मंगलवार, 20 मई 2008
अलीगनामा की दो नज्में / ज़ैदी जाफ़र रज़ा
शुक्रवार, 16 मई 2008
फ़िराक गोरखपूरी / प्रो. शैलेश जैदी
छोटा सा नाम रघुपति सहाय और अंग्रेज़ी, उर्दू, फारसी हिन्दी भाषाओं की योग्यता ऐसी, कि उनसे जो भी मिला दांतों तले उंगली दबा कर रह गया. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी के शिक्षक रहे और प्रोफेसर न होते हुए भी प्रोफेसरों से कहीं अधिक योग्य माने गए. वग्विदग्धता में बे-जोड़ और उर्दू शायरी में लाजवाब. गजलों में मीर तकी मीर की विरासत की भरपूर अंगड़ाई, रूबाइयों में विद्यापति की मिठास, कोमलता और रूमानियत का बांकपन.
मीर की शायरी ने तो फिराक पर ऐसा जादू किया था कि वह उसके आस्वादन और अनुकरण को अपने लिए गर्व का विषय समझते थे. स्वयं उन्हीं से सुनिए- 'यादे अइयाम की पुर्वाइयो, धीमे-धीमे / मीर की कोई ग़ज़ल गाओ के कुछ रात कटे.' या फिर ये शेर - 'फिराक शेर वो पढ़ना असर में डूबे हुए / के याद मीर के अंदाज़ की दिला देना.' इतना ही नहीं अपनी ग़ज़लों में मीर की ध्वनि सुनकर चुटकियाँ लेने में भी उन्हें मज़ा आता है- 'सदके फिराक एजाज़े-सुखन के, कैसे अड़ाई ये आवाज़ / इन ग़ज़लों के परदे में तो मीर की ग़ज़लें बोले हैं.
अपने समकालीनों में फिराक ने जोश मलीहाबादी के अतिरिक्त किसी को भी अपना समकक्ष स्वीकार नहीं किया - 'मेरा हरीफ़ सिवा जोश के नहीं कोई / बहोत हैं यूं तो फ़ने-शायरी के दावेदार.' मीर की ही भांति फिराक को अपनी काव्य-प्रतिभा और उसके श्रेष्ठ तथा उच्च-स्तरीय होने का पूरा विश्वास था. मीर की युवावस्था का एक शेर देखिए- 'खोल कर दीवान मेरा देख कुदरत मुद्दई / गरचे हूँ मैं नौजवाँ पर शायरों का पीर हूँ.' या फिर इस शेर में अपने अशआर की जो प्रशस्ति की गई है उसपर ध्यान दीजिए - 'रेखता खूब ही कहता है जो इन्साफ करें / चाहिए, अहले-सुखन मीर को उस्ताद करें.' फिराक अपनी शायरी के सन्दर्भ में क्या कहते हैं वह भी सुनिए - 'हमारे साजे-सुखन में वो लय भी पिन्हाँ है / करे तरन्नुमे-गुल्कार को जो आहनकार.' या फिर एक दूसरे शेर में यह दावा कि भविष्य में आने वाले शायरों में फिराक का रंग नापैद होगा- 'मेरे जीते जी सुन लो, साजे-ग़ज़ल के ये नगमे / और भी शायर आयेंगे लेकिन, कहाँ फिराक को पाओगे.' जोश मलीहाबादी ने फिराक के सम्बन्ध में ठीक ही कहा था- 'जो शख्स तस्लीम नहीं करता कि फिराक की अहम् शख्सीयत हिन्दोस्तान के माथे का टीका, उर्दू ज़बान की आबरू और शाइरी की मांग का सिंदूर है, वो निरा घामड है.' कदाचित इसी लिए फिराक उर्दू शायरी में अपनी आवाज़ को अपनी शताब्दी की आवाज़ मानते थे- 'हर उक्दए-तक्दीरे-जहाँ खोल रही है / हाँ ध्यान से सुनना ये सदी बोल रही है.'
अब अधिक विस्तार में न जाकर फिराक की गजलों से कुछ अशआर यहाँ उद्धृत किए जाते हैं. इन के प्रकाश में सहज ही निर्णय लिया जा सकता है कि फिराक की शायरी किस स्तर की है –
दास्ताँ इश्क की दुहरा गई तारों भरी रात / कितनी यादों के चेराग आज जले और बुझे.
कहाँका वस्ल तन्हाई ने शायद भेस बदला है, / तेरे दम भर के आ जाने को हम भी क्या समझते हैं.
छिड़ते ही ग़ज़ल बढ़ते चले रात के साए / आवाज़ मेरी गेसुए-शब खोल रही है.
ज़रा विसाल के बाद आइना तो देख ऐ दोस्त / तेरे जमाल की दोशीजगी निखर आई.
क़ैद क्या रिहाई क्या , है हमीं में सब आलम / रुक गए तो जिन्दाँ है, चल पड़े बियाबां है.
कफे-पा से ता सरे-नाजनीं, कई आँखें खुलती-झपकती हैं / के तमाम मस्कने-आहुआं, है दमे-खुमार तेरा बदन.
हुस्न सर-ता-पा तमन्ना, इश्क सर-ता-पा गुरूर / इसका अंदाजा नियाजो-नाज़ से होता नहीं.
देख वो टूट चला ख्वाबे-गराँ माजी का / करवटें लेती है तारीख बदलता है समाज.
तुझे तो हाथ लगाया है बारहा लेकिन / तेरे ख़याल को छूते हुए मैं डरता हूँ.
जिस्म उसका न पूछिए क्या है / ऐसी नरमी तो रूह में भी नहीं.
नफ्स-परस्ती पाक मुहब्बत बन जाती है जब कोई / वस्ल की जिस्मानी लज्ज़त से रूहानी कैफीयत ले.
हर साँस कोई महकी हुई नर्म सी लय है / लहराता हुआ जिस्म है या साज़ है लर्जां
फिराक के उपर्युक्त शेरो को पढने के बाद कौन कह सकता है कि अपनी शायरी के सम्बन्ध में उनका यह दावा ग़लत था -ख़त्म है मुझपे गज़ल्गोईए दौरे-हाजिर / देने वाले ने वो अंदाजे-सुखन मुझ को दिया
फिराक की रूबाइयों में परंपरागत भारतीय उपमानों और बिम्बों का प्रयोग उनके उर्दू मिजाज को बला का लावण्यमय बना देता है और उन्हें इतना लचीला कर देता है कि उसका शब्द-शब्द नृत्य करता प्रतीत होता है. पनघट से गागरें भरकर ग्रामीण महिलाएं किस प्रकार निकलती हैं देखिए -
पनघट में गगरिया छलकने का ये रंग / पानी हच्कोले ले-ले के भरता है तरंग.
काँधों पे, सरों पे, दोनों बांहों में कलस / मद अँखडियों में सीनों में भरपूर उमंग
गाँव की महिला दिन भर की थकान के बाद घर लौटने पर पति को ज्वर-ग्रस्त पाकर जिस प्रेम से उसके माथे पर हाथ रखती है उसका प्रभाव द्रष्टव्य है -
प्रेमी को बुखार, उठ नहीं सकती पलक / बैठी सरहाने,मांद मुखड़े की दमक
जलती हुई पेशानी पे रख देती है हाथ / पड़ जाती है बीमार की आँख में ठंडक
नारी के रूप-सौन्दर्य को जितनी बारीकी से फिराक ने देखा है समकालीन कविता में उसका अन्यत्र कोई उदाहरण नहीं मिलता. शरीर के हाव-भाव में पौराणिक संदर्भों का इन्द्रधनुषी रंग भरने की कला केवल फिराक में थी-
रश्के-दिले-कैकई का फितना है बदन / सीता के बिरह का कोई शोला है बदन
राधा की निगाह का छलावा है कोई / या कृशन की बांसुरी का लहरा है बदन
गंगा वो बदन के जिसमें सूरज भी नहाए / जमुना बालों की, तान बंसी की उडाए
संगम वो कमर का आँख ओझल लहराए / तहे-आब सरस्वती की धारा बल खाए
सूरदास को वात्सल्य रस का अद्भुत कवि माना गया है. फिराक के प्रसंग मे आलोचकों ने विद्यापति की चर्चा तो की है किंतु सूर का कोई उल्लेख नहीं हुआ है. फिराक की वात्सल्य रस की रुबाइयाँ पढ़कर सहज ही यह सोंचना पड़ता है कि उन्होंने सूर को बहुत गहराई से पढ़ा था. कुछ रुबाइयाँ देखिए-
किस प्यार से दे रही है मीठी लोरी / हिलती है सुडौल बांह गोरी गोरी
माथे पे सुहाग, आंखों में रस, हाथों में / बच्चे के हिंडोले की चमकती डोरी
आँगन में ठुनक रहा है जिदियाया है / बालक तो हटी चाँद पे ललचाया है
दरपन उसे देके कह रही है ये माँ / देख आईने में चाँद उतर आया है.
नहला के छलके-छलके निर्मल जल से / उलझे हुए गेसुओं में कंघी कर के
किस प्यार से देखता है बच्चा माँ को / जब घुटनों में ले के है पिन्हाती कपड़े
ममत्व का प्रसंग अधूरा रह जाएगा यदि फिराक की नज्मों की बात छोड़ दी जाय. वैसे तो फिराक की अनेक ऐसी नज्में हैं जिन पर विस्तार से लिखा जा सकता है. किंतु यहाँ केवल जुगनू शीर्षक नज्म के ही कुछ अंश दिए जा रहे हैं. इस कविता में फिराक का दर्द शब्दों के माध्यम से फूट पड़ा है -
मेरी हयात ने देखी है बीस बरसातें / मेरे जनम ही के दिन मर गई थी माँ मेरी
वो माँ के शक्ल भी जिस माँ की मैं न देख सका / जो आँख भर के मुझे देख भी सकी न वो माँ
मैं वो पिसर हूँ जो समझा नहीं के माँ क्या है / मुझे खिलाइयों और दाइयों ने पाला था.
इन परिस्थितियों में फिराक के मन में जुगनू बनने की इच्छा जागती है. इस इच्छा में भी कितना भोलापन है देखिए -
यतीम दिल को मेरे ये ख़याल होता था / ये शाम मुझको बना देती काश एक जुगनू
तो माँ की भटकी हुई रूह को दिखाता रहूँ / कहाँ कहाँ वो बिचारी भटक रही होगी
ये सोच कर मेरी हालत अजीब हो जाती / पलक की ओट में जुगनू चमकने लगते थे
कभी कभी तो मेरी हिचकियाँ सी बंध जातीं / के माँ के पास किसी तरह मैं पहोंच जाऊं.
माँ की इस कल्पना में अनाथ फिराक ने किसी को शरीक नहीं किया. अकेले ही अकेले माँ से दूरी का अहसास परवरिश पाता रहा.
वो माँ के जिसकी मुहब्बत के फूल चुन न सका / वो माँ मैं जिस की मुहब्बत के बोल सुन न सका
वो माँ के भेंच के जिसको कभी मैं सो न सका / मैं जिसके आंचलों में मुंह छुपा के रो न सका
किसी से घर में न कहता था अपने दिल का भेद / हरेक से दूर अकेला उदास रहता था.
फिराक की यह नज्म पर्याप्त लम्बी है. किंतु इसे पढ़ते हुए इसके लंबे होने का अहसास तक नहीं होता.अंत में फिराक की दो-एक रोचक बातें करके लेख समाप्त करता हूँ. कानपूर के एक मुशायरे में फिराक के पढ़ लेने के बाद एक शायर को आमंत्रित किया गया. कवि महोदय ने संकोचवश कहा- फिराक साहब जैसे बुजुर्ग शायर के बाद अब मेरे पढने का क्या महल है ? फिराक साहब खामोश नहीं रहे . तत्काल यह वाक्य चिपका दिया- मियाँ जब तुम मेरे बाद पैदा हो सकते हो तो मेरे बाद शेर भी पढ़ सकते हो.'ओबरा मिर्जापुर जाते हुए रास्ते में जीप का पहिया मिटटी में धंस गया. आस-पास जंगल और सन्नाटा. अचानक लाठी कंधे पर रखे एक आदमी आता दिखाई दिया. उसने पूछा क्या बात है , मैं चौकीदार हूँ. समस्या बताई गई . लाठी पहिये के नीचे जमाकर उसने ज़ोर लगाया.पहिया बाहर आ गया. फिराक साहब ने जेब से निकालकर उसे दस रूपए दिए. साथियों ने आश्चर्य किया. बोले इस जंगल में शेर-चीता या डाकू आकर जो हाल करते वो भी तो सोचिए. दस रूपए में इतने लोगों कि ज़िंदगी महंगी नहीं है.
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शनिवार, 10 मई 2008
एक जापानी कविता
सुबह के प्रकाश में
दौड़ रही है एक लड़की मेरी ओर
उसके शानदार केश
सूर्य के प्रकाश में घुल कर
चौंधिया रहे हैं मुझे.
उसके हाथ, उसके जूते, उसकी स्कर्ट, उसका शरीर
सभी घुल गए हैं सूर्य के प्रकाश में
जैसे कि वह लड़की जो
दाखिल हो जाता है सूर्य का प्रकाश
घने हरे जंगल में सुबह-सवेरे
हरी हो जाती है वह लड़की
वृक्षों की फुनगियाँ आपस में फुसफुसाती हैं
जैसे सुन ली हो उन्होंने अपनी मातृभाषा
सुबह-सुबह
विदेश की धरती पर.
लड़की जाती है सुबह-सुबह घास के मैदान में
जहाँ एक जोड़ी क्रीमी रंगत वाले घोडे
चर रहे हैं ओस की बूंदों से ढकी घास
चकित रह जाती है वह लड़की
यह देख कर
कि क्रीमी रंगत वाले घोडों के
पेट के नीचे की घास
किस प्रकार बदल जाती है क्रीमी रंगत में.
जिज्ञासा और आश्चर्य भरी लड़की
आ जाती है फलों के बाग़ में
जहाँ सेब पकने के लिए तैयार हैं
और बस गयी है उनकी स्थायी खुश्बू
हवा की नमी में
एक सफ़ेद कमरे में वह लड़की
भर जाती है उस खुश्बू से
कब से, कोई नहीं जानता
कहाँ से, कोई नहीं जानता
उभरता है एक लाल रंग
स्वस्थ हो उठती है लाल चमडी
बाग़ के सेब
फट पड़ने से रोके हुए हैं स्वयम को
उस चमकते प्रकाश में.
लड़की दौड़ रही है और निरंतर दौड़ रही है
बर्फ टूट रही है,
हवा में तेज़ी आ गई है
जाग गई हैं गिलहरियाँ.
वह लड़की आती है मेरे कमरे में
जहाँ मैं सो रहा हूँ सुबह की रोशनी में
मेरे दिमाग को एक तौलिये की तरह
रंग दिया गया है कई रंगों में
किसी समय
कोड़े से लगते हैं मेरे स्वप्न में
बौखला जाते हैं -मैं और वह लड़की
क्या मैं सुन रहा हूँ
धरती से ऊपर आते पानी की आवाज़
क्या मैं देख रहा हूँ
समय कितनी तेज़ी से खिसक रहा है
लड़की और मैं
कोमलता के साथ निकल जाते हें
स्वप्नों के उस पार
धीरे-धीरे लड़की मुरझा जाती है
धीरे-धीरे मैं हो जाता हूँ संतुष्ट
और शीघ्र ही देखता हूँ मैं
सामने चमकता हुआ सूरज.
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अनुवाद एवं प्रस्तुति : शैलेश जैदी
शुक्रवार, 9 मई 2008
कोरियाई कवि कू सांग' की दो कविताएं
परिचय
कू सांग ( 1919-2004 ) का जन्म सिउल (seoul ) में हुआ था. जब वह छोटा था उसका पूरा परिवार उत्तरी-पूर्वी शहर वानसन ( wonsan ) में आ गया था जहाँ वह बड़ा हुआ. उत्तरी कोरिया में उसने एक पत्रकार और लेखक के रूप में ख्याति अर्जित की. किंतु 1945 में वह दक्षिण में जाने के लिए बाध्य हो गया. कारण यह था की उसने कम्युनिस्ट आदर्शों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया. उसकी कविता परिष्कृत प्रतीकात्मकता और कृत्रिम अभिव्यंजना को स्वीकार नहीं करती. वह उन पाठको के मध्य अत्यधिक लोकप्रिय रहा जो ज़िंदगी को उसके अनिवार्य अर्थों में देखने के इच्छुक हैं. सरलता और सहजता उसके काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है.
[ 1 ] नया वर्ष
क्या जिस किसी ने भी देखा नया वर्ष
और उसकी नई सुबह
अपनी ही आंखों से नहीं देखा ?
मरे लिए है यह रहस्य का स्रोत
कि तुम स्वयं प्रदूषित कर देते हो प्रत्येक दिन
और उसे बदल देते हो काले जट कूड़ा-करकट में
क्या हर किसी ने नहीं देखा कबाडे जैसा दिन
और चीथडा बनी घडियाँ ?
यदि तुम स्वयं नहीं बनते नये
तुम नहीं कर सकते स्वागत नयी सुबह का
नये की तरह
जान लो, तुम कभी नहीं कर पाओगे स्वागत
नये दिन का नये की तरह.
यदि तुम्हारे ह्रदय की सरलता
एक बार भी पुष्पित हो जाय
तुम जी सकोगे नये वर्ष को नये की तरह.
[ 2 ] बडों की दुनिया
मत उड़ाओ मेरा मजाक़ और मत पूछो
कि तुम इतना क्यों डूबे रहते हो विचारों में ?
यह प्रश्न तुम्हारे जैसों को शोभा नहीं देता.
कारण जानना चाहते हो तो सुनो
मैं सदमा-ग्रस्त और गूंगा हो गया हूँ
और एकदम मौन,
शब्दों के खो जाने की वजह से.
यह सच है, बिल्कुल सच
कि आप वयस्क लोग जिसे ज़िंदगी कहते हैं,
वह अटी पड़ी है ऊपर से नीचे तक झूठ से.
आप न्याय की गुहार लगाते हैं
जबकि स्वयं आपका व्यवहार अन्याय पूर्ण होता है,
आपके होंठों पर प्यार की बातें होती हैं
जबकि घृणा करते हैं आप एक दूसरे से
आप शांति की वकालत करते हैं
जबकि आप आपस में लड़ते हैं
और जानें लेते हैं एक दूसरे की.
मुझे भय है कि मैं बहुत रूखा हो गया हूँ
किंतु, जैसा कि किसी अन्य ने कहा है -
जबतक कि तुम दुबारा
एक बच्चे का ह्रदय न प्राप्त कर लो
तुम नहीं प्रवेश कर सकते स्वर्ग की बादशाहत में
ठीक उसी प्रकार
यदि तुम दुबारा नहीं प्राप्त कर लेते बच्चे का ह्रदय
तुम नहीं निकल सकते
अपनी झूठी दुनिया के उस घेरे से
जो धंसाता चला जाता है तुम्हेंअपने भीतर.
*************
अनुवाद एवं प्रस्तुति : शैलेश जैदी
गुरुवार, 8 मई 2008
चीनी कवि हान डांग की दो कविताएं
और फिर एक घंटे बाद
सब कुछ मौन है - स्तब्ध, चेतना शून्य
अभी एक घंटा पहले भी
मैं चौकन्ना रहता हूँ
बुधवार, 7 मई 2008
नाज़िम हिकमत की अन्तिम कविता / प्रस्तुति : शैलेश ज़ैदी
परिचय
नाज़िम हिकमत ( 1902-1963 ) टर्की के सर्व-श्रेष्ठ कवि थे. उनकी अधिकांश रचनाएं कारागार की चहारदीवारियों में ही लिखी गयीं. उनकी काव्य रचनाओं के अंग्रेज़ी अनुवाद बड़ी संख्या में उपाब्ध हैं.एलन बोल्ड, रैंडी ब्लासिंग और जोन बर्गर के अनुवाद विशेष उल्लेख्य हैं. उनकी कविताओं में अनुभवों का जुझारूपन, जीवंतता की चमक और ज्योमितीय कम्पास का गुण है. उनकी प्रेम कविताएं पत्नी को संबोधित कर के लिखी गई हैं. कारगर उनकी दृष्टि में क्या है, देखिये-
उन्होंने हमें बंदी बना लिया है,
हमें सलाखों के पीछे डाल दिया है,
मैं ऊंची दीवारों के भीतर हूँ और तुम बाहर
किंतु इस से क्या होता है.
बुरी स्थिति तो वह है
जहाँ लोग जान-बूझ कर या अनजाने
मेंअपने भीतर कारावास जीते हैं.
अधिकांश लोगों को इसके लिए बाध्य कर दिया गया है.
बेचारे ईमानदार, परिश्रमी और अच्छे लोग !
वो उतना ही प्यार के अधिकारी हैं
जितना मैं तुम्हें प्यार करता हूँ.
नाजिम हिकमत ने आने वाली पीढियों को विशेष रूप से बच्चों को बड़े ही सकारात्मक सुझाव दिए हैं और इच्छा व्यक्त की है कि वो अपने स्वर्ग का निर्माण ख़ुद करें-
ठीक है, तुम खूब शरारतें करो,
दीवारों और ऊंचे वृक्षों पर चढो,
अपनी साइकलों को जिधर चाहो घुमाओ-फिराओ,
तुम्हारे लिए यह जानना अनिवार्य है
कि तुम इस काली धरती पर
किस प्रकार बना सकते हो अपना स्वर्ग
तुम चुप करदो उस व्यक्ति को
जो तुम्हें पढाता है कि यह सृष्टि
आदम से प्रारम्भ हुई
तुम्हें धरती के महत्त्व को स्वीकारना है.
तुम्हें विश्वास करना है कि धरती शाश्वत है.
अपनी माँ और धरती माँ में कभी भेद मत करना
इस से उतना ही प्यार करना
जितना अपनी माँ से करते हो.
यहाँ पाठकों के लिए प्रस्तुत की जाती है नाजिम हिकमत की अन्तिम कविता शव -
क्या मेरे शव को ले जाया जायेगा नीचे अपने आँगन से ?
तुम कैसे उतारोगे मेरे ताबूत को तीन मंजिल नीचे ?
लिफ्ट में वह समाएगा नहीं
और सीढियां बहुत संकरी हैं
आँगन में होगी थोडी सी धूप
और होंगे कबूतर और बच्चों की चील-पों
फर्श हो सकता है चमकता हो बारिश में
और कूड़े-दान पड़े हों इधर-उधर बिखरे
अगर यहाँ की रीतियों के अनुसार मैं यहाँ से गया
चेहरा आसमान की ओर खुला हुआ
कोई कबूतर मुझ पर बीट कर सकता है
जो कि एक शगुन है
बैंड-बाजा यहाँ पहुंचे न पहुंचे
बच्चे ज़रूर आयेगे मेरे पास, मेरे निकट
बच्चों को पसंद हैं शव-यात्राएं
जब
निकलेगा मेरा शव
तो किचन की खिड़की मुझे ताकती होगी
बालकनी में सूखते कपड़े
हिलते हुए करेंगे मुझे बिदा
मैं यहाँ खुश था
कल्पनातीत खुशी थी मेरे पास
मित्रो ! तुम सब जियो लम्बी उम्र
और जीवन पर्यन्त रहो सुखी.
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मंगलवार, 6 मई 2008
मेज़ो कवितायें / प्रस्तुति : नासिरा शर्मा
टूटे सपने, सूखी हड्डियाँ,
क्या कभी धूरा भी प्रशंसा भरे गीत गा सकता है ?
इस राख के ढेर में
पहाड़ दूर हैं और आसमान ऊपर,
बादल की गरज और बिजली की चमक से प्रकृति
मेरे स्थिर मस्तिष्क पर दस्तक देता है
क्या प्रकृति के पास नहीं है
3. मूर्ख गया नरक में / मोना ज़ोत
उसने रस्सी कसी
मंगलवार, 29 अप्रैल 2008
ग़ज़ल / शैलेश जैदी
मिला है जब भी वो, बाकायदा क्यों दिल धड़कता है ?
बहुत मासूमियत से उसने पूछा एक दिन मुझसे ,
बताओ मुझको, है क्या माजरा, क्यों दिल धड़कता है ?
मुसीबत में हो कोई, टीस सी क्यों दिल में उठती है,
किसी को देख कर टूटा हुआ, क्यों दिल धड़कता है ?
किया है मैं ने जो अनुबंध उस में कुछ तो ख़तरा है,
मैं तन्हाई में जब हूँ सोचता, क्यों दिल धड़कता है ?
अनावश्यक नहीं होतीं कभी बेचैनियां दिल की,
कहीं निश्चित हुआ कुछ हादसा, क्यों दिल धड़कता है ?
तेरे आने से कुछ राहत तो मैं महसूस करता हूँ,
मगर इतना बता ठंडी हवा, क्यों दिल धड़कता है ?
अभी दुःख-दर्द क्या इस जिंदगी में और आयेंगे,
जो होना था वो सबकुछ हो चुका, क्यों दिल धड़कता है?
कहा मैं ने के अब दिल में कोई हसरत नहीं बाक़ी,
कहा उसने के बतलाओ ज़रा क्यों दिल धड़कता है ?
वो मयखाने में आकर होश खो बैठा है, ये सच है,
मगर क्या राज़ है, साकी ! तेरा क्यों दिल धड़कता है ?
मंगलवार, 15 अप्रैल 2008
शैलेश ज़ैदी की पाँच हिन्दी ग़ज़लें
यादों की दस्तक पर मन के वातायन खुल जाते है.
अपने आप ही मर्यादा के सब बन्धन खुल जाते हैं.
मैं उसको आवाज़ नहीं दे पाता लौट के आ जाओ,
दिल के गाँव में पीड़ा के पथ आजीवन खुल जाते हैं..
अर्थ-व्यवस्था के सुधार का आश्वासन क्यों देते हो ?
महंगाई की मार से झूठे आश्वासन खुल जाते हैं.
निर्धनता, भुखमरी मिटाने के प्रयास क्यों निष्फल हैं ?
तन ढकने की बात हुई जब और भी तन खुल जाते हैं.
शीशे के दरवाजों के वातानुकूल कक्षों में भी,
कुछ अधिकारी क्यों पाकर थोड़ा सा धन खुल जाते हैं.
मेरे घर के आँगन की दीवार बहुत ही नीची है.
ऊंचे भवनों की छत से नीचे आँगन खुल जाते हैं.
ओट में पलकों की सावनमय नयन छुपाए बैठे हो,
आंसू छलक-छलक पड़ते हैं जब ये नयन खुल जाते हैं.
[2]
पुष्पों का स्थैर्य दीर्घकालीन नहीं होता ।
इसीलिए मन पुष्पों के आधीन नहीं होता ॥
होंठों की मुस्कानें अक्सर धोखा देती हैं ।
आस्वादन का मोह सदा रंगीन नहीं होता ॥
दर्शक दीर्घा में बैठा हर व्यक्ति, एक जैसा ,
नाट्य-कला का भीतर से शौकीन नहीं होता ॥
सुख,संतोष,आनंद सरीखे सुंदर शब्दों का,
अर्थ है क्या जबतक कोई स्वाधीन नहीं होता ॥
अलंकरण, आभूषण से कब रूप संवारता है ,
स्वाद रहित है भोजन जो नमकीन नहीं होता ॥
कुर्सी ही आसीन हुआ करती है लोगों पर ,
कुर्सी पर शायद कोई आसीन नहीं होता ॥
बस उपाधियाँ मिल जाएं होता है लक्ष्य यही ,
पढने-लिखने में यह मन तल्लीन नहीं होता ॥
राजनीति में आने वाले दिग्गज पुरुषों का,
कोई भी अपराध कभी संगीन नहीं होता ॥
[3]
दिशा-विहीन हैं सब , फिर भी चल रहे हैं क्यों ?
हर-एक पल नई राहें बदल रहे हैं क्यों ?
समाज आज का विज्ञापनों की मंडी है।
हम इस समाज में चुपचाप पल रहे हैं क्यों ?
उड़े-उड़े से हैं चेहरे, झुकी-झुकी आँखें।
लुटा के आए हैं क्या , हाथ मल रहे हैं क्यों ?
लगी है आग ये कैसी, ये शोर कैसा है ?
ये किस के घर हैं, यहाँ लोग जल रहे हैं क्यों ?
कहाँ विलुप्त हुई स्वाभिमान की पूंजी ।
हम आज बर्फ की सूरत पिघल रहे हैं क्यों ?
कभी तो सोंचो , युगों तक, सभी दिशाओं में ।
हम इस जगत में हमेशा सफल रहे है क्यों ?
ये चक्रव्यूह है बाजारवाद का, इस में ।
हमारे मित्र निरंतर फिसल रहे हैं क्यों ?
ये कैसा शहर है, क्यों दौड़-भाग जारी है ?
घरों से लोग परीशां निकल रहे है क्यों ?
[4]
विपत्तियों में भी मुस्कान का भरोसा है ।
खिलेंगे फूल, ये उद्यान का भरोसा है ॥
भटक रहे हैं वो अज्ञान- के अंधेरों में ।
जिन्हें विवेक - रहित ज्ञान का भरोसा है ॥
जगत में छोड़ के जाना है एक दिन जिसको ।
शरीर के उसी परिधान का भरोसा है ॥
ये पेड़, जिन पे नही आज एक भी पत्ता ।
इन्हें वसंत के आह्वान का भरोसा है ॥
अँधेरी रातें हों जैसी भी, सुब्ह आती है ।
दिवस हों जैसे भी, अवसान का भरोसा है ॥
ये लोग योग को व्यवसाय क्यों बनाते हैं।
वहीं है योग , जहाँ ध्यान का भरोसा है ॥
गिरे-पडों को भी मैं आदमी समझता हूँ ।
मुझे मनुष्य के सम्मान का भरोसा है ॥
[5]
कलुशताएं किसी के मन में हों, अच्छी नहीं लगतीं.
दरारें कैसी भी जीवन में हों, अच्छी नहीं लगतीं.
बताओ तो सही, हर पल मुखौटे क्यों बदलते हो,
विवशताएं किसी बन्धन में हों, अच्छी नहीं लगतीं.
तुम्हारा रूप खिल उठता है जब तुम मुस्कुराते हो,
लकीरें कुछ अगर दरपन में हों, अच्छी नहीं लगतीं.
युवावस्था में दुःख का झेलना मुश्किल नहीं होता,
मगर पीडाएं जो बचपन में हों, अच्छी नहीं लगतीं.
जुदाई की ये घडियाँ यूं तो सह लेते हैं सब लेकिन,
यही घडियाँ अगर सावन में हों, अच्छी नहीं लगतीं.
सुलगती हों कहीं चिंगारियां अन्तर नहीं पड़ता,
ये जब ख़ुद अपने ही दामन में हों, अच्छी नहीं लगतीं.