ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / जब भी खिलते हैं लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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शनिवार, 8 नवंबर 2008

जब भी खिलते हैं तो इस तरह महकते हैं गुलाब.

जब भी खिलते हैं तो इस तरह महकते हैं गुलाब.
मेरी बेख्वाब सी आंखों में उतर आते हैं ख्वाब.
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झाँक कर देखता हूँ ख़ुद को तो लगता है मुझे,
मैं कुछ ऐसा हूँ कि जैसे हो समंदर बे-आब.
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मौजे-दरया की तरह उमड़े हुए हैं बाज़ार,
डूब जाने का है इमकान, हैं ऐसे गिर्दाब.
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ज़िन्दगी ! तुझको मैं पढ़ता हूँ, निराले ढब से,
खोलकर पढ़ता हो जैसे कोई बच्चों की किताब.
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शख्सियत लोगों की है जाहिरो-बातिन में अलग,
ज़िद है पानी ही कहा जाय उसे, गो हो सराब.
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न है छोटों से मुहब्बत, न बड़ों की ताज़ीम,
गुम हुए जाते हैं तहज़ीब के सारे आदाब.
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