मंगलवार, 19 जनवरी 2010

इमकान / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

इमकान

हवा के दोश पे उड़ते ये बादलों के गिरोह
घना सियाह अंधेरा है जिन के दामन में
न उड़ के जायें कहीं उन पहाड़ियों की तरफ़
नहा के ज़ुल्फ़ें वो अपनी सुखा रही होगी
चमकती धूप में कुछ गुनगुना रहि होगी
पहोंच गये ये अगर आके इनके घेरे में
न कर सकेगी हिफ़ाज़त वो घुप अँधेरे में।
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