सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

मुहब्बतों में खसारे नज़र नहीं आते

मुहब्बतों में खसारे नज़र नहीं आते .
ये आग वो है शरारे नज़र नहीं आते .

ज़रा सी तल्खियां क्या आ गयी हैं रिश्तों में,
जो वक़्त साथ गुज़ारे नज़र नहीं आते ..

हमारी कश्तियाँ गिर्दाब से हैं खौफ़-ज़दा,
हमें नदी के कनारे नज़र नहीं आते..

ये इन्तहाए-मुहब्बत नहीं तो फिर क्या है,
उसे गुनाह हमारे नज़र नहीं आते..

सियाह बादलों की ज़द में है फ़लक का निज़ाम,
कहीं भी चाँद सितारे नज़र नहीं आते ..

हम अपनी धुन में कुछ ऐसे हुए हैं नाबीना,
के मौसमों के इशारे नज़र नहीं आते ..
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खसारे=घाटे, शरारे=चिंगारी, तल्ख़ियाँ=कड़वाहटें, गिर्दाब=भंवर, खौफ़-ज़दा=भयभीत,फ़लक-आसमान, निज़ाम=व्यवस्था नाबीना=अंधे ।

3 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

सियाह बादलों की ज़द में है फ़लक का निज़ाम,
कहीं भी चाँद सितारे नज़र नहीं आते ..


-बहुत खूब!

निर्मला कपिला ने कहा…

ज़रा सी तल्खियां क्या आ गयी हैं रिश्तों में,
जो वक़्त साथ गुज़ारे नज़र नहीं आते ..

ये इन्तहाए-मुहब्बत नहीं तो फिर क्या है,
उसे गुनाह हमारे नज़र नहीं आते..
वाह बहुत खूब लाजवाब गज़ल आभार्

bijnior district ने कहा…

ये इन्तहाए-मुहब्बत नहीं तो फिर क्या है,
उसे गुनाह हमारे नज़र नहीं आतेA।
शानदार गजल