गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

धर्म परिवर्तन पर प्रतिबन्ध क्यों ?

कोई भी मनुष्य अपनी पीठ पर अपने धर्म का ठप्पा लगवाकर जन्म नहीं लेता। यह उसके माँ-बाप होते हैं जो पीढियों से चले आ रहे अपने धर्म में उसे ढाल लेते हैं। उस शिशु का अपराध केवल इतना है कि उसने उनके घर में जन्म लिया है. बात तो जब होती कि उसे प्रारंभ से ही सभी प्रमुख धर्मों की निष्पक्ष शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिलता और वयस्क होने पर उसे अपने लिए कोई धर्म चुनने की छूट होती. किंतु विश्व का तथाकथित सभ्य समाज यह छूट कभी नहीं दे सकता. आश्चर्य की बात है कि अस्वस्थ होने की स्थिति में अपनी इच्छानुरूप डाक्टर, मुक़दमे के लिए मनचाहा वकील, शिक्षा के लिए अच्छी संस्था चुनने का हमें पूरा अधिकार है और धर्म जिसपर परलोक के जीवन का सारा दारो-मदार है उसे चुनने के लिए हम बिल्कुल स्वाधीन नहीं हैं. यह हमारी धार्मिक पराधीनता नहीं है तो और क्या है ?हम धर्म परिवर्तन के नाम पर इतना चील-पों मचाते हैं और कभी यह सोचने का कष्ट नहीं करते कि हम स्वयं किस धर्म के अनुयायी हैं. क्या हिंदू, मुसलमान और ईसाई धर्म वही है जो इसके मानाने वाले कर रहे हैं. धर्म से अधर्म की और जाना भी तो धर्म परिवर्तन ही है. हमारे अधर्मी हो जाने पर कोई चीख-पुकार क्यों नहीं होती ? हम में से जो लोग नास्तिक हैं वह भी हमारे किसी समाज का निशाना नहीं बनते. अब रह गई बात लालच या दबाव से धर्म परिवर्तन करने की. मुझे यह बता दीजिये कि लालच किस में नहीं है और दबाव को कौन स्वीकार नहीं करता ? मैं संतों की बात नहीं कर रहा हूँ. आपके और अपने जैसे सामजिक प्राणियों की बात कर रहा हूँ. जब जीवन के हर क्षेत्र में दबाव और लालच का प्रवेश है, क्षण भर में एक राजनीतिक पार्टी से कूदकर दूसरी में चले जाते हैं, एक नौकरी छोड़कर दूसरी नोकरी स्वीकार कर लेते हैं और सुख-सुविधाओं के मोह में क्या-क्या नहीं कर डालते, फिर सारी आपत्ति धर्म-परिवर्तन को लेकर ही क्यों है. ब्रह्मण देवता यदि मृत्यु शैया पर हों तो किसी दलित या मुसलमान का रक्त लेकर जीवन दान प्राप्त कर सकते हैं, न धर्म अशुद्ध होता है और न ही उनके ब्राह्मणत्व पर आंच आती है. मौलाना साहब को किसी हिन्दू का रक्त शरीर में चढ़वाने में मुशरिक हो जाने का कोई खतरा नहीं दिखायी देता। खून को लेकर हमने बहुत से मुहावरे गढ़ रक्खे हैं. खून सफ़ेद हो जाना, खून का पानी हो जाना, आंखों में खून उतर आना इत्यादि इत्यादि. अब हमें चाहिए कि हम कुछ और भी मुहावरे गढ़ लें. उदाहरण स्वरुप खून का मुसलमान हो जाना, खून का हिन्दू हो जाना, खून का दलित हो जाना इत्यादि-इत्यादि. जब खून शरीर में प्रवेश करने के बाद भी हमारी मानसिकता नहीं बदल पाता, फिर धर्म परिवर्तन से हमारी मानसिकता कैसे बदल सकती है ? धर्म परिवर्तन तो एक बाह्य सत्य है जबकि शरीर में खून चढ़वाना एक अन्तःकीलित सच्चाई है. क्या हम में से कोई जानता है कि सृष्टि के प्रारम्भ से अबतक हम कितने धर्म परिवर्तन कर चुके हैं ?

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बुधवार, 15 अक्तूबर 2008

बारिश हुई तो घर की बिज़ाअत सिमट गई

बारिश हुई तो घर की बिज़ाअत सिमट गई।

हालात के संवरने की उम्मीद घट गई।

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खिड़की पे आके चाँद ने देखा मेरी तरफ़,

मासूम चाँदनी मेरे तन से लिपट गई।

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सिन्फ़े-लतीफ़ ने वो करिश्मा दिखा दिया,

हैराँ थे सब, बिसाते-सियासत उलट गई।

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शायद तअलुक़ात को होना था खुशगवार,

अच्छा हुआ कि बीच से दीवार हट गई।

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मायूस सब थे, बस वो अकेला था मुत्मइन,

कुदरत का खेल देखिये बाज़ी पलट गई।

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औरों की तर्ह वो भी हुआ जबसे शर-पसंद,

उस्की तरफ़ से मेरी तबीयत उचट गई।

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तहजीब ने दिखाए करिश्मे नये-नये,

इन्सां की नस्ल कितने ही टुकडों में बँट गई।

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बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए।

बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए।
मौसम के हाथ भीग के सफ्फाक हो गए।
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बादल को क्या ख़बर है कि बारिश की चाह में,
कितने बलन्दो-बाला शजर ख़ाक हो गए।
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जुगनू को दिन के वक़्त पकड़ने की जिद करें,
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए।
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जब भी गरीबे-शहर से कुछ गुफ्तुगू हुई,
लहजे हवाए-शाम के नमनाक हो गए।
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साहिल पे जितने आब-गुज़ीदा थे सब-के-सब,
दुनिया के रुख बदलते ही तैराक हो गए।
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मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

समन्दरों के मनाज़िर हैं क्यों निगाहों में।


समन्दरों के मनाज़िर हैं क्यों निगाहों में।
कोई तो है जो कहीं होगा इन फ़िज़ाओं में।
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अभी हवाएं न गुल कर सकेंगी इनकी लवें,
अभी तो जान है बुझते हुए चरागों में।
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हुई है आंखों को महसूस कितनी ठंडक सी,
तुम्हारा लम्स कहीं है शजर के सायों में।
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मैं उसको भूल चुका हूँ, ग़लत था मेरा ख़याल,
वो बार-बार नज़र आया मुझको ख़्वाबों में।
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ये आसमान, ये बादल, ये बारिशें, ये हवा,
हमारी तर्ह बँटे क्यों नहीं ये फ़िरकों में।
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ये इश्क आग के पानी का सुर्ख दरिया है,
हमें ये मिल नहीं सकता कभी किताबों में।
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छुपा था मेरे ही अन्दर वो धडकनों की तरह,
मैं उसको ढूंढ रहा था कहाँ सितारों में।
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सच को सच कहिये मगर कुछ यूँ कि दिल ज़ख्मी न हो.

सच को सच कहिये मगर कुछ यूँ कि दिल ज़ख्मी न हो।
दोस्ती कायम रहे अहबाब में तलखी न हो।
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आप जो कुछ सोचते हैं बस वही सच तो नहीं,
ये भी मुमकिन है हकीकत आपने देखी न हो।
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सोचने का आपके शायद यही मेयार है.
कोई लफ़्ज़ ऐसा नहीं है जिसमें 'हटधर्मी' न हो।
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तरबियत घर से मिली है क्या इसी तहज़ीब की,
वो ज़बां आती नहीं जिसमें कोई गाली न हो।
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हो जो मुमकिन, आईने में अक्स अपना देखिये,
आपकी सूरत कहीं लादैन से मिलती न हो।

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पत्थरों से सर भी टकराएँ तो क्या हासिल हमें,
अपने हिस्से में कहाँ वो चोट जो गहरी न हो।
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आप ही फ़रमाइए मैं उंगलियाँ रक्खूं कहाँ,
जिस्म की ऐसी कोई रग है कि जो दुखती न हो।
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कैसे कर सकता है उस इन्सां से कोई गुफ्तुगू,
जिसने अपने वक़्त की आवाज़ पहचानी न हो।
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कहाँ ले जायेगा हमें यह कट्टरपन ?

कुछ भावुक्तावादी हिन्दुओं की भांति हिन्दी ब्लॉग-फलक पर मुसलामानों की वह खेप अभी नहीं आई है और शायद आएगी भी नहीं जो भाषा और विचार की पवित्रता को कड़वाहट का विष घोलकर तीखा बनाने के पक्षधर हैं. वैसे मुसलमानों में भी ऐसी दिव्य आत्माओं की कोई कमी नहीं है। किंतु वे डरते हैं कि यदि अन्य ब्लोग्धारियों की भांति वे भी चंगेजी तेवर [रोचक बात यह है कि कई ब्लॉग ऐसे दिखाई दिए जिनपर चंगेज़ खान को भी मुसलमान बताया गया है] और तेजाबी भाषा का प्रयोग करेंगे तो आतंकवादी समझे जाने का खतरा है. संहारात्मक और विध्वंसक रुख अख्तियार करना और वह भी केवल लेखन के माध्यम से, सबसे आसान काम है. न किसी मोर्चे पर जाना है, न किसी मुडभेड का खतरा.


आचार्यों ने सात्विक, राजसी और तामसी वृत्तियों की चर्चा की है और उनके लक्षण भी बताये हैं. अध्यात्म मनुष्य को सात्विकता का मार्ग दर्शाता है, धार्मिकता राजसी वृत्ति को जन्म देती है और कट्टरपन तामसी वृत्ति का धरोहर है. आध्यात्मिकता तो धीरे-धीरे विलुप्त सी हो रही है और जो बची-खुची है भी, उसपर धर्माचार्यों के आसन जमते जा रहे हैं. आस्था से कहीं अधिक दिखावा धर्म की अनिवार्य शर्त बन गया है और यह दिखावा स्वधर्म-वर्चस्व की भावना को जन्म ही नहीं देता, धर्म से इतर एक नए कट्टरपन को भी परिभाषित करता है. यह कट्टरपन स्वयं तो केवल तमाशाई बना रहता है और नई नस्ल के युवकों को आग में झोंक कर हाथ तापता रहता है. सर्व धर्म समभाव और सब धरती गोपाल की तथा सर्वं खल्विदं ब्रह्मास्मि की उक्तियाँ पुस्तकों में दम तोड़ रही हैं या कभी-कभी नेताओं से सुनी जा सकती हैं. इसका अंत कहाँ पर होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता. यह कट्टरपन केवल अपने ऊपर चिपकाए गए लेबल से हिन्दू या मुसलमान होता है अन्यथा धर्म की कोई दौलत इसके पास नहीं होती. इस कट्टरपन की परिभाषा केवल इतनी है कि यह मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने की हामी नहीं भरता, संवेदंशीलता इसके मार्ग में घातक है, वितंडावाद इसकी आधार-शिला है और विधर्मियों का सर्वनाश इसका परम लक्ष्य है. काश हम इन बातों को समझ पाते और अपने लेखन को सौम्य बनाने की दिशा में प्रयत्नशील दिखायी देते. हमें याद रखना चाहिए कि दंगों-फसादों से उतना कट्टरता और साम्प्रदायिकता का विष नहीं फैलता जितना लेखन से फैलाया जा सकता है.

दूसरों की आस्था पर चोट करना है अनर्थ.

दूसरों की आस्था पर चोट करना है अनर्थ.
आजका हर व्यक्ति ऐसे नित्य करता है अनर्थ.
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राम क्या थे, क्या नहीं थे, क्यों विवादों में पड़ें,
आस्था के बीच, इन प्रश्नों की चर्चा है अनर्थ.
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अर्थ सीता का बहुत पावन है मेरी दृष्टि में,
घर की सीता पर भी करना कोई शंका है अनर्थ.
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पूजता हूँ मैं उसे, दुखता है क्यों औरों का मन,
मैं ये कैसे मान लूँगा, मेरी पूजा है अनर्थ.
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फट गई धरती, कई घर धंस गए, हंसती थी मौत,
हमने जीवित रहके मलबों में ये झेला है अनर्थ.
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बेसहारा था, श्रमिक था, आज बेघर हो गया,
जागती आंखों से कितनों ने ये देखा है अनर्थ.
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वो भी मेरे साथ था कल इस भरे बाज़ार में,
उड़ गया विस्फोट में, कैसा विधाता है अनर्थ.
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सोमवार, 13 अक्तूबर 2008

अहले-दिल और भी हैं अहले-वफ़ा और भी हैं. / साहिर लुधियानवी

अहले-दिल और भी हैं अहले-वफ़ा और भी हैं.
एक हम ही नहीं दुनिया से खफ़ा और भी हैं.
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क्या हुआ गर मेरे यारों की ज़बानें चुप हैं,
मेरे शाहिद मेरे यारों के सिवा और भी हैं.
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हम पे ही ख़त्म नहीं मसलके-शोरीदा-सारी,
चाक-दिल और भी हैं चाक-क़बा और भी हैं.
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सर सलामत है तो क्या संगे-मलामत की कमी,
जान बाक़ी है तो पैकाने-क़ज़ा और भी हैं.
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मुन्सिफे-शहर की वहदत पे न हर्फ़ आ जाए,
लोग कहते हैं की अरबाबे-जफा और भी हैं.
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शब्दार्थ : अहले-दिल= सहृदय. अहले-वफ़ा= प्रेम में खरे. खफ़ा=रुष्ट. शाहिद=साक्षी. मसलक=सम्प्रदाय. शोरीदा-सरी= प्रतिरोध करना. सलामत=सुरक्षित. संगे-मलामत=निंदा के पत्थर. पैकान=तीर. क़ज़ा=मृत्यु. वहदत=अद्वितीय होने की स्थिति,एकत्व.

नन्हा सा एक पौदा समंदर की रेत पर।



नन्हा सा एक पौदा समंदर की रेत पर।
मसरूफ है समझने में तक़्सीमे-खुश्को-तर।
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मौजें कहाँ से आती हैं, जाती हैं किस तरफ़,
बेबाक साहिलों को भी मुतलक़ नहीं ख़बर।
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लहरों का ये उछाल ज़मीं की तड़प से है,
तह मे है पानियों के सुलगता किसी का घर।
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खाना-खराबियों के सिवा और कुछ नहीं,
अपनी हदों को तोड़ दें अमवाजे-ग़म अगर।
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ख़्वाबों में भी हैं आते कई ऐसे मसअले,
हल जिनका जागने पे भी पाता नहीं बशर।
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कश्ती पे वो था साथ मुखालिफ़ हवाओं में,
बे-खौफ हम निकल गये दरिया को चीर कर।
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पानी में उसका अक्स नज़र आया था कभी,
लेकिन तलाश जारी रही उसकी उम्र भर।
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तुम्हारी मान्यताएं मेरे काम आ ही नहीं सकतीं।

तुम्हारी मान्यताएं मेरे काम आ ही नहीं सकतीं।

लवें दीपक की लोहे को तो पिघला ही नहीं सकतीं।

थकी हारी ये किरनें सूर्य की वीरान रातों से,

भुजाएं बढ़के आलिंगन को फैला ही नहीं सकतीं।

हमारे बीच ये संसद भवन की तुच्छ लीलाएं,

वितंडावाद से जनता को भरमा ही नहीं सकतीं।

मुलायम कितना भी चारा हो माया-लिप्त सी गायें,

झुका कर शीश अपना चैन से खा ही नहीं सकतीं।

इसी सूरत हमें रहना है बँटकर सम्प्रदायों में,

ये बातें एकता की तो हमें भा ही नहीं सकतीं।

तमिल, उड़िया, मराठी जातियों को हठ ये कैसी है,

कभी क्या राष्ट्र भाषा को ये अपना ही नहीं सकतीं।

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