Wednesday, June 30, 2010

ज़बानें तितलियोँ की आज भी समझता हूं

ज़बानें तितलियोँ की आज भी समझता हूं।
गुलों की उनसे है क्यों बेरुख़ी समझता हूं॥

मैं अब भी बादलों से हमकलाम रहता हूं,
के उनके दर्द की हर बेकली समझता हूं॥

सुनाता रहता है दरिया मुझे फ़सानए-दिल,
के उसके ग़म को भी मैं अपना ही समझता हूं॥

मिठास उसके लबों में शहद सी होती है,
मैं उस मिठास को उसकी ख़ुशी समझता हूं॥

मैं पढता रहता हूं आँखों की हर इबारत को,
के उसको हुस्न की जादूगरी समझता हूं॥

कोई ख़ुलूस से मुझसे अगर नहीं मिलता,
मैं इस को अपनी ही कोई कमी समझता हूं॥
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5 comments:

इस्मत ज़ैदी said...

कोई ख़ुलूस से मुझसे अगर नहीं मिलता,
मैं इस को अपनी ही कोई कमी समझता हूं

बहुत ख़ूब !
यही सोच हमारे किरदार को ज़्यादा बलंद करती है ,
ये सोच आली ज़र्फ़ होने की दलील है,

संगीता पुरी said...

बहुत बढिया !!

वन्दना अवस्थी दुबे said...

कोई ख़ुलूस से मुझसे अगर नहीं मिलता,
मैं इस को अपनी ही कोई कमी समझता हूं॥
क्या बात है!!
कितने लोग हैं जो ऐसी सोच रखते हैं? यदि यही बात सब समझने लगें, तो कोई किसी से दुर्व्यवहार करे ही नहीं.

S.M.Masoom said...

मैं अब भी बादलों से हमकलाम रहता हूं,
के उनके दर्द की हर बेकली समझता हूं॥
bahut khoob

Devendra Gehlod said...

सुनाता रहता है दरिया मुझे फ़सानए-दिल,
के उसके ग़म को भी मैं अपना ही समझता हूं॥
बहुत खूब
बहुत कम लोग होते है जो ऐसे विचार रखते है