सोमवार, 22 सितंबर 2008

हमन की बात समझेंगे ये मुल्ला क्या,पुजारी क्या.

अमीर खुसरो के बाद हिन्दुस्तानी ग़ज़ल की मस्ती का एहसास कबीर की शायरी में होता है। कबीर के कलाम में उनकी दो-एक गज़लें बेसाख्ता ज़हन पर अपना तअस्सुर छोड़ती हैं. उनकी एक काबिले-तवज्जुह ग़ज़ल है- "हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या / रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या. इसी ज़मीन में चंद अशआर, कबीर से ज़हनी कुर्बत रखते हुए तहरीर किए थे जिन्हें पेश कर रहा हूँ [ज़ैदी जाफ़र रज़ा]
हमन की बात समझेंगे, ये मुल्ला क्या पुजारी क्या।
हमन के वास्ते इनकी, खुशी क्या नागवारी क्या।
हमन के दिल में झांके तो सही कोई किसी लम्हा,
हमन दुनिया से क्या लेना, हमन को दुनियादारी क्या।
डुबोकर ख़ुद को देखो, इश्क़ की मस्ती के साग़र में,
समझ जाओगे तुम भी शैख़, हल्का क्या है भारी क्या।
हथेली पर लिए जाँ को, हमन तो फिरते रहते हैं,
हमन की राह रोकेगी, जहाँ की संगबारी क्या।
शराबे इश्क़ की लज्ज़त, कोई जाने तो क्या जाने,
ये मय सर देके मिलती है, यहाँ शह क्या भिकारी क्या।
हमन ख्वाबीदगी में भी, हैं पाते लुत्फे-बेदारी,
हमन को रक्से-मस्ती क्या, हमन की आहो-ज़ारी क्या।
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रविवार, 21 सितंबर 2008

घना बेहद था महसूसात का सहरा

घना बेहद था महसूसात का सहरा मैं क्या करता।
कोई हमदम न था, मैं था बहोत तनहा, मैं क्या करता।
मेरे चारो तरफ़ थीं ऊँची-ऊँची सिर्फ़ दीवारें,
मेरे सर पर न था छत का कोई साया मैं क्या करता।
मुहब्बत से मिला जो मैं उसे हमदम समझ बैठा,
वो निकला दूसरों से भी गया-गुज़रा, मैं क्या करता।
मेरे शोबे के सारे साथियों को, थी हसद मुझसे,
नहीं समझा कोई मुझको कभी अपना मैं क्या करता।
हवा में एक तेजाबी चुभन थी, चाँद जलता था,
तड़पते चाँदनी को मैंने ख़ुद देखा, मैं क्या करता।
उन्हीं कूचों से होकर हौसलों का कारवां गुज़रा,
उन्हीं कूचों ने मुझको कर दिया रुसवा, मैं क्या करता।
मेरे ही ख्वाब मुझ पर हंस रहे थे क्या क़यामत थी,
मैं बस खामोश था, होता रहा पस्पा, मैं क्या करता।
समंदर मेरे अन्दर मोजज़न था मेरी फिकरों का,
सफ़ीना ख्वाहिशों का आखिरश डूबा, मैं क्या करता।

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शनिवार, 20 सितंबर 2008

मिला था साथ बहोत मुश्किलों से

मिला था साथ बहोत मुश्किलों से उसका मुझे।
न रास आया मगर जाने क्यों ये रिश्ता मुझे।
चढ़ा रहे थे उसे जब सलीब पर कुछ लोग,
मुझे लगा था कि उसने बहोत पुकारा मुझे।
महज़ वो दोस्त नहीं था, वो और भी कुछ था,
अकेला शख्स था जिसने कहा फ़रिश्ता मुझे।
मुंडेर पर जो कबूतर हैं उनको देखता हूँ,
कहीं न भेजा हो उसने कोई संदेसा मुझे।
जो रात गुज़री है वो सुब्ह से भी अच्छी थी,
जो सुब्ह आई है लगती है कितनी सादा मुझे।
न जाने चाँदनी क्यों आ गई थी बिस्तर पर,
न जाने चाँद ने क्यों रात भर जगाया मुझे।
दिखा रहा था जो तस्वीर मुझको माज़ी की,
मिला था रात गए ऐसा एक परिंदा मुझे।
लिबासे-बर्ग शजर ने उतार फेंका है,
वो अपनी तर्ह कहीं कर न दे बरहना मुझे।
कुबूल हो गई आख़िर मेरी दुआ जाफ़र,
तवक़्क़ोआत से उसने दिया ज़ियादा मुझे.
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गुबार दिल पे बहोत आ गया है / फ़रीद जावेद

गुबार दिल पे बहोत आ गया है, धो लें आज।
खुली फिजा में कहीं दूर जाके रो लें आज।
दयारे-गैर में अब दूर तक है तनहाई,
ये अजनबी दरो-दीवार कुछ तो बोलें आज।
तमाम उम्र की बेदारियां भी सह लेंगे,
मिली है छाँव तो बस एक नींद सो लें आज।
तरब का रंग मुहब्बत की लौ नहीं देता,
तरब के रंग में कुछ दर्द भी समो लें आज।
किसे ख़बर है की कल ज़िन्दगी कहाँ ले जाय,
निगाहें-यार ! तेरे साथ ही न हो लें आज।
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किसी-किसी की तरफ़ / रईस फ़रोग

किसी-किसी की तरफ़ देखता तो मैं भी हूँ।
बहोत बुरा न सही, पर बुरा तो मैं भी हूँ।
खरामे-उम्र तेरा काम पायमाली है,
मगर ये देख तेरे ज़ेरे-पा तो मैं भी हूँ।
बहोत उदास हो दीवारों-दर के जलने से,
मुझे भी ठीक से दखो, जला तो मैं भी हूँ।
तलाशे-गुम्शुदागां में निकल तो सकता हूँ
मगर मैं क्या करूँ खोया हुआ तो मैं भी हूँ।
ज़मीं पे शोर जो इतना है सिर्फ़ शोर नहीं,
कि दरमियाँ में कहीं बोलता तो मैं भी हूँ।
अजब नहीं जो मुझी पर वो बात खुल जाए,
बराए नाम सही, सोचता तो मैं भी हूँ।

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किस क़दर उसके बदन में

किस क़दर उसके बदन में है दमक देखता हूँ।
आ गई है मेरी आंखों में चमक देखता हूँ।
नुक़रई किरनें थिरकती हैं अजब लोच के साथ,
चाँदनी रात में भी एक खनक देखता हूँ।
ऐसा लगता है कि जैसे हो किसी फूल की शाख,
उसके अंदाज़ में नरमी की लचक देखता हूँ।
छू के उसको ये हवाएं इधर आई हैं ज़रूर,
हू-ब-हू इनमें उसी की है महक देखता हूँ।
वो गुज़र जाता है जब पास से होकर मेरे,
अपने अन्दर किसी शोले की लपक देखता हूँ ।
शाम की सांवली रंगत में उसी की है कशिश,
वरना क्यों शाम के चेहरे पे नमक देखता हूँ।
उसका गुलरंग सरापा है नज़र में पिन्हाँ,
इन फिजाओं में उसी की मैं झलक देखता हूँ।
देखकर कूचए जानां में मुझे जाते हुए,
आज मौसम की निगाहों में है शक, देखता हूँ।
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गुरुवार, 18 सितंबर 2008

हमारे मुल्क की खुफ़िया निज़ामत

हमारे मुल्क की खुफ़िया निज़ामत कुछ नहीं करती।
ये तफ़्तीशें तो करती है, विज़ाहत कुछ नहीं करती।
ये दुनिया सिर्फ़ चालाकों, रियाकारों की दुनिया है,
यहाँ इंसानियत-पैकर क़यादत कुछ नहीं करती।
ज़मीनों से कभी अब प्यार की फ़सलें नहीं उगतीं,
ये दौरे-मस्लेहत है, इसमें चाहत कुछ नहीं करती।
चलो अच्छा हुआ तरके-तअल्लुक़ करके हम खुश हैं,
बजुज़ दिल तोड़ने के ये मुहब्बत कुछ नहीं करती।
तेरी महफ़िल में सर-अफाराज़ बस अहले-सियासत हैं,
वही फ़ाइज़ हैं उहदों पर, लियाक़त कुछ नहीं करती।
खता के जुर्म में हर बे-खता पर बर्क़ गिरती है,
हुकूमत है तमाशाई, हुकूमत कुछ नहीं करती।
महज़ दरख्वास्त देने से, मसाइल हल नहीं होते,
बगावत शर्ते-लाज़िम है, शिकायत कुछ नहीं करती।

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महसूस क्यों न हो मुझे / सहर अंसारी

महसूस क्यों न हो मुझे बेगानगी बहोत।
मैं भी तो इस दयार में हूँ अजनबी बहोत।
आसाँ नहीं है कश्मकशे-ज़ात का सफ़र,
है आगही के बाद गमे-आगही बहोत।
हर शख्स पुर-खुलूस है, हर शख्स बा-वफ़ा,
आती है अपनी सादा-दिली पर हँसी बहोत।
उस जाने-जां से क़तअ-तअल्लुक़ के बावजूद,
मैं ने भी की है शहर में आवारगी बहोत।
मस्ताना-वार वादिए-गम तै करो 'सहर',
बाक़ी हैं ज़िन्दगी के तक़ाज़े अभी बहोत।
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कहाँ से आए हैं, कैसे हुए हैं दहशत-गर्द।

कहाँ से आये हैं, कैसे हुए हैं दहशत-गर्द।
तबाहियों की ज़बां बोलते हैं दहशत-गर्द।
पता बताते नहीं क्यों ये अपनी मंज़िल का,
लहू ज़मीन का पीते रहे हैं दहशत-गर्द।
मुझे है लगता मज़ाहिब सभी हैं तंगख़याल,
कि इनकी सोच के सब सिसिले, हैं दहशत-गर्द।
ये मस्जिदें, ये कलीसा, ये बुतकदे अक्सर,
नशे में आते हैं जब, पालते हैं दहशत-गर्द।
हमारे जिस्म के अन्दर हैं कितने और भी जिस्म,
जहाँ छुपे हुए पाये गये हैं दहशत गर्द।
तेरे दयार में जाने में सर की खैर नहीं,
तेरे दयार के सब रास्ते है दहशतगर्द।
बिला वजह तो न लें जान बेगुनाहों की,
अगर खुदा को खुदा जानते हैं दहशत-गर्द।

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आहट न हुई थी / मुहसिन नक़वी

आहट न हुई थी न कोई परदा हिला था।
मैं ख़ुद ही सरे-मंजिले-शब चीख पड़ा था।
हालांकि मेरे गिर्द थीं लम्हों की फ़सीलें,
फिर भी मैं तुझे शह्र में आवारा लगा था।
तूने जो पुकारा है तो बोल उट्ठा हूँ वरना,
मैं फ़िक्र की दहलीज़ पे चुप-चाप खड़ा था।
फैली थीं भरे शह्र में तनहाई की बातें,
शायद कोई दीवार के पीछे भी खड़ा था।
या बारिशे-संग अबके मुसलसल न हुई थी,
या फिर मैं तेरे शह्र की रह भूल गया था।
इक तू की गुरेज़ाँ ही रहा मुझसे बहर तौर,
इक मैं की तेरे नक्शे-क़दम चूम रहा था।
देखा न किसी ने भी मेरी सिम्त पलटकर,
मुहसिन मैं बिखरते हुए शीशों की सदा था।
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