चराग़ राह में लेकर चला है नाबीना.
शऊरे-अहले-नज़र देखता है नाबीना.
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दिखायी देते नहीं रास्ते मुहब्बत के,
हमारा मुल्क भी अब हो गया है नाबीना.
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मिलाते हैं जो सियासत के साथ मज़हब को,
समझते हैं वो यक़ीनन, खुदा है नाबीना.
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खड़ा है फ़ाक़ा-कशों की मुंडेर पर लेकिन,
तरक़्क़ियों को दुआ दे रहा है नाबीना.
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जला रहा है वो इस घर में नफ़रतों के दिए,
कहूँ मैं क्या कि वो अब हो चुका है नाबीना.
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जब आया था वो तो आँखें भी थीं शऊर भी था,
मगर वो बज़्म से होकर उठा है नाबीना.
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रविवार, 9 नवंबर 2008
चराग़ राह में लेकर चला है नाबीना.
शनिवार, 8 नवंबर 2008
शैलेश ज़ैदी के दोहे
जीवन के अवसान में, क्या छाया क्या धूप।
सोने का मृग ले गया, रामचंद्र को दूर।
सुनकर रावण-याचना, सीता थीं मजबूर।
उसका निर्णय था अडिग, जैसे अंगद पाँव।
इस निर्णय को देखकर, चकित था सारा गाँव।
मदिरा पीकर मस्त था, खो बैठा था होश।
आज समय की चाल में, नहीं था कोई जोश।
बैठी है एकांत में, ममता खाकर चोट।
जाने कैसी कब पड़े, राजनीति की गोट।
रंग-मंच संसद-भवन, सांसद नाटक-पात्र।
लक्ष्मी नाची झूमकर, नग्न हुए कुछ गात्र।
समझौता परमाणु का, अमेरिका के साथ।
बुश मनमोहन खुश हुए , मिले हाथ से हाथ।
मनमोहन की बांसुरी, बजी सोनिया संग।
दिल्ली के आकाश पर, छाया ब्रज का रंग।
'साध्वी जी' का सिंह से,कभी न था अलगाव।
संकट आते देखकर, खेल गये वे दाव।
खोज-बीन ऐसी हुई, तर्क हो गये ढेर।
अब आए हैं सामने, जब हो गई अबेर।
'ऊमा जी' के पैतरे, तीखे थे निःशंक।
जागी उस पल भाजपा, चुभे कई जब डंक।
दोशारोपी साध्वी, हुई पुरोहित साथ।
प्रभु बैठे हैं मौन क्यों, धरे हाथ पर हाथ।
मुसलमान निकृष्ट हैं, हिन्दू हैं उत्कृष्ट।
नित विज्ञापित हो रही, यह धारणा विशिष्ट।
सावरकर के गर्भ से, जन्मा था 'हिंदुत्व'।
बहुसंख्यक मस्तिष्क ने, इसको दिया प्रभुत्व ।
कलजुग के सब देवता, जैसे अँधा कूप।
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जब भी खिलते हैं तो इस तरह महकते हैं गुलाब.
जब भी खिलते हैं तो इस तरह महकते हैं गुलाब.
मेरी बेख्वाब सी आंखों में उतर आते हैं ख्वाब.
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झाँक कर देखता हूँ ख़ुद को तो लगता है मुझे,
मैं कुछ ऐसा हूँ कि जैसे हो समंदर बे-आब.
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मौजे-दरया की तरह उमड़े हुए हैं बाज़ार,
डूब जाने का है इमकान, हैं ऐसे गिर्दाब.
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ज़िन्दगी ! तुझको मैं पढ़ता हूँ, निराले ढब से,
खोलकर पढ़ता हो जैसे कोई बच्चों की किताब.
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शख्सियत लोगों की है जाहिरो-बातिन में अलग,
ज़िद है पानी ही कहा जाय उसे, गो हो सराब.
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न है छोटों से मुहब्बत, न बड़ों की ताज़ीम,
गुम हुए जाते हैं तहज़ीब के सारे आदाब.
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शुक्रवार, 7 नवंबर 2008
अब समाचार भी लगते हैं मनोरंजन से.
अब समाचार भी लगते हैं मनोरंजन से.
हर सुबह लोग इन्हें पढ़ते हैं हलकेपन से.
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वो नहीं घर में, कहूँ किससे बुला दे उनको,
हूक सी उठती है तंग आ गई इस सावन से.
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लकडियाँ भीग गई हैं मेरी आंखों की तरह,
आग की गंध भी आती नहीं अब ईंधन से.
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टपके आंसू तो कुछ ऐसा मुझे आभास हुआ,
बूँद पानी की गिरी गर्म तवे पर छन से.
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मन की धरती के गहन गर्भ से निकले आंसू,
गंगा जल की ही तरह मुझको लगें पावन से.
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चूड़ियाँ तोड़ दीं वैधव्य ने कर्कश होकर,
गूंजते गीत विलापों के सुने कंगन से.
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ठण्ड ऐसी है कि निकलूँ तो ठिठुरने का है डर,
धूप को भी है बहुत बैर मेरे आँगन से.
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वो तलाश करता रहा मुझे, नए मौसमों के गुबार में,
वो तलाश करता रहा मुझे, नए मौसमों के गुबार में.
उसे क्या पता था दबा हूँ मैं, कहीं हादसों के गुबार में.
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वही चाँदनी जो अभी-अभी, मेरे सह्न में थी थिरक रही,
उसे आके ले उड़ी क्यों हवा, घने बादलों के गुबार में.
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उन्हें लोग पूछते तक नहीं, जिन्हें फ़ख्र अपनी खुदी पे था,
वो पड़े हुए हैं अलग-थलग, वहाँ ख़ुद-सरों के गुबार में.
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वो गरीब जिनके घरों में अब, हैं गुज़रते फ़ाकों में रोजो-शब,
वो हैं कैदखानों में बेसबब, कहीं मुजरिमों के गुबार में.
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जो लिखे थे उसने मुझे कभी, वो खुतूत मेरी थे मिलकियत,
मैं तलाशता रहा देर तक, उसे उन खतों के गुबार में.
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वो नुकूश जितने थे सल्तनत के, वो ख़ाक-ख़ाक से हो गए,
वो हयात जिसपे गुरूर था, वो है खंडहरों के गुबार में.
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पानी, मिटटी, आग, हवा सब, जिस्म में यकजा-यकजा हैं.
पानी, मिटटी, आग, हवा सब, जिस्म में यकजा-यकजा हैं.
इनके साथ में रहकर भी हम, इनसे अलग क्यों तनहा हैं.
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साहिल से कुछ लोग बजाहिर, देख रहे हैं दरया को,
ज़हनों के भटकाव में लेकिन, फिरते सहरा-सहरा हैं.
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दुनिया से शिकवे भी बहोत हैं, दुनिया की चाहत भी है,
हिर्सो-हवस के सारे बन्दे, दुनिया के ज़ेरे-पा हैं.
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उसके बाम पे चाँद निकलते, देखा तो सबने ही था,
कुछ दीवाने ऐसे भी हैं, अबतक महवे-नज़ारा हैं.
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पाँव में छाले, दिल में तूफाँ, राह कटे तो कैसे कटे,
चलते रहना मेरा मुक़द्दर, हौसले हर दम ताज़ा हैं.
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कोई शै भी दूर से देखो, बेहद अच्छी लगती है,
पास आने पर नुक्स हैं जितने, आंखों से बे-परदा हैं.
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गुरुवार, 6 नवंबर 2008
मैं सवालों से घिरा था, और लब खामोश थे.
मैं सवालों से घिरा था, और लब खामोश थे.
जिंदगी ठहरी हुई थी, रोजो-शब खामोश थे.
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उसके मयखाने का जाने कैसा ये दस्तूर था,
जाम रिन्दों के थे खाली, फिर भी सब खामोश थे.
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शख्सियत उसकी थी कुछ ऐसी कि उसके सामने,
बुत की सूरत सब खड़े थे बा-अदब, खामोश थे.
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ऐसे बे-हिस भी न थे हम, हाँ बहोत मजबूर थे,
जाने क्यों लोगों ने समझा बे-सबब खामोश थे.
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हमको ऊंची ज़ात वालों ने कुचल कर रख दिया,
लब हिला सकते न थे, बेबस थे, जब खामोश थे.
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चाँदनी के रक्से-बिस्मिल पर था मैं हैरत-ज़दा,
लालओ-गुल देखकर ऐसा गज़ब, खामोश थे.
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बुधवार, 5 नवंबर 2008
अब किसे बनवास दोगे [राम-काव्य / पुष्प : 1 ]
पुष्प – 1 : सरयू के इर्द-गिर्द
(एक)
वह नदी
जो उस भूखण्ड को सींचती थी कभी
आज भी बहती है, उसी तरह
वैसे ही.
पर उसके ललाट की रेखाएँ
पीढ़ी-दर-पीढ़ी बदलाव से गुजरती,
दिशा-शून्य आकृतियों को
लगती हैं आज कुछ अटपटी,
अजनबी.
तट की तहों में दबी संस्कृति
पीती रही है निरन्तर
नदी का नैसर्गिक जल.
और जीती रही है एक सोंधी जिन्दगी
एक-एक पल.
उसी तरह
वैसे ही.
इतिहास नहीं मूँद पाता है आंखें
संस्कृति के सोंधेपन से.
इतिहास जानता है
कि ऑंखें मूँद लेना
अच्छा नहीं होता,
सक्रिय सार्थक जीवन से.
इतिहास को पता है
कि कार्य-कारण सम्बन्धों के बीच
पनपती है एक सच्चाई,
और पलता है एक यथार्थ.
और यह यथार्थ मात्र एक नारा नहीं होता.
इसकी धमनियों में दौड़ता है रक्त
युग के स्पन्दन से.
सक्रिय सार्थक संस्कृति के सोंधेपन से.
सरूयू नदी के तट की तहों में दबी संस्कृति
पीढ़ी-दर-पीढ़ी बदलाव से गुजरती
आकृतियों पर हॅंसती है
इतिहास टांक लेता है यह हॅंसी
(दो)
मैं देखता हूँ
कि धरती के ऊपर-ऊपर दौड़ती आकृतियॉं,
मुट्ठी भर आकाश पकड़ पाने के मोह में
भुला बैठी हैं धरती की गरिमा.
मैं देखता हूँ
कि मुटृठी भर आकाश पकड़ पाने का मोह
कभी आदमी को नचाता है,
तो कभी उसके पोपले मुँह में डालकर
स्पंज की एक जीभ,
मनचाहे गीत गुनगुनाता है.
और वह आदमी
जो न समझता है गीत,
न गीत के बोल,
आधुनिकता के नशे में
ढोल की तरह बजता है.
वह शायद नहीं जानता
कि आधुनिकता की चीनी मढ़ी गोली,
चेतना-शून्य खुरदरे गले में उतार लेने से,
दुरूस्त नहीं होती
विवके की पाचन-क्रिया.
उसे शायद नहीं है यह पता
कि धरती के विवेक से जुड़कर ही
सार्थक बन पाती है, वह आधुनिकता,
जिसे वह ओढ़ता है.
उसकी समझ अभी
बगीचे की अमिया की तरह कच्ची है.
और उसका विवेक
बरगद की तरह फैलना तो चाहता है,
पर जमीन में अपनी जड़ें नहीं बनाता.
शायद इसी लिए वह नहीं जानता,
कि सरयू के तट की तहों में दबी संस्कृति,
आज भी आधुनिक है.
और यह आधुनिकता
स्वदेशी है,
सार्वभौमिक है.
इसी संस्कृति का सरल सा है एक नाम -
मर्यादा पुरूशोत्तम
दषरथ पुत्र राम!
आदि कवि ने पायी है ऊर्जा इसी से
महाकाव्य रचने की
भवभूति ने पाया है विवेक
धरती के सोंधेपन को
जीवन में ढालने का
कितनी सीधी , सहज और सार्थक है
यह संस्कृति!
मैंने भी खोजा है
इसी की तहों में जिन्दगी जीने का रास्ता
और यह रास्ता जोड़ता है
आदमी से आदमी को
मुझको, आपको, सभी को
(तीन)
गंगा के आंचल में जन्मा मैं
पाकर विन्ध्यवासिनी का आशीर्वाद
जलाता हूँ मन के सूने कुटीर में
श्रद्धा के दीप
और यह अविरामयुक्त गंगा
सागर तक पहुँच कर
उछालती है दामन में मेरे
बहुमूल्य मोती से भरा एक सीप
दमक-दमक उठती है
सरयू के तट की तहों में दबी संस्कृति की
दीप्यमान छवियां
व्यक्त हो जाती हैं
अन्तर में मेरे सहज ही
धर्म , नीति और त्याग की त्रिमूर्तियॉं
ढीले पड़ जाते हैं सगुण और निर्गुण के बन्धन
रह जाता है अन्तर की परतों में
संस्कृति का सोधापन
और मैं इस सोंधेपन के भीतर देखता हॅू
अपने समूचे देश का एक नक्शा
मुझे लगता है
कि शायद नहीं पहचानता इस नक्शे की लकीरें
शायद नहीं भर पाता इस नक्शे में कोई रंग
राजनीति का बौनापन.
असम में धधकती आग को ज़रूरत है
सरयू के जल की
और यह जल
केवल नदी का जल नहीं है
सांस्कृतिक धरोहर है
समूचे देश का
और यह समूचा देश
धर्म , नीति और त्याग का गह्नर है
इसका विरोधी है जो भी
विदेशी है
विषधर है
सरयू की सुन्दर सुमंगल तरंगों के दर्पण में
आज भी झलकता है
राम, लक्ष्मण और सीता का विमल यश
जिससे टकराकर टूट जाते हैं सहज ही
कलिमल कलश
कलशों के भीतर विराजमान कैकेयी
करती है चीत्कार
लगता है घाव जब कर्कश
और वह जो भक्ति-पुंज गंगा है विराट
सात्विक है जिसका ललाट
ऑंचल में जिसके मैं जन्मा हूं, पला हूँ
समेट कर अन्तर में सरयू की संस्कृति
देती है उसको समुद्र का विस्तार
बन जाता है सहज ही विश्वव्यापी
सानुज राम
और सीता का प्यार।
धर्म और राजनीति का युग्म
शायद यह नहीं जानता
कि यह प्यार ही भारत है.
(चार)
मैं जब बहुत छोटा था
मैंने सुना था कि मेरा देश गुलाम है
मैंने सुना था कि यह गुलामी
लोहे की एक जंजीर है
जिसने जकड़ रखा है
मेरे देश के इनसानों को
मैंने सुना था कि यह गुलामी एक कुल्हाड़ी है
जो खोद रही है जड़ें
हरे भरे फलदार दरख्तों की
मैंने समाचार पत्रों में देखी थी
भारत माँ की एक तस्वीर
जिसके इर्द-गिर्द लिपटे थे ढेर सारे साँप
मैंने देखा था कि एक बूढ़ा आदमी
जिसे लोग गाँधी कहते थे
तस्वीर के पास बैठा
बजा रहा था महुवर
मैंने देखा था कि ढीली पड़ रही थी
साँपों की जकड़न
मैंने देखी थी एक और तस्वीर
जिसमें वही बूढ़ा आदमी
फूल की पत्ती से काट रहा था
लोहे की जंजीर
मैंने देखा था कि जंजीर कट रही थी
और झड़ रहा था लोहे का बुरादा
मुझे पता है
कि उस बूढ़े महात्मा ने देखा था
राम के भारत का एक स्वप्न
और की थी राम-राज्य की कल्पना
मुझे पता है
कि सरयू की संस्कृति को उतारा था उसने
अपने वक्ष के भीतर
और देना चाहा था उसे
गंगा का विराट रूप
सागर की गहराई और विस्तार
मैं देखता हूँ कि उसकी आँखे मुंदते ही
बिखर गई हैं स्वप्नों की एक-एक कड़ियाँ
टकराते हैं आपस में नीरस शिलापुंज
अँगड़ाई लेती हैं बाँझ स्थितियाँ
हावी हो गई राजनीति के क्षितिज पर
अधिकार लिप्सा
सरयू की संस्कृति के धावमान जल का
ध्वनि चित्र
मानस से
हो चुका है पूरी तरह ओझल
(पाँच)
कितना भयावह है
मेरे देश का वर्तमान
बदल गये हैं चिन्तन के एक-एक प्रतिमान
जलता है गलियों-चौराहों पर संविधान
टाँकने लगा है इतिहास
अन्धी अनुभूतियाँ.
शबरी की आँखें हो गई हैं सजल
ढल गयी है पत्थर में अहिल्या
फिर एक बार
पड़ती नहीं है राम वारिधि की फुहार
जुड़ना नहीं चाहती स्वदेशी जल तत्व से
वर्तमान चिन्तन की विदेशी मरुभूमि.
बनती हैं नित्य योजनाएँ
दलितों को ऊँचा बहुत ऊँचा उठाने की
और वह जो सचमुच दलित हैं
जलती हैं आए दिन उनकी झोपड़ियाँ
भस्म हो जाती हैं बोलती प्रतिमाएँ
(छः)
सरयू से लेकर मैं उसकी ओजस्विता
चाहता हूँ रचना कुछ शब्द चित्र
भारतीय संस्कृति के
गंगा की उज्ज्वल तरंगों के मध्य से
चाहता हूँ लेना सहज बिम्ब
आगम, निगम, पुराण और स्मृति के
प्रीतिमत्त मेरा मन
करता है सागर की लहरों का
शब्दानुसंधान !
और मैं वाणी की गति से परे
करता हूँ आत्मक-मन्थन
मन की चंचलता शान्त-बिन्दु पर पहुँकर
हो जाती है स्वतः निःस्वर
दृष्टि के समक्ष रह जाता है वह आकाशव्यापी मन
गूँजती है जिसमें-
सरयू की, गंगा की , सागर की धड़कन
हरी-भरी दीखती है जिससे
कौशल्या की गोद
विहँसता है दशरथ का आँगन
बनकर उभरता है किरण-बिन्दु संस्कृति का
मानस में मेरे केवल एक शब्द-राम!
पाती है आशीश उर्वरा शक्ति मेरी
अभिव्यक्त ध्वनियों की लीलाएँ
करती हैं बिम्बित
कविता के आयाम.
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अब कहाँ मज़हब, कहाँ इंसानियत, कैसा खुलूस.
अब कहाँ मज़हब, कहाँ इंसानियत, कैसा खुलूस.
अब तो आगोशे-सियासत में है हम सब का खुलूस.
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आ गई है अब खुदाई भी उसीके हाथ में,
उसकी बातों में किसी को मिल नहीं सकता खुलूस.
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आज कोई शख्स भी अखलाक का क़ायल नहीं,
आज कुछ कच्चे मकानों में है पोशीदा खुलूस.
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खोट दिल में है तो क्या, मिलिए मुहब्बत से ज़रूर,
कुछ न कुछ तो काम आ ही जायेगा झूटा खुलूस.
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मेरा साया भी मुझे दुश्मन नज़र आने लगा.
खौफ के माहौल में है किस क़दर अनक़ा खुलूस.
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दोस्तों ने भी नज़र-अंदाज़ मुझको कर दिया,
लेके निकला जब सरे-बाज़ार मैं तनहा खुलूस.
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वो नहीं मिलता शिकायत इसकी अब मैं क्या करूँ,
आज भी उसके खतों में उसका है लिपटा खुलूस.
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भारतीय धर्म ग्रंथों के इर्द-गिर्द [डायरी के पन्ने /4]
सृष्टि का प्रारंभ कैसे हुआ, यह जिज्ञासा केवल आज के वैज्ञानिकों की नहीं है. यह समस्या उनकी भी है जिन्होंने पहली बार इस विषय को अपने चिंतन के केन्द्र में स्थान दिया. और यह केवल भारत में ही सम्भव था. पवित्र वेदों ने कोई बात थोपने का प्रयास नहीं किया. केवल प्रश्न खड़े किये और संभावनाएं तलाश कीं. RIGVED की यह पंक्तियाँ जिन्हें सृष्टि का गीत कहा जाता है द्रष्टव्य हैं-
कौन जानता है वास्तव में ?
और कौन हो सकता है दावेदार ?
कि यह स्रष्टि किसने पैदा की,
और कबसे है यह सृष्टि ?
देवता तो बाद में आये,
जब हो चुका था जन्म इस सृष्टि का
और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का.
फिर कौन यह बतायेगा
कि यह सृष्टि कब आई अस्तित्व में ?
कदाचित यह स्वप्रकाशित है,
या हो सकता है ऐसा न हुआ हो,
वह जो स्वर्ग के उच्चतम शिखर से इसे देखता है,
हो सकता है केवल वह जानता हो यह तथ्य,
यह भी सम्भव है कि वह न जानता हो.
जिज्ञासा और संभावनाओं की तलाश का यह खुलापन पवित्र वेदों की विशेषता है. मुग़ल राजकुमार दारा शिकोह ने इसी आधार पर वेदों को 'लौहे-महफूज़' [सुरक्षित-पट्टिका] का नाम दिया. और यह लौहे-महफूज़ या सुरक्षित पट्टिका इस्लामी आस्था के अनुसार अल्लाह के पास है जिसपर तौरैत, ज़ुबूर इनजील और कुरआन जैसे पवित्र ग्रन्थ अंकित हैं. तुलनात्मक धर्मों के अधिकारी विद्वान ए. सी. बूके का मानना है कि भारत में शायद ही कोई ऐसा विषय बचा हो जिसका एक सीमा के भीतर धार्मिक समाधान खोजने का प्रयास न किया गया हो. शास्त्रार्थ के माध्यम से अनेक जिज्ञासाओं, प्रश्नों और संदेहों पर विचार-विमर्श, बहस-मुबाहसे की एक लम्बी परम्परा भारत के धार्मिक इतिहास में मिलती है.किंतु यह परम्परा दिलों को तोड़ती नहीं, मन-मुटाव को जन्म नहीं देती, आज की तरह दंगे-फसाद की स्थितियां नहीं बनाती. तर्क-वितर्क की यह कड़ियाँ परस्पर विरोधी वैचारिक मंचों को खुलकर बहस करने का अवसर देती हैं.
नास्तिक्य और भौतिकवाद भारत के लिए नया नहीं है. शास्त्रार्थों में जहाँ धर्म-जन्य वैचारिक दबावों का आभास होता है, वहीं भरपूर सुरक्षात्मक कवच भी दिखायी देता है. यह बहसें घंटे-दो घंटे या एक-दो दिन नहीं चलतीं. इनकी क्षमता विभिन्न धार्मिक स्कूलों के सामर्थ्य पर निर्भर करती है. धार्मिकों और संदेहवादियों के मध्य की बहस और भी रोचक हो जाती है जहाँ पग-पग पर तर्क मांगे जाते हैं. स्थिति यहांतक पहुँच जाती है कि भौतिकता और नास्तिकता की सीमाएं छू लेती है. महात्मा बुद्ध का सम्पूर्ण चिंतन इसी पृष्ठभूमि से जन्म लेता है. ध्यानपूर्वक देखा जाय तो ईश्वर-रहित चिंतन-धाराएँ भारत में पर्याप्त सशक्त रही हैं. लोकायत दर्शन भारत में ईसा से एक हज़ार वर्ष पूर्व पूरी तरह पल्लवित हो चुका था. हो सकता है इसका जन्म महात्मा बुद्ध के समय में ही हुआ हो जैसा कि बौद्ध साहित्य के अध्ययन से संकेत मिलाता है. लोकायत दर्शन सिद्धांततः भौतिकवादी है. नास्तिक्य और भौतिकतावादी चिंतन भारत में शताब्दियों तक फलता-फूलता रहा जिसकी पुष्टि चार्वाक से होती है और संभवतः चार्वाक का ही प्रभाव था कि कृष्ण द्बारा कर्म और कर्तव्य की शिक्षा दिए जाने के बावजूद युधिष्ठिर युद्ध के लिए आमादा नहीं थे. मध्वाचार्य ने चौदहवीं शताब्दी ईस्वी में जब सर्व-दर्शन-संग्रह की रचना की तो सिद्धांततः वेदांती होने के बावजूद प्रथम अध्याय में चार्वाक को सम्मानित स्थान दिया जिसमें नास्तिकता और भौतिकवाद को सुरक्षात्मक और तर्कयुक्त बौद्धिकता से विश्ल्लेषित किया गया है.
चार्वाक न केवल ईश्वर के अस्तित्व को नकारता है, आत्मा की भूमिकाओं को भी निरस्त करता है और बुद्धि या मस्तिष्क के भौतिक आधार पर बल देता है. उसका मानना है कि इस जगत से इतर कोई जगत नहीं है. परलोक की कल्पना निराधार है. मोक्ष और मुक्ति की बातें अर्थ-हीन हैं. ब्राह्मणों ने स्वर्ग की आधारशिला इसलिए रखी है ताकि वह मृतक को बाह्याडम्बरों द्वारा मोक्ष दिला सकें. सम्राट अकबर की सर्वधर्म संगोष्ठियों में भी चार्वाक का दर्शन वैचारिक आदान-प्रदान में बराबर का भागीदार था. कौटिल्य का अर्थशास्त्र बावजूदे कि धार्मिक और सामजिक प्रतिबद्धताओं से आँखें नहीं मूंदता, प्रशासनिक और राजनीतिक अर्थव्यवस्था की जड़ें धर्म-निरपेक्षता में ही तलाशता है.
वाल्मीकि रामायण श्रीराम को एक नायक के रूप में प्रस्तुत करती है. उसका एक पात्र जावाली जो संदेहवादी तार्किक पंडित है श्रीराम को बताता है कि उनका क्या व्यवहार होना चाहिए. उसका मानना है कि हमें उन्हीं बातों में विशवास रखना चाहिए जो हमारे अनुभव जगत से गुज़रती हैं या जिन्हें हम महसूस कर सकते हैं. वह पूजा-पाठ, ईश्वर के समक्ष पशुओं की बलि, आदि बाह्याडम्बरों का खंडन करता है और इस तथ्य को रेखांकित करता है कि बहुत चालाक लोगों ने शास्त्रों में यह बातें लिखी हैं. उसने स्पष्ट शब्दों में राम को उपदेश दिया कि "पालन करो केवल उन्हीं बातों का जो तुम्हारे अनुभव में आई हैं,और अपने को चिंताओं में कभी मत डालो, उन बातों के लिए जो तुम्हारे अनुभवों से परे हैं."
हिन्दुत्ववादी पंडितों के माध्यम से भारत में जो नया राष्ट्रवाद पनप रहा है, अमर्त्यसेन की दृष्टि में वह 'ग्लोबल इंटरैक्शन' को नकारता है. वह यह भूल गया है कि प्राचीन भारत की साख इसी आदान-प्रदान की बदौलत सम्पूर्ण विश्व में हुई. हमें चाहिए कि हम एकांगी दृष्टिकोण रखने के बजाय भारत में उपलब्ध सभी धार्मिक स्रोतों का अध्ययन करें. भारत के धार्मिक ग्रन्थ एक ऐसा धरोहर हैं जिनके अध्ययन से बहुत सारी ग्रंथियां खुलती हैं. हम में संयम, धैर्यशीलता और मर्यादित अभिव्यक्तियों की भाषा जन्म लेती है
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