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सोमवार, 22 सितंबर 2008

शह्र-शह्र सन्नाटे / खालिद अहमद

शह्र-शह्र सन्नाटे, यूँ सदा को घेरे हैं।
जिस तरह जज़ीरों के, पानियों में डेरे हैं।
नींद कब मयस्सर है, जागना मुक़द्दर है,
जुल्फ़-जुल्फ तारीकी, ख़म-ब-ख़म सवेरे हैं।
इश्क क्या, वफ़ा क्या है, वक़्त क्या, खुदा क्या है,
इन लतीफ़ जिस्मों के, साए क्यों घनेरे हैं।
हू-ब-हू वही आवाज़, हू-ब-हू वही अंदाज़,
तुझको मैं छुपाऊं क्या, मुझ में रंग तेरे हैं।
तोड़कर हदे-इमकां, जायेगा कहाँ इर्फां,
राह में सितारों ने, जाल क्यों बिखेरे हैं।
हम तो ठहरे दीवाने, बस्तियों में वीराने,
अहले-अक़्ल क्यों खालिद, पागलों को घेरे हैं।
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