घना बेहद था महसूसात का सहरा मैं क्या करता।
कोई हमदम न था, मैं था बहोत तनहा, मैं क्या करता।
मेरे चारो तरफ़ थीं ऊँची-ऊँची सिर्फ़ दीवारें,
मेरे सर पर न था छत का कोई साया मैं क्या करता।
मुहब्बत से मिला जो मैं उसे हमदम समझ बैठा,
वो निकला दूसरों से भी गया-गुज़रा, मैं क्या करता।
मेरे शोबे के सारे साथियों को, थी हसद मुझसे,
नहीं समझा कोई मुझको कभी अपना मैं क्या करता।
हवा में एक तेजाबी चुभन थी, चाँद जलता था,
तड़पते चाँदनी को मैंने ख़ुद देखा, मैं क्या करता।
उन्हीं कूचों से होकर हौसलों का कारवां गुज़रा,
उन्हीं कूचों ने मुझको कर दिया रुसवा, मैं क्या करता।
मेरे ही ख्वाब मुझ पर हंस रहे थे क्या क़यामत थी,
मैं बस खामोश था, होता रहा पस्पा, मैं क्या करता।
समंदर मेरे अन्दर मोजज़न था मेरी फिकरों का,
सफ़ीना ख्वाहिशों का आखिरश डूबा, मैं क्या करता।
******************************
ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / घना बेहद था महसूसात का सहरा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / घना बेहद था महसूसात का सहरा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
रविवार, 21 सितंबर 2008
सदस्यता लें
संदेश (Atom)