शनिवार, 22 नवंबर 2008

कहीं अन्तर में कर्वट लेते परिवर्तन को पढ़ती हैं.

कहीं अन्तर में कर्वट लेते परिवर्तन को पढ़ती हैं.
ये तूफानी हवाएं मौसमों के मन को पढ़ती हैं.
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हवेली से उतर कर धूप की कुछ टोलियाँ अक्सर,
गरीबों के भी मिटटी वाले घर आँगन को पढ़ती हैं.
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फटे कपडों में उपले पाथती वो सांवली लड़की,
निगाहें उसकी ठोकर खाते अल्ल्हड़पन को पढ़ती हैं.
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जो गीली लकडियाँ मिटटी के चूल्हे में सुलगती हैं,
कभी ख़ुद को, कभी दम तोड़ते ईंधन को पढ़ती हैं.
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उन्हें कुछ भी नहीं मालूम कहते हैं किसे बचपन,
वो चक्की और जाँते में उसी बचपन को पढ़ती हैं.
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शहर से आ के भी, बेचैन हैं, वैधव्य की खबरें,
कभी बिंदिया, कभी चूड़ी, कभी कंगन को पढ़ती हैं.
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ये पीपल पर पड़े झूलों की पेंगें साथ गीतों के,
हवाओं में नशे में झूमते सावन को पढ़ती हैं.
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शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

समंदर की हवाएं अब तरो-ताज़ा नहीं करतीं.

समंदर की हवाएं अब तरो-ताज़ा नहीं करतीं.
कि हंसों की रुपहली जोडियाँ आया नहीं करतीं.
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सितारे आसमानों से उतरते अब नहीं शायद,
ज़मीनें ख्वाब उनके साथ अब बांटा नहीं करतीं.
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घरों के आंगनों में चाँदनी तनहा टहलती है,
कि दोशीज़ाएं उससे हाले-दिल पूछा नहीं करतीं.
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किताबें दो दिलों की दास्तानें तो सुनाती हैं,
मगर बेचैनियों का दर्द समझाया नहीं करतीं.
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कुदालें, फावडे, हल-बैल, हँसिया सब हैं ला-यानी,
हमारी नस्लें अब इनकी तरफ़ देखा नहीं करतीं.
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नहीं बेजानो-बेहरकत कोई सोने की चिड़िया हम,
जभी चालाक कौमें अब हमें लूटा नहीं करतीं.
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मैं ख़ुद को कैसे समझाऊं कि मैं यादों का कैदी हूँ,
मैं कैसे कह दूँ यादें ज़ख्म को गहरा नहीं करतीं.
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दरीचों से भी होकर अब कोई खुशबू नहीं आती,
हुई मुद्दत, ये ठंडी रातें गरमाया नहीं करतीं.
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क्यों इस देश की मिटटी को चंदन का नाम न दें.

क्यों इस देश की मिटटी को चंदन का नाम न दें.
अमर शहीदों के सपनों को क्या अंजाम न दें ?
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सम्भव हो तो बाँट दें सबमें स्वर्णिम नवल प्रभात,
और किसी को ढलता दिन, कजलाई शाम न दें.
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हम वह नेता नहीं जो अपने सुख में जीते हैं,
चने बांटते फिरें, किसी को भी बादाम न दें.
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बंधुआ मजदूरों सा बरतें इस सरकार के लोग,
काम तो दुनिया भर का लें कोई इनआम न दें.
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होरी, धनियाँ, घीसू, माधव, हल्कू जैसे लोग,
लू, ठिठुरन, बदहाली झेलें, कुछ इल्ज़ाम न दें.
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यह कैसी मधुशाला जिसमें हर कोई प्यासा,
लुढ़काई जाये मदिरा पीने को जाम न दें.
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गुरुवार, 20 नवंबर 2008

जुगनुओं सी चमकीली, छोटी-छोटी इच्छाएं.

जुगनुओं सी चमकीली, छोटी-छोटी इच्छाएं.
वह भी कब हुईं पूरी, आयीं ऐसी बाधाएं.
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गाँव की नदी मुझसे, पूछती थी घर मेरा,
मैं न कुछ बता पाया, जाने क्या थीं शंकाएं.
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अबके पाला पड़ने से, नष्ट हो गया सब कुछ,
अब अनाज के बदले, घर में हैं निराशाएं.
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उसने मुझसे पनघट पर, मेरा नाम पूछा था,
मैं जो थोड़ा घबराया, हंस पड़ी थीं बालाएं.
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दूर तक थीं खेतों में, धान की पकी फ़सलें,
यंत्रवत चलाती थीं, यौवनाएं हंसियाएं.
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मेरा नाम ले-ले कर, छेड़ते थे सब उसको,
उसको भी सुहाती थीं, रस भरी ये बर्खाएं.
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आज भी ये पगडण्डी, उसकी बाट तकती है,
जाने किस घड़ी, किस पल,सुख के लम्हे लौट आएं.
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रह गयीं बिछी आँखें, और तुम नहीं आये.

रह गयीं बिछी आँखें, और तुम नहीं आये.
मुज़महिल हुईं यादें, और तुम नहीं आये.
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उसके मांग की अफ़्शां, चाँद की हथेली पर,
रख के सो गयीं किरनें, और तुम नहीं आये.
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ख़त तुम्हारे पढ़-पढ़ कर, चाँदनी भी रोई थी,
नम थीं रात की पलकें, और तुम नहीं आये.
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धूप हो के आँगन से छत पे जाके बैठी थी,
कोई भी न था घर में, और तुम नहीं आये.
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टुकड़े-टुकड़े हो-हो कर, चुभ रही थीं सीने में,
इंतज़ार की किरचें, और तुम नहीं आये.
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नीम पर लटकते हैं, अब भी सावनी झूले,
जा रही हैं बरसातें, और तुम नहीं आये.
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बुधवार, 19 नवंबर 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 9]

[55]

खेलत मैं को काकौ गुसैंयाँ.
हरी हारे, जीते श्रीदामा, बरबस ही कत करत रिसैंयाँ.
जाति-पांति हमते बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैंयाँ.
अति अधकार जनावत यातें, जातें अधिक तुम्हारी गैयाँ.
रूहठि करै तासों को खेलै, रहे बैठि जंह-तंह सब ग्वैंयाँ.
सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाउं दियौ करि नन्द दुहैंयाँ.


खेल में होता नहीं कोई किसी का आक़ा.
जीते श्रीदामा हरी हार गए,
अब ये नाहक़ का है गुस्सा कैसा.
न तुम्हारा है हसब और नसब हमसे बड़ा,
न यहाँ बसता है साए में तुम्हारे कोई,
हक जताते हो फ़क़त इसलिए शायद अपना,
गायें कुछ हमसे ज़ियादा हैं तुम्हारे घर में,
खेल में रोता हो जो उससे कोई क्यों खेले,
ग्वाल सब बैठ गए कह के ये इस जा, उस जा,
‘सूर’ ख्वाहिश है कन्हैया की न हो खत्म ये खेल,
नन्द को अपनी मदद के लिए देते हैं सदा.

[56]

महरि तुम मानौ मेरी बात.
ढूंढि-ढूंढि गोरस सब घर कौं, हप्यो तुम्हारैं तात.
कैसे कहति लियौ छींके तैं, ग्वाल कंध दे लात.
घर नहिं पियत दूध धौरी कौ, कैसे तेरे खात.
असंभाव बोलन आई है, ढीठि ग्वालिनी प्रात.
ऐसो नाहिं अचगरौ मेरो, कहा बनावति बात.
का मैं कहौं, कहति सकुचति हौं, कहा दिखाऊं गात.
हैं गुन बड़े सूर के प्रभु के, ह्यां लरिका ह्वै जात.


"मैं जो कहती हूँ जशोदा जी उसे मान लें आप.
घर के हर गोशे से कर-कर के तलाश,
आपके लाडले बेटे ने उड़ाया मक्खन."
"कैसे मुमकिन है जो तुम कहती हो, सोचो तो सही,
छोटे-छोटे हैं अभी श्याम के हाथ,
वो पहोंच सकते हैं किस तर्ह भला छींके तक ?"
"आप तो सच में जशोदा जी बहोत भोली हैं.
ग्वाल के कन्धों पे चढ़ जाते हैं श्याम.
और हो जाता है उनके लिए आसन ये काम"
"मुझको हैरत है कि घर पर तो कभी,
गाय का दूध भी पीना वो नहीं करता पसंद,
किस तरह तेरे यहाँ जाके, वो खा जाता है!
सुब्ह दम आई है गुस्ताख यहाँ
कहने वो बात जो मुमकिन ही नहीं,
क्यों बनाती है यहाँ बैठके बातें नाहक,
लाडला मेरा कभी ऐसा नहीं हो सकता."
"अब कहूँ क्या मैं कि आती है मुझे कहने में लाज,
हाँ इजाज़त दें तो मैं जिस्म दिखा दूँ अपना,
आपके घर में ये बन जाते हैं बच्चे लेकिन
[ग्वालनों में इन्हें आकर कभी देखें तो सही]
'सूर के श्याम में क्या-क्या हैं सिफ़ात."

[57]

कन्हैया तू नहिं मोहि डरात.
बटरस धरे छांडि कत पर घर, चोरी करि-करि खात.
बकत बकत तोसों परिहारी, नैकहूँ लाज न आई.
ब्रज परगन सिकदार महर, तू ताकी करत नन्हाई.
पूत सपूत भयौ कुल मेरे, अब मैं जानी बात.
सूर स्याम अब्कौ तुहि बकस्यो, हेरी जानी घात.


कन्हैया! मुझसे ज़रा भी तू अब नहीं डरता.
तमाम नेमतें घर में हैं, तू उन्हें तज कर,
चुरा-चुरा के पराये घरों में खाता है.
मैं तुझसे बारहा कह-कह के, थक के हार गई,
मगर न शर्म तुझे आई मुझसे मुतलक भी,
कभी तो सोच ! कि शिक्दारे-परगना हैं मेहर.
तू उनके नाम को छोटा अब इस तरह भी न कर.
सपूत खूब तू निकला है मेरे कुनबे का.
समझ गई मैं अब अच्छी तरह तुझे बेटा.
मैं 'सूर' श्याम तुझे अबके माफ़ करती हूँ.
हर एक घात तेरी खूब मैं समझती हूँ.

[58]

अहो पति ! सो उपाइ कछु कीजै.
जिहिं उपाइ, अपनौ यह बालक, राखि कंस सौं लीजै.
माणसा, वाचा, कहत कर्मना, नृप कबहूँ न पतीजै.
बुधि बल, छल-बल, कैसेहूँ करिकै, काढि अनर्तहीं दीजै.
नाहिन इतनौ भाग जो यह रस, नित लोचन पुट पीजै.
सूरदास ऐसे सूत कौ जस, स्रवननि सुनि-सुनि जीजै.

ऐसी तदबीर कोई कीजिये सरताज मेरे.
जिस से बेटे ये मेरा कंस से महफूज़ रहे.
मैं अगर दिल से, ज़बाँ से या अमल से भी कहूँ,
राजा हरगिज़ न करेगा मेरी बातों का यकीं,
कूवते-अक़्ल से, तरकीब से, चालाकी से,
जैसे मुमकिन हो किसी तर्ह मेरे बच्चे को,
आप इस कैदे-मुसीबत से निकालें बाहर,
और पहोंचा देन किसी और जगह लेजाकर,
ऐसी तकदीर नहीं मेरी कि ममता का ये रस,
पी सकूँ देख के मैं बेटे का मुखडा हर दिन,
सूर मेरे लिए इतना ही बहोत होगा कि मैं,
खूबियाँ बेटे की सुनती रहूँ इन कानों से,
और सर-सब्ज़ रहे नख्ले-तमन्ना हर दिन.

[59]

मैं देख्यौ जसुदा कौ नंदन, खेलत आँगन बारौ री.
ततछन प्रान पलटिगौ मेरौ, तन-मन ह्वैगौ कारौ री.
देखत आनि संच्यौ उर अन्तर, दै पलकन कौ तारौ री.
मोहि भ्रम भयोऊ सखी ! उर अपने, चहुँ दिसि भयौ उज्यारौ री.
जौ गुंजा सम तुलत सुमेरहिं, ताहूतैं अति भारौ री.
जैसैं बूँद परत बारिधि मैं, त्यों गुन ध्यान हमारौ री.
हौं उन माहीं कि वाई महिं महिंयां, परत न देह संभारौ री.
तरु मैं बीज कि बीज मांह तरु, दुहुं मैं एक न न्यारौ री.
जल थल नभ कानन घर भीतर, जंह औं दृष्टि पसारौ री.
तितही-तित मेरे नैननि आगैं, निर्तत नन्द दुलारौ री.
तजी लाज कुल-कानि लोक की, पति गुरुजन प्योसारौ री.
जिनकी सकुचित देहरी दुर्लभ, तिनमैं मुंड उघारौ री.
कहा कहौं कछु कहत न आवै, सब रस लागत खारौ री.
इनहिं स्वाद जौ लूबुध सूर सोई, जानत चाखनहारौ री.

आँगन में खेलता था जशोदा का लाडला.
देखा जो मैंने उसको तो सब कुछ लुटा दिया.
महसूस ये हुआ की मैं यक्सर बदल गई,
तन-मन से उसके रंग में पल भर में ढल गई.
जल्दी से उसको खानाए-दिल में बिठा लिया.
पलकों के पट को मूंद्के ताला लगा दिया.
मुझको लगा की दिल का हरेक गोशा ऐ सखी,
जग-मग सा हो गया है जिया पाके नूर की.
गुंजे से तोल सकते थे जो फूल सा बदन,
अब उसका है सुमेर से बढ़कर कहीं वज़न.
होती है कैफियत जो समंदर में बूँद की,
अपनी भी हैसियत हमें कुछ ऐसी ही लगी.
मैं उनमें या वो मुझ में समाये पता नहीं.
ख़ुद को संभाल पाना भी मुमकिन रहा नहीं.
जाने शजर में तुख्म है या तुख्म में शजर.
करना अलग है दोनों को दुश्वार किस कदर.
जंगल में, घर में, बह्र में, अरजो-समाँ के बीच.
है वुसअते निगाह जहांतक जहाँ के बीच.
हर जा नज़र के सामने जलवा उसी का है.
रक्से-जमाले-क्रिश्न नतीजा उसी का है.
कुनबे की लाज, शर्म ज़माने की छोड़ दी.
मुतलक हया बुजुर्गों की बाक़ी नहीं रही.
देहलीज़ तक न आती थी जिनके ख़याल से,
सर खोलकर हूँ घूमती अब उनके सामने.
मैं क्या कहूँ कि आता नहीं कहना कुछ मुझे.
कड़वे बहोत हैं लगते सभी मुझको ज़ायक़े.
लज्ज़त में 'सूर' इश्क की है और ही मज़ा.
वाकिफ है इस से सिर्फ़ वही, जिसने है चखा.
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कल्पना के सामने बन जायेगा मिथ्या यथार्थ.

कल्पना के सामने बन जायेगा मिथ्या यथार्थ.
रुक्मिणी कुछ भी नहीं हैं, आज हैं राधा यथार्थ.
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सब की अपनी-अपनी ढपली, सब के अपने-अपने राग,
कोई क्या जाने प्रबल हो जाये कब किसका यथार्थ.
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सेतु आदम ने बनाया या बनाया राम ने,
किस मिथक में क्या पता कितना है भ्रम कितना यथार्थ.
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आस्थाएं धर्म की इतिहास से जुड़तीं नहीं,
धर्म गढ़ लेता है धीरे-धीरे मन-चाहा यथार्थ.
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सच कोई भी हो, कभी सच शाश्वत होता नहीं,
हर किसी का, ध्यान से देखें तो है अपना यथार्थ.
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झूठ को दुहराते रहिये सच बनाकर बार-बार,
एक दिन हो जायेगा यह झूठ ही सबका यथार्थ.
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मंगलवार, 18 नवंबर 2008

वतन की सरजमीं को माँ का दर्जा देते आये हैं.

वतन की सरजमीं को माँ का दर्जा देते आये हैं.
हम इसकी गोद में जो कुछ है अपना देते आये हैं.
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जलाते हम नहीं लाशें कभी अपने अइज्ज़ा की,
वतन की ख़ाक को कुनबे का कुनबा देते आये हैं.
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वतन को जो समझते हैं अलामत एक देवी की,
वो क्या समझेंगे इस मिटटी को हम क्या देते आये हैं.
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हमारी हड्डियां मिटटी से मिलकर खाद बनती हैं,
ज़मीं सरसब्ज़ हो जिससे वो तोहफा देते आये हैं.
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वतन की आबरु बगला-भगत हरगिज़ न जानेंगे,
लिबासों से वो अपने सबको धोका देते आये हैं.
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हमारे साथ रख सकते नहीं वो प्यार के रिश्ते,
हमें जो गैर बनकर ज़ख्म गहरा देते आये हैं.
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सोमवार, 17 नवंबर 2008

गिरफ़्तारी पे उसकी इस क़दर बेचैनियाँ क्यों हैं.

गिरफ़्तारी पे उसकी इस क़दर बेचैनियाँ क्यों हैं.
अभी मुजरिम वो साबित कब हुआ, नौहा-कुनाँ क्यों हैं.
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न लेगा आपसे जब मशविरा तफ़तीश में कोई,
तो फिर तफ़तीश को लेकर सभी से सर-गरां क्यों हैं.
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वतन पर जान देना आपका पैदाइशी हक़ है,
अगर सच है, वतन-दुश्मन पे इतने मेहरबाँ क्यों हैं.
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ज़ईफी आ गई वेदों की शक्लें तक नहीं देखीं,
तअल्लुक़ जब नहीं वेदों से, उन पर शादमाँ क्यों हैं.
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कलीसाओं पे हमले करना क्या मज़हब सिखाता है,
अगर ऐसा नहीं है, उनसे इतने बदगुमाँ क्यों हैं.
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दलित हों या मुसलमाँ या वो सिख हों या हों ईसाई,
सभी के साथ तनहा आप ही ईज़ा-रसां क्यों हैं.
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गुरुवार, 13 नवंबर 2008

संकीर्णता विचारों की, जिनको भली लगे.

संकीर्णता विचारों की, जिनको भली लगे.
क्यों उनके साथ बैठने में अपना जी लगे.
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आपस के भेद भाव से जो मुक्त हो गए.
हर शब्द उनका, मिसरी की मीठी डली लगे.
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मिथ्या हैं सप्रदायों के ये रेशमी बदन,
पौरुष है आदमी का, कि वह आदमी लगे.
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क्यों व्यस्त भाग-दौड़ में हैं इस नगर के लोग,
जिस ओर देखता हूँ मैं, हलचल मची लगे.
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पीला शरीर हो गया किसके वियोग में,
पौधों की शक्ल कितनी उदासीन सी लगे.
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स्वाधीनता के दीप जलाये थे जो कभी,
उनमें हमारे स्नेह की जैसे कमी लगे.
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भाषा में काश लोच कुछ ऐसा दिखाई दे,
अपनी तरफ़ सहज ही हमें खींचती लगे.
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