बुधवार, 13 जुलाई 2011

सियासत की अंधी सुरंगों में रोशनी के टूटते-बिखरते ख़्वाब : नासिरा शर्मा की कहानियाँ [3]

सियासत की अंधी सुरंगों में रोशनी के टूटते-बिखरते ख़्वाब

सियासी मन-मस्तिष्क से बनायी गयी सुरंगें योजनाब्द्ध तो होती ही हैं, किसी-न-किसी उद्देश्य को भी रूपान्तरित करती हैं और उनके बनाने वालों के रोशनी से लब्रेज़ ख़्वाब उनमें टूटते-बिखरते रहते हैं । उन सुरंगों में ढकेल दिये गये लोग सुरंगों का अन्धापन इस तरह ओढ लेते हैं कि भय के अँधेरों में रेंगते रहने के सिवाय उनमें जिज्ञासा का कोई चिराग़ नहीं रौशन हो पाता । हाँ एक प्रश्न अपनी पूरी भूमिका के साथ ज़रूर जल उठता है –“क्या इन्सान की जड़ें उसका पीछा कभी नहीं छोड़तीं ? कम्पाला शहर में पिछले कई महीनों से सिर्फ़ एक नारा गूँज रहा था “इन्डियन्स गो बैक” और यह नारा उन लोगों के लिए था जो यह जानते भी नहीं थे कि इन्डिया कहाँ है और कैसा है ? बस इन नारों के साथ भारतीय मूल के युगान्डा निवासियों के घर थे जो धू-धू कर के जल रहे थे । गुलशन को एक बात समझ में नहीं आ रही थी कि वह तो युगान्डा की निवासी है । वहीं पैदा हुई, वहीं पली बढी, फिर वह इन्डियन कैसे हो सकती है ?
उसे बताया गया कि ब्रिटिश सत्ता के समय कुछ भरतीय मूल के लोग बंधुआ मज़दूर बनाकर लाये गये थे । अपनी मेहनत से पैसा जोड़कर और शिक्षा के दम पर जब वह कुछ बनने लगे और उन्होंने बड़ी पदवियाँ प्राप्त कर लीं साथ ही व्यापार कुशल होने के कारण जब बाज़ार पर हावी हो गये , वह यह भूल गये कि युगान्डा उनका देश नहीं है और वह पूरी तरह वहाँ रच-बस कर उसे ही अपना देश समझ बैठे । यह सारी सत्ता की सियासत स्थानीय नाकारा बाशिन्दों को सहन नहीं हुई । इसलिए धरती के असली बेटे जाग उठे और युगान्डा के लिए वर्षों ख़ून-पसीना एक करने वालों के विरुद्ध हथियारबन्द हो गये । यह सारा सच गुलशन का दिमाग़ सुन्न कर गया था ।
गुलशन कम्पाला से घर-परिवार सब कुछ पल भर में भस्म हो जाने पर ग्रेट-ब्रिटेन चली गयी और कुछ दौड़-धूप के बाद अन्त में एडिन्बर्ग में उसे सेल्स्गर्ल की एक नोकरी मिल गयी । कभी-कभी उसके अतीत की अन्धी सुरंग उसे अपने भयानक अन्धेरों में खीच लेती । रात को सपने में अपने को कम्पाला वाले घर में मम्मी-डैडी के बीच भाई के साथ खेलता पाती । इन्डिया टी सेन्टर में जब सिद्धार्थ से उसकी मुलाक़ात दोस्ती की तरफ़ बढी तो उसने स्प्ष्ट कह दिया “ मैं स्काटिश नहीं हूँ , युगान्डा से निकाली गयी भरतीय मूल की एक लड़की हूं जिसका घर-परिवार सब कुछ भस्म हो गया । इसलिए घर मेरे लिए पहली ज़रूरत है और प्रेम दूसरी ।“गुलशन के दिल में यह भवना जड़ पकड़ने लगी थी कि वह अपने अतीत को वर्तमान में सिर्फ़ इस तरह बदल सकती है कि वह किसी इन्डियन से विवाह कर ले और अपनी नई ज़िन्दगी उस घर में गुज़ारे जिसकी जड़ें उसकी अपनी ज़मीन में अन्दर तक धंसी हों । गुलशन को शाखाओं के फैलाव में ठहराव की वह भूमिका नहीं दिखाई दी जिसमें स्थैर्य की कोई सार्थकता हो ।
आमोख़्ता कहानी में बबलू के दादा जी की स्थित युगान्डा में जन्मी गुलशन से बहुत भिन्न नहीं हैं । गुलशन इन्डिया में जन्मी भी नहीं, फिर भी उसकी जड़ें वहाँ बताकर उसे कम्पाला से भगाया जा रहा है । बबलू के दादा जी लहौर में पैदा हुए जो इन्डिया में था, इसके बावजूद पाकिस्तान बन जाने पर उन्हें बताया गया कि लाहौर पाकिस्तान में है और वह इन्डियन हैं , इस लिए उन्हें पाकिस्तान में नहीं रहने दिया जायेगा । वह भाग कर अमृतसर आ गये । यहाँ उन्होंने ख़ूब तरक़्क़ी की । हवाईजहाज़नुमा बहुत बड़ा सा मकान और दूर-दूर तक फैला हुआ बिज़नेस । पर हिन्दू-सिख दगे में उनका अमृतसर का मकान भी जलकर कोयला हो गया । यहाँ उन्हें बताया गया कि वह पंजाब में नहीं रह सकते और अमृतसर बहरहाल पंजाब में है । वह उस समय अमृतसर के बाहर थे और जबतक अमृतसर पहुँचे उनकी पूरी दुनिया लुट चुकी थी । उनकी पत्नी सावित्री , इकलौता बेटा अमन, बहू मनजीत कौर और छोटी दोनों बेटियाँ पिंकी और डाली की लाशें मकान के विभिन्न कमरों में जली पड़ी थीं ।
एक आन में सबकुछ ख़त्म हो चुका था । बबलू के दादा जी सोंचा करते थे कि जिस पजाब में एक लड़का सरदार और दूसरा हिन्दू हो और एक लड़की हिन्दू को ब्याही जाय और दूसरी सरदार को , ऐसे ताने-बाने वाले समाज में कौन किसको मारेगा ? लेकिन ज़िन्दगी ने एक दूसरा मुखौटा लगा लिया था जो उनके लिए अजनबी था । एक ज़माना वह था कि उन्हें लहौर से आने पर अमृतसर में सफ़ेद पगड़ियों और सफ़ेद दाढियों ने अपनी छाया में इस तरह छुपा लिया था जैसे माँ अपने दूध पीते बच्चे को आँचल में छुपा ले । मन में आक्रोश का बवन्डर उठ रहा था और उनका जी चाह रहा था कि वह चीख-चीख कर पूछें कि ऐ हिन्दू राष्ट्र के सौदागरो ! यह कैसी राजनीति है जिसमें हिन्दू भी सुरक्षित नहीं बचा ? क्यों हमें मध्ययुगीन अंधेरे में ढकेल रहे हो ? मैं मुसलमान नहीं हूं, मैं सिख नहीं हूँ, मैं ईसाई, जैन, बौद्ध नहीं हूँ, मैं एक हिन्दू हूँ । मैं तुमसे पूछता हूँ कि मैं हिन्दू होकर क्यों दो बार अपने ही मुल्क में उजड़ा ?”
बात केवल उजड़ने की नहीं है । बेघर और दिशाविहीन होने की है । सिख और हिन्दू सम्बन्धों की बची-खुची दीमक लगी किताब को केवल इस लिए सीने से लगाये रखने की है कि कभी समय मिलने पर उसे नयी नस्ल को सुनाया जा सके जो समय की अंधी राजनीतिक सुरंगों में रोशनी के ख़्वाब देखने की छटपटाहट भी खो बैठी है । किन्तु जिसके सोच की धधकती हुई आग जल्दी बुझने के लिए आमादा नहीं है । डर है कि यह भयानक आग कहीं किसी दिन बबलू की आत्मा को उस तरह न मथने लगे, जिस तरह आज बबलू के दादा को मथ रही है । बबलू को इस समाज से दूर भेजना होगा । उसे मोह के बन्धनों को काटना सिखाना होगा । ज़मीन से जुड़े रहने का बेमानी स्वप्न मौक़ा पाकर अपनी जड़ें न जमा बैठे इस लिए अच्छा यही है कि बबलू बिना किसी कुण्ठा के, बिना किसी सियासी नाम और प्रताड़ित पहचान के, अपने काम, अपने व्यवहार और अपने व्यक्तित्व से पहचाना जाय ।
डाक्टर का कहना है कि बबलू के दादा जी को हाई ब्लड-प्रेशर है । उन्हें अधिक सोचना नहीं चाहिए । घूमना-फिरना और ख़ुश रहना चाहिए । लेकिन डाक्टर शायद वह नहीं जानता कि सम्बन्धों में लगी दीमक कभी-कभी पूरे-का-पूरा जंगल साफ़ कर जाती है । दादा जी के पास अब बचा ही क्या है ! न कोई घर है न ज़मीन और न किसी दरख़्त का साया जहाँ वह अपने को तलाश कर सकें ।
काला सूरज की राहब मोआसा सूखी-फटी हुई ज़मीन की तरह अपने सूखे लटके हुए सीने से छेह महीने के बच्चे को चिपकाये यूथोपिया में हर तरफ़ हरियाली के स्वप्न देखती है और सायेदार दरख़्तों को फलों से लदा हुआ और खेत-खलिहान को अनाज से भरा पाती है । यह अकेला स्वप्न है जिसे वह खोना नहीं चाहती । अपने बच्चे के चेहरे से मक्खी हटाती हुई वह सोचती है कि उसके चार बच्चे मर चुके हैं और कल यह भी मर जायएगा । इसे बचा पाना शायद उसके वश में नहीं है । उसके पास बचा ही क्या है । केवल स्वप्नों का सुख है जिसे वह अगर इस बच्चे को देना भी चाहे तो यह छेह मास का बच्चा केवल हँसेगा, एक अर्थहीन हँसी । रसद की गाड़ियाँ देखकर खाने की भीख के लिए रिकाबियाँ लेकर दौड़ते हुए सियाह बच्चे-बूढे और जवान बस पेट की आग बुझा सकते हैं और बढा सकते हैं अपने बदन की सुस्ती और छितर गयी चटकीली धूप की तपिश से घिरा आँखों का ख़ुमार । यह काला रंग सदा शोक और बदक़िस्मती का निशान क्यों है ? शायद ऊपर वाले का रंग भी गोरा है । तभी उसने चाँद–तारे सूरज सबको सफ़ेद बनाया। अगर ख़ुदा काला होता तो ? – यह सूरज तब काला होता । बिल्कुल उसके बेटे की तरह काला।
राहब मोआसा ने देखा कि रात घिर आई है और वह भी ठण्डी मन्द हवा के चलने से स्वप्नों की दुनिया में खो गयी है । उसका बेटा ऊँचे क़द का जवान बन गया है और हाथ हिला-हिला कर सामने खड़ी भीड़ से कुछ कह रहा है ।लोग उसे काला सूरज कह रहे हैं और ज़िन्दाबाद के नारे लगा रहे हैं । यूथोपिया की सारी ज़मीन हरे-हरे पेड़ों से ढक गयी है । हर जगह चहल-पहल है और दुकानें सामानों से भरी हुई हैं । उसने दोनों हाथ फैलाकर जवान बेटे को सीने से लगाया और बाहों से भींचा । वह बेख़बर थी कि उसका बेटा मर चुका है । किसी ने उसे धक्का दिया और उसकी आँख खुल गयी । उसका स्वप्न उसके यथार्थ के साथ गड-मड हो गया । उसकी बाहों में उसका बेदम बेटा चिपका था । वह ख़ुश थी और ऊँचे-ऊँचे क़हक़हे लगा रही थी । औरतें उसे देख कर दुखी थीं और कह रही थीं कि राहब मोआसा पागल हो गयी है । कुछ भी हो उसने अपना सब कूछ खोकर एक ऐसा सपना अपना लिया था जो उसका ही नहीं पूरे यूथोपिया का था । गोया उसके हालात ने उसको ज़िन्दा रहते हुए भी ज़िन्दगी से आज़ाद कर दिया था ।
ताहिर बटुए वाले का पागलपन राहब मोआसा के पागलपन से कितना अलग है । एक पीतल के गैस स्टोव को अपने सीने से चिपकाए हुए है दूसरा मुर्दा छेह महीने के हड्डी के ढाँचे को जो उसका बच्चा है अपनी बाहों में भींचे हुए है । एक को डर है कि गैस के फट जाने से भोपाल तबाह हो जायेगा । दूसरे को विश्वास है कि उसका बच्चा ही यूथोपिया को हरा-भरा कर सकता है। ताहिर बटुए वाले ख़ुश हैं कि वह गैस स्टोव को सीने से लगाकर भोपाल को गैस की त्रासदी से बचा रहे हैं और राहब मोआसा ख़ुश है कि उसके काले सूरज की वजह से पूरे यूथोपिया में हरियाली फैली हुई है । दोनों ही नैराश्य के विरोधी हैं और दोनों ही के पास रोशनी का एक स्वप्न है जिसे वह चाहते हैं कि टूटने-बिखरने न दें ।
ग़ालिब होशमन्द हैं इसलिए उन्हें हज़रत ईसा की मसीहाई पर उस समय तक विश्वास नहीं आता जब तक हज़रत ईसा उनके दुखों का इलाज न करें । “इब्ने मरियम हुआ करे कोई । मेरे दुख की दवा करे कोई । “ वह सोचते हैं कि ” उनके ‘इब्ने-मरियम’ होने से मुझे क्या लाभ ?” ताहिर बटुए वाले का अटूट विश्वास है कि क़यामत होने पर हज़रत ईसा आयेंगे और मुर्दों को ज़िन्दा करेंगे । वह सोचता है कि भोपाल गैस त्रासदी से बढकर क़यामत और क्या हो सकती है । इस लिए काँपते हाथों में स्टोव लिए हुए क़ब्रिस्तान में क़ब्र गिनते-गिनते ताहिर पास के सूखे पेड़ के तने से टिक कर सुस्ताने लगते हैं। उस समय हन्डे की तरह रौशन उनकी आँखें, जो क़ब्रों से लगातार सर्गोशी कर रही थीं, साफ़ शब्दों में कह रही थीं – “सब्र करो, थोड़ा सब्र, अब वह आने ही वाला है, किसी लमहे, किसी पल तुम सब ज़िन्दा हो जाओगे ----यक़ीन करो वह आयेगा ----बस , अब वह आने वाला है ।“ और अन्त में जब वह भूख, प्यास,, थकन और गर्मी से चकराकर गिर पड़े और पीतल का स्टोव दूर जा गिरा तो लू के थपेड़े किसी बाज़गश्त की तरह क़ब्रों पर अपने सिर पटक रहे थे – “इब्ने मरियम तुम कहाँ हो ?”
यह सियासी सुरंगें भी विचित्र होती हैं । इनमें ढकेल दिये गये लोग नीला आसमान देखने को तरस जाते हैं । इनकी मौत और मौत से जुड़ी त्रासदी कितनों के लिए कमाई, नाम और इज़्ज़त का साधन बन जाती है । सुग़रा और कुबरा ताहिर बटुए वाले की बेटियाँ हैं जिन्हें अपने अब्बा को तमाशा बनते देखकर हाशिम पहलवान और रऊफ़ भाई पर ग़ुस्सा आता है जो फ़िल्म वालों के सामने उन्हें पकड़ लाते हैं । एक दिन सुग़रा बस यूँ ही बड़बड़ा रही थी “कल शहला बता रही थी कि इस गैस के चलते हम मुसीबतज़दा और ग़रीब लोगों के नाम पर बड़े लोग लाखों कमा रहे हैं, मगर हमारे हाथ में धेला भी न पहुँचा । न किसी तरह की मदद न इमदाद । कम से कम डाक्टर और अस्पताल की सहूलियत ही मिलती तो आज अब्बा यूँ दर-दर न भटकते होते ।“ और कुबरा ने करवट बदलकर बहन को जवाब दिया “ कौन किसकी मदद करता है इस दुनिया में ? कुबरा को महसूस हुआ कि हम ग़रीब नादार लोग कहीं के बाशिन्दे नहीं होते बल्कि सियासतदानों के रहम व करम पर पड़े ज़मीन के कीड़े-मकोड़े होते हैं । हमारे मरने से मुल्क की आबादी घटती है और गन्दगी कम होती है ।
रोचक बात यह है कि ताहिर बटुए वाले को स्वयं अपनी बेटियाँ सुग़रा और कुबरा चुड़ैलें लगती हैं जिन्हें कहीं किसी पीपल के पेड़ पर होना चाहिए था । बेटियों को बेपनाह चाहने वाले पिता की यह मानसिक स्थिति गैस त्रासदी से उत्पन्न एक नयी स्थिति का संकेत है । कसीफ़ और काले कपड़ों में हाथ चला-चला कर फ़िल्म डाइरेक्टर को गैस त्रासदी की तफ़सील बताते हुए जब ताहिर की निगाह अपनी बेटियों पर पड़ गयी तो पहले तो वह क़ुरआन मजीद की शब्दावली में बोले “यह याजूज-माजूज यहाँ भी पहूँच गयीं । और फिर कहने लगे “ अरे चुड़ैलो, तुम पीपल के पेड़ को छोड़ कर मुझपर सवार होने की क्यों सोंच रही हो ? मेरा कोई नहीं है इस दुनिया में, सब मर गये----सब मर गये ख़बरदार जो मेरा पीछा किया वरना सिर तोड़ कर रख दूँगा।“ जब कुबरा ने विचार किया तो उसे लगा कि इस दीवानगी में भी अब्बा ने उन्हें याजूज-माजूज का नाम देकर क़ुरआन में लिखी रिवायत न सही उस पुरानी हक़ीक़त को संदर्भित किया है । श्रीप्रद क़ुरआन में सूरा अलकहफ़ की आयत चौरानवे और सूरा अल-अंबिया की आयत छियानवे में याजूज माजूज के सन्दर्भ उपलब्ध हैं । श्रीप्रद क़ुरआन के अतिरिक्त इसे ग़ाग [Gog-Magog] मेगाग के संदर्भ से भी इन्टर्नेट पर देखा जा सकता है ।
गैस त्रासदी से गुज़रने के बाद ताहिर को जिस मुसीबत का सामना करना पड़ा वह उनकी सात पुश्तों के सामने भी कभी नहीं आयी थी । उनके अभिन्न मित्र और समधी इफ़तिखार ने सुग़रा को अपनी बहू मानने से इनकार कर दिया और ताहिर के पूछने पर कि कहाँ जायेगी मेरी फूल जैसी बच्ची ? उत्तर दियाथा ‘जायेगी कहाँ, अपने घर रहेगी । उसका हक़ मैं उसे दूँगा जो हमारे ख़ुदा रसूल ने कहा है । ताहिर तड़प कर रह गये । “मैं रोटी की नहीं ज़िन्दगी की भीख माँग रहा हूँ । यह उम्र और यह ज़ुल्म । पूरी जवानी पड़ी है अभी । “ और इफ़्तिखार ने जो उत्तर दिया वह ताहिर क्या किसी भी बाप को पागल बना देने के लिए काफ़ी था –“ इस जवानी के चलते हमें अपनी नस्ल तो ख़राब करनी नहीं है । लूली-लगड़ी, कानी-कुतरी औलादें पैदा हुईं तो सिवाय भीख माँगने के उनसे और कौन सा काम हो पायेगा?”” इफ़तिख़ार की बातों ने ताहिर के दिमाग़ का सन्तुलन बिगाड़ दिया । ऐसे में उन्हें अपने लगोटिया यार रामधन से मिलकर ही कुछ तसल्ली हो सकती थी । पर रामधन की कहानी भी ताहिर की कहानी से कुछ ज़्यादा अलग नहीं थी । रामधन की बड़ी बेटी गीता भोपाल में ही ब्याही गयी थी । जिस दिन मायके आयी उसी सुबह गैस का हादसा हो गया । सब बिछुड़ गये । तीन दिन बाद अहमदिया अस्पताल में मिली । ससुराल वालों ने ख़ुशी की जगह उसे लेने से इनकार कर दिया । “तीन दिन जाने कहाँ रही, हमें पता है क्या ?” ताहिर ये ख़बर सुनकर सन्न रह गये । “कमाल है ! इतनी बड़ी आफ़त शहर के एक तरफ़ टूटी और दूसरी तरफ़ वाले इससे इनकार कर रहे हैं ।“पूरी तरह टूटे-बिखरे ताहिर रामधन से लिपट गये –“मैं हमेशा तुमसे कहता था कि पेट न काला होता है न गोरा, भूख हिन्दू होती है न मुसलमान,रोटी छोटी होती है न बड़ी, आज मैं ने यह भी जान लिया कि ग़म की शक्ल भी अलग-अलग नहीं होती ।“
ताहिर बटुए वाले ने बहुत तजरबे की बात कही थी । सच है कि भूख न हिन्दू होती है न मुसलमान । तीसरा मोर्चा कहानी की वह कश्मीरी औरत जो नंगे औन्धे बदन नन्हें आबशार के पास बेहोश पड़ी थी और जिसे राहुल और रहमान जानना चाह रहे थे कि वह हिन्दू है या मुसलमान, केवल औरत थी जिसके साथ भूखे वर्दी वालों ने अपनी भूख मिटाई थी । इसलिए कि भूख का कोई मज़हब नहीं होता और वर्दी में वैसे भी सब एक से लगते हैं । पहले उन्होंने उसके शौहर का पता जानना चाहा, जिसका उसे ख़ुद पता नहीं था । फिर उसके इनकार पर भुखे चूहे उसकी शलवार में डाल दिये और उसके दोनों बच्चों को इतना पीटा कि वह दम तोड़ गये । राहुल और रहमान की आँखें उस औरत की आपबीती सुनकर शर्म से झुक गयीं । उन्हें लगा कि धर्म का तंग दायरा ही घुटन का एहसास नहीं दे रहा है बल्कि सियासत की बढती सत्ता में इन्सानियत भी खड़ी विलाप कर रही है ।
उस औरत ने बड़े शान्त भाव से कहा “ तुम दोनों जाओ भाई---! मैं माँ हूँ । मुझे बच्चों को दफ़नाना है----पत्नी हूँ ----मुझे अपने शौहर का इन्तेज़ार करना होगा---औरत हूँ इसलिए ज़ुल्म के ख़िलाफ़ मुझे ज़िन्दा रहना है । मुझे भागना या मुँह छुपाना नहीं है---मुझे अभी ज़िन्दा रहना है ।“यह नज़रिया नैराश्य को फटकने नहीं देता । इसलिए कि नैराश्य मौत है । और मौत से लड़ते रहना ही ज़िन्दगी है ।
नासिरा शर्मा के अधिकतर पात्र हालात से घबराकर या थक-हार कर ज़िन्दा रहने का हौसला नहीं खोते । वे टूटते तो हैं, पर अनुकूल हवा के स्पर्श से या हवा की अपने अनुकूल कल्पना कर लेने मात्र से न सिर्फ़ यह कि ज़िन्दा रह्ते हैं बल्कि ज़िन्दगी को एक नया अर्थ देने का प्रयास करते हैं । अफ़ग़ान पर होने वाली बमबारी ने जहाँ औरों को तबाह किया वहाँ यूसुफ़ और अज़ीज़ भी बरबाद हो गये । काग़ज़ी बादाम के कितने ही दरख़्त अज़ीज़ के पास थे और उनकी बरकत से दिन भी अच्छे गुज़र रहे थे । बमों से जलकर सब ख़त्म हो चुका था । सड़क ख़ुशहाल ख़ाँ खटक पर नहर के किनारे अँगौछा बिछाकर वह उसपर छोटी सी दुकान सजा लेता था और किसी तरह दिन काट रहा था । ख़ुदा से उसको स्ख़्त शिकायत थी । उसका मुल्क नास्तिकों द्वारा छीन लिया गया था और ख़ुदा तमाशा देख रहा था । उसकी बेटी गुलबानो जो अभी दस साल की थी उसका गुलाबी चेहरा और काग़ज़ी बादाम के गुलाबी महकते फूल अज़ीज़ की पत्नी पख़्तून को एक जैसे लगते थे । वही शायद उसकी ज़िन्दगी थे । पख़्तून की बीमारी ने अज़ीज़ को पूरी तरह तोड़ दिया था । उसने लालज़ाद का सुझाव मानकर उसी की कोशिश से गुलबानो को खाना, कपड़ा और दो सौ रूपये माहवार पर नोकर रखवा दिया था ।
गुलबानो का रंग दो महीने में खिलकर गुलाब हो गया था । इस बार अज़ीज़ पख़्तून के इलाज के लिए कई महीने का ऐड्वान्स लेने गया था । रूपये लेकर जब लौटने लगा तो गुल बाप के शाने से चिपक गयी । अज़ीज़ ने झुझलाहट में उसे झटक दिया । उसके गाल पर चपत मार दी और तेज़ी से लँगड़ाता हुआ बाहर निकल आया । हलाँकि वह रास्ते भर ख़ुद को कोसता रहा ।
पख़्तून जब सेहत का नहान नहाई तो अज़ीज़ डँगरवाल नज़र की मिठाई लेकर मालिक के घर की तरफ़ चला । उसे वहाँ बड़ा सा ताला लटकता हुआ मिला । अज़ीज़ का सिर चकराने लगा । यूसुफ़ ने उसे बहुत मुश्किलों से समझाया कि मालिक ने उसके दो हज़ार ऐड्वान्स माँगने को समझा कि वह बेटी बेच रहा है । अज़ीज़ टूट कर रह गया और पख़्तून भी रो-धो कर रह गयी । अब अज़ीज़ के लिए दुनियादारी में कुछ नहीं था । वह पूरा औलिया हो गया था । सभी को तावीज़ें दे रहा था ।पढा-लिखा एक शब्द नहीं था । फिर भी अल्लाह उसकी सुन रहा था । अब घर में रूपया-पैसा, कपड़ा-लत्ता, खाना-पीना, सभी कुछ था ।
एक दिन गर्म उबलते मोम में पकते कपड़े को निकालकर पख़्तून ने सामने अलगनी पर डाला और डिब्बों में मुड़ी तावीज़ों को मोमजामा में सिलने लगी । जाने कैसे उसने एक तह किया काग़ज़ एकाएक खोल लिया । उसपर काग़ज़ी बादाम की तस्वीर देख कर वह दंग रह गयी । उसकी काग़ज़ी बादाम जैसी गुलाबी बेटी ने अपनी मेहनत की कमाई से उसे सेहत दी । और काग़ज़ी बादाम के पुश्तैनी पेड़ उनकी रोज़ी रोटी थे । ‘आज भी वही’ सोंचकर प्ख़्तून सन्नाटे में आ ग़यी और सोंचने लगी , मुरादें पूरी करने वाला तो कोई और है । और फिर दूसरे दिन सही मायनों मे काग़ज़ी बादाम की तरह गुलाबी बेटी गुलबानो उनके सामने खड़ी थी । अज़ीज़ ने जब बेटी को गले लगाया तो वह चौंक पड़े । इस लड़की के स्पर्श में ऐसा क्या है जो उनके वुजूद का पूरा दरख़्त हिल गया । और फिर उस रात अज़ीज़ और पख़्तून, दोनों ने एक ही ख़्वाब देखा । पूरा मुल्क फिर से फलों के दरख़्तों से भर गया है । काग़ज़ी बादाम के सफ़ेद गुलाबी फूल दरख़्तों की शाख़ों पर लद गये हैं । घर-घर पालनों में नवजात बच्चे किलकारी मार रहे हैं और अज़ीज़ हाथ में डफ़ली लिये तेज़ क़दमों से लख़्तई नाच रहा है ।
जिस तरह तेज़ उबलते मोम में कपड़े को पका कर मोमजामा बनाया जाता है उसी तरह लिबनान के सियासी उबाल की आग में तपाकर ज़बीबा की ज़िन्दगी को मोमजामा बना दिया गया था और वह अपनी असली पह्चान खो बैठी थी । वैसे तो वह सीरिया की एक ईसाई लड़की थी और अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एम0बी0बी0एस0 कर रही थी ।बदी लिबनान का एक मुस्लिम विद्यार्थी था जो अलीगढ से ही इन्जीनियरिंग कर रहा था । अलीगढ लाख छोटा सही लेकिन जिस तरह नासिरा शर्मा ने दोनों की बहसें कराई हैं और एक दूसरे के क़रीब किया है, यहाँ की ज़िन्दगी में उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती । वैसे भी एम0बी0बी0एस0 के स्टूडेन्ट का इनजीनियरिंग के स्टूडेन्ट से कोई वास्ता नहीं होता । फिर ईसाई और मुसलमान और सीरियन तथा लेबनानियन की आपस में शादी भी एक अजूबा है । और इतना ही नहीं एक एम0बी0बी0एस0 करने वाली लड़की के ग़र्भ में दो बार अनचाही सन्तान का आना भी आश्चर्य की बात है ।
हाँ इस कहानी में वतन के प्रति लगाव की जो भावना है उसमें इन्सानी तड़प और बेचैनी ज़रूर देखी जा सकती है । वतन ज़मीन का कोई एक टुकड़ा नहीं है बल्कि आदमी के सस्कारों का वह बुनियादी संस्थान है जो उसे जीना सिखाता है । अजीब बात है कि बदी का वतन उसका दुशमन हो गया है और वहाँ के वातावरण ने उसकी बीवी-बच्चों का नाम मौत की नोट्बुक में दर्ज कर लिया है । यही स्थिति ज़बीबा की है । बल्कि वह तो दोनों ओर से आतंकित है । सीरिया में उसके लिए जगह कहाँ है ? वहाँ संभव है उसे पूछ-ताछ के लिए तलाश किया जा रहा हो । और लेबनान में जब वह बदी के घर पहुँची तो उसका घर ख्ण्डहर मेँ तब्दील हो चुका था । एक नहीं कई मकानों के मलबे एक-दूसरे के ऊपर पड़े थे । ज़बीबा ने बेटे को सीने से लगाकर अपने से पूछा – “ कहाँ जायेंगे हम ?
कई दिन रोते गुज़र गये । ज़बीबा को अपना ईसाई होना छुपाना पड़ा । फिर अचानक एक दिन दुकान और घर के रास्ते से किसी ने बदी को उठा लिया । सब्र करने कि सिवा ज़बीबा के पास कोई चारा नहीं था । फिर भी वह फफक कर रो पड़ी । कितने परतों में जी रही है वह इस ज़िन्दगी को ? वह उस पहचान को कैसे छुपा सकती है जो उसके दिल की गहराइयों में अँकित है कि वह एक सीरियन है । उसका जी चाहता है कि वह मकान की छत पर खड़ी होकर वतन-वतन इतनी ज़ोर से चीख़े कि उसकी आवाज़ सीरिया पहुँच जाये । “वतन मैँ यहाँ हूँ । मुझे वापस बुला लो ।“
वह नासिरा शर्मा जो एक ईसाई सीरियन लड़की की शादी एक मुस्लिम लेबनानी लड़के से बिना किसी अड़चन के करा देती हैं , वह जुलजुता में एक कैथोलिक ईसाई और एक प्रोटेस्टेन्ट के वैवाहिक सम्बन्ध बना पाने में असमर्थ हैं । लेकिन जुलजुता का यथार्थ अपनी पूरी गहराई और प्रभाव के साथ जिस तरह मुखर है , मोमजामा की वह स्थिति नहीं है । आस्थागत कट्टरपन कितना गहरा होता है, यहाँ सहज ही देखा और अनुभव किया जा सकता है । वास्तव में जुलजुता में एक ऐसे यथार्थ को संकेतित किया गया है जिसके साथ न जाने कितने लोग ज़िन्दगी जी रहे हैं । बज़ाहिर प्रगतिशील सा दिखने वाला विकसित ईसाई परिवार बिल करलायल को इसलिए दामाद के रूप में नहीं स्वीकार करता कि वह उनकी तरह कैथोलिक न होकर प्रोटेस्टेन्ट है । बिल को आश्चर्य हुआ कि आस्थाओं के अलग होने से एक ही संप्रदाय के लोगों में भी आपस में इतनी बड़ी दराड़ हो सकती है और वह भी एक साइन्स के प्रोफ़ेसर के दिमाग़ में, जो सैद्धान्तिक स्तर पर मर्क्सवादी भी हो। “दो वर्ष से हम दोस्त हैं अंकल । एक-दूसरे को जानते हैं । मेरा डक्टर होना सदा इस घर में इम्पार्टेन्ट था, मगर आज जब हम एक-दूसरे के इतना निकट आ चुके हैं कि मैरिज के बाद सेटिल होना चाहते हैं , उस समय आप मेरे प्रोटेस्टेन्ट होने का सवाल उठा रहे हैं ।“ और अंकल करासिबी ने जो उत्तर दिया वह और भी रोचक है “ फ़्रेन्डशिप इज़ नो प्राब्लेम----नो ओब्जेक्शन—लव किसी भी ह्यूमनबीइंग से हो सकता है । मगर मैरिज , नाट पासिबल विद एवरी वन ।“
अन्त में अंकल करासिबी ने फ़ैसलाकुन अन्दाज़ में सुना दिया ‘प्लीज़ डक्टर ! डू नाट डिस्टर्ब अस अगेन आन दिस इशू ।“और रोचक बात यह है कि डयना ने भी निर्णायक ढंग से कह दिया “हमारी पहचान शताब्दियों पुरानी है ।उसको हम मिटा दें । यह कैसे मुमकिन है ?” पब में आख़िरी पेग लेकर जब बिल बाहर निकला और ठण्ढी हवा ने उसके शरीर को स्पर्श किया तो वह पूरा दार्शनिक बन गया । उसकी दृष्टि सामने एक कैथालिक चर्च पर पड़ी । क़दम बढाते हुए वह सोचने लगा “ख़ुदा के बेटे को सूली पर इसी तरह चढाया गया होगा। “उसको विश्वास हो ग्या कि आज वह इस रास्ते पर पैर रखता हुआ जुलजुता तक पहुँच रहा है । उसको सलीब पर टाँगने वाले धर्म विरोधी नही बल्कि उसके अपने धर्म भाई हैं।
ईरानी कवियों ने जुलजुता को लेकर अनेक प्रभावशाली कविताएं लिखी हैं ।प्रतीत होता है कि ऐसी ही कोई कविता इस कहानी का प्ररणास्रोत बनी है ।प्रचीन नगर बैतुलमुक़द्दस के बाहरी भाग में जुलजुता स्थित है जहाँ हज़रत मसीह को सलीब पर लटकाया गया था । मुझे इस कहानी का अन्तिम भाग पढकर ईरानी कवि शकूर शकूरियान की जुलजुता शीर्षक कविता का भाव याद आ गया । “ मेरा जुलजुता मेरे शरीर के भीतर है/ मुद्दत हुइ मुझे सलीब के साथ दर-ब-दर खींचा जा रहा है / ताकि मेरे स्म्बन्धी मुझे जुलजुता में गाड़ सकें /देखो मसीह को कि वह अपने कन्धे पर सलीब लिये/ मुस्कुराहट का ज़हर पी रहे हैं /मुझ्से अगर कोई पूछे कि मसीह ने सलीब क्यों उठाई है/तो मैं कहूँगा कि वह उनकी आज़ादी की ज़मानत है।“


स्पष्ट है कि ईरानी शायर शकूर की दृष्टि में हज़रत मसीह का सलीब उठाये रखना आज़ादी की ज़मानत है । वह इसी हालत में जुल्जुता की ओर बढे थे । ज़ैतून के साये का
तौफ़ीक़ भी फ़िलिस्तीन की आज़ादी के लिए बेचैन है । नीम बेहोशी में उसके सामने पुराना शहर फैला है । गलियाँ कच्चे मकानों से भिंची अपने में दुबकी-सहमी सी खड़ी हैं । उन क्षणों में वह सोंचता है कि ‘ईसा भी जुलजुता तक अपनी सलीब पर लटकने के लिए इन ही घरों में से किसी से निकलकर गये होंगे ।‘ हलाँकि इस कल्पना में ईसाई आस्था की गंध है और तौफ़ीक़ को एक मुसलमान के रूप में प्रस्तुत किया गया है फिर भी इन्सानी आज़ादी के प्रसंग में इस कैफ़ियत की प्रस्तुति अपनी सार्थकता बनाये हुए है । वह इस अवसर पर सुक़रात और मंसूर हल्लाज को भी याद करता है और अनलहक़ के नारे में रूह की गहराई की प्रतिध्वनि सुनता है । यहाँ लेखिका तौफ़ीक़ को यह भी सोंचने के लिए विवश करती हैं कि “इसी कूफ़े की ज़मीन पर हुसैन पानी से भरी दजला और फ़रात नदियों के बावजूद क्यों प्यासे शहीद हुए ।“ वैसे नासिरा जी अच्छी तरह जानती हैं कि हज़रत हुसैन कूफ़ा में नहीं कर्बला में शहीद हुए थे, जो कूफ़ा से काफ़ी फ़ासले पर है और दजला और फ़रात नदियाँ भी कूफ़ा में नहीं बहतीं हाँ कर्बला का वह मैदान जहाँ हज़रत हुसैन शहीद हुए फ़रात के किनारे पर अवश्य था।
‘ख़स्ता मकानों के बीच घूमते हुए तौफ़ीक़ को याद आया कि इसी सरज़मीन पर तौरेत, बाइबिल, क़ुरआन – तीन आसमानी किताबें नाज़िल हुई थीं, तीन फ़िक्र, तीन मज़हब, तीन समाजी बदलाव, बड़े-बड़े धर्मयुद्ध का फैलता दायरा । फिर साम्राज्यवाद और साम्यवाद की रस्साकशी । वक़्त ने हमेशा इन्सान से उसके जीने की क़ीमत माँगी है ।‘ तौफ़ीक़ को लगा कि उसका वक़्त भी शायद उससे उसके जीने की क़ीमत माँग रहा है । आसमान से ज़मीन को तर करने वाली बारिश की कुछ फुहारों के स्पर्श से उसे लगा कि दुनिया अभी मरी नहीं है । “ख़ुदा तुझे इतनी तौफ़ीक़ दे कि तू हमारी खोई मँज़िल को पा सके इसी उम्मीद पर मैंने तेरा नाम तौफ़ीक़ रखा है ।“ कानों में माँ की यह आवाज़ गूँजी और दिल की सुरंग से गुज़र गयी । नूर की क़न्दीलें रौशन हो गयीं और रूह का परिन्दा अमन की फ़ाख़्ता की तरह ज़ैतून की शाख़ पकड़े मुक्खे से बाहर उड़ गया । फ़िलिस्तीन की आज़ादी का ख़्वाब लिये-लिये वह ज़िन्दगी से आज़ाद हो गया ।
मिरज़ा ग़ालिब का ख़याल था कि उनका मिट्टी का प्याला जमशेद के प्याले से इसलिए बेहतर है कि अगर एक टूट गया तो बाज़ार से दूसरा उठा लायेंगे – “ और ले आयेंगे बाज़ार से गर टूट गया । जामे-जम से ये मेरा जामे-सफ़ाल अच्छा है ।“ वैसे तो इसमें न मिलें तो अंगूर ख्ट्टे हैं की गध आ रही है लेकिन तौफ़ीक़ की निगाहों में दुनिया इस तरह से खुलकर घूम रही थी जैसे जमशेद का जामे-जहाँनुमा उसके हाथों में आ गया हो । वह इस प्याले के अन्दर दुनिया की असलियत देख रहा था । और अन्त में उसने यह अमानत नबीला के सुपुर्द कर दी जो लेखिका की दृष्टि में सरापा जहाँनुमा बन गयी । प्रारंभ में कमाल ही उसका आईना था, जो उसका सहयोगी, मित्र और पति था । पर उसका साथ छूट जाने के बाद तजुरबों का जहाँनुमा आईना जो उसके हाथ लगा था उसमें वह सारी दुनिया को देख रही थी । इन ही तजुरबों में पक कर वह वाक्य उसकी ज़बान पर आया था जो उसने कमाल से कहा था –“सुनो कमाल, जब मुहब्बत ज़िन्दगी में दाख़िल होती है तो उसपर इन्सान का कोई वश नहीं होता, मगर जब मुहब्बत ज़िन्दगी से विदा लेने लगती है तो उसे थामकर रखना भी ग़ैरमुमकिन होता है ।“
यह इश्क़ और मुहब्बत भी अजीब चीज़ है । यहाँ नबीला के विचार मिरज़ा ग़ालिब के ख़यालात से थोड़ा भिन्न हैं । “इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतश ग़ालिब । जो लगाये न लगे और बुझाये न बने ।“ वैसे ग़ालिब की बात ठीक है । लेकिन यह भी ठीक है कि मुहब्बत के बिदा होने पर भी किसी का अख़्तियार नहीं है । इसे पकड़कर नहीं रखा जा सकता । सिक्का कहानी में लेखिका ने ठीक ही कहा था – “ इश्क़ हर तरह के बन्धन, हर तरह के भय से मुक्त एक अनुबन्ध का नाम है जिसकी शर्त रचना और बनावट समर्पण है ।“ पुले सिरात कहानी में इश्क़ के इस अनुबन्ध के सम्बन्ध में अजीब क्श्मकश है । हसन को लैला से भी प्यार है और वतन और मज़हब से भी । मज़हब उसे लैला के मुक़ाबले में , भले ही ज़्यादा अज़ीज़ न हो लेकिन वतन के लिए वह पूरी तरह समर्पित है । और इसी विचार से ईरानी फ़ौज में भरती हो जाता है । लैला सुन्नी है और ईराक़वासी है, इसलिए हसन के इस क़दम से वह उससे प्यार करने के बावजूद नफ़रत करती है । हसन ईराक़वासी होते हुए भी नसल से ईरानी है और उसकी मांसपेशियों में ईरानी ख़ून बह रहा है इस लिए उसकी जड़ें उसे अपनी तरफ़ खींच ले गयीं और वह ईराक़ के विरुद्ध ईरान की ओर से लड़ने पर आमादा हो गया ।

मिस्टर ब्राउनी और कशीदाकारी कहानियाँ देस परदेस के सियासी झगड़ों से बेख़बर इन्सानी ज़रूरतों और संवेदनाओं को गहराती हैं । इन्सान अपना देश छोड़कर घर से सैकड़ों मील दू्र अजनबी लोगों में केवल इस लिए पड़ा रहता है कि अपने वर्तमान को बेहतर बना सके । वह नहीं चाहता कि सियासत वहाँ भी पाँव पसारे और उनके लिए ज़िन्दगी तग कर दे । ख़ुशीजान जानता है कि वह कश्मीरी है । पर वह यह भी जानता है कि वह अपने वतन से चार पैसा कमाने के लिए निकला है । सियासत से उसे क्या लेना । कश्मीर उसके लिए न हिन्दुस्तानी है न पाकिस्तानी । इस मामले में अगर वह पड़ा तो फिर रोज़ी-रोटी कमा चुका। भूरेलाल पहले स्काटलैन्ड और फिर एडिनबरा में इस लिए पड़े हैं कि भारत में सम्बन्धियों के व्यवहार, बेकारी, ग़रीबी और बेचारगी से वह तंग आ चुके थे । बच्चे उनके रंग-रूप और हिन्दुस्तानी होने के रिश्ते से उन्हें मिस्टर ब्राउनी कहते थे। हो सकता है शुरू में इसके पीछे कोई घृणा- भाव रहा हो और एक बुढिया के यह कहने पर “आर यू स्टिल हियर” उनका दिमाग़ गर्म हो उठता रहा हो, पर अब तो यही उनका नाम सा लगने लगा था । पत्नी के यह चाहने पर कि वह भारत लौट जायें, उन्होंने कहा था “यहाँ के धन से ही तो खेत छूटे, गिरवी गहने घर वापस आये। बहन की डोली उठी और पिता का इलाज हुआ, और अब मैं फिर वहाँ लौट जाऊँ ? उसी दुख में डूबने के लिए जिससे मैं भागकर यहाँ आया था ।“
भारत भूरे लाल का वतन था । और वह भी अपनी मातृभूमि से प्रेम करते थे । किन्तु भारत उनकी दृष्टि में नरक से कम नहीं था जहाँ भाई भाई के ख़ून का प्यासा था । रोटी के चलते इन्सान इन्सान का गला काट रहा था । और परदेस में यहाँ, जब भूरे लाल ने प्यार का हाथ बढाया, तो उन्हें सचमुच का प्यार मिला, इज़्ज़त मिली और गुनगुना उठने का मौक़ा मिला ।
कशीदाकारी के गेंदालाल धोबी को बँगला देश के फ़ौजी सोते से उठा ले गये और उससे अपने धोबी की अनुपस्थिति में ख़ूब कपड़े धुलवाये । यह बातें पढने में रोचक हैं । पर इनमें अगर सच्चाई है तो भारतीय सुरक्षा बल पर महत्वपूर्ण प्रश्नचिह्न लग जाते हैं । हाँ शादी-ब्याह के लिए बरातों का इधर से उधर और उधर से इधर जाना-आना कोई आश्चर्य की बात नहीं है । डी0 आइ0 जी0 राजकुमार के कहने पर “बहू लाने बँगला देश जाओगे और बिना किसी क़ानूनी आज्ञापत्र ? पता है एक देश की सरहद से बिना इत्तेला के दूसरे देश की सीमा में दाख़िल होना अपराध है ।“ एक अधेड़ ने उत्तर दिया “ अब हम रोज़ के आने-जाने वाले हैं, सरहद सीमा को क्या जानें सरकार !”कितनी विपरीत और कठिन स्थिति सामने आ जाती है । विशेषकर तब जब इन्सान शताब्दियों पुराने ज़मीन से बने रिश्ते को अपना अधिकार समझकर सहज रूप से जी रहा हो । बेचैनी से डी0 आइ0 जी0 राजकुमार पहलू बदलने लगे । और अन्त में उन्हें आदेश देना परा “ शेर सिंह ! जाने दो इन्हेँ ।“
इब्ने मरियम की कहानियाँ पढकर एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि हिन्दी ही क्या किसी भी भारतीय भाषा का को कोई कहानी लेखक ऐसा नही है जिसकी कहानियाँ विषय के पैनेपन और कथ्य के विस्तार तथा सार्थकता की दृष्टि से ज़मीन के भीतर तक इस तरह धँसी हों और इन्सानी रिश्तों के वास्ते से विश्व मानवता का एक नया इतिहास रचती हों । यह कहानियाँ सियासत की अँधी सुरंगों के बीच रोशनी के टूटते-बिखरते ख़्वबों को समेटती हैं और उनसे नूर की क़न्दीलें रौशन करती हैं।
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कहानी लेखिका = नासिरा शर्मा

कहानी संग्रह =इब्ने मरियम

किताब घर , दिल्ली 1994

शुक्रवार, 24 जून 2011

रूढिवादिता की क़ब्र पर मुस्लिम समाज का मर्सिया : नासिरा शर्मा की कहानियाँ [2]

रूढिवादिता की क़ब्र पर मुस्लिम समाज का मर्सिया
रूढ़िवादिता अपनी प्रकृति से ही संकरी और पथरीली है और उस की लपेट में आया हुआ हर व्यक्ति पूरी तरह लहूलुहान होकर निकास के रास्ते तलाश करता है। यह रूढ़िवादिता मुस्लिम समाज की हो या हिन्दू समाज की इसके आक्रामक रुख़ का शिकार मुख्य रूप से स्त्री-वर्ग होता है । इसलिए नहीं, कि वह बेज़ुबान है, बल्कि इस लिए कि वह स्वयं नहीं जानता कि उसे क्या चाहिए । वह रूढ़िवादिता की चुभन तो महसूस करता है, लहूलुहान भी होता है,किंतु उसे निकास का रास्ता नहीं सूझता । वह रूढ़िवादी सामाजिक परिधियों की पत्थर गली के पिछड़ेपन से ऊबकर निकास के लिए बेचैन है । वह नहीं चाहता कि उसकी कोपलें फूटने से पहले झड़ जायेँ और फूल खिलने से पहले मुर्झा जायें । वैसे तो ये दर्द सर्वव्यापी है । किन्तु मुस्लिम समाज से जुड़कर इसकी एक अलग पहचान दिखायी देती है जो इसके पिछड़ेपन को और भी गहरा देती है ।
नासिरा शर्मा के कहानी-संग्रह पत्थर गली की भूमिका में इसी मुस्लिम रूढ़िवादिता की बात की गयी है । नासिरा का विचार है कि मुस्लिम समाज सिर्फ़ ग़ज़ल नहीं है बल्कि एक ऐसा मर्सिया है जो वह अपनी रूढ़िवादिता की क़ब्र के सिरहाने पढता है । वैसे तो मर्सिया किसी क़ब्र के सिरहाने बैठकर पढने का दस्तूर नहीं है । कारण यह है कि मर्सिया किसी त्रासदी का होता है और त्रासदी की कोई क़ब्र नहीं होती । पढने में यह विचार बड़ा ही रोचक है । किन्तु यह बात, क्या हिन्दू, क्या मुसल्मान, किसी भी समाज के विषय में कही जा सकती है । त्रासदी का दस्तावेज़ कहाँ नहीं है ? पत्थर गली की कहानियाँ त्रासदी का दस्तावेज़ अवश्य हैं । किन्तु यह त्रासदी रूढिवादिता का नतीजा है, यह स्वीकार कर पाना संभव नहीं है । नासिरा जी का यह कहना भी दुरुस्त नहीं है कि “आज मुसल्मान पात्र जब उभरता है तो या तो हिन्दू मुसल्मान दगों में। या फिर ईद के दिन पढी गयी नमाज़ और मुहर्रम पर हुए सुन्नी-शीया फ़साद में ।“ नासिरा जी ने सम्भवतः हिन्दी कहानी के सदर्भ में यह बात कही है । लेकिन प्रतीत होता है कि वहाँ भी उनका अध्ययन बहुत व्यापक नहीं है । नासिरा जी को चाहिए कि उपेन्द्र नाथ अश्क की कुछ् कहानियाँ अवश्य पढें ।
जहाँ तक मुस्लिम रूढ़िवादिता का प्रश्न है पत्थर गली की कोई कहानी भी इस प्रसंग में संदर्भित नहीं की जा सकती । ताबूत कहानी में शीया रूढ़िवादिता पर कुछ चोट अवश्य की गयी है किन्तु वहाँ भी बात केवल परम्परा और आस्था तक सीमित है। क़ासिम अली बिना इलाज के रह गये होते और उनकी पत्नी ने उनके इलाज के बजाय उन पैसों से ताबूत पर फूल की चादर चढा दी होती तो एक हद तक रूढ़िवादिता को दोष दिया जा सकता था । कहानी में इलाज के प्रति जागरूकता भी है और धार्मिक आस्था तथा विश्वास के प्रति सजगता भी । हाँ क़ासिम अली तीन बच्चियों के एक निर्लज्ज पिता ज़रूर हैं जो अस्वस्थ हो जाने और काम-धाम छूट जाने के बाद से लड़कियों की कमाई को बैठकर खाना चाहते हैं । ख़ुद हाथ-पैर चला्ना वह भूल चुके हैं ।
नासिरा का ख़याल है कि वह ‘दिल के रोगी’ थे । हलाँकि लक्षण तो टी0 बी के बताये गये हैं । सारे दिन ख़ून थूकते गुज़रता था । दिल के मरीज़ ख़ून नहीं थूकते । उनके लिए लड़कियों का पिता होना बिना औलाद के होने जैसा था। उनके घर आया कोई नया व्यक्ति जब पूछता तो कहते “मेरी कोई औलाद नहीं है “ । पूछने वाला हैरत से कहता “ फिर यह तीन लड़कियाँ ? जवाब देते वह तीनों बीवी की औलादें हैं” ।
घर की मर्यादा के विचार को रूढिवाद्ता का नाम नहीं दिया जा सकता। क़ासिम अली की लड़कियाँ , विशेष रूप से फ़ह्मीदा ,उस मर्यादा से अच्छी तरह परिचित थी । इसलिए यह जानते हुए भी कि वह ज़िन्दगी को बहुत पीछे छोड़ चुकी है, उसके होठों पर कोई शिकायत नहीं आयी । पिता से विरासत में मिला रोग उसकी जान ले लेता है और ख़ाला बी के जिस घर से इमाम हुसैन का ताबूत बरामद किया गया उसी घर से फ़ह्मीदा का ताबूत भी निकलता है । फ़हमीदा के जनाज़े की नाटकीय प्रस्तुति कहानी में सिहरन सी पैदा कर देती है । “दोनों बहनों ने ख़ामोशी से फूलों की चादर खोली और बहन के कफ़न में लिप्टे बदन पर बिछा दी “ । यहाँ यह प्रश्न – “यह क्या ! कफ़न नजिस न हो जायेगा ?” बेतुका सा है। जो फूलों की चादर इमाम के ताबूत को नजिस नहीं करती वह कफ़न को किस प्रकार नजिस कर देगी ? हाँ फूल ही नजिस हों और उन्हें पाक न किया गया हो, तो बात और है । लेखिका ने ग़लती से इसे एक स्थान पर जनाबे-सैयदा का ताबूत और एक अन्य स्थान पर इमाम हुसैन का ताबूत लिखा है। शायद उसे यह पता नहीं है कि मुहर्रम में किसी शिया मुसलमान के घर जनाबे-सैयदा का ताबूत नहीं रखा जाता ।
कहानी के अन्त में ख़ाला बी की मनःस्थिति व्यक्त करते हुए कहा गया है “ उन्हें महसूस हुआ कि आज उनके इमामबाड़े से सचमुच का ताबूत निकल रहा है जिसपर ख़ून की नक़ली छीँटें नहीं छिड़की गयी थीं बल्कि वह तो पूरा-का-पूरा ख़ून से तर था ।“लेखिका को यह पता नहीं है कि इस्लाम शरीर से खून निकलने के बाद उसे नजिस मानता है । हाँ शहीद की स्थिति और होती है। उसे ग़ुस्ल नहीं दिया जाता। फ़हमीदा के जनाज़े पर ख़ून की कल्पना भी नहीं की जा सकती ।
कहानी में एक रोचक चरित्र ख़ातून का है । चौदह-पद्रह वर्ष की लड़की और चार-पाँच वर्ष का दिमाग़ । ख़ाला बी ने उसे सड़क के किनारे से उठाकर पाला था । उसके लिए चिन्तित भी बहुत रहती थीं । शादी के नाम पर लड़कियाँ उसे अकसर छेड़ा करती थीं। एक दिन ज़हरा बेगम की लड़कियों ने उसे घेर लिया ।
“क्यों रे ख़ातून, कब हो रही है तेरी शादी ?” सैयदा ने पूछा। “
अब हम का जानी ?” ख़ातून शर्म से दोहरी हो गयी।
“क्यों, दुआ माँगना छोड़ दिया क्या ?” नौशाबा ने कहा।
नहीं भैया, हम रोज़ माँगत हैं ।‘ ख़ातून हँसने लगी ।
रोज़ बारह बजे धूप में खड़े होकर नौहा पढने से दिल की मुराद पूरी होती है— पढा करो----सलमा ने कहा ।
फिर आप सब का ब्याह क्यों नहीं हुआ ? बुढाय रही हैं! ख़ातून ने कहा ।
हँसती लड़कियाँ ख़ामोश हो गयीं ।सैयदा का चेहरा पीला पड़ गया ।“
ख़ातून बिना सोचे-समझे सामने वाले से चुभती हुई बात कह जाती थी । इसी लिए सब की निगाह में कम अक़ल थी । इस समाज ने ऐसी बच्ची को भी नही छोड़ा और बहला फुसला कर उसके साथ अपनी हवस पूरी की । किन्तु ख़ाला बी ने सादुल्लाह से ख़ातून का निकाह पढवाकर, भले ही वह अवस्था में उससे चालीस वर्ष बड़ा था, मुहल्ले की कुछ तो मर्यादा बचा ली ।
वस्तुतः ताबूत कहानी परम्पराओं और आस्थाओं से जुड़े , एक ऐसे समाज की कहानी है जिसके पास भविष्य का न तो कोई स्वप्न है और न ही वर्तमान से निकास का कोई रास्ता । कहानी के केन्द्र में ख़ालाबी हैं और उनका इमामबाड़ा है । बड़ा सा घर है जो ऐन जवानी में ख़ाला बी से तीस वर्ष बड़े पति के निधन पर उन्हें उनकी लम्बी-चौड़ी जायदाद से वरसे में मिला था । उसी को लेकर वह ख़ामोश हो गयी थीं ।धीरे-धीरे करके बड़े से आँगन के चारों ओर उन्होंने कोठरियाँ बनवायीं और एक-एक करके किराये पर देने लगीं । अब यही हलवाई, नाई, दर्ज़ी, जुलाहे, भाँति-भाँति के लोग उनके बेटे, बहू, पोता-पोती बन गये थे ।--कोठरियों का किराया ही उनकी आमदनी का सहारा था । नासिरा शर्मा ने एक सफल चित्रकार की तरह ख़ाला बी के पोर्टरेट को जीवन्त कर दिया है। बस एक वाक्य से ख़ाला बी की पूरी तस्वीर उभर आती है –“एक धर्म की ज्वाला थी जो उन्हें जीवित रखे हुए थी , वरना प्यार से ख़ाली उनकी ज़िन्दगी चटख़ा बरतन थी जिसे धर्म की आस्था ने गोन्द की तरह चिपका रखा था । गोया पति का प्यार न मिलने की स्थिति औरत को एक चटखा बर्तन बना देती है । हाँ धर्म की आस्था उसे जोड़े ज़रूर रखती है । ख़ाला बी के पति का निधन हो चुका था किन्तु उनके अच्छे व्यवहार के कारण कौन ऐसा था जो उन्हें प्यार देने में संकोच करता था और दैड़-दौड़ कर उनकी सेवा नहीं करता था ।
पत्थर गली कहानी नासिरा शर्मा को इतनी अधिक प्रिय है कि इसी के नाम पर संग्रह का शीर्षक भी रखा गया है । लेखिका का बचपन इलाहाबाद की इसी पत्थर गली में गुज़रा है । कोतवाल साहब की कोठी के नाम से प्रसिद्ध, पिता के किराये के मकान के बड़े से आँगन में, एक कोने में लगा हुआ अमरूद का पेड़ नासिरा शर्मा की स्मृतियों में इस तरह सुरक्षित रह गया है कि घूम-फिर कर किसी-किसी कहानी से झाँकने लगता है ।पत्थर गली कहानी से एक दृश्य द्रष्टव्य है – “कच्चे आँगन के कोने में खड़ा वह तनहा अमरूद का पेड़ , झुट्पुटे के समय सैकड़ों आवाज़ों से भर जाता था । जाने कहाँ-कहाँ से सारे दिन घूम-फिर कर चिड़ियाँ बसेरा लेने आ जातीं और अमरूद की डालों पर बैठकर एक दूसरे से अपना दुखड़ा रोतीँ ।“ ताबूत कहानी में ख़ालाबी के बड़े से आँगन का एक दृश्य देखिए – “अमरूद के पेड़ के नीचे सब बैठकर खाना खा रहे थे । मुन्नी की अम्मा ने जुठी रिकाबियाँ समेटनी शुरू कर दीं और बार-बार अल्लाह का शुक्र अदा करने लगीं।“ यहाँ अमरूद के पेड़ के नीचे बैठकर खना खाने की चर्चा कुछ अटपटी सी लगती है । ऊपर से किसी भी चिड़िया के बीट कर देने का ख़दशा बना रहता है ।
ज़मीनदारी और तअल्लुक़े-दारी समाप्त होने और रियासतों के टूटने और तबाह होने से मुसल्मानों का संभ्रान्त समाज मिट्टी के टीले की तरह ढह गया । शिक्षा के अभाव और झूठी शान तथा दिखावटी दबदबे की ललक ने अपाहिजपन में और इज़ाफ़ा कर दिया । शीया सैयद परिवार और नवाबीन विशेष रूप से इसकी चपेट में आये । अवध और जौनपुर के क्षेत्रों में विशेष रूप से और आस-पास के इलाक़ों में सामान्य रूप से इस तबाही के दृश्य देखे गये ।लखनऊ में नख़ास के बाज़ार में घरों से चुपचाप आकर हीरे-जवाहरात और सोने के क़ीमती ज़ेवर कौड़ियों के मोल बिकते रहे । नासिरा शर्मा ने प्रतीत होता है कि इन मुसल्मान घरों को बहुत निकट से देखा है और सूक्ष्मता से विवेचित किया है । बावली और पत्थर गली कहानियों में संदर्भित स्थितियाँ मैं ने मुस्लिम परिवारों में स्वयं देखी हैं ।
पत्थर गली की फ़रीदा उस समय बड़ी हो रही है जब उसके पिता का निधन हो चुका है और हालात पूरी तरह बदल चुके हैं । वह इस वातावरण में जीने के लिए पैदा नहीं हुई है । उसकी विवशता यह है कि वह दूसरों की दया और मरज़ी से जी रही है । कल जब पिता जीवित थे और बहनों की शादी नहीं हुई थी, यह घर कितना भरा-भरा था ।ख़ूबसूरत परदों , सफ़ेद बरफ़ीली जाज़िमों और रगीन सोफ़ों से यह घर दमक्ता रहता था । अब तो इस घर में जाले लटकते हैं । हफ़्ता भर न देखो तो लगता है घर नहीं है कोई पुराना खण्डहर है । भाई साहब क़दम-क़दम पर रूपये की माँग करते रह्ते हैं । “बताये देता हूँ, सूट का रूपया न दिया तो मैं भी हास्टल वापस नहीं जाऊँगा । काम उनसे होता नहीं है मगर अभी तक वह अब्बा के ज़माने में जी रहे हैं । क़दम-क़दम पर खोखली बातें जिनका न सिर न पैर । अम्मी को जब-तब कचोके लगाते हैं । जैसे अम्मी किसी गुमनाम ख़ज़ाने की कुंजी दबाये बैठी हैं । फ़रीदा ही क्या ऐसा घर तो किसी को भी पागल बना देने के लिए कफ़ी है ।
लड़की में बचपन से बड़े होने तक परायेपन की चाभी इतनी अधिक भर दी जाती थी कि वह शादी में घर से बिदा होते-होते , बिना किसी की चिन्ता किये, अपने मायके की दौलत से पति को मालामाल कर देना चाहती थी । बावली कहानी में यह स्थितियाँ पर्याप्त मुखर हैं । माँ से जहेज़ कम मिलने की शिकायत करते रहना और घर आने पर पति की अधिक से अधिक ख़ातिर कराने की इच्छा रखना लड़कियों का स्वभाव बन गया था । बज्जो शादी के बाद अम्मा से कहा करती थीं –“अम्मा आप ने मुझे दिया ही क्या है ? बज्जो की आवाज़ से अम्मा का चेहरा धुआँ-धुआँ हो गया ।और अपिया तो अपनी तेज़-मिज़ाजी के लिए ख़नदान भर में मशहूर थीं । अम्मा के मना करने पर भी हर आने-जाने वाले से भिड़ जाना उनके लिए साधारण बात थी । शायद इसी लिए उनके पैग़ाम ही नहीं आते थे । सलमा की बात और थी। सबसे छोटी होने की वजह से ,परिस्थितियों ने उसे शालीन बना दिया था और वह घर का अच्छा-बुरा ख़ूब समझती थी । फिर अच्छी शिक्षा ने उसमें अपिया और बज्जो से अलग एक विशेष निखार पैदा कर दिया था । वैसे तो उसके बहुत से रिश्ते आये । लेकिन ख़ालिद के साथ उसकी शादी अम्मा की पसन्द से हुई थी । ख़ालिद उसे चाहते भी बहुत थे और पति के शब्दों में वह उनकी इकलौती मुहब्बत थी । बेगम शान मुहम्मद के साथ रहकर उसने सुसंस्कृत समाज में उठने-बैठने के तरीक़े भी सीख लिये थे ।
सलमा और ख़ालिद का दाम्पत्य जीवन वैसे तो एक आदर्श जीवन था । शादी के दो वर्ष बाद अम्मा का निधन हो गया था । बहनों ने पहचानना छोड़ दिया था । लेकिन ख़ालिद की मुहब्बत पाकर सल्मा ने पैरों के नीचे ठोस ज़मीन महसूस की थी । प्यार और विश्वास ने उसे जीना सिखाया था । सात वर्ष देखते ही देखते निकल गये । बच्चे का मुँह देखने के लिए ख़ालिद की अम्मी बेचैन रहने लगीं ।ख़ालिद पहले अपनी माँ की बात पर क्रोधित हो जाते थे , फिर चिढने लगे, फिर ख़ामोश ---और कुछ दिन बाद उनके ख़यालात भी बदल गये थे । सलमा के सामने अम्माँ की हाँ में हाँ मिलाने के इलावा कोई रास्ता नहीं रह गया था। अम्माँ बहू के इस बरताव से ख़ुश थीं । सलमा सोचती थी “मैँ पानी से भरी बावली रिश्तों के नाम पर बँटती आयी । हमेशा दिया, कुछ लिया नहीं आज जब अपनी कोख से एक बच्चा न दे सकी, तो मैं एक बेकार शै मान ली गयी । मेरा और ख़ालिद का रिश्ता इस औलाद को लेकर टूट गया । अगर ख़ालिद मेरी गोद न भर पाते तो क्या मैं दूसरी शादी करती ? उस समय गोद लेने की बात उठती । सब्र और क़ुरबानी जैसे शब्द केवल औरतों के लिए हैं।
सलमा की क्रान्तिकारी सोच यह बताती है कि वह पुरुष की इस अर्थहीन वर्चस्व भावना से अच्छी तरह परिचित है । बच्चा इस समाज में बुढापे की लाठी कहा जाता है। सलमा के दिल व दिमाग़ में तूफ़ान उठ रहा था । दूसरी शादी के लिए उसी ने ख़ालिद को तैयार किया था और लड़की भी उसने देख कर पसन्द की थी । इसलिए कि वह जानती थी कि वह समाज को बदल नहीं सकती और उसकी भलाई इसी में है कि वह ख़ालिद की माँ के साथ एकस्वर हो जाय । किन्तु वह अपनी सोंच को दफ़्न नहीं कर सकती थी। “इस घर में सिर्फ़ तनहा उसकी साँसें बसी हुई हैं और कल एक और साँस, एक और चूड़ियों की झंकार, अलगनी पर फैले कपड़ों में एक और जम्पर और ब्लाउज़ का इज़ाफ़ा । बचपन छत की तलाश में गुज़रा और आज छत है तो पैर के नीचे से ज़मीन ग़ायब हो रही है । हफ़्ते भर बाद मेरा कमरा अलग होगा । ख़ालिद मुझमें और सुहेला में बँट चुके होंगे । उफ़ मेरे ख़ुदा । सलमा ने आँखें बन्द कर लीं । “हर रिश्ता कुछ माँगता है । जब न दो तो टूट जाता है ।“
सलमा ऊपर से भले ही अपने पति की दूसरी शादी की तैयारियाँ कर रही हो, भीतर से वह पूरी तरह टूट चुकी थी । कल इस घर की रात कैसी रात होगी ? क्या मुझसे यह सब बर्दाश्त हो पयेगा ? और एक दिन तो ऐसा हुआ । ‘अरे ख़ालिद दौड़ो ! बहू बेहोश हो गयी “ अम्मा ने ख़ालिद को पुकारा । चेहरे पर पानी की छीँटें डालने पर उसे होश आ गया । और फिर ऐन बारात के दिन सुहैला से खालिद का निकाह होने के बाद सलमा दुल्हन के कमरे में फिर बेहोश हो गयी । बात फैलते देर नहीं लगी । जितने मुँह उतनी बातें । मेहमानों में एक लेडी डाक्टर भी थीं । डा0 अफ़रोज़ । नब्ज़ पर हाथ रखी और मुआयना कर के बोलीं “ यह तो बड़ी मुबारक बीमारी है ।“ ख़ालिद की अम्मा ने कहा “सच कहो ।“ और अधेड़ उम्र की डा0 अफ़रोज़ ने कहा “ यक़ीन न हो तो जाँच करा लें । मगर बहू है आपकी हामला । “
सलमा का पति दूसरी शादी इस लिए कर रह था कि सलमा से उसको कोई औलाद नहीं थी और सलमा की सास को औलाद देखने की जल्दी थी । चेक-अप कराते रहने की जागरूकता भी आम घरों में नहीं थी। सलमा जब पहली बार बेहोश हुई थीं , यदि उसी समय ठीक से चेक अप हो गया होता तो दूसरी शादी की ज़रूरत ही न पड़ती । दुल्हन के कमरे में सलमा के बेहोश होने को कृत्रिम संयोग कहना और कहानीकार को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराना कोई औचित्य नहीं रखता । ऐसा होना कोई अनहोनी बात नहीं है । औरत बेचारी अबला तो कहलाती ही आयी है । आँचल में दूध और आँखों में पानी की नियति के साथ सलमा अपने जीवन को पानी से भरी एक बावली सदृश समझती है । उसे तो ‘अन्तिम साँस तक खुले आसमान और ज़मीन के सीने में धंसे जीना है ।
संग्रह की दूसरी कहानी ‘सरहद के इस पार’ इश्क़ में होशो-हवास खो बैठने की कहानी है । सुरैया से रेहान की दोस्ती उस समय हुई थी जब वह बी0 ए0 में था । दोस्ती इश्क़ में बदली और शादी करके साथ ज़िन्दगी गुज़ारने के वादे किये जाने लगे । घर वालों को पता चला तो साफ़ कह दिया गया कि सैयद की लड़की शेख़ों में नहीं ब्याही जायेगी । हालाँकि शेख़ों और सैयदों में बराबर आपस में शादियाँ होती थीं । रेहान भी यदि दो वर्षों से बेकार न होता और किसी अच्छे पद पर होता या हैसियत के एतबार से दोनों ज़मीन्दार होते , तो शादी में कोई अड़चन न आती । नासिरा शर्मा ने तो बन्द दर्वाज़ा शीर्षक कहानी में सैयद की लड़की मिरज़ा के यहाँ ब्याह दी है जो सामन्य रूप से मुस्लिम शीया घरानों में राइज नहीं है ।सच पूछा जाय तो सरहद के इस पार की सुरैया बेवफ़ा निकली । उसका विवाह पाकिस्तान में किसी बड़े आफ़ीसर से हो रहा था और इस अवसर को वह खोना नहीं चाहती थी । वह रेहान से मिलती रही पर उसने अपनी शादी की उसे भनक तक नहीं लगने दी । एक बार बिदा होकर पति के साथ पाकिस्तान चले जाने के बाद रेहान की चिन्ता कौन करता है ।
रेहान जिस मानसिक स्थिति से गुज़र रहा था उसे विक्षिप्तावस्था या पागलपन का नाम नहीं दिया जा सकता । वह एक ऐसी स्थिति थी जिसमें आक्रोश अपनी चरम सीमा पर था और कुछ न कर पाने की विवशता आग को हवा दे रही थी । सच्चाई को चकमा देते हालात मुँह चिढा रहे थे और सब कुछ जला कर राख कर देने और तबाह और बर्बाद कर देने को मन चाह रहा था । कच्चे आँगन में ऊपर से तड़ातड़ गिरकर टूटती हुई खपरैल रेहान की इसी मनःस्थिति को व्यक्त कर रही थी । प्रथम श्रेणी में एम0ए0 करने वाला रेहान अपनी हरकतों के लिए चचा शकूर के हाथों बेतहाशा पिट जाता है किन्तु जवाब में कोई धृष्टता नहीं करता ।
शकूर चचा ग़ुस्से से काँपते हुए ऊपर चढे । बिना कुछ कहे दो ज़ोरदार चाँटे रेहान के मुँह पर जड़े और पीठ पर दो घूँसे –बदतमीज़ ! बेअदब ! जो मुँह में आता है बकता चला जा रहा है ।‘ धक्का देकर नीचे आँगन में रेहान को गिराया और लात घूसों की बारिश कर दी ।
शकूर चचा रेहान भाई को मार-कूट कर दद्दा के पास आकर बैठ गये उनके चेहरे से दुख और ग्लानि टपक रही थी । “मोहल्ले में इसकी बेहूदगी की वजह से नज़रें चुरानी पड़ती हैं । कम्बख़्त ने कहीं का नहीं रखा ।“लेकिन सच्ची बात तो यह थी कि सारा मोहल्ला रेहान को प्यार करता था और उसकी बेलाग-लपेट की खरी-खरी बातों का कोई बुरा नहीं मनता था। वर्मा जी की पत्नी अम्मा से कह गयी थीं “ परेशान न हों । हम रेहान को हमेशा से जानते हैं , अपना लड़का है । उसकी बातों को सब समझ रहे हैं ।”
नासिरा शर्मा ने ठीक ही लिखा है “ बेकारी, इश्क़ में नाकामी और बेवफ़ाई ने रेहान को दीवाना बना दिया ।“फ़र्स्ट क्लास में एम0ए0 करने के बाद यदि उसे कोई अच्छी नोकरी मिल गयी होती तो सुरैया को पाना भी आसान हो जाता और उसकी शादी पाकिस्तान में किसी आफ़ीसर से न होती ।
वैसे दूर के ढोल बड़े सुहाने होते हैं । क्या पता पाकिस्तान में सुरैया का मीयाँ आफ़िसर था भी या नहीं । पत्थर गली कहानी में लेखिका ने शायद ठीक ही कहा है –“लोग कहते हैं, लड़के तो बस, वह भी अच्छे बढिया कमाऊ लड़के केवल पाकिस्तान में मिलते हैं ---निपट झूठ है । मरयम कैसी फँसी थी । बताया गया था कि लड़का रेलवे में डाक्टर है । फ़ोन पर निकाह हुआ और निकला बाद में कम्पाउन्डर ।“पता यह चला कि पाकिस्तान सारे फ़साद की जड़ है । इक़बाल शायरे-अज़ीम जिसने पाकिस्तान का ख़्वाब देखा था यानी इन्सानी रिश्तों को तोड़ने की बात की थी, उसका अदब कोयला है जिसे छूकर हाथ काले होते हैं । अंग्रेज़ों ने हमें फ़साद की शक्ल में पाकिस्तान तोहफ़े में दिया है और हम इस ज़ख़्म को जब तक जियेंगे पालते रहेंगे । रेहान ने बहुत से घरों से माँग कर इक़बाल की रचनाएं एकत्र कीं और उन्हें आग के हवाले कर के संतोष का अनुभव किया । वास्तव में यह एक प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति थी । और ऐसी अभिव्यक्ति वही कर सकता है जिसका विवेक पूरी तरह सजग हो । उसे नारायण जी का जुम्ला नश्तर चुभो रहा था – ‘रहते हैं हिन्दुस्तान में, मगर सपने देखते हैं पाकिस्तान के !‘ दिल चाहा पटख पटखकर नारायण को मारकर पूछे – मन्दिरों की मूर्तियाँ डालर और पाउन्ड के लालच में कौन बेचता है ? वह पाकिस्तान का स्वप्न देखने वाले शायर इक़बाल ही से नहीं उन हिन्दुओं से भी बदला लेने पर आमादा है जो उसे उसीके वतन में चैन से जीने नहीं देते । “यह मेरा वतन है, मेरा वतन। देखता हूँ कौन मुझे जीने से रोकता है ? हिम्मत है तो आओ, निकलो । एक-एक का सिर तोड़ डालूँगा ।“
सच तो यह है कि रेहान हिन्दुओं, सिखों, ईसाइयों सभी से प्यार करता है ।कारण यह है कि वह हिन्दुस्तानी पहले है और मुसल्मान बाद में । हिन्दू-मुसलमान दंगे में कर्फ़्यू लग जाने का लाभ उठाकर तीन मुसल्मान लड़के जब बहला फुसला कर दुराचार की नीयत से राम खिलावन की लड़की सरस्वती को लाये और रात के सन्नाटे में खपरैल पर बैठकर औल-फ़ौल बकने वाले रेहान को मदद के लिए उसकी आवाज़ सुनाई दी तो वह बेख़ौफ़ आँगन मेँ कूद पड़ा और उस कमरे में घुस गया जिसमें मुसल्मान लड़के सरस्वती के साथ दुराचर करना चाहते थे । वह जानता था कि उसके सामने एक लड़की खड़ी है और लड़की की इस्मत हिन्दू या मुसलमान नहीं हुआ करती । वहाँ उसका अहसास ‘तीसरा मोर्चा’ कहानी की कश्मीरी औरत से अलग नहीं था जो राहुल और रहमान के बार-बार पूछने पर कि वह हिन्दू है या मुसलमान ? बता रही थी कि –“हिन्दू और मुसलमान तो सिर्फ़ वह मर्द होते हैं जो अपने मज़हब के उन्माद में औरत की आबरू लूटकर अपना धर्म निभाते हैं [इब्ने मरयम, पृ068]।“ और यह मज़हब का उन्माद इतना ख़तरनाक होता है कि रेहान ने सरस्वती को तो मुसलमान लड़कों के हाथों बरबाद होने से बचा लिया लेकिन अपनी ज़िन्दगी से हाथ धो बैठा । यहाँ रेहान का उन लड़कों से यह कहना कि “मेरे जीते जी इस मोहल्ले में किसी ज़ालिम औरगज़ेब की पैदाइश नहीं हो सकती ।“ इतिहास को भाजपाई कोण से देखना है। मेरी औरगज़ेब के साथ कोई सहानुभूति नहीं है ।पर अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रख्यात मार्क्सवादी इतिहासकार प्रो0 अतहर अली की पुस्तक “नोबुल्स अन्डर औरंगज़ेब” कुछ और ही तथ्य प्रस्तुत करती है । नासिरा शर्मा को चाहिए कि वह इस पुस्तक को अवश्य पढें ।
लेखिका ने अतिरिक्त उत्साह में यह भी बताने का प्रयास किया है कि हिन्दू मुसलिम दगों के अवसर पर मुसलमान घरों में बम बनाये जाते हैं जिसकी सूचना मोहल्ले के हर मुसलमान को होती है । शकूर चचा ने खिड़की से पुकार कर कहा “अम्मा ! कल्लन मियाँ चल बसे । अफ़ज़ल के बनाये बम फट गये । पुलिस उनके घर में है । कल्लन मियाँ की बीवी भी ज़ख़्मी हुई हैं और अफ़ज़ल, उसकी बोटियाँ छत की बल्लियों से लटक रही हैं ।“ मैं यह नहीं कहता कि मुसलमान ऐसा नहीं करते । ज़रूर करते होंगे । उनमें भी अपराधी मनोवृत्ति वालों की कमी नहीं है । मैं केवल यह कहता हूं कि इस घटिया कृत्य का धर्म से कोई रिश्ता नहीं है और तस्वीर का केवल एक रुख़ प्रस्तुत करना यथार्थ से आँखें चुराना है ।
प्रख्यात कहानीकार प्रेमचन्द के मिर्ज़ा साहब और मीर साहब नासिरा शर्मा की कहानी बन्द दर्वाज़ा के न सिर्फ़ यह कि पड़ोसी बल्कि संबंधी भी बन गये हैं । एक ही गाँव में एक दूसरे के मकान के पास मीर साहब और मिर्ज़ा साहब का रहना आश्चर्य की बात है । सैयद वाड़ा, सैयद पुरा या सादात की बस्ती में किसी मिर्ज़ा का मकान नहीं होता । दिल्चस्प बात यह है कि दोनों ही रईस हैं और आन-बान-शान में किसी से कम नहीं हैं । रईस मिर्ज़ा के घर के पिछवाड़े पासियों की बस्ती की चर्चा करके लेखिका ने एक प्रकार से संकेत कर दिया है कि वह गाँवों के वातावरण से परिचित नहीं है। पासियों की बस्ती किसी भी गाँव में आबादी से बहुत दूर होती है । कारण यह है कि वह सूवर पालते हैं जो मल इत्यादि खाते हैं और गन्दगी में रहते हैं ।
शबाना मीर साहब की बेटी है जिसकी शादी अस्करी मिर्ज़ा के बेटे काज़िम मिर्ज़ा से हो चुकी है । दोनों एक-दूसरे के साथ खेल-कूदकर बड़े हुए हैं और आपस में बेइन्तेहा मुहब्बत करते हैं । लेखिका ने बताया है कि चौथी के दिन ही कुछ ऐसी-वैसी हरकत हो गई जिस से रईस मिर्ज़ा का पारा चढ गया और फिर चौथी की रस्म के बाद मुहर्रम आ गया । मतलब यह कि चौथी अरबी महीना ज़िलहिज्जा की अन्तिम तारीखों में हुई थी । मोहर्रम में बिदाई संभव नहीं थी । इस अवसर पर लेखिका का कहना है कि ग़म का चान्द ऐसा निकला कि फिर डूबा ही नहीं । प्रतीत होता है कि लेखिका को मुसलमानों के अरबी महीनों का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं है । अन्यथा वह मोहर्रम के तुरत बाद यह न लिखती कि “दो माह बाद जब ईद पड़ी तो मीर साहब इन्तेज़ार करते रहे कि लड़की के ससुराल से बुलावा आये ।“ ग़रज़ यह कि बिना किसी ठोस तर्क के शबाना की रुखसती नहीं हुई और वह मायके में पड़ी रह गयी । उसके पिता ने काज़िम को भी शबाना से मिलने नहीं दिया । लेखिका ने यह तो बताया कि काज़िम को अम्मा की विशेष चिन्ता थी ।शबाना के आने पर वह ज़हर खाने को आमादा थीं । किन्तु इसके लिए शबाना कहाँ तक ज़िम्मेदार थी, यह कोई नहीं बताता । मिर्ज़ा साहब और मीर साहब की अर्थहीन अकड़ में पिसकर तिल-तिल मरती शबाना दो ऐसे परिवारों की हक़ीक़त उकेरती है जो अपनी झूठी शान के नशे में अपने वर्तमान से ग़ाफ़िल हैं ।
मीर साहब और अस्करी मिर्ज़ा के परिवार भी विचित्र हैं । मीर साहब को केवल तीन लड़कियाँ ही लड़कियाँ हैं जिनमें से केवल शबाना की चर्चा की गयी है और अस्करी मिर्ज़ा का काज़िम के अतिरिक्त और कोई बेटा या बेटी नहीं है । मीर साहब के घर का दर्वाज़ा गाँव का सब्से ऊँचा दर्वाज़ा है। मीर साहब का ख़याल है कि दूल्हा घोड़े पर बैठा-बैठा घर के अन्दर आना चाहिए । गाँव में काज़िम और शबाना के साथ खेलने पढने वला कोई दोस्त साथी नहीं है। किसी स्कूल का कोई उल्लेख नहीं । पता नहीं कभी यह बच्चे पढने भी गये या नहीं । शबाना के सामने गुज़रे कल की औरतों का आदर्श है । बलिदान की मूत्तियाँ ! ऐसे हालात में उसे भी जलते-जलते पिघलना है । मर्यादा की लौ को सिर पर उठाये दम तोड़ना है ।घूँट-घूँट इस दर्द के समुन्दर को पीना है । बड़े घर की कहानियाँ उनके आँगन में दम तोड़ती हैं । ऊँचा ख़ान्दान मान-मर्यादा का क़ब्रिस्तान होता है जहाँ हर रोज़ एक नयी क़ब्र खुदती है और बुज़ुरगों की ख़्वाहिशों के कफ़न में लिप्टी लाश दफ़न कर दी जाती है ।
अस्करी मिर्ज़ा को यह अकड़ है कि हमारे ख़ान्दान की रस्म रही है कि मर्द ने जिस औरत को छोड़ा, दोबारा उधर का रुख़ नहीं किया और मीर साहब का विचार है कि उनके ख़ान्दान में लड़कियाँ मर जाती हैं मगर नालायक़ ससुराल वालों का मुँह नहीं देखतीं । मीर साहब की बहन नौशाबा ने ठीक ही कहा था – “कब तक आप लोग ख़ान्दानी इज़्ज़त के नाम पर इन्सानी क़ुरबानी माँगेंगे भाई साहब !”और मीर साहब ने बहुत ठ्ण्डे लहजे में जवाब दिया था – “जब तक मैं ज़िन्दा हूँ बीबी, ख़ान्दानी तौर-तरीक़ों में तब्दीली नहीं आ सकती ।“ परिणाम यह हुआ कि शबाना अपने घर में ही सिसक-सिसक कर मर गयी और अपने प्यार को व्यावहारिक जीवन में रूपान्तरित न कर सकी ।
‘कच्ची दीवारें ‘कहानी में इब्बन मियाँ चचा और चची के कोई रिश्तेदार नहीं हैं किन्तु उनकी निगाह उनके कच्चे मकान पर जो बड़ा भी है और बहुत मौक़े की जगह पर है, टिकी हुई है । वह एक पैदाइशी ताजिर हैं और हर चीज़ को नफ़ा-नुक़सान की दृष्टि से देखते हैं । इस से पहले वह अपनी बेवा ख़ाला की सारी जायदाद धोखे से अपने नाम करा चुके थे । प्रारंभ में चचा मियाँ कुछ परेशान ज़रूर थे कि सरकार ने कच्चे मकान का टैक्स एक हज़ार रूपये वार्षिक लगा दिया , जिसका कोई औचित्य नहीं है । दिमाग़ भिन्ना जाता था । इतनी तो आमदनी भी नहीं है । महीने में चार कोठरियों का डेढ सौ मिलता है। पेनशन का पाँच सौ रूपया । इस महगाई में साढे छ्ह सौ होता क्या है । किन्तु चची बटुए बनाकर साल भर में इतने पैसे कमा लेती थीं कि टैक्स आसानी से भरा जा सकता था । इब्बन मियाँ ने चचा पर तरह-तरह से डोरे डाले कि वह मकान उनके हाथ बेच दें । पर चचा पर ज़रा भी असर न हुआ । “बाल-बच्चे तो हैं नहीं । घर की छत है । वह भी तुम चाहते हो हम से छिन जाये । “
चची ने जब सुना बेचैनी से उठकर बिस्तर पर बैठ गईं । “मैं उस मुर्दार की फुफी न ख़ाला । ख़ुदा की मार तुम्हारी अक़्ल पर । चुपचाप सुनकर चले आये । मैं होती तो जूतियों से गंजा कर देती । “ यही मकान तो बुढापे का सहारा है । यही मेरा बेटा, यही मेरी बेटी ।“ कुछ अरसे बाद चचा को डबल नमोनिया हो गया डाक्टर ने आकर कई इंजेक्शन लगाये । दवाएँ दीँ ।इब्ने फलों व दवाओं का ढेर लगाकर चले गये । मोहल्ले वाले इब्ने की तारीफ़ें कर रहे थे । चची को इब्ने से सख़्त नफ़रत थी । मगर उस नफ़रतज़दा इन्सान ने उनके सुहाग की देख-रेख की थी और चचा मियाँ फिर से सेहतमन्द हो गये थे। इब्बन मियाँ की वजह से मकान भी धीरे-धीरे पक्का बनने लगा था । आगे की दो दुकानें किराये पर उठ गयी थीं । नफ़रत और अहसानमन्दी की भावनाओं के बीच दबी चची सदा परेशान रहती थीं ।
कच्चा मकान अभी आधा बाक़ी था पक्का होने में कि चचा ने आँखें बन्द कर लीं । मियाँ इब्ने ने ठीक अपने बाप की तरह उनके कफ़न-दफ़न का इन्तेज़ाम किया । चची सोचतीं, इन परेशानियों के दिनों में इब्ने न होते तो वह क्या करतीं ।मियाँ इब्ने सुबह शाम चची की ख़ैरियत लेने आ जाते । इब्ने मियाँ की पत्नी कुल्सूम को शौहर की नीयत का पता था… उन्होंने सुन रखा था कि यतीम और बेवा की हाय बहुत बुरी होती है । निर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय । मुई खाल की साँस सों, लौह भसम होइ जाय ॥ जब उनकी बेटी सेहर बीमार हुई तो वह एकदम से डर गयीं । “मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूँ । मुझपर अब ज़ुल्म न करो । मेरी गोद सूनी मत करो “
इब्बन मियाँ की बेटी सेहर ठीक हो गयी । चची की बेचैनी और तड़प देखकर इब्बन मियाँ को थोड़ी सी ग्लानि हुई । दूसरे दिन बहुत ज़ोरों की बारिश हुई । चची के मकान के कमरा और दालान गिर गये । हर तरफ़ बस कच्ची-भीगी मिट्टी का ढेर था । चची का दीवार के नीचे दबकर इन्तेक़ाल हो चुका था । इब्बन मियाँ ने कफ़न- दफ़न क इन्तेज़ाम किया । आज उन्हें महसूस हो रहा था जैसे सचमुच उन के सिर से चची का साया उठ गया है । लेकिन अपने ताजिर दिमाग़ को क्या करें । चची को क़ब्र में उतारते हुए इब्बन मियाँ की सुर्मा लगी आँखों में आँसू ज़रूर भरे थे लेकिन दिल में सोंच रहे थे कि इस कच्चे मकान को हासिल करने के लिए उन्होंने क्या क्या पापड़ नहीं बेले । पर कुछ भी हासिल नहीं हुआ । उन्हें पता नहीं था कि चची किसी का क़र्ज़दार रहकर नहीं मरना चाहती थीं । इब्बन मियाँ के ताजिर दिमाग़ के आश्चर्य की कोई सीमा न रही जब उन्हें बताया गया कि चची ने सबसे छुपाकर यह वसीयत ग़फ़्फ़ार मियाँ के पास रखवा दी थी जिसमें अपनी सारी जायदाद का वारिस अपने गोद लिये बेटे इब्बन मियाँ को बनाया था । इब्बन मियाँ को यह भी पता चला कि ग़रीब इज़्ज़त से जीना ही नहीं इज़्ज़त से मरना भी जानता है ।
पत्थर गली की भूमिका में नासिरा शर्मा ने लिखा है कि मुस्लिम समाज सिर्फ़ ग़ज़ल नहीं है । लेकिन पत्थर गली की कहानी ‘सिक्का’ सिर्फ़ ग़ज़ल अवश्य है। महबूब से बातें करती हुई । कई-कई पड़ावों और मुक़ामात से गुज़रती । सुक्र की मंज़िलों में ख़ुदकलामी के कई-कई दरया लांघती । इश्क़ का खरा चमकीला सिक्का हथों में लिये , अहसास के लम्स से अभिभूत हो जाने की हमवार फ़िज़ा में उपहार स्वरूप ज़िन्दगी के बचे साल भेंट करती, जज़्बात के सायेदार दरख़्तों के नीचे रंग-बिरंगे फूलों की बेलौस बेग़रज़ पुर ख़ुलूस ख़ुश्बू से अनलहक़ का ज्ञान प्राप्त करती यह कहानी सत्तर हज़ार परदों में छुपे नूर के दरया से संवाद करती है । उर्दू में इस प्रकार के प्रयोग सलाहुद्दीन परवेज़ ने किये हैं । हाँ हिन्दी कहानी में नासिरा शर्मा का यह प्रयोग नया ज़रूर है । मैं जब भी इस कहानी को पढता हूँ ग़ालिब की एक मशहूर ग़ज़ल का यह शेर अनायास ही गुनगुनाने लगता हूं- “बे दरोदीवार सा इक घर बनाया चाहिए । कोई हमसाया न हो और पास्बाँ कोई न हो ।’’
संग्रह की धीमी गति से आगे बढने वाली कहानी ‘कातिब’ रोचक भी है और सशक्त भी । कला की नाक़दरी और मशीनी तथा बाज़ारवादी संस्कृति की चपेट में किताबत के हुनर का हस्तशिल्प मिटता सा प्रतीत हो रहा है और उसके अस्तित्व के मिट जाने का ख़तरा लेखिका को बेचैन सा कर देता है । उर्दू भषा में छपाई पहले हाथ से लिखकर होती थी और किताबत को बहुत बड़ी कला माना जाता था । लेखकों और प्रकाशकों द्वारा कातिबों का शोषण आम बात थी । कातिब भी कभी कभी अपनी हरकतों से लेखकों को रुला दिया करते थे । लिखने-पढने वालों के बीच उन्हें लेकर बहुत से चुटकुले मशहूर थे । एक चुट्कुला कुछ इस प्रकार है जिसे नासिरा शर्मा ने अपने ढग से लिखा है । किसी ख़लीफ़ा का विचार हुआ कि किसी अच्छे कातिब से क़ुरआन शरीफ़ लिखवाया जाय । कातिब बुलाया गया और ख़लीफ़ा ने उससे कहा “मियाँ यह अल्लाह का कलाम है, इसमें कोई इस्लाह मत कर बैठना । बगैर किसी तब्दीली के जो लिखा है वही लिखना।“ कातिब साहब बोले –“हुज़ूर ! मेरी क्या मजाल के अल्लाह के कलाम में कोई तब्दीली करूँ ।“ इनआम के लालच में कातिब साहब बड़ी शान्दार किताबत कर के लाये । ख़लीफ़ा ने लिखावट की तारीफ़ की और सवाल किया कि कोई तब्दीली तो नहीं की ? कहने लगे हुज़ूर ! हमारी समझ में एक बात नही आयी, अल्लाह के कलाम में शैतान की क्या ज़रूरत है ? ख़लीफ़ा ने सवाल किया “तुमने कुछ किया तो नही ?” बोले “हुज़ूर जहाँ जहाँ शैतान का नाम था वहाँ-वहाँ हुज़ूर का नाम कर दिया ।“
इन्डोपाक सेमीनार के पहले दिन की भीड़-भाड़ में ज़हूर साहब ने अपनी भारी आवाज़ में कहा – “ इतने सालों से उर्दू इस मुल्क में है, मगर वही किताबत का पुराना नुस्ख़ा । अंग्रेज़ी व हिन्दी की किताब दस दिन में छप कर आ जाती है ,मगर उर्दू की किताब को तो दस महीना सिर्फ़ किताबत में लगते हैं ।“रईस साहब फ़ौरी तौर पर बोले –“ आदत की बात है । किताबत के हुरूफ़ ज़्यादा ख़ूबसूरत और रौशन होते हैं। टाइप तो नेहायत बेकार लगता है । फिर किताबत एक हुनर है, फ़न है । “यानी उर्दू में किताबत के हुनर को अक्षरों की नोक-पलक से झलकने वाले सौन्दर्य ने बचा रखा था । यह सौन्दर्य नस्तालीक़ फ़ोन्ट में था जो उर्दू में नहीं बन पाया था और सिर्फ़ कातिब के पास था। कम्प्यूटर के राइज होते ही इस फ़ोन्ट ने बड़ी तरक़्क़ी की । आज जमील नस्तालीक़, नफ़ीस नस्तालीक़ , हिलाल नस्तालीक़ आदि कितने ही वेबसाइट्स पर उर्दू नस्तालीक़ फ़ोन्ट उपलब्ध है और राष्ट्रीय सहारा जैसा दैनिक पत्र इसमें निकलता है । उर्दू दैनिक सियासत, क़ौमी आवाज़, दावत इत्यादि तो पहले भी निकलते थे जिनकी वजह से उर्दू किताबत जीवित थी जबकि कम्प्यूट्रर कम्पोज़िंग की वजह से किताबत का हुनर आज विलुप्त हो चुका है ।
अकरम साहब कातिब कहानी के मुख्य पात्र हैं । तंग सा मकान । उसी में बीवी-ब्च्चों और अम्मा के साथ रहना, उसी में किताबत का कामधाम । कहीं छत के टपकने से किताबत किये हुए सफ़हों की तबाही, कहीं बच्चे के हाथ से खाना गिर जाने से किताबत की बरबादी । फिर काम हो जाने पर पैसों के लिए मारे मारे फिरना । दिमाग़ में तरह-तरह के विचार आये । पर अन्त में इसी नतीजे पर पहुँचे कि फ़न बहर हाल फ़न है । और वह एक फ़नकार हैं उन्हें अपने फ़न को मरने नहीं देना चाहिए । “इन्सान को सबसे ख़ूबसूरत चीज़ जो ख़ुदा ने दी है वह हैं उसके हाथ, जिनके ज़रिए वह अपने दिल व दिमाग़ का इज़हार करता है । अपने को दूसरों के सामने बेनक़ाब करता है । --जब वह इन हाथों से कुछ गढता है तो फ़नकार कहलाता है । मैं फ़नकार हूं । ख़ुदा के वुजूद को काग़ज़ पर उभारता हूँ । --फिर थकन का , मायूसी का अहसास मुझे क्यों घेरता है ? शायद यह मेरी अपनी कमज़ोरी है, अपने को सही न पहचानने की ।“नासिरा शर्मा की विशेषता यह है कि उनके पात्र ज़िन्दगी से हार नहीं मानते । बल्कि उसमें अन्दर-ही-अन्दर इस तरह की सुरंग बना लेते हैं जो कहीं भीतर छुपी रोशनी से जगमगा सी उठती है ।
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लेखिका = नासरा शर्मा

कहानी सग्रह = पत्थर गली

राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्लि, 2002



















शनिवार, 11 जून 2011

इश्क़ के धरातल पर मनुष्य होने की सम्पूर्ण गरिमा : नासिरा शर्मा की कहानियाँ [ 1 ]

[1 ] इश्क़ के धरातल पर मनुष्य होने की सम्पूर्ण गरिमा

इश्क, मुहब्बत, प्यार, लगाव, तअल्लुक्, उल्फ़त इत्यादि कितने ही ऐसे शब्द हैं जिनके सहारे इन्सानी सांसों की गरमी बनी रहती है। और यह सांसें भौगोलिक परिधियों से नियंत्रित नहीं होतीं । क्या अन्तर पड़ता है इनके ईरानी, अफ़ग़ानिस्तानी, फ़िलिस्तीनी अथवा भारतीय और पाकिस्तानी होने से ? आवाज़, अहसास और दर्द के तराज़ू पर यह धड़कनें एक दूसरे से अलग नहीं होतीं। उनकी सांसों की गरमाहट उनकी भौगोलिक पहचान नहीं बनाती। हाँ उस गर्माहट का सहजपन और उसका स्वाभाविक विकास उस लगाव के पैमाने ज्ररुर तय करता है जो उसकी सतह पर बरक़रार रहता है। देखने की बात यह है कि यह पैमाना नदी, नाला, पहाड़ आबशार आदि मे नही है, इसलिए कि ये सांसों की गरमी से महरूम हैं। शायद इसीलिए नासिरा शर्मा “शामी काग़ज़ की भूमिका मे लिखती हैं। “मैं तो केवल दो हाथ, दो पैर, दो कान,दो आंख, एक दिल और एक दिमाग़ वाले इनसान को पहचानती हूं । वह जहाँ कहीं, जिस सीमा , जिस परिधि में जीवन की संपूर्ण गरिमा के साथ मिल जाये वहीं मेरी कहानी का जन्म होता है। ज़ाहिर है कि नासिरा शर्मा की कहानियाँ किसी विशेष मुल्क, मज़हब और क़ौम की न होकर “उस जनसमुदाय की संवेदनाओं और वेदनाओं की धड़कनें हैं जो धरती से जुड़ा आशा-निराशा का संघर्षमय सफ़र तय कर रहा है । ईरानी परिवेष में शामी काग़ज़ की कहानियाँ लिपटी अवश्य हैं, किन्तु उसके पात्र अच्छी तरह जानते हैं कि सहानुभूति और प्यार में बहुत अन्तर होता है और जीवन की सम्पूर्ण गरिमा प्यार में है, सहानुभूति में नहीं।
शामी काग़ज़ की कई कहानियाँ अपने शीर्षकों की दृष्टि से तिलिस्मी और ज़ादुइ सी प्रतीत होती हैं । सहरानवर्द, आबे-तौबा, मिस्र की ममी, दादगाह, उक़ाब वग़ैरह फ़ारसी ज़बान की तहों में दबे हुए ऐसे नाम हैं जिनकी दुनिया कुछ अलग सी लगती है। किन्तु इन कहानियों के साथ शीघ्र ही इनका पाठक अन्तरंग हो जाता है । इसका कारण यह है कि इनका ब्ररताव और इनका कथ्य अजनबीपन से खाली है और संवेदना की आत्मीय परतें खोलता है। वैसे ईरान में ऐसी कहानियाँ भरी पड़ी हैं जिनमें शृंगार भी है और सज्जा भी ,किन्तु न कोई टीस है न टपकन और न कोई ज़िन्दगी। नासिरा शर्मा ऐसी ऐय्यारी और तिलिस्मी दुनिया से अपना दामन पाक रखती हैं । शाहे-ईरान के समय में कामवासना से परिपूर्ण यूरोपीय यंत्र-चालित जीवन की शोख़ रंगों से लिपी-पुती झाँकियों में भी नासिरा के लिए कोई आकर्षण नहीं था अन्यथा एक विशेष पाठक के चटख़ारे भर कर पढने की सामग्री तो एकत्र हो ही जाती। यह और बात है कि यह आस्वादन अपना साहित्यिक महत्व खो बैठता ।
आबे-तौबा की सूसन एक विवाहिता स्त्री है। कामरान के साथ उसका विवाह दस वर्ष पूर्व हुआ था । कामरान एक इंजीनियर था और वह एक चाइल्ड साइकालोजिस्ट थी। किसी परीशानी के बग़ैर घरेलू जीवन सुखी था। अगर वो साइकालोजिस्ट न होती तो शायद एक आम पत्नी, एक आम माँ, एक आम नागरिक की तरह रहती। एक मामूली सी आम जिन्दगी जीती। मगर उसे तो सोंचने की, हर काम के अच्छे-बुरे प्रभाव, हर घटना को पहली और दूसरी घटना से जोड़ने की आदत सी पड़ गयी थी। पुरुषों के साथ काम करने में उसे एक ही शिकायत थी कि वो औरत के काम, बुद्धि से ज़्यादह उसके औरत होने में रुचि रखते हैं। पुरुषों की ओर से सदैव सतर्क और चौकन्नी होने के बावजूद सूसन किस प्रकार शमशाद को आत्मसमर्पण कर बैठी और गुनाहों के एहसास की दावाग्नि में जलने लगी, ये अवश्य विचारणीय है। द्रष्टव्य यह है कि यह सब कुछ इतना सहज गति से हो गया कि सूसन के पास मुड़कर देखने के लिए समय ही नहीं बचा । स्थिति यह है कि अब उस से अपना इस प्रकार सुलगते रहना सहन नहीं हो पाता। उसे विश्वास है कि जहन्नम के शोलों की तपिश भी इतनी असह्य नहीं होगी।
वह समझती थी कि वह खरा सोना है और परिस्थितियाँ उसे प्रभावित नहीं कर सकतीं। उसका भरोसा देखने योग्य था।“फड़फड़ाने दो, इस समुद्र पर कोई नहीं टिक सकता। और फिर यह कोई इशक़ के परिन्दे थोड़े ही हैं जो सिर पटक कर मर जायेंगे। ये तो मौसमी परिन्दे हैं जो मौसम के साथ आते हैं और मौसम के बदलते ही लौट जाते हैं। इस भरोसे को यदि शमशाद के बल प्रयोग ने तोड़ा होता और सूसन के लिए कोई अन्य रस्ता चुनना संभव न होता,तो और बात थी । आश्चर्य यह है कि सूसन जैसी स्त्री ने स्वयं आत्मसमर्पण किया था। बिना कुछ कहे शमशाद ने एकदम से सूसन का हाथ अपने हाथ में लिया था । उसने सूसन को अपने समीप कर चुम्बन ले लिया और इस से पहले कि सूसन अपने को बचाती शमशाद का हाथ उसके शरीर के नाज़ुक, मुलायम हिस्सों पर पहुँच गया। उस समय शमशाद को रोकते हुए उसने केवल इतना कहा था ‘इस खंडहर में तुमको क्या मिलेगा ? नहीं, नहीं मुझे छोड़ दो। मैं कोई लड़की नहीं हूँ। प्लीज़ शमशाद समझो।‘ किन्तु उस समय तक सब कुछ इतना आगे बढ़ चुका था जहाँ कोई भी रोक-थाम अब अपना अर्थ खो बैठी थी।‘
सूसन अब भले ही पश्चाताप की आग में जल रही हो और उसे अपना आत्म समर्पण याद करके भले ही ये पछ्तावा हो कि वह कहाँ गिरी। गंदगी से भरपूर गड्ढे में। वो अपने कानों में गूँजते उन औरतों के भयानक क़हक़हों को नहीं रोक पाई जिन पर कभी उसने उँगली उठाई थी। जिनको उसने ऊँच-नीच समझाया था। ‘झूठी, बगुला भगत कहीं की। ‘वह घबराकर अब्दुल अज़ीम गयी। धार्मिक स्थान पर शायद कुछ शान्ति मिले । वहाँ हरम से निकल कर घर की तरफ़ लौट रही थी कि एक मौलवी ने दो घ्ण्टे के लिए सीग़े अर्थात शरीअत-स्म्मत वैवाहिक अनुबंध करने को कहा और सूसन ने जो कुछ सुना उसे सुन कर चकरा गयी।उसे एक धक्का सा लगा। क्या कुछ नहीं होता इस धरती पर ।बस कड़वाहट को निगलने की बात है। उसने बड़े ठण्डे स्वर में कहा – “सीग़ा किया था मौलवी साहब, समय का कोई ब्न्धन न था। हर तरह की स्वतंत्रता थी , फिर भी आजतक जहन्नम की आग में जल रही हूं।‘उसके इन वाक्यों जीवन की ऐसी सुलगती हुई सच्चाई थी जिसकी आँच उस मौलवी ने भी महसूस की और आबे-तौबा सिर पर डालकर तौबा की दुआएं प्ढ्ने का सुझाव दिया। सूसन ने ऐसा ही किया और वह इस कुण्ठा से अपने आप को बाहर निकाल लायी। किन्तु सच्चाई यह है कि तौबा की दुआ और आबे-तौबा भी सूसन को आज़ादी न दे सके । सूसन घर की चहार्दीवारियों में घिर कर रह गयी। वह आज तक अपने लिए नहीं जी सकी। फिर अपने लिए मरे क्यों ? बस इसी भावना ने उसे जीवित रखा।
सहरानवर्द की कथा नारी की अस्मिता को एक नये कोण से देखती है आबे-तौबा की सूसन अपने सम्बन्ध में निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है । सहरानवर्द की शोला औरत है और उसकी अस्मिता को पहचानती है। वह एक जिन्स के रूप में जीना स्वीकार नहीं करती। वह दुकान में सजी हुई सामग्री नहीं है कि दुकान का मालिक उसकी मन चाही क़ीमत वसूल कर ले । या फिर उमराव जान अदा की तरह शहरयार के शब्दों में फ़रियाद करती दिखायी दे “ हम हैं मताए- कूचओ-बाज़ार की तरह । उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह ।“ उसमें वास्तविकता का मुक़ाबला करने का सामर्थ्य है। “बाबा ने अपनी जायदाद समझकर मुझे बेच दिया, आपने अपनी मिल्कियत समझकर मुझे दान कर दिया । मेरे बारे में ये फ़ैसला बिना मेरी राय के आपने कैसे कर दिया ?” जिस इस्लाम ने औरत की स्वेच्छा और उसकी स्वतंत्रंता को उसके वैवाहिक जीवन के निर्णय के लिए अनिवार्य माना हो, और जिसके नबीश्री ने अपनी अवस्था से पन्द्रह वर्ष बड़ी कन्या हज़रत ख़दीजा तथा बीस वर्ष से भी अधिक छोटी हज़रत आयशा से उनकी इच्छानुरूप विवाह किया हो, उसी इस्लामी समाज के दरीवश को ईरान में इस उत्तर-आधुनिकता के युग में जीवन काटना मुश्किल हो जाय । कभी उसे अपनी पत्नी का बेटा समझा जाय और कभी पिता । इस दृष्टि से सहरानवर्द की क्था हिन्दी कहानी लेखन के इतिहास में एक इज़ाफ़ा है । नारी की इच्छा को महत्त्व देना और उसकी अस्मिता को एक नये साँचे में देखना आकर्षक तो है किन्तु आज की स्थितियों में कितना व्यावहारिक है, यह विचारणीय है ।
नासिरा शर्मा अपनी सहृदयता और सर्जनात्मक प्रतिभा से कल्पना के धरातल पर जो बेल-बूटे तैयार करती हैं और उनमें हल्के तथा गहरे कलात्मक रंगों को जिस प्रकार भरती हैं वह उनके पाठक को कुछ देर के लिए स्तब्ध कर देता है । कविता और पेन्टिंग नासिरा के रोचक विषय रहे हों या न रहे हों, शामी काग़ज़ की अनेक कहानियों में ईरानी परिवेश का उर्वर फलक पाकर लेखिका का शिल्प समूची आबो-ताब के साथ जीवन्त हो उठा है। क़िस्सागोई और कहानीपन की कमज़ोर परम्परा से मुक्त रहते हुए इन कहानियों का एक निजी चेहरा है जिसकी दो चमकदार आँखें युगीन यथार्थ के साथ संवाद करती हैं और अपनी पहचान दर्ज कराना नहीं भूलतीं। पतझड़ का फूल, तलाश, उक़ाब, मिट्टी का सफ़र और खुशबू का रंग इत्यादि ऐसी ही कहानियाँ हैं। पतझड़ का फूल की अनाहिता बुटीक से निकलती है, पर्स से गागिल्स निकाल कर आँखों से साँप की तरह चिकनी, चमकीली सड़क में हल्की सी ठंडक भरती है। एक कैमिस्ट की दुकान से दवा की शीशी लेती है, सामने आईने में अपना मुँह देखकर स्कार्फ़ बराबर करती है और टैक्सी के लिए सड़क के किनारे खड़ी हो जाती है। सारा द्श्य सामान्य सा है। मैकदे और रेस्तराँ के शीशों पर काग़ज़ चिपका कर रमज़ान की वजह से उन के बन्द होने का गुमान सा किया गया है। हालाँ कि जीवन अपनी सामान्य गति से ही चल रहा है। फिर अचानक बिना किसी घन-गरज के चिन्तन के आकाश पर जैसे बिजली सी कौन्ध गयी हो और अनाहिता ज़रा सा भी ढकी छिपी न रह गयी हो । टैक्सी न मिलने की स्थिति में वो एक प्राइवेट कार पर बैठ जाती है ‘यदि समय हो तो आप मेरे साथ शाहयाद तक चलें’ ‘उत्तर भी क्या देती, ‘शुक्रिया’ । चलती ज़रूर, जबकि आपने इतनी मेहरबानी की है। मगर माँ की तबियत ठीक नहीं है और मुझे फ़ौरन घर पहुँचना है।“
अनाहिता घर पहुँच गयी । किन्तु माँ से उसकी तकलीफ़ छिपी न रह सकी । अनाहिता के पूछने पर –“बहुत तकलीफ़ हो रही है माँ ? उसने कहा था _ “नहीं बेटी मैं तुम्हारी तकलीफ़ देख रही हूँ । और उसी तकलीफ़ से प्रेरित होकर रात को अनाहिता ने जैसे ही तकिये पर सर रखा उसे दोपहर की घटना याद आ गयी। युवक का चेहरा, तिरछे होठों की घुटी-घुटी मुस्कुराहट। उसने आँखें बन्द कर लीं। अर्थात दृश्य को पूरी तरह सुरक्षित कर लेना चाहा। पर वह ऐसा न कर सकी। भयानक सपनों के अन्देशे से उसकी आँखें खुल गयीं। वह ऐसे ऊटपटाँग स्वप्न क्यों देखती है। उसकी छोटी बहेन कतायून जिसके कंधे और सीने पर गुच्छेदार बाल झूल रहे थे और जो लैम्प के नीचे बैठी पढ़ रही थी, ऐसे स्वप्न नहीं देखती होगी। कारण यह है कि वह इश्क़ के धरातल पर मनुष्य होने की सम्पूर्ण गरिमा के साथ जीना जानती है। वह फ़िरोज़ के रूप में अपने जीवन साथी का चयन कर चुकी है और उसे माँ-बहेन से मिलाकर स्वतंत्र हो गयी है। यह स्थिति अनाहिता की नहीं है।
अनाहिता को देखने लड़के वाले उसके घर आए हैं। लड़के की माँ को रिश्ता पसन्द भी है, किन्तु लड़के के पिता को दोनों का उम्र में बराबर होना पसन्द नहीं है। रिश्ता तय नहीं हो पाता। अनाहिता दफ़्तर से एक दिन सीधे शहयाद जाती है। शायद प्राइवेट कार में लिफ़्ट देने वाले लड़के से मुलाक़ात हो जाय। लेकिन ऐसा नहीं होता। अनाहिता अपनी ज़िन्दगी को एक ज़िन्दा लाश से ताबीर करती है जिसके लिए कोई क़ब्र ख़ाली नहीं है। ‘उसकी ज़िन्दा लाश कफ़न में लिप्टी गहवारे में रखी है। सब परीशान हैं कोई क़ब्र ही ख़ाली नहीं है कि वह दफ़नाई जाय। वह खामोश बेजान सी पड़ी है। अनाहिता ऊपर नज़र उठाती है। ऊपर पेड़ पर बेशुमार गिद्ध बैठे हैं।“ लेखिका ने यहाँ बहुत ही बारीकी से हालात का संकेत किया है जिससे अनाहिता की कहानी एक दम से मुखर हो उठी है। मौलाना रूम ने अपनी प्रख्यात मसनवी में कहा है-“ हर के रा जामा ज़ इश्क़े चाक शुद । ऊ रा हिर्सो ऐबे-कुल्ली पाक शुद्।“ अर्थात जिसका वस्त्र इश्क़ की वजह से चाक हो चुका है, वह हर प्रकार के लालच और ऐब से पाक हो चुका है। क़तायून का जीवन इसका बेहतरीन उदाहरण है और अनाहिता अपने जीवन में और जीवन के बाद भी सुरक्षित नहीं है। गिद्धों की भूखी दृष्टि उस पर जमी हुई है।

आईना कहानी में सौन्दर्य और प्रेम अपनी अनोखी छवि के साथ सृजन का एक नया क्षितिज प्रस्तुत करते हैं ।हाँ कहानी का शीर्षक यदि आईना के स्थान पर मिनिएचर होता तो शायद प्रेमाभिव्यक्ति की सांकेतिक संप्रेषणीयता कुछ और बढ जाती । रामिश एक चित्रकार है और ईरान में अपनी कला के लिए प्रख्यात है । वह स्वय भी सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति है । जो उसे देखता है देखता ही रह जाता है । उसके बनाये हुए मिनीएचर अद्भुत हैं । पर जिस दिन से वह चादर में लिप्टी हुई हिरनी उस से टकराई है और उसने उसके मिनीएचर की क़ीमत पूछी है वह अपनी सुध-बुध खो बैठा है ।रंगों के डिब्बों के पीछे से रामिश ने तस्वीर उठाई जिसे वह बना रहा था और ऊसे ईज़ल पर लगाकर उस लड़की की आँखों की कैफ़ियत उभारने लगा । हाथ और दिमाग़ साथ-साथ चल रहे थे ।उन आँखों में वहशत थी, डर था, नहीं बुलावा था, नहीं सिर्फ़ जादू था, ठ्ण्ढ्क थी, नहीं आतशकदे की गरमी थी, सम्मोहन था, नहीं नहीं , ग़लत, यह सब कुछ न था । उन आँखों में पोखरों में खिले कमल जैसी रंगीनी थी, ताज़गी थी। दीवाना बनाने वाली कशिश थी । एक के बाद एक भाव बदल रहा था । पन्द्रह दिनों से वह कुछ नहीं बना पाया । यूँ ही परीशान था, थका सा, खोया हुआ महसूस कर रहा था । नासिरा ने इस कैफ़ियत की गहराई में बड़ी सफलता के साथ झाँकने का प्रयास किया है ।
चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की प्रख्यात कहानी उसने कहा था की नायिका अभी पूरी तरह शैशव-यौवना भी नहीं है । फिर भी जब नायक उससे प्रश्न् करता है – “तेरी कुड़माई हो गयी है ?” वह शरमा कर ” धत” कहती है और भाग जाती है । नासिरा शर्मा की नायिका रौशनक पूर्ण युवती है और प्रेम तथा सौन्दर्य की प्रतीकात्मक एवं सांकेतिक भाषा अच्छी तरह समझती और बोलती है ।दुकान में बार-बार आकर एक ही मिनीएचर की क़ीमत पूछना और आगे बढ़ जाना रामिश के लिए एक खुला दावतनामा था । एक दिन उसके ‘कितने का है’ पूछने पर उत्तर मिला-‘कल ही वाली क़ीमत है। लेकिन रोज़-रोज़ के प्रश्न से चिढ़ कर आखिर रामिश से न रहा गया और वह चादर में लिप्टी हिरनी जब फिर आई और उसने हमेशा की तरह जैसे ही उस तस्वीर की क़ीमत पूछी, रामिश ने कहा-‘आखिर तुम्हें कितने में चाहिए ?’ आधी क़ीमत कम कर देता हूँ।‘’ उत्तर के लिए वह पहले से तैयार थी। ‘’पर आधी क़ीमत है किसके पास?’’ कहकर वह हँसी तो हमेशा दाँतों के कोनों से पकड़ी चादर फिसल गयी। रामिश उस शाह्कार की ताब न ला सका। उसके पुरुष सौन्दर्य की वरचस्व भावना को ठेस लगी। कितनी ही लड़कियाँ बिना किसी कारण के केवल उससे बात करने के बहाने तलाश करती हैं और इस लड़की को अपने सौन्दर्य पर शायद इतना अभिमान है कि उसने रुकना भी पसन्द नहीं किया। रामिश ने अपने भीतर एक स्पर्धा सी महसूस की। उसके चित्रकार ने उसे चुनौती दी। ‘’मैं इस से भी हसीन आकृति उभारूँगा। अभी, इसी समय। लेकिन वह ऐसा नहीं कर सका। लड़की के घर का पता लगाकर उसने उससे विवाह भी कर लिया। किन्तु इस विवाह के पीछे उसके पुरुष सौन्दर्य की वर्चस्व भावना की विजय का एहसास मात्र था और वह रौशनिक को नीचा दिखाना चाहता था। ‘’तुम बादलों से उड़कर नहीं आई हो। न ज़मीन ने तुमको जन्म दिया। तुम मेरी तरह इन्सान हो।‘’ वह रौशनिक के साथ बेदर्दाना सुलूक करता है। पर अपने इस सुलूक पर वह शर्मिन्दा है। रौशनिक अस्पताल में है और तड़प रही है। रामिश अपराधबोध से ओत-प्रोत है। वह लेखिका के शब्दों में यह हक़ीक़त भूल गया है कि सृजन से पहले हर चित्रकार, हर कलाकार ज़िन्दगी-मौत के झूले में झूलता है। चाहे वह तूलिका से रंग भरना हो, या बरतन पर क़लमकारी के नमूने उभारने हों या कविताओं व गद्य की पंक्ति से काग़ज़ काले करने हों, गुज़रना सबको मौत के पुल से होता है। और फिर जुड़वाँ बच्चों को जन्म देने की मुबारकबाद के शोर में वह इन नए मिनिएचर्स का रचनाकार होने का गर्व कर उठता है। किन्तु इस बार उसमें पुरुष सौन्दर्य की वर्चस्व भावना नहीं है। उसे महसूस होता है ‘’ इस बार रौशनिक मुझसे बाज़ी ले गयी। रौशनिक ने फीके होठों से पूछा –‘’देखा ! कैसी लगीं दोनो मिनिएचर ?’’
मिट्टी का सफ़र और आशियाना कहानीपन का हल्का सा पुट होने के बावजूद अपनी पृथक पहचान बनाती हैं। मुशद ग़ुलाम अपने बेटे मेहरम को डाक्टर बनाना चाहता था जिसकी तालीम के लिए उसे बाहर भेजना ज़रूरी था। बाप-बेटे पैसा कमाने के खयाल से दिन-रात मेहनत करते थे। अभी बेटा कुल बारह साल का था और बाहर भेजने में भी काफ़ी देर थी। लेकिन मुश्द ग़ुलाम शीघ्र से शीघ्र पैसा इकट्ठा कर लेना चाहते थे। इमाम रज़ा की वर्षगाँठ होने से मशहद में काफ़ी भीड़ थी। कमाई भी काफ़ी अच्छी हो रही थी। पैसे के मोह में बेटे के पैर का ज़ख़्म आज और कल पर इलाज के लिए टलता जा रहा था। अस्पताल ले जाने का मतलब था एक दिन के लिए होटल बन्द करना। उस दिन की कमाई सिफ़र । अस्पताल का ख़र्च अलग और परीशानी अपनी जगह। बेटे के लिए मुश्द्ग़ुलाम की चाहत में कोई कमी नहीं थी । हाँ, पैसे की लालच ने और अधिक से अधिक कमा लेने के मोह ने उसकी आँखों पर पट्टी बाँध रखी थी। किसी ने चाय की चुस्की लेते हुए मुश्द्ग़ुलाम से मेहरम के पैर की चोट के बारे में पूछा-‘पैर की चोट कैसी है ?’ उस ने उत्तर दिया-‘ठीक हो जाएगी।‘ प्रश्न हुआ-‘दवा लगाई थी?’ उत्तर मिला- ‘अब सारे दिन यहाँ जूझने के बाद अस्पताल का समय कहाँ से निकालूँ ? सारा दिन वहाँ निकल जाएगा।‘’
मेहरम के पैर से ख़ून रिस रह था । शायद पट्टी अपनी जगह से खिसक गयी थी । पर उत्साह में वह भूला हुआ था । जितने ज़्यादा गाहक आयेंगे , पैसे उतने ही ज़्यादा मिलेंगे । तभी कुर्सी से उसे ठोकर लगी और मुँह से “सी” निकल गया । “बाबा आज दर्द काफ़ी है । ठीक हो जायेगा । घबरा मत । मुरादों के दिन हैं । और नौबत यहाँ तक पहुँच गयी । ज़ख्म के आस-पास ख़ू्न की कत्थई पपड़ी जम गयी थी। पास में चुग़ती हुई मुर्ग़ियों में से एक ने मेहरम के खुले ज़ख़्म पर गोश्त के छीछड़े को चिपका समझ कर ज़ोर से ठोंग मारी। मेहरम बिलबिलाकर तड़पा। अचेत सा नीला होकर कुरसी पर झूल गया। लेखिका की सूक्ष्मानुभूतियों का यह विस्तार देखने योग्य है । वीभत्स में करूणा का रंग कितने सहज ढंग से शामिल हो गया है ।। पिता ने दूसरे दिन अस्पताल जाकर इन्जेक्शन भी लगवाया। कोई बेड ख़ाली न होने के कारण ऐडमिट न करा सका। उस समय तक काफ़ी देर हो चुकी थी। मुश्दग़ुलाम मेहरम को डाक्टरी की तालीम के सफ़र के लिए बाहर न भेज सका। हाँ, क़ुदरत ने उसकी मिट्टी को सफ़र के लिए ज़रूर भेज दिया।
आशियाना कहानी भी पर्याप्त रोचक है और भौगोलिक परिधियों से कहीं अधिक मानवीय संवेदनाओं की परिक्रमा करती है। शारीरिक सुख की तुलना में आत्मतोष का सुख शायद कहीं अधिक गर्माहट पहुँचाता है और बर्फ़ की ठण्ढी चुभन के अहसास को विलुप्त कर देता है । सिर पर एक छत होने का स्वप्न कौन नहीं देखता । जमशेद चौथी श्रेणी का कर्मचारी अवश्य था किन्तु जीवन को सुन्दर और सुखद देखने के लिए प्रयत्नशील था इस लिए उस की पत्नी बुतूल भी टाइप सीख रही थी तकि वह भी पैसे कमा सके । किरमान से पैसे कमाने के विचार से तो तेहरान आ गये । पर तेहरान में घर मिलने की समस्या कोई साधारण नहीं थी और केवल सोचने से इसका कोई हल नहीं निकल सकता था । बहुत दौड़-धूप के बाद तीसरी मज़िल की छत पर एक साहब ने कमरा बनवा दिया तो किरायेदार कहलाना नसीब हुआ । पहले दिन सुबह उठने पर छत पर इतनी बर्फ़ जमी हुई थी कि किचन तक जाने के लिए रास्ता साफ़ करना पड़ा । शाम को भी यही हाल था । कब तक चलेगा ये सब ? अगर पैसा हो तो कुछ सोचा भी जाय । कई लोगों ने अपार्ट्मेन्ट ख़रीदा है । बुरा तो नहीं है । दो कमरे, किचेन, बाथ रूम, आराम अलग । रात-दिन खटने के बद सिर पे छत का इन्तेज़ाम भी नहीं कर पया तो लानत है इस कमाने पर । बुतूल ने टाइप सीख लिया और वह भी नौकरी करने लगी ।पति और पत्नी दाँतों से पकड़कर एक एक पैसा ख़र्च करते । नौरोज़ में किरमान भी नहीं गये । यहाँ तक कि रूज़े-मादर के दिन उपहार भी नहीं लिया । और फिर एक दिन किरमान से जब ख़त आया और भाई ने कुछ ज़मीन निकालने की ख़्वहिश ज़ाहिर की तो बुतूल के मशवरे पर जमशेद ने अपना हिस्सा बेचने से साफ़ इनकार कर दिया । ख़याल था कि दो साल बाद जब ज़मीन महंगी होगी तब बेचेंगे । लेकिन क़ुदरत के खेल भि अजीब हैं । खेत-खलिहान की लड़ाई में भाई को चाक़ू लग गया । घर से ख़त आया था । कुछ पैसे मँगवाये थे ।
बुतूल, पास-बुक उठाना ।
क्यों क्या काम है ?
देखूँ , रूपया कितना है ?
दस हज़ार तुमान , अपना हिस्सा बेचने की सोच रहे हो ? जमशेद को सोच में डूबा देखकर बुतूल ने सवाल किया ।
नहीं , कुछ पैसे निकलवाने की सोच रहा हूँ ।
और फिर परिस्थितियाँ तेज़ी से करवट लेती रहीं। भाई की चाक़ू लगने से सैप्टिक में मौत। किरमान की भाग-दौड़। तय पाया सब कुछ बेचकर हिस्सा बाँट कर लिया जाए। और भाभी को तेहरान साथ ले चलें। नतीज यह हुआ कि एक कमरे के इस हंडियानुमा घर में बघारी जामुन की तरह पूरा ख़ानदान भर गया। बैंक की पासबुक भी धीरे-धीरे ख़ाली हो गयी। मकान मिलने का नम्बर आया और चला गया। जमशेद को एक ख़याल सा आया कि अगर वह भाभी और बच्चों को न लाता तो कितने आराम से होता दो कमरों के अपने फ़्लैट में। लेकिन उनका क्या होता ? गाँव में न जाने किस तरह लोग बरतते और ये लोग हालात से हार जाते। आराम से यहाँ न सही मगर सन्तोष से तो हैं। जमशेद को महसूस हुआ कि यह आशियाना जैसा भी है, इसमें कुछ न होने पर भी बहुत कुछ है। शारीरिक सुख की कल्पना आत्मतोष की फुहार से भीग कर नर्म हो गयी और भाई का पूरा परिवार एक दूसरे से अपनी टाँगेँ जोड़कर निस्संकोच ज़रा सी ज़मीन पर पसर गया ।
नासिरा शर्मा की विशेषता ये है कि ईरान की नारी को उसके भौगोलिक और साँस्कृतिक परिवेष में मूल्यांकित तो करती ही हैं , साथ ही उसके स्म्पूर्ण समाज का भी अवलोकन करती चलती हैं और घरों के ठ्ण्ढे बिखराव तथा अनुशासित संतुलन में नारी की भूमिका और साझीदारी की परख करना नहीं भूलतीं । ‘ख़ुश्बू का रंग’ कहानी में कुछ बिखरी हुई यादों को इस तरह समेटा गया है कि जीवन क एकान्त अपने यथार्थ पर गर्व करता है और बहिश्ते ज़हरा की क़ब्र शहादत की उच्चस्तरीय सार्थकता का ऐसा विस्तार करती है कि मौत के बाद की ज़िन्दगी एक दूसरे की धड़कनों के निकट रहते हुए गुज़ार देने की इच्छा ही मन का स्न्तोष बन जाती है । ईरान की अंकुश भरी शाही व्यवस्थामें ज़बान और क़लम की आज़ादी की बात उभर कर आयी और जे0 एन0 यू0 के साम्यवादी माहौल में सारिका में छपी इस कहानी ने दो-आतिशे का काम किया । “काश मैं तुम्हारे क़रीब दफ़्न हो सकूँ ।क्या ऐसा हो सकता है ? क्यों नहीं ?ज़िन्दगी में न सही । मर कर तुम्हारी क़ुरबत पा सकती हूँ । शहीद का रक्त कितना लाल होता है कि जिस ज़मीन में जज़्ब होता है उसका सीना चीरकर लाल फूल ही उगता है । “आज मैं सोच रही हूँ कि जहाँ तुम्हारा ख़ून गिरा होगा , गर्म, उबलता ,जोशीला सुर्ख़ ख़ून , वहाँ लाल फूल तो ज़रूर खिला होगा । वैसे मुसलमानों में हर एक की इच्छा अपने प्रिय के निकट दफ़्न होने की होती है और फिर शहीद का दर्जा तो श्र्रीपद क़ुरआन की दृष्टि से भी श्रेष्ठ है । उसके समीप दफ़्न होने का सौभाग्य किसे मिलता है । भारत में भले ही शहीद का कोई धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व न हो, लेकिन मुसलमानों के प्रभाव से और कार्बला के शहीदों के बलिदान से आज़ादी की लड़ाई में अपनी जानें क़ुर्बान करने वाले शहीद कहलाये और भगत सिंह, अशफ़क़ उल्लाह ख़ाँ, च्न्द्र शेखर आज़ाद इत्यादि शहीद की हैसियत से श्रद्धेय माने गये । 1857 की महाक्रान्ति में इस शब्द का प्रयोग पहले-पहल अज़ीमुल्लाह ख़ाँ ने अपनी एक नज़्म में किया था जिसके प्रकाशन पर ‘पयामे-इस्लाम’ के स्म्पादक बेदार बख़्त को शरीर पर सूवर की चरबी मलवा कर फाँसी दे दी गयी थी । हिन्दी में शहीदों को केन्द्र में रख कर बहुत कम कहानियाँ लिखी गयीँ और जो दो-चार हैं भी उनका प्रभाव बहुत गहरा नहीं है । शहादत के विषय से जुड़ी नासिरा शर्मा की कहानियाँ हिन्दी कथा साहित्य को पर्याप्त समृद्ध करती हैं ।
शामी काग़ज़ की दूसरी कहानियाँ भी जिनमें तलाश, दीमक, परिन्दे, उक़ाब और बेगाना ताजिर शामिल हैं अपने समय की हिन्दी कहानियों से अलग अपनी पहचान बनाती हैं । इन कहानियों में कहानीपन तलाश करना इनके प्रतीकात्मक संकेतों को समझने से पलायन करना है। सघर्ष और एहतिजाज का यह ख़रामाँ अंदाज़ अपने शरीफ़ाना तीखेपन के साथ बड़े संतुलित ढंग से अपने मज़बूत पाँव जमाता दिखायी देता है । ईरानी क्रान्ति ने ईरानियों को भले ही ज़िन्दगी की चेतना से रूशनास न कराया हो, नासिरा शर्मा के भीतर की लेखिका पिघले हुए लावे की तरह इस ज्वालामुखी के दहाने से लग कर खड़ी हो गयी है और उसने अपने सुनहरे क़लम को इस आग में तपा कर कुन्दन कर लिया है।


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लेखिका = नासिरा शर्मा
कहानी सग्रह= शामी काग़ज़
स्त्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली ,1997

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

दर्द या दर्द का कोई पहलू नहीँ

दर्द या दर्द का कोई पहलू नहीँ।
देवताओं की आँखों में आँसू नहीं॥

लोग मिलते हैं अब भी बड़े जोश से,
पर ख़ुलूसो-मुहब्बत की ख़ुश्बू नहीं॥

जैसी मरज़ी हो पर्वाज़ करता रहे,
तायरे नफ़्स पर कोई क़ाबू नहीं॥

ये नयी नस्ल करती है ख़ुद फ़ैस्ले,
अब बुज़ुरगों में शायद वो जादू नहीं॥

दिल है ऐसा कोई जो धड़कता न हो,
कोई ऐसी जगह है जहाँ तू नहीं॥
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बुधवार, 30 जून 2010

ज़बानें तितलियोँ की आज भी समझता हूं

ज़बानें तितलियोँ की आज भी समझता हूं।
गुलों की उनसे है क्यों बेरुख़ी समझता हूं॥

मैं अब भी बादलों से हमकलाम रहता हूं,
के उनके दर्द की हर बेकली समझता हूं॥

सुनाता रहता है दरिया मुझे फ़सानए-दिल,
के उसके ग़म को भी मैं अपना ही समझता हूं॥

मिठास उसके लबों में शहद सी होती है,
मैं उस मिठास को उसकी ख़ुशी समझता हूं॥

मैं पढता रहता हूं आँखों की हर इबारत को,
के उसको हुस्न की जादूगरी समझता हूं॥

कोई ख़ुलूस से मुझसे अगर नहीं मिलता,
मैं इस को अपनी ही कोई कमी समझता हूं॥
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रविवार, 27 जून 2010

जिसने अपयश की चिन्ता कभी की

जिसने अपयश की चिन्ता कभी की।
प्यार में उसने सौदागरी की॥

जबसे उसने प्रशंसा मेरी की।
कोई सीमा नहीं बेकली की॥

घर मेरा धूएं से भर गया है,
गीली हैं लकड़ियाँ ज़िन्दगी की॥

कुछ भी आपस में बँटता नहीं है,
सरहदें हैं कहाँ दोस्ती की॥

कुछ भी शायद नहीं मेरे वश में,
अब मैं सुनता हूं केवल उसी की॥

राजनेता कभी बन न पाया,
चापलूसी में जिसने कमी की॥

हर ख़ुशी परकीया नायिका है,
हो न पायी कभी भी किसी की॥
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शनिवार, 26 जून 2010

हज़रत अली / जन्म दिवस [26 जून 2010 / तेरह रजब 1431 हि0]पर विशेष

दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम होते हैं जिन्हेँ उनकी ज़िन्दगी में भी और ज़िन्दगी के बाद भी सर-आँखों पर बिठाया जाय और एक अच्छी ज़िन्दगी गुज़ारने की उन से प्रेरणा ली जाय्। हज़रत मुहम्मद इस्लाम के अन्तिम नबी हैं और हज़रत अली उसी इस्लाम की जीवन्त व्याख्या।श्रीप्रद क़ुर'आन की एक-एक आयत मौलाना रूमी की दृष्टि में अपने व्यक्त रूप से पृथक, चि्न्तन के कई-कई गर्भ रखती है- हर्फ़े क़ुर'आँ रा बिदाँ के ज़ाहिरस्त/ज़ेरे-ज़ाहिर बातिने बस क़ाहिरस्त्॥हमचुनी ता हफ़्त बत्न ऐ ज़ुल्करम / मी शमुर तू ज़ीं हदीसे मोतसम्॥ज़ाहिरे क़ुर'आँ चु शख़्से-आदमीस्त/ के नुक़ूशश ज़ाहिरो जानश ख़्फ़ीस्त्॥अर्थात- श्रीप्रद क़ुर'आन के शब्द उसकी बाह्य अभिव्यक्ति मात्र हैं।उन शब्दों के अन्तस में एक सशक्त बातिन है जो उसका गर्भ है। ऐ भले आदमी विचार कर कि इसी प्रकार एक के बाद एक कर के सात गर्भ हैं, जैसी के नबीश्री ने अपने प्रवचन में चर्चा की है।क़ुर'आन का व्यक्त रूप मनुष्य के अस्तित्व जैसा है कि उसका रूप और आकार व्यक्त है किन्तु उसकी आत्मा गुप्त है। हज़रत अली के सबंध में नबीश्री ने कहा था कि अली क़ुरान के साथ हैं और क़ुर'आन अली के साथ है, और फिर यह भी घोषणा कर दी कि मैं इल्म का शहर हूं और अली उसका दरवाज़ा हैं। स्पष्ट है कि अब जो मुसलमान क़ुर'आन का इल्म प्राप्त करना चाहता है उसे अली का दर्वाज़ा खटखटाना होग।
कटटर सुन्नी मुसलमान आज भले ही वहाबियत के प्रभाव से हज़रत अली की सुपात्रता और श्रेष्ठता को लेकर शीओं का विरोध करते रहें किन्तु सूफ़ी मुसलमानों में, जो निश्चित रूप से शीआ नहीं हैं, हज़रत अली की श्रेष्ठता असंदिग्ध है।मौलाना रूम हज़रत अली को अल्लाह का वली [मित्र] और नबीश्री का वसी, नायब या उत्तरधिकारी स्वीकार करते हैं और मेराज [नबीश्री का आकाश की सरहदों को पार करके अल्लाह के बुलावे पर लामकां [महाशून्य]तक जाना और अल्लाह से बातें करना और उसकी निशानियाँ देखना] की शब में नबीश्री के साथ हज़रत अली के होने की घोषणा करते हैं- शाहे के वसी बूद, वली बूद, अली बूद/ सुल्ताने सख़ाओ-करमो-जूद अली बूद्॥आँ शाहे-सर-अफ़राज़ के अन्दर शबे मेराज/ बा अहमदे मुख़्तार यके बूद अली बूद्।सन्नाई भी हज़रत अली को नबीश्री का दामाद और उतराधिकारी स्वीकर करते हैं और यह भी कहते हैंकि नबीश्री की आत्मा उनके जमाल से उल्लसित हो उठती थी- मर नबी रा वसीओ हम दामाद/ जाने-पैग़म्बर अज़ जमालश शाद्। हज़रत ख़्वाजा फ़रीदुद्दिन अत्तार नबीश्री की इस हदीस में गहरी आस्था व्यक्त करते हैं "अना व अली मिन नूरिंव्वाहिद" अर्थात मैं और अली एक ही नूर से हैं-पयम्बर गुफ़्त चूं नूरे दो दीदह/ज़यक नूरेम हर दो आफ़रीदह। अली चूं बा नबी बाशद ज़यक नूर / यके बाशन्द हर दो अज़ दुई दूर्।
हज़रत मुहम्मद[स0] के निधनोपरान्त मदीने में जो परिस्थितियां बनीं उनमें हज़रत अली चौथे ख़लीफ़ा स्वीकार किये गये। हज़रत ख़्वाजा बन्दानवाज़ गेसूदरज़ ने इस बहस से दामन बचाते हुए स्पष्ट किया कि ख़िलाफ़त दो प्रकार की है। एक भौतिक या दुनियावी [ख़िलाफ़ते सुग़रा] और दूसरी आधयात्मिक या रूहानी [ख़िलाफ़ते कुबरा]। उनका मानना है कि ख़िलाफ़ते कुबरा यानी श्रेष्ठ ख़िलाफ़त या रूहानी ख़िलाफ़त पर उम्मत को इत्तेफ़ाक़ है कि यह हज़रत अली की है। ख़िलाफ़ते-सुग़रा या दुनियावी ख़िलाफ़त पर उम्मत में विवाद है।[जवामेउलकिलम, पृष्ठ 98 तथा मिरातुल असरार 1/17] । शाह वलीउल्लाह का मानना है कि हज़रत अली मुस्लिम उम्मत के पहले सूफ़ी,पहले मजज़ूब[अल्लाह के प्रेम में डूबा रहने वाला] और पहले आरिफ़ [अल्लाह के रहस्यों का ज्ञान रखने वाला] हैं[फ़ुयूज़ुलहरमैन, दिल्लि, पृष्ठ 51]।
इस्लाम के प्रथम प्रतिष्ठित सूफ़ी हज़रत हसन बसरी ने अल्लह के गुप्त रहस्यों का ज्ञान हज़रत अली से प्राप्त किया।हज़रत जुनैद बग़दादी सैद्धान्तिक स्थितियों और परीक्षा के क्षणों में हज़रत अली को अपना गुरु और मार्गदर्शक मानते हैं[कश्फ़लमहजूब पृष्ठ 60]।ख़्वजा बन्दानवाज़ के कथनानुसार हज़रत बायज़ीद बस्तामी हज़रत अली के वंशज हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ के यहाँ फ़र्श बिछाया करते थे जिससे उन्हें अल्लह के रहस्यों का ग़्यान प्राप्त हुआ।
अल्लामा इक़बाल ने असरारे-ख़ुदी में हज़रत अली की चार उपाधियों [अबू तुराब अर्थात मिटटी का पिता,यदुल्लाह अर्थात अल्लाह का हाथ, कर्रार अर्थात मैदान में डटे रहने वाला और दर्वाज़ए-इल्म अर्थात ज्ञान का प्रवेश द्वार] की व्याख्याएं की है और उन्हें हज़रत मुहम्मद का प्रथम अनुयायी घोषित किया है। डा0 इक़बाल की दृष्टि में हज़रत अली ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिनमें इल्म, इश्क़ और जिहाद [अल्लाह के दीन की रक्षा के लिए विरोधियों से युद्ध करना] एक साथ एकत्र थे।नबीश्री ने ख़ुद को इल्म का शहर और हज़रत अली को उसका दर्वाज़ा कहा। इश्क़ में जान की पर्वा नहीं होती । हज़रत अली का इश्क़ इस बात से नुमायाँ है कि जब मदीने से प्रस्थान करते हुए नबीश्री ने हज़रत अली को शत्रुओं के बीच तलवारों में घिरे हुए अपने बिस्तर पर सो जाने को कहा तो हज़रत अली ने निःसंकोच आदेश का पालन किया यह कार्य एक सच्चा आशिक़ ही कर सकता था। जहाँ तक जिहाद का प्रश्न है हज़रत अली की ही वजह से इस्लाम की सभी जंगों में मुसलमानों को सफलता प्रप्त हुई।
हज़रत अली को नबीश्री ने अल्लमा इक़बाल के अनुसार अबूतुराब [मिटटी का पिता] इस लिए कहा कि वे इस मिटटी से निर्मित भौतिक शरीर पर विजय प्राप्त कर् चुके थे और मोह माया से पूरी तरह मुक्त थे।उन्होंने इस भौतिक काया को औषधि स्वरूप बना दिया था- शेरे-हक़ ईं ख़ाक रा तस्ख़ीर कर्द/ ईं गिले-तारीक रा अक्सीर कर्द्।इक़बाल इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि जो व्यक्ति हज़रत अली की तरह भौतिक शरीर पर विजय प्राप्त कर ले और अबूतुराब बन जाये वो सूर्य को पश्चिम से पूर्व की ओर ला सकता है-हरके दर आफ़ाक़ गर्दद बूतुराब/ बाज़ गर्दानद ज़ मगरिब आफ़्ताब"। ऐसा व्यक्ति भौतिक तत्त्वों को अपने अधीन कर लेता है।इसी लिए ख़ैबर जैसा क़िला जिसे चालीस दिन तक, हज़रत अली की अनुपस्थिति और हज़रत मुहम्मद[स0] के अस्वस्थ होने के कारण, हज़रत अबूबक्र तथा हज़रत उमर आदि फ़तह न कर सके और रणक्षेत्र से हताश लौट आये, हज़रत अली के पाँवों के नीचे पाय गया अर्थात उन्होंने बहुत आसानी से उस पर विजय प्राप्त कर ली।इतना ही नहीं अपने अनेक गुणों के कारण स्वर्ग में हज़रत अली ही साक़िए कौसर होंगे अर्थात पवित्र कौसर के जल से स्वर्गवासियों को तृप्त करेंगे- ज़ेरेपाश ईं जा शिकोहे-ख़ैबरस्त / दस्ते- ऊ आँजा क़सीमे-कौसरस्त्।
अल्लामा इक़बाल के अनुसार हज़रत अली की उपाधि यदुल्लाह इस्लिए थी कि श्रीप्रद क़ुर'आन में नबी श्रीके हाथ को अल्लाह का हाथ कहा गया है और हज़रत अली का हाथ फ़ना फ़िर्रसूल अर्थात पूर्णतः रसूल को समर्पित होने के करण,रसूल के हाथ से भिन्न नहीं थाअज़रत अली ने अपनी आत्मा को पहचान लिया था और जो अपनी आत्मा को पहचान लेता है, अपने रब का हाथ हो जाता है और शहंशाही करता है- अज़ ख़ुद-आगाही यदुल्लाही कुनद अज़ यदुल्लाही शहंशाही कुनद्।अल्लामा की दृष्टि मे हज़रत अली कर्रार इस लिए थे कि उन्होंने मैदाने-जंग में दुश्मन को कभी पीठ नहीं दिखाई।जब कि तथ्य यह है कि उहद में हज़रत अबूबक्र, हज़रत उमर और हज़रत उस्मान जैसे रसूल के सम्मानित सहाबी भी मैदान चोड़ कर भाग खरे हुए- मर्दे किश्वरगीर अज़ कर्रारी अस्त/ गौहरश रा आबरू ख़ुद्दारी अस्त्।
उर्दू के श्रेष्ठ कवि मीर तक़ी मीर तो हज़रत अली के व्यक्तित्व पर फ़िदा हैं।उनकी स्पष्ट अवधारणा है-
गाह बेगाह कर अली ख़्वानी। है अली दानी ही ख़ुदा दानी॥
फ़र्शे राहे अली कर आँखों को। यूँ बिछा तू बिसाते ईमानी ॥
है वही मेह्र चर्ख़े-इरफ़ाँ का । है वही शाहे ज़िल्ले सुबहानी॥
क़ामत आराए किब्रिया हक़ का। चेहरा पर्वाज़े-नूरे- यज़दानी॥
हाथ उसका वही ख़ुदा का हाथ । बात उसकी कलामे-रब्बानी॥
हम अली को ख़ुदा नहीं जाना ।
र ख़ुदा से जुदा नहीं जाना ॥
हज़रत अली की प्रशस्ति मे अनेक मन्क़बत एवं मुनाजातें लिखकर मीर ने अपने उदगार व्यक्त किये हैं, कुछ उदाहरण देखिए- "है दोस्ती अली की तमन्नए-कायनात/बे लुत्फ़ उस बग़ैर है क्या मौत क्या हयात/ यानी के ज़ाते-पाक है उसकी ख़ुदा की ज़ात/ क्या उन मवालियों के तईं है ग़मे-निजात /मरते हुए जिन्हूंके दिलों में रहा अली॥उनकी यहाँ तक इच्छा है कि निधनोपरान्त जब यह शरीर नष्ट होकर मिटटी में मिल जाय और उस से हरियाली उगे, तो उसके एक एक पत्ते से आवाज़ आये कि मैं अली का अनुयायी हुँ-शौक़-कामिल से तअज्जुब है ये क्या/जो बदन हो ख़ाक सब बादे-फ़ना/ और फिर उससे उगे सब्ज़ा हया/ बर्ग बर्ग उसका करे फिर ये सदा/ हैदरी हूं हैदरी हूं हैदरी॥एक अन्य मन्क़बत में कहते हैं- रह विलाए अली का ख़्वाहिश्मन्द/है ये शेवा ख़ुदा रसूल पसन्द/ दब के हरगिज़ न रख ज़बान को बन्द/पस्त करने को मुद्दई के, बलन्द/ या अली या अली कहा कर तू॥
मिर्ज़ा ग़ालिब भी हज़रत अली के प्रति श्रद्धाभाव व्यक्त करने में मीर से पीछे नहीं हैं। एक क़सीदे के कुछ शेर द्रष्टव्य हैं-नक़्शे लाहौल लिख ऐ ख़ामए-हिज़ियाँ तहरीर/ या अली अर्ज़ कर ऐ फ़ितरते विसवासे क़री/नज़हरे फ़ैज़े ख़ुदा जानोप्दिले ख़त्मे रसुल/ क़िब्लए आले नबी काबए ईजादे यक़ीं/ जल्वा परदाज़ हो नक़्शे क़दम उसका जिस जा/ वो कफ़े-ख़ाक है नामूसे दोआलम की अमीं/बुर्रिशे तेग़ का उसकी है जहाँ में चर्चा/ क़तअ हो जाये न सर रिश्तए ईजाद कहीं।जाँपनाहा, दिलोजाँ फ़ैज़रसाना, शाहा/वसिए-ख़त्मे-रसुल तू है बफ़त्वाए यक़ीं।जिस्मे अतहर को तेरे दोशे पयम्बर मिम्बर/नामे-नामी को तेरे नासियए अर्श नगीं।
मधययुगीन हिन्दी कवियो ने भी हज़रत अली की प्रशंसा में अनेक कवित्त एवं दोहे रचे हैं। सम्राट हुमायूं के दरबारी कवि "क्षेम" का एक कवित्त इस दृष्टि से और भी उल्लेख्य है कि उसमें भारतीय देवताओं की पृष्ठभूमि में हज़रत अली के शौर्य का विवेचन किया गया है-
धरनि थरनि थरथरति डरनि रथ तरनि पलटठिउ ।
धूम धाम धरुव लोक सोक सुरपति अति पटठिउ ॥
हिम गिरि सुमेर कैलास डिग हहरि हहरि स्रंकर हस्यो।
छेम कोप हजरत अली जब जुल्फिकार कमर कस्यो॥
प्रसिद्ध कवि रसखान ने हज़रत अली की प्रशस्ति में अनेक छन्द रचे हैं। यहाँ उनका एक कवित्त द्रष्टव्य हैं-
करतार तुम्हैं एतो जोर दियो न कियो कोई और समान बली।
छल कै जिन फेरो न मार को जात सो बांध लियो इब्लीस छली।
छूट गयो इफ़रीत तहाँ यह बात न जानत भाँति भली।
दुख संकट गाढ परै जिह को तिह को रसखान सुहाय अली॥
सम्राट अकबर के दरबारी कवि और संगीत सम्राट तानसेन हज़रत अली के प्रति अपनी श्रद्धा इस प्रकार व्यक्त करते हैं-
हजरत अली की सुदिश्टि भली मोपै जो दुक्ख जाये सब तन ते भाज्।
हौं सेवक तिहारो तुम जात पाक राख लीजो या जगत में हमारी लाज्।
हज़रत अली की प्रशंसा में जितनी सुन्दर रचनाएं अंग दर्पण और रस प्रबोध के रचनाकार रसलीन की हैं अन्य कवियों के यहाँ दुर्लभ हैं।उनके दो कवित्त यहाँ उद्धृत हैं-
बिधि मना कियो खानो, आदम को सोई दानो,हैदर न मुख आनो, सब लोक गायो है।
मूसा को न राख्यो छिन्जान के अजान जिन, सोइ खिजर आप तिन, हैदर सिखायो है।
ईसा जनायो निज भवन ते निकार कर, तिन प्रभु हैदर आप घर लै जनायो है।
ऐसो साह आलीजाह, बाहु बली दीं-पनाह,शेर अलह अली नाह, फात्मा ने पायो है।
तथा-
भूप अस बाहक हो, जग के निबाहक हो, जाचक के थाहक हो, जस के निधान जू।
भव सिन्धु थाहक हो,पापिन के दाहक हो, बिघन बगाहक हो, साहब सुजान जू।
दीनन के गाहक हो, सेवक के चाहक हो, दया के बलाहक हो, बरसई दान जू।
धर्म अवगाहक हो, नबी के सलाहक हो फात्मा के ब्याहक हो , साह मर्दान जू।
अन्त में हज़रत अली के व्यक्तित्व की कुछ विशिष्टताओं का संकेत करते हुए लेख समाप्त करूंगा।
हज़रत अली के व्यक्तित्व की विशिष्टताएं
* हज़रत अली माँ-बाप दोनों की ओर से हाश्मी हैं।* हज़रत अली का जन्म अल्लाह के घर में अर्थात काबे में हुआ।*हज़रत अली पहले व्यक्ति हैं जिनका नाम नबीश्री ने अल्लाह के नाम पर रखा। हज़रत अली से पहले यह नाम किसी का नहीं था।*हज़रत अली ने अपने जन्म के बाद जब आँखें खोली तो नबीश्री की गोद में, और पहल चेहरा जो देखा वह नबीश्री का ही था।*हज़रत अली नबीश्री के सगे चचाज़ाद भाई थे और उनका पालन पोषण भी नबीश्री ने ही किया।*हज़रत अली के गुरु, शिक्षक और अभिभावक नबीश्री ही थे।*नबीश्री ने जब नबूवत की घोषणा की हज़रत अली ने हज़रत ख़दीजा की तरह उसकी पुष्टि की और वो अरबों में प्रथम हैं जिन्हों ने इस्लाम स्वीकार किया। *नबीश्री के साथ प्रथम नमाज़ अदा करने वालों में हज़रत ख़दीजा के साथ होने का श्रेय अली को प्राप्त है।*जब नबी श्री ने तमाम हाश्मियों को भोजन पर बुलाया और कहा कि जो इस मिशन में मेरा साथ देगा, वही मेरा वसी और ख़लीफ़ा होगा, तो हज़रत अली ने ही नबीश्री के मिशन में सहयोग देने की इच्छा व्यक्त की।* मदीना से हिजरत करते समय नबीश्री ने हज़रत अली को अपने बिस्तर पर लिटाया ताकि मकान को घेर कर खड़े शत्रुओं को नबी के प्रस्थान का अहसास न हो और वे हज़रत अली को नबीश्री ही समझने के धोके में रहे।* मदीने पहुंचकर नबीश्री ने हर मुहाजिर को एक अंसार का भाई घोषित किया किन्तु अली को अपना भाई बनाया।*हज़रत अबूबक्र और हज़रत उमर जैसे प्रतिष्ठि सहाबियों की इच्छा ठुकरा कर अपनी बेटी फ़ातिमा का विवाह हज़रत अली से किया।* सुलहे हुदैबिया का सुलहनामा लिखने की ज़िम्मेदारी नबीश्हरी ने हज़रत अली को सौंपी॥* मक्का की विजय के बाद नबीश्री के आदेश पर उनके कन्धों पर चढकर काबे के बुतों को तोड़ा।*हज के मौक़े पर सुरए बर'अत हाजियों के मधय भेजने के लिए अली को अल्लाह के आदेश की रोशनी में नबी का अह्ल यानी सुयोग्य पात्र माना गया।*हज़रत अली अकेले व्यक्ति हैं जिन्हें नबीश्री ने अपनी ही तरह मुसलमानों का मौला कहा।*ईसाइयों के समक्ष झूठो पर लानत के लिए [मुबाहला] जो अकेला सिद्दीक़ [सच्चा इन्सान] चुना गया वह हज़रत अली थे।*हज़रत अली एक मात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें नबीश्री ने इल्मे लदुन्नी [अल्लह के विशिष्ट रहस्यों का ज्ञान] से अवगत कराया।* जब नबीश्री का निधन हुआ तो हज़रत अली ने ही उन्हें ग़ुस्ल दिया।प्रतिष्ठित सहाबियों में वहाँ कोई नहीं था।
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