शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

ख्वाब बहोत देखे थे हमने

ख्वाब बहोत देखे थे, हमने, तुमने, सबने।
फिर भी दुख झेले थे, हमने, तुमने, सबने।
खेतों में उग आई हैं साँपों की फसलें,
बीज ये कब बोये थे, हमने, तुमने, सबने।
क्यों नापैद हुए जाते हैं अम्न के गोशे,
प्यार जहाँ बांटे थे, हमने, तुमने, सबने।
आहिस्ता-आहिस्ता ख़ाक हुए सब कैसे,
जो रिश्ते जोड़े थे, हमने, तुमने, सबने।
तहरीरों से वो अफ़साने गायब क्यों हैं,
जो सौ बार पढ़े थे, हमने, तुमने, सबने।
मिटटी के खुशरंग घरौंदे दीवाली पर,
क्यों तामीर किये थे, हमने, तुमने, सबने।
पहले दहशतगर्द नहीं होते थे शायद,
कब ये लफ़्ज़ सुने थे, हमने, तुमने, सबने।

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होने की गवाही के लिए / जमाल एह्सानी

होने की गवाही के लिए ख़ाक बहोत है।
या कुछ भी नहीं होने का इदराक बहोत है।
इक भूली हुई बात है, इक टूटा हुआ ख्वाब,
हम अहले-मुहब्बत को ये इम्लाक बहोत है।
कुछ दर-बदरी रास बहोत आई है मुझको,
कुछ खाना-खराबों में मेरी धाक बहोत है।
परवाज़ को पर खोल नहीं पाता हूँ अपने,
और देखने में वुसअते अफ्लाक बहोत है।
क्या उस से मुलाक़ात का इम्काँ भी नहीं अब,
क्यों इन दिनों मैली तेरी पोशाक बहोत है।
आंखों में हैं महफूज़ तेरे इश्क के लमहात ,
दरया को खयाले-खसो-खाशाक बहोत है।
तनहाई में जो बात भी करता नहीं पूरी,
तक़रीब में मिल जाए तो बेबाक बहोत है।
नादिम है बहोत तू भी जमाल अपने किए पर,
ले देख ले, वो आँख भी नमनाक बहोत है।
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गुरुवार, 25 सितंबर 2008

कशिश आमों की ऐसी है

कशिश आमों की ऐसी है, कि तोते रोज़ आते हैं।
इसी सूरत से हम भी तुमसे मिलने रोज़ आते हैं।
तलातुम है अगर दरिया में घबराने से क्या हासिल,
हमारी ज़िन्दगी में तो ये खतरे रोज़ आते हैं।
परीशाँ क्यों हो उस कूचे में तुम अपने क़दम रखकर,
बढी है दिल की धड़कन ? ऐसे लम्हे रोज़ आते हैं।
सभी नामेहरबाँ हैं, गुल भी, मौसम भी, फ़िज़ाएं भी,
हमारे इम्तेहाँ को, कैसे-कैसे रोज़, आते हैं।
कभी ख्वाबों पे अपने गौर से सोचा नहीं मैंने,
मेरे ख्वाबों में नामानूस चेहरे रोज़ आते हैं।
कहा मैंने कि ये तोहफा मुहब्बत से मैं लाया हूँ,
कहा उसने कि ऐसे कितने तोहफ़े रोज़ आते हैं।
तुम अपने घर के दरवाज़े दरीचे सब खुले रक्खो,
कि उसके जिस्म की खुशबू के झोंके रोज़ आते हैं।
मुसीबत के दिनों में हौसलों को पस्त मत रखना,
कि इसके बाद हँसते-खिलखिलाते रोज़, आते हैं।
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सारे शह्र में सिर्फ़ यही तो / आरिफ़ शफ़ीक़

सारे शह्र में सिर्फ़ यही तो सच्चे लगते हैं।
छोटे-छोटे बच्चे मुझको अच्छे लगते हैं।
मेरे चाहने वाले मुझको भूल गए तो क्या,
मौसम हो तब्दील तो पत्ते झाड़ने लगते हैं।
मैं तो रोता देख के सबको रोने लगता हूँ,
देख के मुझको लोग मगर क्यों हंसने लगते हैं।
बंद किया है जबसे उसने दिल का दरवाज़ा,
मेरी आँख की खिड़की में भी परदे लगते हैं।
वो भी दिन थे रात को जब आवारा फिरते थे,
अब तो शाम से आकर घर में सोने लगते हैं।
अपनी अना के गुम्बद से जब देखता हूँ 'आरिफ़,'
ऊंचे क़द के लोग भी मुझको बौने लगते हैं।
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रात के ढलते-ढलते हम

रात के ढलते-ढलते हम कुछ ऐसा टूट गये.
शीशा जैसे टूटे, रेज़ा-रेज़ा टूट गये.
हमसफ़रों ने साथ हमारा बीच में छोड़ दिया,
मंज़िल आते-आते होकर तनहा टूट गए.
तश्ना-लबी के बाइस जंगल-जंगल फिरे, मगर,
किस्मत देखिये, आकर कुरबे-दरिया टूट गये.
बिखर गए तखईल के सारे मोती चुने हुए,
कासे सब अफ़कार के लमहा-लमहा टूट गये.
जिनके पास हुआ करता था कुह्सरों का अज़्म
ऐसे लोगों को भी हमने देखा टूट गये.
खुम टूटा, पैमाने टूटे, ये सबने देखा,
मयखाने में और भी जाने क्या-क्या टूट गये.
जानते हैं सब दुश्मने-क़ल्बो-जाँ होता है इश्क़,
जिन लोगों ने उसको बेहद चाहा टूट गये.
तेरा करम बहोत है मुझपर, मिल गई मुझको राह,
तुझसे मेरे सारे रिश्ते दुनिया ! टूट गये.
दिल मज़बूत बहोत है आपका सुनता आया था,
आप भी जाफ़र साहब रफ्ता-रफ्ता टूट गये.
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बुधवार, 24 सितंबर 2008

मैं अपनी आंखों की रोशनाई से

अमीर खुसरो की बेहद मशहूर ग़ज़ल है- "ज़ेहाले-मिस्कीं मकुन तगाफुल, दुराये नैनां बनाए बतियाँ."इसी ज़मीन में इस अजीम सूफी शायर से ख़ास अकीदत रखते हुए चन्द अश'आर अर्ज़ किए थे जिन्हें पेश कर रहा हूँ [ज़ैदी जाफ़र रज़ा]

मैं अपनी आंखों की रोशनाई से उसको लिखती हूँ रोज़ पतियाँ।

हरेक लम्हा उसी में गुम हूँ, उसी का दिन है उसी की रतियाँ।

यकीन है वो ज़रूर पिघलेगा, एक दिन हाल पर हमारे,

न रोक पायेगा अपने आंसू, वो देखेगा जब हमारी गतियाँ।

न जाने कितने ख़याल दिल में, हज़ार करवट बदल रहे हैं,

मैं उससे आख़िर कहूँगी क्या जब, वो मुझसे मिलकर करेगा बतियाँ।

मैं उसके हमराह खुलके सावन में पेंग झूले की ले रही थी,

मैं देखती थी कि डाह से भुन रही हैं मेरी सभी सवतियाँ।

मैं उसके घर से चली थी जिसदम, लिपट के मुझसे कहा था उसने,

अकेले मत जाओ रास्ते में, छुपे हैं दुश्मन लगाए घतियाँ।

मुझे है डर उसके सामने भी, कहीं लहू आँख से न टपके,

जो राज़ दिल में है खुल न जाए, हमारी मारी गई हैं मतियाँ।

सजाके फूलों की सेज कबसे, मैं रास्ता उसका तक रही हूँ,

मुझे यकीं है वो आके भर लेगा बाजुओं में लगाके छतियाँ।

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उपर्युक्त ग़ज़ल को पढ़ने के बाद हमारे पास इसी ज़मीन में प्लेंसबोरो यूनाईटेड स्टेट्स से अनूप भार्गव जी ने आलोक श्रीवास्तव की एक गजल भेजी है. हम आभार सहित उसे यहाँ पोस्ट कर रहे हैं-युग-विमर्श.

सखी पिया को जो मैं न देखूं / आलोक श्रीवास्तव
सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां,
कि जिनमें उनकी ही रोशनी हो , कहीं से ला दो मुझे वो अंखियां।

दिलों की बातें दिलों के अंदर, ज़रा-सी ज़िद से दबी हुई हैं,
वो सुनना चाहें ज़ुबां से सब कुछ , मैं करना चाहूं नज़र से बतियां।

ये इश्क़ क्या है , ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है,
सुलगती सांसे , तरसती आंखें, मचलती रूहें, धड़कती छतियां।

उन्हीं की आंखें , उन्हीं का जादू, उन्हीं की हस्ती, उन्हीं की ख़ुश्बू,
किसी भी धुन में रमाऊं जियरा , किसी दरस में पिरोलूं अंखियां।

मैं कैसे मानूं बरसते नैनो, कि तुमने देखा है पी को आते ,
न काग बोले , न मोर नाचे, न कूकी कोयल, न चटखीं कलियां।
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मंगलवार, 23 सितंबर 2008

बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी [हिन्दी पखवाडे पर विशेष]

आज से नौ वर्ष पूर्व 10 सितम्बर से 14 सितम्बर तक हिन्दी दिवस की पचासवीं वर्षगाँठ बड़े ज़ोर शोर से मनाई गई थी। हिन्दी की परंपरागत प्राचीन संस्थाओं तथा सरकारी-तंत्र से जुड़े कार्यालयों में ऊपर-ऊपर से दिखायी देने वाला जोश कुछ और भी अधिक था। आयोजन की औपचारिकताएं विधिवत संपन्न हो गयीं और हिन्दी की स्थिति में कोई उल्लेख्य परिवर्तन नहीं हुआ। हाँ कुछ गिने-चुने व्यक्तियों और संस्थाओं को यह लाभ अवश्य हुआ कि इन आयोजनों के माध्यम से वे सत्ता के और भी निकट आ गए. कागजी कारकर्दगी में बड़ी जान होती है और समझदार लोग इसका लाभ उठाना भी जानते हैं. हिन्दी साहित्य सम्मलेन और नगरी प्रचारिणी सभा जैसी संस्थायें कुछ शक्ति-संपन्न व्यक्तियों की जागीरें बनकर रह गई हैं. हिन्दी के भारतव्यापी स्वरुप को प्रतिष्ठित करने और व्यावहारिक स्तर पर कोई ठोस क़दम उठाने की इनमें कितनी जिज्ञासा या संकल्प है इसका अनुमान इन संस्थाओं से छपने वाली पुस्तकों के प्रकाश में सहज ही किया जा सकता है. इन संस्थाओं की कार्यकारिणी के सदस्य भी हिन्दी प्रान्तेतर भारत का प्रतिनिधित्व नहीं करते. कागजी कारकर्दगी दिखाने के नाम पर अन्य प्रान्तों के लेखकों को समय-समय पर पुरस्कृत अवश्य कर दिया जाता है पर उन 'श्रेष्ठ लेखकों' की 'श्रेष्ठ पुस्तकें' भी इन संस्थाओं से नहीं छपतीं.
ब्राह्मणवादी मानसिकता से जुड़ी यह संस्थाएं प्रगतिशील लेखन और चिंतन से जुड़ना तथा गैर हिंदू एवं दलित लेखकों और विद्वानों को अपनी कार्यकारिणी में स्थान देना अपराध समझती हैं. इन संस्थाओं के पदाधिकारियों और विशेष रूप से प्रधान मंत्रियों का अभीष्ट अपने नाम से अधिक से अधिक पुस्तकें छपवा लेने और उनकी भरपूर रायल्टी प्राप्त करने, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, राज्यपालों, मुख्य-मंत्रियों आदि का विभिन्न आयोजनों के बहाने स्वागत-सत्कार करने, उनके साथ फोटो खिंचवाने और उनसे सम्बन्ध बढ़ाने तक सीमित है। इन संस्थाओं के पदाधिकारियों का हिन्दी-प्रेम वास्तव में प्रशंसनीय है. कारण यह है कि इन 'जन-गण-मन अधिनायकों' की जय-गाथा गाने वालों की हिन्दी जगत में कोई कमी नहीं है.
प्रश्न यह है कि हिन्दी दिवस मनाये जाने की आवश्यकता सरकारी तंत्रों से जुड़ी संस्थाओं और हिन्दी प्रदेशों की विभिन्न सरकारी गैरसरकारी इकाइयों में क्यों महसूस की गई ? क्या भारत से इतर किसी अन्य विकसित या विकासशील देश में भी राजभाषा दिवस मनाये जाने की कोई परम्परा है और यदि नहीं है तो क्यों नहीं है ? पहली अगस्त से लेकर 14 सितम्बर 1949 तक पूरे डेढ़ माह की लम्बी बहस के बाद संविधान सभा ने मुंशी-आयंगर फार्मूला स्वीकार करते हुए भारी तालियों की गड़गडाहट के बीच हिन्दी को राजभाषा पद पर प्रतिष्ठित किया था। 14 सितम्बर 1949 की शाम को लगभग सात बजे सारे दिन के समझौता प्रयासों की हलचल के बाद संविधान सभा के अध्यक्ष ने घोषित किया था -"आज पहली बार हम अपने संविधान में एक भाषा स्वीकार कर रहे हैं जो भारत संघ के प्रशासन की भाषा होगी। समय के अनुसार हमें अपने आपको ढालना और विकसित करना होगा। हमने अपने देश का राजनीतिक एकीकरण संपन्न किया है। राज भाषा हिन्दी देश की एकता को कश्मीर से कन्याकुमारी तक अधिक सुदृढ़ बना सकेगी।"सुनने में यह वक्तव्य काफ़ी अच्छा था. किंतु क्या भीतर से भी वे लोग, जिनका सम्बन्ध हिंदीतर प्रान्तों से था और जो उर्दू या हिन्दुस्तानी के विरोधी थे, ऐसा ही चाहते थे ? सच तो यह है कि उनकी रागात्मकता उनके प्रदेशों की भाषा के प्रति थी. कदाचित इसी लिए इतने वर्षों के अंतराल के बाद भी हिन्दी के माध्यम से हम कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश की अपेक्षित एकता को सुदृढ़ नहीं बना सके. वस्तुतः 14 सितम्बर 1949 की शाम को गूंजने वाली तालियों की गडगडाहट अन्य भारतीय प्रान्तों से जुड़ी भाषाओं के प्रतिनिधियों पर हिन्दी प्रान्तों की विशिष्ट मानसिकता के वर्चस्व का प्रतीक मात्र थी।
1949 में ही दिल्ली में आयोजित हिन्दी सम्मलेन को अपना संदेश भेजते हुए सरदार पटेल ने लिखा था -"राष्ट्रभाषा-राजभाषा न तो किसी प्रांत न किसी जाती की है. वह सारे भारत की भाषा है और इसके लिए यह आवश्यक है कि सारे भारत के लोग उसे समझ सकें और अपनाने का गौरव हासिल कर सकें." दूसरों पर आरोप लगा देना बहुत सरल होता है. किंतु हिन्दी भाषी कभी अपने गरीबन में झांकना पसंद नहीं करते. सरदार पटेल ने जहाँ यह कहा कि राजभाषा का कोई प्रान्त या कोई जाति नहीं होती, वहीं हिन्दी के भाषाविदों ने अपनी समझ से हिन्दी का वर्चस्व साबित करने के उद्देश्य से हिन्दी-प्रांत अहिन्दी-प्रांत, हिन्दी-भाषी अहिन्दी-भाषी ही नहीं हिन्दी-जाति और हिन्दी जनपद जैसे अनेक शब्द गढ़ लिए और उन्हें खूब-खूब उछाला. भारत से इतर किसी अन्य देश में इस मानसिकता का कोई उदहारण नहीं मिलेगा. भारत में भी हिन्दी से पूर्व अंग्रेज़ी, उर्दू, फारसी भाषाओँ को राजभाषा का दर्जा प्राप्त था, किंतु इन भाषाओँ को किसी क्षेत्र, जनपद या प्रान्त से जोड़कर कभी नहीं देखा गया. अंग्रेज़ी भाषी गैर अंग्रेज़ी भाषी, उर्दू भाषी गैर उर्दू भाषी, फारसी भाषी गैर फारसी भाषी जैसे विभाजन भी कभी नहीं हुए. इस मानसिकता का परिणाम यह हुआ कि बंगाल, महाराष्ट्र, और गुजरात आदि के वे लेखक जो हिन्दी आन्दोलन में अपनी सशक्त भूमिका निभा रहे थे, भारत की स्वाधीनता के बाद कहीं दबे स्वर में और कहीं खुलकर हिन्दी का विरोध करते दिखाई दिए. मुम्बई के ठाकरे परिवार के नेताओं ने अपनी ताक़त के बल पर हिदी भाषियों के साथ जो कुछ किया वह किसी से ढका-छुपा नहीं है।
अट्ठारहवीं शताब्दी के अंत तक क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों से इतर भारत की जितनी भी मान्य साहित्यिक भाषाएँ थीं उनकी पहचान किसी भी प्रान्त या क्षेत्र के आधार पर नहीं थी. संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दवी, भाखा, रेखता , उर्दू आदि ऐसी ही भाषाएँ थीं. इस दृष्टि से दकनी अथवा दक्खिनी पहली भाषा कही जा सकती है जिसने अपनी पहचान क्षेत्र-विशेष के आधार पर बनाने का प्रयास किया. फलस्वरू उसका साहित्य भी क्षेत्र-विशेष की चौहद्दियों तक सीमित रह गया और दक्षिणेतर प्रान्तों ने उसे कभी भी अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं बनाया.आज जिन भाषाओं को हम ब्रज तथा अवधी के नाम से जानते हैं, मध्यकाल के रचनाकारों ने उन्हें ब्रज तथा अवधी कहकर कभी उनका क्षेत्र सीमित नहीं किया. इन भाषाओं के जो रचनाकार फ़ारसी के संस्कारों से लगाव रखते थे और अपनी रचनाएं नस्तलीक़ (फ़ारसी लिपि) में लिखते थे, उन्होंने इन भाषाओं को 'हिन्दवी' और 'हिन्दी' की संज्ञा दी. किंतु जिन रचनाकारों पर संस्कृत भाषा के संस्कारों का प्रभाव था और जो अपनी रचनाएं देवनागरी में लिपिबद्ध करते थे, उन्होंने अपनी भाषा को 'भाखा' कहा. यह सिसिला वर्त्तमान हिन्दी के व्यावहारिक प्रयोग तथा देवनागरी आन्दोलन के प्रारम्भ तक चलता रहा. भारतेंदु ने भी प्रारम्भ में इसे 'साधु भाषा' की संज्ञा दी. नागरी आन्दोलन के मूल में उर्दू विरोध की भावना सशक्त थी. उर्दू वालों ने ही पहले पहल इसे हिन्दी आन्दोलन कहा और अंततः इसकी पहचान हिन्दी आन्दोलन के रूप में ही हुई।
ध्यान देने की बात यह है कि हमीदुद्दीन नागौरी, बाबा फरीद, अमीर खुसरो, मुल्ला दाउद, शेख मंझन, मलिक मुहम्मद जायसी आदि हिन्दवी / हिन्दी के कवि थे, भाखा के नहीं. ये लोग अपनी रचनाएं नस्तलीक़ (फारसी लिपि) में ही लिपिबद्ध करते थे. बाबा फरीद और निजामुद्दीन औलिया के घरों में हिन्दवी ही बोली जाती थी. अमीर खुसरो ने अपनी भाषा को स्वयं हिन्दवी कहा है. मुल्ला अब्दुल क़ादिर बदायूनी ने चंदायन की भाषा को मुन्तखिबुत्तवारीख में हिन्दवी बताया है. नुसरती ने मधुमालती के रचनाकार शेख मंझन के सम्बन्ध में लिखा है - "हजारां आफरीं बर शेख मंझन / जशेरे-हिन्दवी बूदस्त पुर-फ़न." अर्थात् शेख मंझन को हज़ार-हज़ार बधाई कि वे हिन्दवी काव्य-रचना में सिद्धहस्त थे. जायसी ने -"अरबी, तुर्की, हिन्दवी, भाषा जेती आहि / जामें मारग प्रेम का, सभै सराहें ताहि." लिखकर, हिन्दवी भाषा में अरबी फ़ारसी भाषाओं की ही भाँती व्याप्त प्रेम-तत्त्व का संकेत किया है और इसी को उसकी लोकप्रियता का कारण बताया है. बीजापुर के दकनी कवि बुलबुल ने "हरीरे-हिन्दवी पर कर तूं तस्वीर / लिबासे-पारसी है पाये-ज़ंजीर" लिखकर फारसी को पैरों की ज़ंजीर बताया है और उसकी तुलना में हिन्दवी का वर्चस्व स्वीकार किया है. शेख शरफुद्दीन अशरफ ने 'नवसिरहार' (1503 ई0) नामक ग्रन्थ में लिखा है -" बाचा कीनी हिन्दवी मैन / किस्सा मकतल शाह हुसैन / नज़्म लिखी सब मौजू आन / यों मैं हिन्दवी कर आसन" महाराष्ट्र के कवि अब्दुल गनी ने इब्राहीम आदिलशाह की प्रशंसा में 'इब्राहीम-नामा' लिखा जिसमें बताया कि मैं अरब और अजम (ईरान) की मसनवी नहीं जानता. मैं केवल 'हिन्दवी' और 'दिहलवी' जानता हूँ.- " ज़बां हिन्दवी मुझ्सों हौर दिहलवी / न जानूँ अरब हौर अजम मसनवी." मीर अब्दुल जलील बिलग्रामी ने ऐसी चतुष्पदियाँ लिखकर जिनमें एक चरण अरबी का, एक फारसी का, एक हिन्दवी का और एक तुर्की का होता था, हिन्दवी के सार्वभौमिक महत्त्व का संकेत किया था. निज़ामुल्मुल्क आसफ़्जाह वजीर फर्रुख्सियर बादशाह की प्रशंसा में मीर जलील ने लिखा था- "असीस दे के कही हिन्दवी मों यों सम्बत / रहे जगत में अचल बॉस ये वजीर सदा." उपर्युक्त विवेचन से कई बातें स्पष्ट रूप से सामने आती हैं. 1.यह कि बारहवीं शताब्दी से लेकर अठारहवीं शताब्दी ईस्वी तक अरबी फारसी रचनाकारों और विद्वानों ने जिस भारतीय भाषा को अभिव्यक्ति का माध्यम चुना उसे 'हिन्दवी' अथवा 'हिन्दी' का नाम दिया. ब्रज या अवधी जैसी कोई क्षेत्रीय भाषा इनकी दृष्टि में अपनी कोई पृथक सत्ता नहीं रखती थी. वस्तुतः हिन्दवी और हिन्दी इन्हीं के नाम थे. दकनी भी इन्हीं में शामिल थी. 2. यह कि देवनागरी लिपि के प्रति इन रचनाकारों का कोई झुकाव नहीं था. ये अपनी हिन्दवी अथवा हिन्दी रचनाएं भी नस्तालीक़ (फारसी लिपि) में ही लिखते थे. सही उच्चारण के लिए इन रचनाकारों ने नस्तालिक़ लिपि में कुछ विशेष चिह्न भी गढ़ लिए थे. 3. यह कि दिहलवी भाषा जिसे वर्त्तमान हिन्दी लेखकों ने खड़ी बोली का नाम दे रक्खा है, अमीर खुसरो तथा अन्य लेखकों की दृष्टि में हिन्दवी तथा हिन्दी से भिन्न थी. उर्दू भाषा इसी हिन्दवी, हिन्दी और दिहलवी का विकसित रूप है. कदाचित यही कारण है कि मीर ताकी मीर और ग़ालिब ने उर्दू के लिए हिन्दी शब्द का प्रयोग किया है. दूसरी ओर संस्कृत भाषा के रास्ते से जो लेखक आए थे और जिन्होंने ब्रज और अवधी जैसी जन भाषाओं में रचनाएं कीं, उन्होंने अपनी भाषा को 'भाखा' का नाम दिया' ब्रज और अवधी शब्द बहुत बाद में विकसित हुए. यदि यह मान लिया जाय कि यह पंक्ति कबीर की ही है कि -"संसकिरत है कूप जल, भाखा बहता नीर" तो यह भी मानना होगा कि कबीर ने संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा की तुलना में 'भाखा' के वर्चस्व और एक बड़े जनाधार को स्वीकार किया है. तुलसी ने "का भाखा का संस्कृत, प्रेम चाहिए सांच" लिखकर एक प्रकार से जायसी की ही बात दुहराई है. गुरु गोविन्द सिंह ने कृष्णावतार की रचना के लिए 'भाखा' को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया- " दसम कथा भागवत की भाखा करी बनाई" किंतु इनमें से किसी ने अपनी भाषा को क्षेत्र विशेष या जाति विशेष से नहीं जोड़ा. भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भाषा के अर्थ में खड़ी बोली का प्रयोग नहीं किया. उनकी दृष्टि में वर्त्तमान हिन्दी 'साधु भाषा' थी.मेरी दृष्टि में जिस समय भारतेंदु जी ने कहा "निज 'भाषा' उन्नति अहै सब उन्नति कौ मूल" उनका अभिप्राय अवधी और ब्रज भाषाओं से था. यदि उनका अभिप्रेत 'अपनी भाषा' होता तो सभी अपनी-अपनी भाषाओं की उन्नति चाहते. उनका ख़याल था कि उर्दू अपनी भाषा नहीं है, इसलिए वे उर्दू के मुकाबले में ब्रज और अवधी की उन्नति चाहते थे. देवनागरी आन्दोलन के प्रारम्भ से ही जो शीघ्र ही हिन्दी आन्दोलन में तब्दील हो चुका था, हिन्दी के शिल्पकारों ने जो रवैया अपनाया, उसमें साम्प्रदायिकता भी थी और क्षेत्रीयता भी थी. "जपौ निरंतर एक ज़बान / हिन्दी, हिंदू , हिन्दुस्तान" की गूँज के साथ तेज़ी से रूप और आकार ग्रहण करती इस भाषा में जन-मानस ने एक विशेष सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की गंध महसूस की. उर्दू को पहली बार इसी काल के हिन्दी लेखकों ने मुसलमानों की भाषा घोषित किया. रोचक बात यह है की यह घोषणा उस समय हुई जब उर्दू पत्रिकाओं के सत्तर प्रतिशत सम्पादक और उर्दू पुस्तकों के साथ प्रतिशत प्रकाशक हिंदू थे. इतना ही नहीं उर्दू को अशलील भाषा बताया गया और कहा गया की कोई भद्र हिंदू अपनी कन्याओं को उर्दू पढ़ने की अनुमति नहीं देता. हिन्दवी अथवा भाखा (ब्रज एवं अवधी) से उसकी अंतरप्रांतीय व्यापकता भी छीन ली गई और पहली बार इसी काल में ब्रज और अवधी को सीमित चौहद्दियों में क़ैद कर दिया गया. फलस्वरूप इन भाषाओं की साहित्यिक रचना-प्रक्रिया सहज ही घटती चली गई और उलटे बांस बरेली की कहावत चरितार्थ करते हुए इनके गले से साहित्य की जनेऊ उतार ली गई और इन्हें भाषा के पद से हटा कर उपभाषा और बोली की नियति जीने के लिए विवश कर दिया गया. उर्दू को मुसलमानों से जोड़ने का लाभ यह हुआ कि अखिल भारतीय स्तर पर उसकी परंपरागत लोकतांत्रिक पहचान समय के साथ धूमिल पड़ गई और उसका कोई क्षेत्र विशेष न होने के कारण उसकी ज़िन्दगी में बंजारापन घोल दिया गया.हिन्दी के प्रसार एवं विकास की गति बढ़ाने के उद्देश्य से 'केंद्रीय हिन्दी समिति,' 'राजभाषा समिति,' वज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली निर्माण आयोग, विधायी आयोग, राजभाषा प्रशिक्षण संस्थान, राजभाषा कार्यान्वयन समिति आदि के साथ-साथ अनेक अकादमियों, परिषदों, और संस्थानों का गठन किया गया. इन प्रयासों में करोड़ों रूपये खर्च अवश्य हुए और ज्ञान-विज्ञानं के क्षेत्र में हिन्दी की क्षमता का अपेक्षित भी विस्तार हुआ, किंतु साहित्य की लोकप्रियता बढ़ने के बजाय कुछ घट सी गई. इसमें संदेह नहीं कि हिन्दी अधिकारियों और अनुवादकों की भारी संख्या में नियुक्ति से हिन्दी के अध्ययन के प्रति कुछ आकर्षण बना हुआ है, किंतु अब भी हिन्दी की स्नातकोत्तर डिग्रियों के साथ न जाने कितने युवक बेरोजगार हैं और दूसरे छोटे-मोटे काम करके जीविकोपार्जन कर रहे हैं. सरकार ने भाषा को समृद्ध करने पर जितना बल दिया उसका शतांश भी हिन्दी को रोज़गार से जोड़ने और उसकी सम्प्रेष्ण क्षमता बढ़ाने पर नहीं दिया. भाषा का समृद्ध होना उसका लोकप्रिय होना नहीं है. तकनीकी शब्दावली सामान्य जन-जीवन की उपयोगी ज़रूरतें पूरी नहीं करती. संस्कृत जैसी संपन्न और समृद्ध भाषा अपना कोई लोकाधार नहीं बना पायी. केन्द्रीय एवं प्रादेशिक प्रशासन तंत्रों के प्रभाव से प्रशासनिक स्तर पर कुछ एक प्रदेशों में हिन्दी को बढ़ावा अवश्य मिला है, किंतु उसकी साहित्यिक इमारत अर्थ तंत्र और राजतंत्र से गंठजोड़ कर लेने के कारण अपना जनाधार खोती जा रही है. हिन्दी संस्थानों, अकादमियों और विश्वविद्यालयीय हिन्दी विभागों में राजनीतिक जोड़-तोड़ और पिटे-पिटाए मुद्दों पर बहस की गरमा-गर्मी तो मिल जायेगी, साहित्यिक वातावरण का अभाव सर्वत्र खलेगा. धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिकाएँ बंद हो गयीं और कोई नई पत्रिका उनका स्थान नहीं ले पायी. सम्मलेन पत्रिका, हिन्दुस्तानी त्रैमासिक, नगरी प्रचारिणी त्रैमासिक पत्रिका, हिन्दी अनुशीलन आदि का न केवल स्तर गिरा है, उनकी काया भी क्षीण हो गई है और उनकी आत्मा तक कहीं भीतर से चरमरा गई है. आलोचना त्रैमासिक पत्रिका मर-मरकर जीवित होती रहती है. हंस सारिका का स्थान ले पाने में असमर्थ है. अन्य व्यवसायिक पत्रिकाओं में साहित्य हाशिये पर है. विश्वविद्यालयीय अध्यापकों की संस्था भारतीय हिन्दी परिषद् प्रत्येक वर्ष अपना वार्षिक अधिवेशन कर पाने में असमर्थ है. कोई भी विश्वविद्यालय अधिवेशन के आयोजन का दायित्व संभालने के लिए आमादा नहीं दिखाई देता. फलस्वरूप परिषद चेतनाशून्य और अपाहिज बनकर रह गई है. विश्वविद्यालयों में निरंतर गिरता शोध-स्तर, प्रकाशकों की शोध पुस्तकें छापने के प्रति उदासीनता, अपने पैसों से पुस्तकों की पाँच सौ प्रतियाँ छपवाकर प्रकाशक और लेखक बन जाने की ललक, साहित्य के स्तर पर हिन्दी की स्थिति का बोध कराने के लिए पर्याप्त हैं. कबीर, सूर, तुलसी की बात जाने दीजिये, पिछले पचास वर्षों में हिन्दी में एक भी आचार्य रामचंद्र शुक्ल, एक भी प्रेमचंद, एक भी प्रसाद या निराला नहीं पैदा हुआ. कमलेश्वर, रामविलास शर्मा, विष्णु प्रभाकर आदि का नम लिया तो जा सकता है किंतु अब वे भी अतीत बन चुके हैं. बात यहाँ लेखक या कवि या कथाकार के छोटे या बड़े होने की नहीं है. बात है उसके जनाधार की, उसके कम्युनिकेटिव फोर्स की. बंगाल की जनता को रवीन्द्र नाथ टैगोर, काजी नज़रुलिस्लम, मधुसूदन दत्त, शरद चन्द्र की रचनाओं से जिस प्रकार जोड़ा गया और उनके प्रति जो जागरूकता पैदा की गई, तथाकथित हिन्दी प्रदेशों में वैसी जागरूकता किसी के लिए नहीं है. प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, कमलेश्वर और मुक्तिबोध के लिए भी नहीं. किसी भी साहित्य को जनता तक पहुंचाने और ओकप्रिय बनने में मीडिया की सशक्त भूमिका होती है और हमारे देश में मीडिया की यह स्थिति है की उसकी व्यवसायिक मानसिकता हिन्दी साहित्य के प्रचार और प्रसार के प्रति पूरी तरह बेहिस है. टीवी के विभिन्न चैनलों पर हँसी-मजाक और चुटकुले बाज़ी का छिछला और सस्ता बाज़ार गर्म रहता है और जनता की रूचि को इतना नीचे धकेल दिया जाता है की गंभीर साहित्य के लिए आस्वादन का कोई स्तर ही नहीं बन पाता. साहित्यिक गोष्ठियां चाहे कितने ही उच्च स्तर की हों, मीडिया की दृष्टि राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों, उच्च प्रशासनिक अधिकारियों इत्यादि तक सीमित रहती है जिन्हें साहित्यिक गोष्ठियों में उदघाटन या लोकार्पण के उद्देश्य से मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया जाता है. संयोजक आदि भी इन्हीं महानुभावों की परिक्रमा करते दिखायी देते हैं. इनके वक्तव्य इस प्रकार सुर्खियाँ देकर छपे जाते हैं जैसे यही साहित्य के मानी आलोचक और अधिकारी विद्वान हों. कभी-कभी उदघाटन सत्रों में तीन-तीन राज्यपाल तक देखे गए हैं. दर्शकों और श्रोताओं की रुच भी उदघाटन समारोह तक सीमित रहती है. बाद में स्थिति यह हो जाती है कि परिश्रम से लिखे गए आलेखों में भी कोई ग्लैमर नहीं रह जाता. समाचार पत्रों में इनकी उल्लेख्य चर्चा नहीं देखी जा सकती. जिस समाज में साहित्यकारों का आदर इया प्रकार किया जाय और जहाँ साहित्यकारों की स्थिति यह हो कि वे गोदान के होरी की तरह अधिकार-संपन्न आधुनिक ज़मींदारों के पाँव के तलवे सहलाने में ही आफियत महसूस करें वहाँ हिन्दी साहित्य के भविष्य की क्या आशा की जा सकती है.दुखद स्थिति यह है कि जहाँ अंग्रेज़ी में शैक्स्पीरियन स्टडीज़, विक्टोरियन नावेल, नाइनटींथ सेंचुरी फिक्शन जैसे विशिष्ट अध्ययन क्षेत्र के ढेर सारे जर्नल प्रकाशित होते हैं, हिन्दी में ऐसी एक भी पत्रिका नहीं दिखायी देती. यहांतक कि सूर और तुलसी जैसे जनप्रिय कवियों के भी विशिष्ट अध्ययन का कोई प्रयास नहीं किया गया. हिन्दी शोध की निरंतर कमज़ोर पड़ती दयनीय स्थिति का एक कारण यह भी है कि उसकी न तो कोई मान्यता है न ही अच्छे शोध-प्रबंधों पर बहस-मुबाहसे के लिए कोई प्रोत्साहन. यु. जी. सी. इंटरडिसिप्लिनरी अध्ययन पर बल देती है और हिन्दी के अध्यापक रूढ़ अध्यापन शैली को सीने से चिपकाए फिरते हैं. आप शोध के माध्यम से कितने ही प्रमाणिक तर्कों के आधार पर कुछ भी सिद्ध करते रहिये, कबीर, सूर, तुलसी, प्रेमचंद को आज से पचास वर्ष पूर्व जिस प्रकार पढाया जाता था आज भी वैसे ही पढाये जायेंगे. केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में शोध-छात्रों को पंजीकरण के बाद से ही पाँच हज़ार रूपये मिलने लगते हैं जिसके मोह में उनकी संख्या ज़रूर बढ़ रही है पर शोध का गाम्भीर्य अगभाग समाप्त हो चुका है.ऐसी स्थिति में हिन्दी के आचार्यों, संस्थाओं और समितियों से जुड़े तथाकथित दिग्गजों के समक्ष मैं केवा यह शेर पढ़ सकता हूँ- बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी / जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी. हिन्दी दिवस और राजभाषा पखवाडे के औपचारिक आयोजन मेरी दृष्टि में अपनी सार्थकता पूरी तरह खो चुके हैं और उनपर रूपये खर्च करने का कोई औचत्य नहीं है.
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लज्ज़ते-जिस्म की

लज्ज़ते-जिस्म की हर क़ैद से आजाद हैं ख्वाब।
जिंदा ज़हनों के शबो-रोज़ की रूदाद हैं ख्वाब।
आसमानों से उतर आते हैं खामोशी के साथ,
पैकरे-हुस्ने-मुजस्सम हैं, परीज़ाद हैं ख्वाब।
सामने आंखों के हों या हों नज़र से ओझल,
दिल में हर शख्स के, हर गोशे में आबाद हैं ख्वाब।
मेरी नज़रों में है दुनिया की तरक्की इनसे,
नौए-इंसान के इदराक की ईजाद हैं ख्वाब।
हम भी रह जायेंगे कल सिर्फ़ धुंधलकों की तरह,
जिस तरह आज हमारे लिए अजदाद हैं ख्वाब।
कभी लगता है कि हैं ख्वाब परिंदों की तरह,
कभी महसूस ये होता है कि सैयाद हैं ख्वाब।
वक़्त के साथ बदल जाता है दुनिया का मिज़ाज,
मुझको 'जाफ़र' मेरे बचपन के सभी याद हैं ख्वाब।
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वुसअते-दश्ते-जुनूं का मुझे / आबिद हशरी

वुसअते-दश्ते-जुनूं का मुझे अंदाज़ा नहीं।

क़ैद उस घर में हूँ जिसका कोई दरवाज़ा नहीं।

गमे-हस्ती,गमे-दुनिया, गमे-जानां,गमे ज़ीस्त,

ये तो सब ज़ख्म पुराने हैं कोई ताज़ा नहीं।

कुछ दिनों से मेरे एहसास का महवर है ये बात,

ज़िन्दगी उसकी तमन्ना का तो खमियाज़ा नहीं।

और इक रक्से-जुनूं बर-सरे-सहरा हो जाय,

दोस्तों बंद अभी शहर का दरवाज़ा नहीं।

उस गली में हुआ करता है दिलो-जां का ज़ियाँ,

मुझसे क्या पूछ रहे हो मुझे अंदाज़ा नहीं।

मैं वो खुर्शीद हूँ गहना के भी ताबिंदा रहा,

गर्दे-गम वरना हरेक रुख के लिए गाजा नहीं।

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सोमवार, 22 सितंबर 2008

शह्र-शह्र सन्नाटे / खालिद अहमद

शह्र-शह्र सन्नाटे, यूँ सदा को घेरे हैं।
जिस तरह जज़ीरों के, पानियों में डेरे हैं।
नींद कब मयस्सर है, जागना मुक़द्दर है,
जुल्फ़-जुल्फ तारीकी, ख़म-ब-ख़म सवेरे हैं।
इश्क क्या, वफ़ा क्या है, वक़्त क्या, खुदा क्या है,
इन लतीफ़ जिस्मों के, साए क्यों घनेरे हैं।
हू-ब-हू वही आवाज़, हू-ब-हू वही अंदाज़,
तुझको मैं छुपाऊं क्या, मुझ में रंग तेरे हैं।
तोड़कर हदे-इमकां, जायेगा कहाँ इर्फां,
राह में सितारों ने, जाल क्यों बिखेरे हैं।
हम तो ठहरे दीवाने, बस्तियों में वीराने,
अहले-अक़्ल क्यों खालिद, पागलों को घेरे हैं।
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