अगर ऐसा हो ?
कल की शब जब यहाँ
मैं था लेटा हुआ सोंच में
मेरे कानों में “गर ऐसा हो ?” के सवालात कुछ
रेंगने से लगे ।
सारी शब मुझको सच पूछिए तो
परीशान करते रहे ।
और गर ऐसा हो का ये फ़रसूदा नगमा
कोई गुनगुनाता रहा ।
क्या हो गर ऐसा हो
के मैं स्कूल में
बहरा हो जाऊं पूरी तरह ?
क्या हो गर ऐसा हो
बन्द कर दें वो स्वीमिंग का पूल
कर दें पिटाई मेरी ?
क्या हो गर ऐसा हो
मेरे प्याले में हो ज़ह्र
मैं दमबख़ुद हो के रोने लगूं ?
क्या हो गर हो के बीमार मैं चल बसूं ?
क्या हो गर मुझको लज़्ज़त का एहसास कुछ भी न हो ?
क्या हो गर
सब हरे रग के बाल उग आयें सीने पे
मुझको पसन्दीदा नज़रों से
देखे न कोई कहीं ?
क्या हो गर कोई बिजली कड़कती हुई
मुझपे ही गिर पड़े ?
क्या हो गर मेरे इस जिस्म की
बाढ रुक जाये
सर मेरा छोटा स होता चला जाय
ज़ालिम हवा
सब पतगें मेरी फाड़ दे ?
क्या हो गर जंग छिड़ जाये
माँ बाप मांगें तलाक़
और हो जायें इक दूसरे से अलग ?
क्य हो गर
मेरी बस आये ताख़ीर से ?
क्या हो गर दाँत मेरे न सीधे उगें ?
फाड़ डालूं मैं अपने सभी पैन्ट
क़ासिर रहूं सीखने से कोई रक़्स ता ज़िन्दगी ?
यूं बज़ाहिर तो सब ठीक है
रात का वक़्त लेकिन अगर ऐसा हो
के सवालात की ज़र्ब से
करत रहता है मजरूह अब भी मुझे।
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