक़ते-दीदारे-ज़ीस्त=जीवन से साक्षात्कार की पूंजी, कुह्सारे-ज़ीस्त=पहाड़ रूपी जीवन्।