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मंगलवार, 23 सितंबर 2008

वुसअते-दश्ते-जुनूं का मुझे / आबिद हशरी

वुसअते-दश्ते-जुनूं का मुझे अंदाज़ा नहीं।

क़ैद उस घर में हूँ जिसका कोई दरवाज़ा नहीं।

गमे-हस्ती,गमे-दुनिया, गमे-जानां,गमे ज़ीस्त,

ये तो सब ज़ख्म पुराने हैं कोई ताज़ा नहीं।

कुछ दिनों से मेरे एहसास का महवर है ये बात,

ज़िन्दगी उसकी तमन्ना का तो खमियाज़ा नहीं।

और इक रक्से-जुनूं बर-सरे-सहरा हो जाय,

दोस्तों बंद अभी शहर का दरवाज़ा नहीं।

उस गली में हुआ करता है दिलो-जां का ज़ियाँ,

मुझसे क्या पूछ रहे हो मुझे अंदाज़ा नहीं।

मैं वो खुर्शीद हूँ गहना के भी ताबिंदा रहा,

गर्दे-गम वरना हरेक रुख के लिए गाजा नहीं।

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