वो एक ठहरे हुए शान्त जल के जैसा था ।
स्वभाव उसका मधुर था, तरल के जैसा था ॥
हमारे युग की ये गतिशीलता वहाँ पे रुकी,
जहाँ समय किसी बरछी के फल के जैसा था ॥
मैं झोंपड़े में सिमट आया ये विवशता थी,
मेरा भी घर कभी दिखता महल के जैसा था॥
मैं उस का रूप विवेचित करूं, तो कैसे करूं,
वो हू - ब - हू मेरी ताज़ा ग़ज़ल के जैसा था॥
जो मैं ने रात अचेतन में झाँक कर देखा,
मैं इक खिले हुए शत दल कमल के जैसा था॥
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