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शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

पानी, मिटटी, आग, हवा सब, जिस्म में यकजा-यकजा हैं.

पानी, मिटटी, आग, हवा सब, जिस्म में यकजा-यकजा हैं.
इनके साथ में रहकर भी हम, इनसे अलग क्यों तनहा हैं.
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साहिल से कुछ लोग बजाहिर, देख रहे हैं दरया को,
ज़हनों के भटकाव में लेकिन, फिरते सहरा-सहरा हैं.
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दुनिया से शिकवे भी बहोत हैं, दुनिया की चाहत भी है,
हिर्सो-हवस के सारे बन्दे, दुनिया के ज़ेरे-पा हैं.
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उसके बाम पे चाँद निकलते, देखा तो सबने ही था,
कुछ दीवाने ऐसे भी हैं, अबतक महवे-नज़ारा हैं.
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पाँव में छाले, दिल में तूफाँ, राह कटे तो कैसे कटे,
चलते रहना मेरा मुक़द्दर, हौसले हर दम ताज़ा हैं.
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कोई शै भी दूर से देखो, बेहद अच्छी लगती है,
पास आने पर नुक्स हैं जितने, आंखों से बे-परदा हैं.
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