भारत ही एक अकेला ऐसा देश है जिसमें इतनी बड़ी संख्या में धर्म-ग्रन्थ उपलब्ध हैं जिनकी बराबरी विश्व के कई देश मिलकर भी नहीं कर सकते. यह स्थिति उस समय है जब मैं केवल क्लासिकी भाषाओं तक स्वयं को सीमित रख रहा हूँ. भारत में प्रारम्भ से ही जीव-जगत-ब्रह्म से सम्बंधित वैचारिकता पर कोई प्रतिबन्ध नहीं रहा. सबके अपने तर्क हैं, कुछ समझने के और उसे विश्लेषित करने के. साथ-ही-साथ सबकी अपनी सीमाएं और संयमित, अनुशासित अभिव्यक्तियों के मर्यादित स्तर भी हैं.
सृष्टि का प्रारंभ कैसे हुआ, यह जिज्ञासा केवल आज के वैज्ञानिकों की नहीं है. यह समस्या उनकी भी है जिन्होंने पहली बार इस विषय को अपने चिंतन के केन्द्र में स्थान दिया. और यह केवल भारत में ही सम्भव था. पवित्र वेदों ने कोई बात थोपने का प्रयास नहीं किया. केवल प्रश्न खड़े किये और संभावनाएं तलाश कीं. RIGVED की यह पंक्तियाँ जिन्हें सृष्टि का गीत कहा जाता है द्रष्टव्य हैं-
कौन जानता है वास्तव में ?
और कौन हो सकता है दावेदार ?
कि यह स्रष्टि किसने पैदा की,
और कबसे है यह सृष्टि ?
देवता तो बाद में आये,
जब हो चुका था जन्म इस सृष्टि का
और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का.
फिर कौन यह बतायेगा
कि यह सृष्टि कब आई अस्तित्व में ?
कदाचित यह स्वप्रकाशित है,
या हो सकता है ऐसा न हुआ हो,
वह जो स्वर्ग के उच्चतम शिखर से इसे देखता है,
हो सकता है केवल वह जानता हो यह तथ्य,
यह भी सम्भव है कि वह न जानता हो.
जिज्ञासा और संभावनाओं की तलाश का यह खुलापन पवित्र वेदों की विशेषता है. मुग़ल राजकुमार दारा शिकोह ने इसी आधार पर वेदों को 'लौहे-महफूज़' [सुरक्षित-पट्टिका] का नाम दिया. और यह लौहे-महफूज़ या सुरक्षित पट्टिका इस्लामी आस्था के अनुसार अल्लाह के पास है जिसपर तौरैत, ज़ुबूर इनजील और कुरआन जैसे पवित्र ग्रन्थ अंकित हैं. तुलनात्मक धर्मों के अधिकारी विद्वान ए. सी. बूके का मानना है कि भारत में शायद ही कोई ऐसा विषय बचा हो जिसका एक सीमा के भीतर धार्मिक समाधान खोजने का प्रयास न किया गया हो. शास्त्रार्थ के माध्यम से अनेक जिज्ञासाओं, प्रश्नों और संदेहों पर विचार-विमर्श, बहस-मुबाहसे की एक लम्बी परम्परा भारत के धार्मिक इतिहास में मिलती है.किंतु यह परम्परा दिलों को तोड़ती नहीं, मन-मुटाव को जन्म नहीं देती, आज की तरह दंगे-फसाद की स्थितियां नहीं बनाती. तर्क-वितर्क की यह कड़ियाँ परस्पर विरोधी वैचारिक मंचों को खुलकर बहस करने का अवसर देती हैं.
नास्तिक्य और भौतिकवाद भारत के लिए नया नहीं है. शास्त्रार्थों में जहाँ धर्म-जन्य वैचारिक दबावों का आभास होता है, वहीं भरपूर सुरक्षात्मक कवच भी दिखायी देता है. यह बहसें घंटे-दो घंटे या एक-दो दिन नहीं चलतीं. इनकी क्षमता विभिन्न धार्मिक स्कूलों के सामर्थ्य पर निर्भर करती है. धार्मिकों और संदेहवादियों के मध्य की बहस और भी रोचक हो जाती है जहाँ पग-पग पर तर्क मांगे जाते हैं. स्थिति यहांतक पहुँच जाती है कि भौतिकता और नास्तिकता की सीमाएं छू लेती है. महात्मा बुद्ध का सम्पूर्ण चिंतन इसी पृष्ठभूमि से जन्म लेता है. ध्यानपूर्वक देखा जाय तो ईश्वर-रहित चिंतन-धाराएँ भारत में पर्याप्त सशक्त रही हैं. लोकायत दर्शन भारत में ईसा से एक हज़ार वर्ष पूर्व पूरी तरह पल्लवित हो चुका था. हो सकता है इसका जन्म महात्मा बुद्ध के समय में ही हुआ हो जैसा कि बौद्ध साहित्य के अध्ययन से संकेत मिलाता है. लोकायत दर्शन सिद्धांततः भौतिकवादी है. नास्तिक्य और भौतिकतावादी चिंतन भारत में शताब्दियों तक फलता-फूलता रहा जिसकी पुष्टि चार्वाक से होती है और संभवतः चार्वाक का ही प्रभाव था कि कृष्ण द्बारा कर्म और कर्तव्य की शिक्षा दिए जाने के बावजूद युधिष्ठिर युद्ध के लिए आमादा नहीं थे. मध्वाचार्य ने चौदहवीं शताब्दी ईस्वी में जब सर्व-दर्शन-संग्रह की रचना की तो सिद्धांततः वेदांती होने के बावजूद प्रथम अध्याय में चार्वाक को सम्मानित स्थान दिया जिसमें नास्तिकता और भौतिकवाद को सुरक्षात्मक और तर्कयुक्त बौद्धिकता से विश्ल्लेषित किया गया है.
चार्वाक न केवल ईश्वर के अस्तित्व को नकारता है, आत्मा की भूमिकाओं को भी निरस्त करता है और बुद्धि या मस्तिष्क के भौतिक आधार पर बल देता है. उसका मानना है कि इस जगत से इतर कोई जगत नहीं है. परलोक की कल्पना निराधार है. मोक्ष और मुक्ति की बातें अर्थ-हीन हैं. ब्राह्मणों ने स्वर्ग की आधारशिला इसलिए रखी है ताकि वह मृतक को बाह्याडम्बरों द्वारा मोक्ष दिला सकें. सम्राट अकबर की सर्वधर्म संगोष्ठियों में भी चार्वाक का दर्शन वैचारिक आदान-प्रदान में बराबर का भागीदार था. कौटिल्य का अर्थशास्त्र बावजूदे कि धार्मिक और सामजिक प्रतिबद्धताओं से आँखें नहीं मूंदता, प्रशासनिक और राजनीतिक अर्थव्यवस्था की जड़ें धर्म-निरपेक्षता में ही तलाशता है.
वाल्मीकि रामायण श्रीराम को एक नायक के रूप में प्रस्तुत करती है. उसका एक पात्र जावाली जो संदेहवादी तार्किक पंडित है श्रीराम को बताता है कि उनका क्या व्यवहार होना चाहिए. उसका मानना है कि हमें उन्हीं बातों में विशवास रखना चाहिए जो हमारे अनुभव जगत से गुज़रती हैं या जिन्हें हम महसूस कर सकते हैं. वह पूजा-पाठ, ईश्वर के समक्ष पशुओं की बलि, आदि बाह्याडम्बरों का खंडन करता है और इस तथ्य को रेखांकित करता है कि बहुत चालाक लोगों ने शास्त्रों में यह बातें लिखी हैं. उसने स्पष्ट शब्दों में राम को उपदेश दिया कि "पालन करो केवल उन्हीं बातों का जो तुम्हारे अनुभव में आई हैं,और अपने को चिंताओं में कभी मत डालो, उन बातों के लिए जो तुम्हारे अनुभवों से परे हैं."
हिन्दुत्ववादी पंडितों के माध्यम से भारत में जो नया राष्ट्रवाद पनप रहा है, अमर्त्यसेन की दृष्टि में वह 'ग्लोबल इंटरैक्शन' को नकारता है. वह यह भूल गया है कि प्राचीन भारत की साख इसी आदान-प्रदान की बदौलत सम्पूर्ण विश्व में हुई. हमें चाहिए कि हम एकांगी दृष्टिकोण रखने के बजाय भारत में उपलब्ध सभी धार्मिक स्रोतों का अध्ययन करें. भारत के धार्मिक ग्रन्थ एक ऐसा धरोहर हैं जिनके अध्ययन से बहुत सारी ग्रंथियां खुलती हैं. हम में संयम, धैर्यशीलता और मर्यादित अभिव्यक्तियों की भाषा जन्म लेती है
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सृष्टि का प्रारंभ कैसे हुआ, यह जिज्ञासा केवल आज के वैज्ञानिकों की नहीं है. यह समस्या उनकी भी है जिन्होंने पहली बार इस विषय को अपने चिंतन के केन्द्र में स्थान दिया. और यह केवल भारत में ही सम्भव था. पवित्र वेदों ने कोई बात थोपने का प्रयास नहीं किया. केवल प्रश्न खड़े किये और संभावनाएं तलाश कीं. RIGVED की यह पंक्तियाँ जिन्हें सृष्टि का गीत कहा जाता है द्रष्टव्य हैं-
कौन जानता है वास्तव में ?
और कौन हो सकता है दावेदार ?
कि यह स्रष्टि किसने पैदा की,
और कबसे है यह सृष्टि ?
देवता तो बाद में आये,
जब हो चुका था जन्म इस सृष्टि का
और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का.
फिर कौन यह बतायेगा
कि यह सृष्टि कब आई अस्तित्व में ?
कदाचित यह स्वप्रकाशित है,
या हो सकता है ऐसा न हुआ हो,
वह जो स्वर्ग के उच्चतम शिखर से इसे देखता है,
हो सकता है केवल वह जानता हो यह तथ्य,
यह भी सम्भव है कि वह न जानता हो.
जिज्ञासा और संभावनाओं की तलाश का यह खुलापन पवित्र वेदों की विशेषता है. मुग़ल राजकुमार दारा शिकोह ने इसी आधार पर वेदों को 'लौहे-महफूज़' [सुरक्षित-पट्टिका] का नाम दिया. और यह लौहे-महफूज़ या सुरक्षित पट्टिका इस्लामी आस्था के अनुसार अल्लाह के पास है जिसपर तौरैत, ज़ुबूर इनजील और कुरआन जैसे पवित्र ग्रन्थ अंकित हैं. तुलनात्मक धर्मों के अधिकारी विद्वान ए. सी. बूके का मानना है कि भारत में शायद ही कोई ऐसा विषय बचा हो जिसका एक सीमा के भीतर धार्मिक समाधान खोजने का प्रयास न किया गया हो. शास्त्रार्थ के माध्यम से अनेक जिज्ञासाओं, प्रश्नों और संदेहों पर विचार-विमर्श, बहस-मुबाहसे की एक लम्बी परम्परा भारत के धार्मिक इतिहास में मिलती है.किंतु यह परम्परा दिलों को तोड़ती नहीं, मन-मुटाव को जन्म नहीं देती, आज की तरह दंगे-फसाद की स्थितियां नहीं बनाती. तर्क-वितर्क की यह कड़ियाँ परस्पर विरोधी वैचारिक मंचों को खुलकर बहस करने का अवसर देती हैं.
नास्तिक्य और भौतिकवाद भारत के लिए नया नहीं है. शास्त्रार्थों में जहाँ धर्म-जन्य वैचारिक दबावों का आभास होता है, वहीं भरपूर सुरक्षात्मक कवच भी दिखायी देता है. यह बहसें घंटे-दो घंटे या एक-दो दिन नहीं चलतीं. इनकी क्षमता विभिन्न धार्मिक स्कूलों के सामर्थ्य पर निर्भर करती है. धार्मिकों और संदेहवादियों के मध्य की बहस और भी रोचक हो जाती है जहाँ पग-पग पर तर्क मांगे जाते हैं. स्थिति यहांतक पहुँच जाती है कि भौतिकता और नास्तिकता की सीमाएं छू लेती है. महात्मा बुद्ध का सम्पूर्ण चिंतन इसी पृष्ठभूमि से जन्म लेता है. ध्यानपूर्वक देखा जाय तो ईश्वर-रहित चिंतन-धाराएँ भारत में पर्याप्त सशक्त रही हैं. लोकायत दर्शन भारत में ईसा से एक हज़ार वर्ष पूर्व पूरी तरह पल्लवित हो चुका था. हो सकता है इसका जन्म महात्मा बुद्ध के समय में ही हुआ हो जैसा कि बौद्ध साहित्य के अध्ययन से संकेत मिलाता है. लोकायत दर्शन सिद्धांततः भौतिकवादी है. नास्तिक्य और भौतिकतावादी चिंतन भारत में शताब्दियों तक फलता-फूलता रहा जिसकी पुष्टि चार्वाक से होती है और संभवतः चार्वाक का ही प्रभाव था कि कृष्ण द्बारा कर्म और कर्तव्य की शिक्षा दिए जाने के बावजूद युधिष्ठिर युद्ध के लिए आमादा नहीं थे. मध्वाचार्य ने चौदहवीं शताब्दी ईस्वी में जब सर्व-दर्शन-संग्रह की रचना की तो सिद्धांततः वेदांती होने के बावजूद प्रथम अध्याय में चार्वाक को सम्मानित स्थान दिया जिसमें नास्तिकता और भौतिकवाद को सुरक्षात्मक और तर्कयुक्त बौद्धिकता से विश्ल्लेषित किया गया है.
चार्वाक न केवल ईश्वर के अस्तित्व को नकारता है, आत्मा की भूमिकाओं को भी निरस्त करता है और बुद्धि या मस्तिष्क के भौतिक आधार पर बल देता है. उसका मानना है कि इस जगत से इतर कोई जगत नहीं है. परलोक की कल्पना निराधार है. मोक्ष और मुक्ति की बातें अर्थ-हीन हैं. ब्राह्मणों ने स्वर्ग की आधारशिला इसलिए रखी है ताकि वह मृतक को बाह्याडम्बरों द्वारा मोक्ष दिला सकें. सम्राट अकबर की सर्वधर्म संगोष्ठियों में भी चार्वाक का दर्शन वैचारिक आदान-प्रदान में बराबर का भागीदार था. कौटिल्य का अर्थशास्त्र बावजूदे कि धार्मिक और सामजिक प्रतिबद्धताओं से आँखें नहीं मूंदता, प्रशासनिक और राजनीतिक अर्थव्यवस्था की जड़ें धर्म-निरपेक्षता में ही तलाशता है.
वाल्मीकि रामायण श्रीराम को एक नायक के रूप में प्रस्तुत करती है. उसका एक पात्र जावाली जो संदेहवादी तार्किक पंडित है श्रीराम को बताता है कि उनका क्या व्यवहार होना चाहिए. उसका मानना है कि हमें उन्हीं बातों में विशवास रखना चाहिए जो हमारे अनुभव जगत से गुज़रती हैं या जिन्हें हम महसूस कर सकते हैं. वह पूजा-पाठ, ईश्वर के समक्ष पशुओं की बलि, आदि बाह्याडम्बरों का खंडन करता है और इस तथ्य को रेखांकित करता है कि बहुत चालाक लोगों ने शास्त्रों में यह बातें लिखी हैं. उसने स्पष्ट शब्दों में राम को उपदेश दिया कि "पालन करो केवल उन्हीं बातों का जो तुम्हारे अनुभव में आई हैं,और अपने को चिंताओं में कभी मत डालो, उन बातों के लिए जो तुम्हारे अनुभवों से परे हैं."
हिन्दुत्ववादी पंडितों के माध्यम से भारत में जो नया राष्ट्रवाद पनप रहा है, अमर्त्यसेन की दृष्टि में वह 'ग्लोबल इंटरैक्शन' को नकारता है. वह यह भूल गया है कि प्राचीन भारत की साख इसी आदान-प्रदान की बदौलत सम्पूर्ण विश्व में हुई. हमें चाहिए कि हम एकांगी दृष्टिकोण रखने के बजाय भारत में उपलब्ध सभी धार्मिक स्रोतों का अध्ययन करें. भारत के धार्मिक ग्रन्थ एक ऐसा धरोहर हैं जिनके अध्ययन से बहुत सारी ग्रंथियां खुलती हैं. हम में संयम, धैर्यशीलता और मर्यादित अभिव्यक्तियों की भाषा जन्म लेती है
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