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सोमवार, 13 अक्तूबर 2008

नन्हा सा एक पौदा समंदर की रेत पर।



नन्हा सा एक पौदा समंदर की रेत पर।
मसरूफ है समझने में तक़्सीमे-खुश्को-तर।
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मौजें कहाँ से आती हैं, जाती हैं किस तरफ़,
बेबाक साहिलों को भी मुतलक़ नहीं ख़बर।
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लहरों का ये उछाल ज़मीं की तड़प से है,
तह मे है पानियों के सुलगता किसी का घर।
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खाना-खराबियों के सिवा और कुछ नहीं,
अपनी हदों को तोड़ दें अमवाजे-ग़म अगर।
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ख़्वाबों में भी हैं आते कई ऐसे मसअले,
हल जिनका जागने पे भी पाता नहीं बशर।
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कश्ती पे वो था साथ मुखालिफ़ हवाओं में,
बे-खौफ हम निकल गये दरिया को चीर कर।
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पानी में उसका अक्स नज़र आया था कभी,
लेकिन तलाश जारी रही उसकी उम्र भर।
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