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बुधवार, 19 नवंबर 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 9]

[55]

खेलत मैं को काकौ गुसैंयाँ.
हरी हारे, जीते श्रीदामा, बरबस ही कत करत रिसैंयाँ.
जाति-पांति हमते बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैंयाँ.
अति अधकार जनावत यातें, जातें अधिक तुम्हारी गैयाँ.
रूहठि करै तासों को खेलै, रहे बैठि जंह-तंह सब ग्वैंयाँ.
सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाउं दियौ करि नन्द दुहैंयाँ.


खेल में होता नहीं कोई किसी का आक़ा.
जीते श्रीदामा हरी हार गए,
अब ये नाहक़ का है गुस्सा कैसा.
न तुम्हारा है हसब और नसब हमसे बड़ा,
न यहाँ बसता है साए में तुम्हारे कोई,
हक जताते हो फ़क़त इसलिए शायद अपना,
गायें कुछ हमसे ज़ियादा हैं तुम्हारे घर में,
खेल में रोता हो जो उससे कोई क्यों खेले,
ग्वाल सब बैठ गए कह के ये इस जा, उस जा,
‘सूर’ ख्वाहिश है कन्हैया की न हो खत्म ये खेल,
नन्द को अपनी मदद के लिए देते हैं सदा.

[56]

महरि तुम मानौ मेरी बात.
ढूंढि-ढूंढि गोरस सब घर कौं, हप्यो तुम्हारैं तात.
कैसे कहति लियौ छींके तैं, ग्वाल कंध दे लात.
घर नहिं पियत दूध धौरी कौ, कैसे तेरे खात.
असंभाव बोलन आई है, ढीठि ग्वालिनी प्रात.
ऐसो नाहिं अचगरौ मेरो, कहा बनावति बात.
का मैं कहौं, कहति सकुचति हौं, कहा दिखाऊं गात.
हैं गुन बड़े सूर के प्रभु के, ह्यां लरिका ह्वै जात.


"मैं जो कहती हूँ जशोदा जी उसे मान लें आप.
घर के हर गोशे से कर-कर के तलाश,
आपके लाडले बेटे ने उड़ाया मक्खन."
"कैसे मुमकिन है जो तुम कहती हो, सोचो तो सही,
छोटे-छोटे हैं अभी श्याम के हाथ,
वो पहोंच सकते हैं किस तर्ह भला छींके तक ?"
"आप तो सच में जशोदा जी बहोत भोली हैं.
ग्वाल के कन्धों पे चढ़ जाते हैं श्याम.
और हो जाता है उनके लिए आसन ये काम"
"मुझको हैरत है कि घर पर तो कभी,
गाय का दूध भी पीना वो नहीं करता पसंद,
किस तरह तेरे यहाँ जाके, वो खा जाता है!
सुब्ह दम आई है गुस्ताख यहाँ
कहने वो बात जो मुमकिन ही नहीं,
क्यों बनाती है यहाँ बैठके बातें नाहक,
लाडला मेरा कभी ऐसा नहीं हो सकता."
"अब कहूँ क्या मैं कि आती है मुझे कहने में लाज,
हाँ इजाज़त दें तो मैं जिस्म दिखा दूँ अपना,
आपके घर में ये बन जाते हैं बच्चे लेकिन
[ग्वालनों में इन्हें आकर कभी देखें तो सही]
'सूर के श्याम में क्या-क्या हैं सिफ़ात."

[57]

कन्हैया तू नहिं मोहि डरात.
बटरस धरे छांडि कत पर घर, चोरी करि-करि खात.
बकत बकत तोसों परिहारी, नैकहूँ लाज न आई.
ब्रज परगन सिकदार महर, तू ताकी करत नन्हाई.
पूत सपूत भयौ कुल मेरे, अब मैं जानी बात.
सूर स्याम अब्कौ तुहि बकस्यो, हेरी जानी घात.


कन्हैया! मुझसे ज़रा भी तू अब नहीं डरता.
तमाम नेमतें घर में हैं, तू उन्हें तज कर,
चुरा-चुरा के पराये घरों में खाता है.
मैं तुझसे बारहा कह-कह के, थक के हार गई,
मगर न शर्म तुझे आई मुझसे मुतलक भी,
कभी तो सोच ! कि शिक्दारे-परगना हैं मेहर.
तू उनके नाम को छोटा अब इस तरह भी न कर.
सपूत खूब तू निकला है मेरे कुनबे का.
समझ गई मैं अब अच्छी तरह तुझे बेटा.
मैं 'सूर' श्याम तुझे अबके माफ़ करती हूँ.
हर एक घात तेरी खूब मैं समझती हूँ.

[58]

अहो पति ! सो उपाइ कछु कीजै.
जिहिं उपाइ, अपनौ यह बालक, राखि कंस सौं लीजै.
माणसा, वाचा, कहत कर्मना, नृप कबहूँ न पतीजै.
बुधि बल, छल-बल, कैसेहूँ करिकै, काढि अनर्तहीं दीजै.
नाहिन इतनौ भाग जो यह रस, नित लोचन पुट पीजै.
सूरदास ऐसे सूत कौ जस, स्रवननि सुनि-सुनि जीजै.

ऐसी तदबीर कोई कीजिये सरताज मेरे.
जिस से बेटे ये मेरा कंस से महफूज़ रहे.
मैं अगर दिल से, ज़बाँ से या अमल से भी कहूँ,
राजा हरगिज़ न करेगा मेरी बातों का यकीं,
कूवते-अक़्ल से, तरकीब से, चालाकी से,
जैसे मुमकिन हो किसी तर्ह मेरे बच्चे को,
आप इस कैदे-मुसीबत से निकालें बाहर,
और पहोंचा देन किसी और जगह लेजाकर,
ऐसी तकदीर नहीं मेरी कि ममता का ये रस,
पी सकूँ देख के मैं बेटे का मुखडा हर दिन,
सूर मेरे लिए इतना ही बहोत होगा कि मैं,
खूबियाँ बेटे की सुनती रहूँ इन कानों से,
और सर-सब्ज़ रहे नख्ले-तमन्ना हर दिन.

[59]

मैं देख्यौ जसुदा कौ नंदन, खेलत आँगन बारौ री.
ततछन प्रान पलटिगौ मेरौ, तन-मन ह्वैगौ कारौ री.
देखत आनि संच्यौ उर अन्तर, दै पलकन कौ तारौ री.
मोहि भ्रम भयोऊ सखी ! उर अपने, चहुँ दिसि भयौ उज्यारौ री.
जौ गुंजा सम तुलत सुमेरहिं, ताहूतैं अति भारौ री.
जैसैं बूँद परत बारिधि मैं, त्यों गुन ध्यान हमारौ री.
हौं उन माहीं कि वाई महिं महिंयां, परत न देह संभारौ री.
तरु मैं बीज कि बीज मांह तरु, दुहुं मैं एक न न्यारौ री.
जल थल नभ कानन घर भीतर, जंह औं दृष्टि पसारौ री.
तितही-तित मेरे नैननि आगैं, निर्तत नन्द दुलारौ री.
तजी लाज कुल-कानि लोक की, पति गुरुजन प्योसारौ री.
जिनकी सकुचित देहरी दुर्लभ, तिनमैं मुंड उघारौ री.
कहा कहौं कछु कहत न आवै, सब रस लागत खारौ री.
इनहिं स्वाद जौ लूबुध सूर सोई, जानत चाखनहारौ री.

आँगन में खेलता था जशोदा का लाडला.
देखा जो मैंने उसको तो सब कुछ लुटा दिया.
महसूस ये हुआ की मैं यक्सर बदल गई,
तन-मन से उसके रंग में पल भर में ढल गई.
जल्दी से उसको खानाए-दिल में बिठा लिया.
पलकों के पट को मूंद्के ताला लगा दिया.
मुझको लगा की दिल का हरेक गोशा ऐ सखी,
जग-मग सा हो गया है जिया पाके नूर की.
गुंजे से तोल सकते थे जो फूल सा बदन,
अब उसका है सुमेर से बढ़कर कहीं वज़न.
होती है कैफियत जो समंदर में बूँद की,
अपनी भी हैसियत हमें कुछ ऐसी ही लगी.
मैं उनमें या वो मुझ में समाये पता नहीं.
ख़ुद को संभाल पाना भी मुमकिन रहा नहीं.
जाने शजर में तुख्म है या तुख्म में शजर.
करना अलग है दोनों को दुश्वार किस कदर.
जंगल में, घर में, बह्र में, अरजो-समाँ के बीच.
है वुसअते निगाह जहांतक जहाँ के बीच.
हर जा नज़र के सामने जलवा उसी का है.
रक्से-जमाले-क्रिश्न नतीजा उसी का है.
कुनबे की लाज, शर्म ज़माने की छोड़ दी.
मुतलक हया बुजुर्गों की बाक़ी नहीं रही.
देहलीज़ तक न आती थी जिनके ख़याल से,
सर खोलकर हूँ घूमती अब उनके सामने.
मैं क्या कहूँ कि आता नहीं कहना कुछ मुझे.
कड़वे बहोत हैं लगते सभी मुझको ज़ायक़े.
लज्ज़त में 'सूर' इश्क की है और ही मज़ा.
वाकिफ है इस से सिर्फ़ वही, जिसने है चखा.
*****************

मंगलवार, 28 अक्तूबर 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 8]

[50]
शोभित कर नवनीत लिए.
घुटुरुनि चलत रेनू तन मंडित, मुख दधि लेप किए.
चारु कपोल, लोल लोचन, गोरोचन तिलक दिए.
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन, मादक मधुहिं पिए.
कठुला कंठ, बज्र, केहरि-नख, राजत रुचिर हिये.
धन्य 'सूर', एकौ पल इहिं सुख, का सतकल्प जिए.


फबते हैं श्याम हाथ में मक्खन लिए हुए.
लिपटी है धूल जिस्म में चलते हैं घुटनियों,
मुंह को दही का लेप है आरास्ता किए.
दिलकश हैं गाल, आंखों की शोखी है दीदा-जेब,
माथे पे खुशबुओं का तिलक हैं दिए हुए.
चहरे के दोनों सिम्त हैं काली घनी लटें,
भंवरे हों जैसे फूलों के जामो-सुबू पिए.
नाखुन हैं शेर के जो बजर बट्टूओं के साथ,
माला गले की, हुस्न को देती है ज़ाविए.
ऐ 'सूर' इस खुशी का है इक लमहा भी बहोत,
नाहक कोई हज़ार बरस किस लिए जिए.

[51]
मैया ! मैं नहिं माखन खायौ.
ख्याल परै ये सखा सबै मिलि, मेरे मुख लपटायौ.
देखि तुही सींके पर भाजन, ऊंचे धरि लटकायौ.
हौं जु कहत नान्हें कर अपने, मैं कैसे करि पायौ.
मुख दधि पोंछ, बुद्धि इक कीन्हीं, दोना पीठि दुरायौ.
डारि सोंटि, मुसकाइ जसोदा, स्यामहि कंठ लगायौ.
लाल बिनोद मोद मन मोह्यौ, भक्ति प्रताप दिखायौ.
'सूरदास' जसुमति कौ यह सुख, सिव बिरंचि नहिं पायौ.


माँ! मैं सच कहता हूँ, मैंने नहीं खाया मक्खन.
हाँ ख़याल आता है, अहबाब ने मिलकर बाहम,
था शरारत में मेरे मुंह पे लगाया मक्खन.
तुम ही ख़ुद देखो कि लटकाती हैं ऊंचाई पर,
मटकियाँ ग्वालनें, छींके पे जतन से रख कर,
अपने इन नन्हें से हाथों से बताओ तो भला,
कैसे मैं इतनी बलंदी पे पहोंच सकता हूँ.
कर लिया साफ़, लगा था जो दही होंटों पर,
और चालाकी से दोने को छुपाया पीछे.
फ़ेंक कर बेत, जशोदा ने खुशी से बढ़कर,
श्याम को सीने से लिपटा लिया बादीदए-तर.
'सूर' हासिल है जो इस वक़्त जशोदा को खुशी,
देवताओं ने भी सच पूछिए पायी न कभी.

[52]
मैया ! मोहिं दाऊ बहुत खिझायौ.
मोसों कहत, मोल कौं लीन्हौं, तू जसुमति कब जायौ.
कहा करौं इहि रिसि के मारे, खेलन हौं नहिं जात.
पुनि-पुनि कहत, कौन है माता, को है तेरौ तात.
गोरे नन्द, जसोदा गोरी, तू कत स्यामल गात.
चुटकी दै-दै ग्वाल नचावत, हंसत, सबै मुसकात.
तू मोही कौं मारन सीखी, दाउहिं कबहूँ न खीझै.
मोहन मुख रिस की यह बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै.
सुनहु कान्ह! बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत.
'सूर' स्याम मोहि गोधन की सौं, हौं माता तू पूत.


माँ! मुझे करते हैं बलराम परीशान सदा.
कहते हैं मुझसे, तुझे मोल है ले आया गया.
बत्न से कब तू जशोदा के हुआ है पैदा.
क्या करूँ मैं कि इसी खफगी से आजिज़ आकर.
खेलने के लिए साथ उनके नहीं जा पाता.
पूछते रहते हैं रह-रह के बराबर मुझसे.
कौन अम्मा है तेरी, कौन है तेरा बाबा.
नन्द भी गोरे हैं, गोरी हैं जशोदा भी बहोत.
सांवला रंग तेरे जिस्म का फिर कैसे हुआ.
चुटकी ले-ले के सभी ग्वाल नचाते हैं मुझे.
हँसते हैं मुझपे, कि इसमें उन्हें आता है मज़ा.
तूने सीखा है फ़क़त मेरी पिटाई करना.
भाई पर क्यों नहीं आता कभी तुझको गुस्सा.
मुंह से मोहन के, ये खफगी भरी बातें सुनकर,
दिल जशोदा का, खुशी ऐसी मिली, झूम उठा.
प्यार से बेटे को लिपटा के जशोदा ने कहा.
गौर से श्याम सुनो, पूछो न बलभद्र है क्या.
जानते सब हैं कि पैदाइशी शैतान है वो,
बस इधर की है उधर बात लगाता फिरता.
'सूर' के श्याम! मैं गोधन की क़सम खाती हूँ,
मैं ही अम्मा हूँ तेरी, तू है मेरा ही बेटा.

[53]
बृंदाबन देख्यो नन्द नंदन, अतिहि परम सुख पायौ.
जहँ-जहँ गाय चरति ग्वालनि संग, तह-तहं आपुन धायौ.
बलदाऊ मोकों जनि छाँडौ़, संग तुम्हारे ऐहौं.
कैसेहु आज जसोदा छाँड्यो, काल्हि न आवन पैहौं.
सोवत मोकौ टेर लेहुगे, बाबा नन्द दुहाई.
'सूर' स्याम बिनती करि बल सौं, सखन समेत सुनाई.


बृंदाबन का देखके मंज़र, नन्द के बेटे ने सुख पाया.
जहाँ-जहाँ भी ग्वालों के संग, गायें चरती दिखलाई दीं.
वहाँ-वहाँ खुश हो-होकर ख़ुद, खुश-ज़ौक़ी से दौड़ के आया.
बलदाऊ मुझको मत छोड़ो, साथ तुम्हारे आऊंगा मैं,
आज किसी सूरत से, जशोदा माँ ने इजाज़त दी है मुझको.
कल तुमने गर छोड़ दिया तो, यहाँ न आने पाऊंगा मैं.
सोते से भी जगा लेना तुम, बाबा नन्द का वास्ता तुमको,
'सूरदास' बलराम से मिन्नत करके श्याम ने सबको रिझाया.

[54]
जसुमति दौरि लिए हरि कनियाँ.
आजु गयौ मेरौ गई चरावन, हौं बलि जाऊं निछनियाँ.
मो कारन कछु आन्यो है बलि, बन फल तोरि नन्हैया.
तुमहि मिले मैं अति सुख पायौ, मेरे कुंवर कन्हैया.
कछुक खाहु जो भावै मोहन, दै री माखन रोटी.
'सूरदास' प्रभु जीवहु जुग-जुग, हरि हलधर की जोटी.


श्याम को दौड़कर गोद में भर लिया.
प्यार से माँ जशोदा ने फिर ये कहा,
जाके गायें चरा लाया बेटा मेरा.
क्यों न हो जाऊं मैं आज इसपर फ़िदा.
लूँ बालाएं, उतारूं मैं सदक़ा तेरा.
ऐ मेरे लाल! मेरे लिए भी कोई,
तोड़कर नन्हे हाथों से जंगल का फल,
अपने हमराह लेकर तू आया है क्या.
मिल गया तू मुझे हर खुशी मिल गई,
मेरा नन्हाँ कुंवर है कन्हाई मेरा.
थक गया होगा तू, भूक होगी लगी,
जो भी अच्छा लगे खा ले ऐ महलक़ा.
खादिमा है कहाँ, देर करती है क्यों,
मेरे मोहन को मक्खन से रोटी खिला.
'सूर' कहते हैं बस यूँ ही क़ायम रहे,
ऐ खुदा! श्याम-हलधर की जोड़ी सदा.

*********************

शुक्रवार, 12 सितंबर 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 7]

(43)
जसोदा हरि पालनै झुलावै.
हलारावैं, दुलराइ मल्हावैं, जोइ सोइ कछु गावै.
मेरे लाल कौं आउ निदरिया, काहे न आनि सुवावै.
तू काहे नहिं बेगहि आवै, तोको कान्ह बुलावै.
कबहुं पलक हरि मूँद लेत हैं, कबहुं अधर फरकावै.
सोवत जानि मौन ह्वै के रहि, करि करि सैन बतावै.
इहि अन्तर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरै गावै.
जो सुख 'सूर' अमर मुनि दुर्लभ, सो नन्द भामिनी पावै.


जशोदा पालने में श्याम को झूला झुलाती हैं.
कभी झूले को जुम्बिश दे के होती हैं मगन दिल में,
कभी चुमकारती हैं प्यार से बेटे को झुक झुक कर,
कभी नगमे जुबां पर जो भी आ जाते हैं गाती हैं.
कहाँ है ! नींद तू आजा मेरे बेटे की आंखों में.
सुलाती क्यों नहीं तू लाल को मेरे यहाँ आकर.
अरे तू छोड़कर सब काम जल्दी क्यों नहीं आती.
कन्हैया ख़ुद बुलाते हैं तुझे ऐ बावली आजा.
कभी लोरी को सुनकर श्याम पलकें मूँद लेते हैं.
कभी होंटों को फड़काते हैं महवे-ख्वाब हों जैसे.
समझकर सो रहे हैं श्याम, कुछ लम्हों को चुप रहकर.
लबों पर रखके उंगली सबसे कहती हैं इशारों से.
कोई आहट न हो, टूटे न कच्ची नींद बेटे की.
इसी असना में जब बेचैन होकर श्याम उठते हैं.
जशोदा मीठी-मीठी लोरियां फिर गाने लगती हैं.
खुशी जो 'सूर' वलियों के भी हिस्से में नहीं आई.
मगन हैं नन्द की ज़ौजा वही नादिर खुशी पाकर.
(44)
जसुमति मन अभिलाष करै.
कब मेरो लाल घुटुरुवन रेंगै, कब धरनी पग द्वैक धरै.
कब द्वै दांत दूध कै देखौं, कब तोतरें मुख बचन झरै.
कब नन्दहि 'बाबा' कहि बोलै, कब जननी कहि मोहि ररै.
कब मेरौ अंचरा गहि मोहन, जोइ-सोइ कहि मोसों झगरे.
कब धौं तनक-तनक कछु खैहै, अपने कर सौं मुखहिं भरै.
कब हँसि बात कहैगो मोसों, जा छबि तैं दुख दूरि हरै.
स्याम अकेले आँगन छाँड़े, आपु गई कछु काज धरै.
इहिं अन्तर अंधवाह उठ्यो इक, गरजत गगन सहित घहरै.
'सूरदास' ब्रज-लोक सुनत धुनि, जो जहं-तंह अतिहिं डरै.


दिल में हैं कैसे-कैसे जशोदा के वलवले.
वो दिन कब आये लाल मेरा घुटनियों चले.
कब हो खड़ा वो पाँव जमाकर ज़मीन पर.
कब देखूं उसके दूध के दो दांत खुश-गुहर.
कब तोतली ज़बान में बोले मेरा पिसर.
कब नन्द को पुकारे कहे 'बाबा' प्यार से.
कब मां की रट लगाके परीशां मुझे करे.
मोहन पकडके कब मेरा आँचल झगड़ पड़े.
कब जी में जो भी आये कहे कहके अड़ पड़े.
कब दिन वो आये खाने लगे कुछ ज़रा-ज़रा.
हाथों से अपने लुकमा भरे मुंह में महलका.
कब हंसके मुझसे बात करेगा, रिझायेगा.
कब रूप उसका देखके दुख भाग जायेगा.
तनहा सहन में श्याम को दो पल को छोड़कर.
घर में गयीं जशोदा कोई काम सोंचकर.
इस बीच जाने क्या हुआ तूफ़ान सा उठा.
थी घन-गरज वो, ब्रज का जहाँ थरथरा उठा.
गोकुल के लोग 'सूर', सदा सुनके डर गए.
जो थे जहाँ खड़े रहे, चेहरे उतर गए.
(45)
जननी देखिं छबि बलि जात.
जैसे निधनी धनहिं पाये, हरष दिन अरु रात.
बाल लीला निरखि हरषित, धन्य धनि ब्रज नारि.
निरखि जननी-बदन किलकत, त्रिदस पति दै तारि.
धन्य नन्द, धनि धन्य गोपी, धन्य ब्रज कौ बॉस.
धन्य धरनी-करन-पावन, जन्म सूरजदास.


माँ हुई जाती है कुरबां देखकर हुस्ने-जमील.
जैसे मुफलिस खुश हो बेहद पाके दौलत लाज़वाल.
औरतें गोकुल की हैं सब लायके-सद-इफ्तिखार.
बाल लीला के नजारों से हैं वो बागो-बहार.
माँ का चेहरा देखकर, हंसकर, बजाकर तालियाँ.
श्याम ममता की छुअन से भरते हैं किलकारियाँ.
गोपियाँ भी, नन्द भी, गोकुल के बाशिंदे भी सब.
क़ाबिले-तहसीन हैं, पाकर मताए-हुस्ने-रब.
सारी दुनिया की ज़मीं ऐ 'सूर' पाकीजा हुई.
आमदे मौलूद से हर जा खुशी पैदा हुई.
(46)
किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत.
मनिमय कनक नन्द कै आँगन, बिम्ब पकरिबै धावत.
कबहुं निरखि हरि आप छाहँ कौं, कर सौं पकरन चाहत.
किलकि हंसति राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहि अवगाहत.
कनक भूमि पर कर पग छाया, यह उपमा इक राजति.
प्रतिकर, प्रतिपद, प्रतिमनि बसुधा, कमल बैठकी साजति.
बाल दसा सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नन्द बुलावत.
अंचरा तर लै ढाकि, 'सूर' के प्रभु कौ दूध पियावत.


कन्हैया आ रहे हैं घुटनियों किलकारियाँ करते.
जवाहर से जड़े सोने के आँगन में जशोदा के.
लपकते हैं पकड़ने के लिए परछाईं रह-रहके.
कभी साए को अपने देखकर पुर-शोख आंखों से.
पकड़ना चाहते हैं उसको नाज़ुक नर्म हाथों से.
कभी होकर मगन हंसते हैं जब किलकारियाँ भरकर.
नज़र आते हैं उनके दूध के दांतों के दो गौहर.
ये कोशिश बारहा रखते हैं जारी श्याम खुश होकर.
निगाहों को तरावत बख्शता है ये हसीं मंज़र.
तिलाए-अहमरीं पर दस्तो-पा का देखकर साया.
ख़यालों में ये इक तशबीह का नक्शा उभर आया.
ज़मीं ने हर क़दम, हर हाथ, हर नग में जवाहर के.
क़तारों में कँवल बिठला दिए आरास्ता करके.
ये दिलकश शोखियाँ तिफ़ली की जब देखि जशोदा ने.
बुलाया नन्द को देकर सदाएं माँ की ममता ने.
खुशी से, 'सूर' लेकर श्याम को आँचल के साए में.
पिलाया दूध माँ ने चाँद को बादल के साए में.
(47)
कान्ह चलत पग द्वै-द्वै धरनी.
जो मन में अभिलाष करति ही, सो देखति नन्द धरनी.
रुनुक झुनुक नूपुर पग बाजत, धुनि अतिहीं मन हरनी.
बैठि जात फुनि उठत तुरत ही, सो छबि जाई न बरनी.
ब्रज जुवती सब देख थकित भइ, सुन्दरता की सरनी. .
चिर जीवहु जसुदा कौ नंदन, 'सूरदास' कौ तरनी.


दो-दो क़दम ज़मीन पे चलने लगे हैं श्याम.
कितने दिनों से थी जो यशोदा की आरजू.
तकमील उसकी देख रही हैं वो रू-ब-रू.
रन-झुन सदाएं पाँव के घुंगरू की दिल-फरेब.
मीठी धुनों से जीतता है दिल ये पावज़ेब.
चलते हैं, बैठ जाते हैं, होते हैं फिर खड़े.
मंज़र वो है कि जिसका बयाँ कुछ न बन पड़े.
बेसुध हैं देख-देख के गोकुल की गोपियाँ.
पेशे-नज़र है हुस्न का सर्चश्माए-रवां.
जिंदा रहो हमेशा यशोदा के लाल तुम.
शाफ़े हो 'सूर; के लिए ऐ बाकमाल तुम.
(48)
मैया ! मैं तौ चंद खिलौना लैहौं.
जैहौं लोटि धरनि पर अबहीं, तेरी गोद न ऐहौं.
सुरभी कौ पय पान न करिहौं, बेनी सिर न गुहैहौं.
ह्वैहौं पूत नन्द बाबा कौ, तेरौ सूत न कहैहौं.
आगे आउ बात सुन मेरी, बलदेवहिं न जनैहौं.
हँसि समुझावति; कहति जसोमति, नई दुलहिया दैहौं.
तेरी सौं मेरी सुनि मैया, अबहिं बियाहन जैहौं.
'सूरदास' ह्वै कुटिल बराती, गीत सुमंगल गैहौं.


अम्माँ ! फ़क़त वो चंद खिलौना ही लूँगा मैं.
ले देख, मैं ज़मीं पे अभी लोट जाऊँगा.
गोदी में फिर तेरी न किसी तरह आऊंगा.
पीऊंगा दूध गाय का हरगिज़ न जान ले.
गुंथवाऊंगा न चोटी भले तू पड़े गले.
अब सिर्फ़ नन्द बाबा का बेटा रहूँगा मैं.
हूँ तेरा आल ये कभी कहने न दूंगा मैं.
मान बोली आओ पास, मेरी बात तो सुनो.
बलदेव भी न जानेंगे, बस तुम ये जान लो.
हंसकर यशोदा श्याम को समझाके प्यार से.
कहती हैं दूंगी लाके नवेली दुल्हन तुझे.
अम्माँ तुम्हें क़सम है सुनो बात तुम मेरी.
जाऊँगा ब्याहने को दुल्हन मैं इसी घड़ी.
कहते हैं 'सूर' मिलके मैं बारातियों के साथ.
गाने शगुन के गाऊंगा मीठी धुनों के साथ.
(49)
हरि अपनैं आँगन कछु गावत
तनक-तनक चरननि सों नाचत, मनहीं मनहिं रिझावत.
बांह उठाइ काजरी - धौरी, गैयन टेरि बुलावत.
कबहुँक बाबां नन्द पुकारत, कबहुँक घर मैं आवत.
माखन तनक आपने कर ली, तनक बदन मैं नावत.
कबहूँ चितै प्रतिबिम्ब खंभ मैं लौनी लिए खवावत.
दूरि देखति जसुमति यह लीला, हरष अनंद बढ़ावत.
सूर स्याम के बाल-चरित नित, नितही देखत भावत.


अपने आँगन में कुछ गा रहे हैं हरी
नन्हें- नन्हें से पैरों से हैं नाचते
लुत्फ़ अन्दोज़ होते हैं दिल में सभी
बाजुओं को उठाकर बुलाते हैं वो
गायों को नाम ले-ले के उनका कभी
और फिर नन्द बाबा को देकर सदा
पास अपने बुलाते हैं वो नाज़ से
याद आता है जैसे ही फिर और कुछ
घर के अन्दर वो आते हैं दौडे हुए
थोड़ा मक्खन है मुंह में तो है थोड़ा सा
उनके नाज़ुक से नन्हें से हाथों में भी
देखते हैं तिलाई सुतूनों में जब
अपनी परछाईं को जगमगाते हुए
मुस्कुरा कर खिलाते हैं मक्खन उसे
देखती हैं जशोदा तमाशे ये सब
शौक़ से दिल में खुशियाँ समोती हुई
श्याम की उहदे तिफ़्ली की ये शोखियाँ
सूर लगती हैं अच्छी बहोत रोज़ ही.
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