रविवार, 22 नवंबर 2009

भटक रहा हूं मैं कब से नये उफ़क़ ले कर

भटक रहा हूं मैं कब से नये उफ़क़ ले कर ।
किताबे-दिल के उड़ा दो वरक़ वरक़ ले कर॥

मैं आसमानों से आगे निकल गया हूं कहीं ,
के लौटना है मुझे रम्ज़े-नूरे-हक़ ले कर ॥

अजब यगानः ओ- यकता है दर्सगाहे-ख़िरद,
सभी हैं इस से निकलते नया सबक़ ले कर ॥

अभी रगों में है बेहद लहू का तेज़ दबाव,
अभी पड़ा हूं मैं बिस्तर पे क़ल्बे-शक़ ले कर्॥

ज़रा सी जान कहीं मुझ में अब भी बाक़ी है,
मैं जा रहा हूं यही आखिरी रमक़ ले कर ॥
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1 टिप्पणी:

"अर्श" ने कहा…

ज़रा सी जान कहीं मुझ में अब भी बाक़ी है,
मैं जा रहा हूं यही आखिरी रमक़ ले कर ॥

kya khub she'r kahe hain aapne , matalaa khud kahar ki tarah hai ... kamaal ki shayari padhane ko mili aapse ... shukriya...


arsh