शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

हिन्दी ग़ज़ल /तिमिर के बीच मैं जलते दियों को देखता हूं

तिमिर के बीच मैं जलते दियों को देखता हूं॥
मैं जिस से मिलता हूं केवल गुणों को देखता हूं॥
तुम्हारे रूप में फूलों की मुस्कुराहट है,
चलो जिधर भी उधर तितलियों को देखता हूं॥
तुम्हारे मुझसे हैं संबन्ध ये पता है मुझे,
सदैव स्वप्नों की कुछ धज्जियों को देखता हूं॥
जड़ों से मिलता है पेड़ों को नित नया जीवन,
मैं उन में उगती नयी कोपलों को देखता हूं॥
तुम्हारी मांग में रख कर गुलाब पंखुरियाँ,
भविष्य रचती हुई सरहदों को देखता हूं॥
तुम्हारी आँखों में संभावनाएं बोलती हैं,
तुम्हारे होंठों पे संचित सुरों को देखता हूं॥
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1 टिप्पणी:

Amitraghat ने कहा…

"सत्यतः सकारात्मक भावयुक्त रचना लगी..."
प्रणव सक्सैना amitraghat.blogspot.com