शनिवार, 2 जनवरी 2010

अगर ऐसा हो / शेल सिल्वरस्टीन [1930- 1999]

अगर ऐसा हो ?

कल की शब जब यहाँ

मैं था लेटा हुआ सोंच में

मेरे कानों में गर ऐसा हो ? के सवालात कुछ

रेंगने से लगे ।

सारी शब मुझको सच पूछिए तो

परीशान करते रहे ।

और गर ऐसा हो का ये फ़रसूदा नगमा

कोई गुनगुनाता रहा ।

क्या हो गर ऐसा हो

के मैं स्कूल में

बहरा हो जाऊं पूरी तरह ?

क्या हो गर ऐसा हो

बन्द कर दें वो स्वीमिंग का पूल

कर दें पिटाई मेरी ?

क्या हो गर ऐसा हो

मेरे प्याले में हो ज़ह्र

मैं दमबख़ुद हो के रोने लगूं ?

क्या हो गर हो के बीमार मैं चल बसूं ?

क्या हो गर मुझको लज़्ज़त का एहसास कुछ भी न हो ?

क्या हो गर

सब हरे रग के बाल उग आयें सीने पे

मुझको पसन्दीदा नज़रों से

देखे न कोई कहीं ?

क्या हो गर कोई बिजली कड़कती हुई

मुझपे ही गिर पड़े ?

क्या हो गर मेरे इस जिस्म की

बाढ रुक जाये

सर मेरा छोटा स होता चला जाय

ज़ालिम हवा

सब पतगें मेरी फाड़ दे ?

क्या हो गर जंग छिड़ जाये

माँ बाप मांगें तलाक़

और हो जायें इक दूसरे से अलग ?

क्य हो गर

मेरी बस आये ताख़ीर से ?

क्या हो गर दाँत मेरे न सीधे उगें ?

फाड़ डालूं मैं अपने सभी पैन्ट

क़ासिर रहूं सीखने से कोई रक़्स ता ज़िन्दगी ?

यूं बज़ाहिर तो सब ठीक है

रात का वक़्त लेकिन अगर ऐसा हो

के सवालात की ज़र्ब से

करत रहता है मजरूह अब भी मुझे।

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