रविवार, 15 नवंबर 2009

ये सीना हो गया पत्थर सा सख़्त-जाँ कैसे ।

ये सीना हो गया पत्थर सा सख़्त-जाँ कैसे ।
उतार पायेगा ख़ंजर कोई यहाँ कैसे ॥
फ़लक पे गर्द उड़ाता है बादलों का हुजूम ,
ज़मीं पे चान्द करे नूर-पाशियाँ कैसे ॥
गुलों ने अपनी हिफ़ाज़त में कुछ किया ही नहीं,
संभाल पायेंगे ज़ुल्मत की आँधियाँ कैसे ॥
अभी तो सुबह का मंज़र है मेरी आँखोँ में,
अभी से ख़्वाबों को देखूं मैं खूं-चकाँ कैसे ॥
न कोई घर ही बचा है, न है ठिकाना कोई,
ये लोग शह्र से जायेंगे अब कहाँ कैसे ॥
मैं क़ैद ख़ानों में हर सर्दो-गर्म देख चुका,
मुझे सतायेंगी दुनिया की सख़्तियाँ कैसे ॥
मैं खोया-खोया सा हूं मीर के तग़ज़्ज़ुल में,
बनूं मैं हज़रते ग़ालिब का मदह-ख़्वाँ कैसे ॥
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2 टिप्‍पणियां:

Asha Joglekar ने कहा…

न कोई घर ही बचा है, न है ठिकाना कोई,
ये लोग शह्र से जायेंगे अब कहाँ कैसे ॥
वाह, वाह, बहुत खूब ।

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत उम्दा!