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शुक्रवार, 24 जून 2011

रूढिवादिता की क़ब्र पर मुस्लिम समाज का मर्सिया : नासिरा शर्मा की कहानियाँ [2]

रूढिवादिता की क़ब्र पर मुस्लिम समाज का मर्सिया
रूढ़िवादिता अपनी प्रकृति से ही संकरी और पथरीली है और उस की लपेट में आया हुआ हर व्यक्ति पूरी तरह लहूलुहान होकर निकास के रास्ते तलाश करता है। यह रूढ़िवादिता मुस्लिम समाज की हो या हिन्दू समाज की इसके आक्रामक रुख़ का शिकार मुख्य रूप से स्त्री-वर्ग होता है । इसलिए नहीं, कि वह बेज़ुबान है, बल्कि इस लिए कि वह स्वयं नहीं जानता कि उसे क्या चाहिए । वह रूढ़िवादिता की चुभन तो महसूस करता है, लहूलुहान भी होता है,किंतु उसे निकास का रास्ता नहीं सूझता । वह रूढ़िवादी सामाजिक परिधियों की पत्थर गली के पिछड़ेपन से ऊबकर निकास के लिए बेचैन है । वह नहीं चाहता कि उसकी कोपलें फूटने से पहले झड़ जायेँ और फूल खिलने से पहले मुर्झा जायें । वैसे तो ये दर्द सर्वव्यापी है । किन्तु मुस्लिम समाज से जुड़कर इसकी एक अलग पहचान दिखायी देती है जो इसके पिछड़ेपन को और भी गहरा देती है ।
नासिरा शर्मा के कहानी-संग्रह पत्थर गली की भूमिका में इसी मुस्लिम रूढ़िवादिता की बात की गयी है । नासिरा का विचार है कि मुस्लिम समाज सिर्फ़ ग़ज़ल नहीं है बल्कि एक ऐसा मर्सिया है जो वह अपनी रूढ़िवादिता की क़ब्र के सिरहाने पढता है । वैसे तो मर्सिया किसी क़ब्र के सिरहाने बैठकर पढने का दस्तूर नहीं है । कारण यह है कि मर्सिया किसी त्रासदी का होता है और त्रासदी की कोई क़ब्र नहीं होती । पढने में यह विचार बड़ा ही रोचक है । किन्तु यह बात, क्या हिन्दू, क्या मुसल्मान, किसी भी समाज के विषय में कही जा सकती है । त्रासदी का दस्तावेज़ कहाँ नहीं है ? पत्थर गली की कहानियाँ त्रासदी का दस्तावेज़ अवश्य हैं । किन्तु यह त्रासदी रूढिवादिता का नतीजा है, यह स्वीकार कर पाना संभव नहीं है । नासिरा जी का यह कहना भी दुरुस्त नहीं है कि “आज मुसल्मान पात्र जब उभरता है तो या तो हिन्दू मुसल्मान दगों में। या फिर ईद के दिन पढी गयी नमाज़ और मुहर्रम पर हुए सुन्नी-शीया फ़साद में ।“ नासिरा जी ने सम्भवतः हिन्दी कहानी के सदर्भ में यह बात कही है । लेकिन प्रतीत होता है कि वहाँ भी उनका अध्ययन बहुत व्यापक नहीं है । नासिरा जी को चाहिए कि उपेन्द्र नाथ अश्क की कुछ् कहानियाँ अवश्य पढें ।
जहाँ तक मुस्लिम रूढ़िवादिता का प्रश्न है पत्थर गली की कोई कहानी भी इस प्रसंग में संदर्भित नहीं की जा सकती । ताबूत कहानी में शीया रूढ़िवादिता पर कुछ चोट अवश्य की गयी है किन्तु वहाँ भी बात केवल परम्परा और आस्था तक सीमित है। क़ासिम अली बिना इलाज के रह गये होते और उनकी पत्नी ने उनके इलाज के बजाय उन पैसों से ताबूत पर फूल की चादर चढा दी होती तो एक हद तक रूढ़िवादिता को दोष दिया जा सकता था । कहानी में इलाज के प्रति जागरूकता भी है और धार्मिक आस्था तथा विश्वास के प्रति सजगता भी । हाँ क़ासिम अली तीन बच्चियों के एक निर्लज्ज पिता ज़रूर हैं जो अस्वस्थ हो जाने और काम-धाम छूट जाने के बाद से लड़कियों की कमाई को बैठकर खाना चाहते हैं । ख़ुद हाथ-पैर चला्ना वह भूल चुके हैं ।
नासिरा का ख़याल है कि वह ‘दिल के रोगी’ थे । हलाँकि लक्षण तो टी0 बी के बताये गये हैं । सारे दिन ख़ून थूकते गुज़रता था । दिल के मरीज़ ख़ून नहीं थूकते । उनके लिए लड़कियों का पिता होना बिना औलाद के होने जैसा था। उनके घर आया कोई नया व्यक्ति जब पूछता तो कहते “मेरी कोई औलाद नहीं है “ । पूछने वाला हैरत से कहता “ फिर यह तीन लड़कियाँ ? जवाब देते वह तीनों बीवी की औलादें हैं” ।
घर की मर्यादा के विचार को रूढिवाद्ता का नाम नहीं दिया जा सकता। क़ासिम अली की लड़कियाँ , विशेष रूप से फ़ह्मीदा ,उस मर्यादा से अच्छी तरह परिचित थी । इसलिए यह जानते हुए भी कि वह ज़िन्दगी को बहुत पीछे छोड़ चुकी है, उसके होठों पर कोई शिकायत नहीं आयी । पिता से विरासत में मिला रोग उसकी जान ले लेता है और ख़ाला बी के जिस घर से इमाम हुसैन का ताबूत बरामद किया गया उसी घर से फ़ह्मीदा का ताबूत भी निकलता है । फ़हमीदा के जनाज़े की नाटकीय प्रस्तुति कहानी में सिहरन सी पैदा कर देती है । “दोनों बहनों ने ख़ामोशी से फूलों की चादर खोली और बहन के कफ़न में लिप्टे बदन पर बिछा दी “ । यहाँ यह प्रश्न – “यह क्या ! कफ़न नजिस न हो जायेगा ?” बेतुका सा है। जो फूलों की चादर इमाम के ताबूत को नजिस नहीं करती वह कफ़न को किस प्रकार नजिस कर देगी ? हाँ फूल ही नजिस हों और उन्हें पाक न किया गया हो, तो बात और है । लेखिका ने ग़लती से इसे एक स्थान पर जनाबे-सैयदा का ताबूत और एक अन्य स्थान पर इमाम हुसैन का ताबूत लिखा है। शायद उसे यह पता नहीं है कि मुहर्रम में किसी शिया मुसलमान के घर जनाबे-सैयदा का ताबूत नहीं रखा जाता ।
कहानी के अन्त में ख़ाला बी की मनःस्थिति व्यक्त करते हुए कहा गया है “ उन्हें महसूस हुआ कि आज उनके इमामबाड़े से सचमुच का ताबूत निकल रहा है जिसपर ख़ून की नक़ली छीँटें नहीं छिड़की गयी थीं बल्कि वह तो पूरा-का-पूरा ख़ून से तर था ।“लेखिका को यह पता नहीं है कि इस्लाम शरीर से खून निकलने के बाद उसे नजिस मानता है । हाँ शहीद की स्थिति और होती है। उसे ग़ुस्ल नहीं दिया जाता। फ़हमीदा के जनाज़े पर ख़ून की कल्पना भी नहीं की जा सकती ।
कहानी में एक रोचक चरित्र ख़ातून का है । चौदह-पद्रह वर्ष की लड़की और चार-पाँच वर्ष का दिमाग़ । ख़ाला बी ने उसे सड़क के किनारे से उठाकर पाला था । उसके लिए चिन्तित भी बहुत रहती थीं । शादी के नाम पर लड़कियाँ उसे अकसर छेड़ा करती थीं। एक दिन ज़हरा बेगम की लड़कियों ने उसे घेर लिया ।
“क्यों रे ख़ातून, कब हो रही है तेरी शादी ?” सैयदा ने पूछा। “
अब हम का जानी ?” ख़ातून शर्म से दोहरी हो गयी।
“क्यों, दुआ माँगना छोड़ दिया क्या ?” नौशाबा ने कहा।
नहीं भैया, हम रोज़ माँगत हैं ।‘ ख़ातून हँसने लगी ।
रोज़ बारह बजे धूप में खड़े होकर नौहा पढने से दिल की मुराद पूरी होती है— पढा करो----सलमा ने कहा ।
फिर आप सब का ब्याह क्यों नहीं हुआ ? बुढाय रही हैं! ख़ातून ने कहा ।
हँसती लड़कियाँ ख़ामोश हो गयीं ।सैयदा का चेहरा पीला पड़ गया ।“
ख़ातून बिना सोचे-समझे सामने वाले से चुभती हुई बात कह जाती थी । इसी लिए सब की निगाह में कम अक़ल थी । इस समाज ने ऐसी बच्ची को भी नही छोड़ा और बहला फुसला कर उसके साथ अपनी हवस पूरी की । किन्तु ख़ाला बी ने सादुल्लाह से ख़ातून का निकाह पढवाकर, भले ही वह अवस्था में उससे चालीस वर्ष बड़ा था, मुहल्ले की कुछ तो मर्यादा बचा ली ।
वस्तुतः ताबूत कहानी परम्पराओं और आस्थाओं से जुड़े , एक ऐसे समाज की कहानी है जिसके पास भविष्य का न तो कोई स्वप्न है और न ही वर्तमान से निकास का कोई रास्ता । कहानी के केन्द्र में ख़ालाबी हैं और उनका इमामबाड़ा है । बड़ा सा घर है जो ऐन जवानी में ख़ाला बी से तीस वर्ष बड़े पति के निधन पर उन्हें उनकी लम्बी-चौड़ी जायदाद से वरसे में मिला था । उसी को लेकर वह ख़ामोश हो गयी थीं ।धीरे-धीरे करके बड़े से आँगन के चारों ओर उन्होंने कोठरियाँ बनवायीं और एक-एक करके किराये पर देने लगीं । अब यही हलवाई, नाई, दर्ज़ी, जुलाहे, भाँति-भाँति के लोग उनके बेटे, बहू, पोता-पोती बन गये थे ।--कोठरियों का किराया ही उनकी आमदनी का सहारा था । नासिरा शर्मा ने एक सफल चित्रकार की तरह ख़ाला बी के पोर्टरेट को जीवन्त कर दिया है। बस एक वाक्य से ख़ाला बी की पूरी तस्वीर उभर आती है –“एक धर्म की ज्वाला थी जो उन्हें जीवित रखे हुए थी , वरना प्यार से ख़ाली उनकी ज़िन्दगी चटख़ा बरतन थी जिसे धर्म की आस्था ने गोन्द की तरह चिपका रखा था । गोया पति का प्यार न मिलने की स्थिति औरत को एक चटखा बर्तन बना देती है । हाँ धर्म की आस्था उसे जोड़े ज़रूर रखती है । ख़ाला बी के पति का निधन हो चुका था किन्तु उनके अच्छे व्यवहार के कारण कौन ऐसा था जो उन्हें प्यार देने में संकोच करता था और दैड़-दौड़ कर उनकी सेवा नहीं करता था ।
पत्थर गली कहानी नासिरा शर्मा को इतनी अधिक प्रिय है कि इसी के नाम पर संग्रह का शीर्षक भी रखा गया है । लेखिका का बचपन इलाहाबाद की इसी पत्थर गली में गुज़रा है । कोतवाल साहब की कोठी के नाम से प्रसिद्ध, पिता के किराये के मकान के बड़े से आँगन में, एक कोने में लगा हुआ अमरूद का पेड़ नासिरा शर्मा की स्मृतियों में इस तरह सुरक्षित रह गया है कि घूम-फिर कर किसी-किसी कहानी से झाँकने लगता है ।पत्थर गली कहानी से एक दृश्य द्रष्टव्य है – “कच्चे आँगन के कोने में खड़ा वह तनहा अमरूद का पेड़ , झुट्पुटे के समय सैकड़ों आवाज़ों से भर जाता था । जाने कहाँ-कहाँ से सारे दिन घूम-फिर कर चिड़ियाँ बसेरा लेने आ जातीं और अमरूद की डालों पर बैठकर एक दूसरे से अपना दुखड़ा रोतीँ ।“ ताबूत कहानी में ख़ालाबी के बड़े से आँगन का एक दृश्य देखिए – “अमरूद के पेड़ के नीचे सब बैठकर खाना खा रहे थे । मुन्नी की अम्मा ने जुठी रिकाबियाँ समेटनी शुरू कर दीं और बार-बार अल्लाह का शुक्र अदा करने लगीं।“ यहाँ अमरूद के पेड़ के नीचे बैठकर खना खाने की चर्चा कुछ अटपटी सी लगती है । ऊपर से किसी भी चिड़िया के बीट कर देने का ख़दशा बना रहता है ।
ज़मीनदारी और तअल्लुक़े-दारी समाप्त होने और रियासतों के टूटने और तबाह होने से मुसल्मानों का संभ्रान्त समाज मिट्टी के टीले की तरह ढह गया । शिक्षा के अभाव और झूठी शान तथा दिखावटी दबदबे की ललक ने अपाहिजपन में और इज़ाफ़ा कर दिया । शीया सैयद परिवार और नवाबीन विशेष रूप से इसकी चपेट में आये । अवध और जौनपुर के क्षेत्रों में विशेष रूप से और आस-पास के इलाक़ों में सामान्य रूप से इस तबाही के दृश्य देखे गये ।लखनऊ में नख़ास के बाज़ार में घरों से चुपचाप आकर हीरे-जवाहरात और सोने के क़ीमती ज़ेवर कौड़ियों के मोल बिकते रहे । नासिरा शर्मा ने प्रतीत होता है कि इन मुसल्मान घरों को बहुत निकट से देखा है और सूक्ष्मता से विवेचित किया है । बावली और पत्थर गली कहानियों में संदर्भित स्थितियाँ मैं ने मुस्लिम परिवारों में स्वयं देखी हैं ।
पत्थर गली की फ़रीदा उस समय बड़ी हो रही है जब उसके पिता का निधन हो चुका है और हालात पूरी तरह बदल चुके हैं । वह इस वातावरण में जीने के लिए पैदा नहीं हुई है । उसकी विवशता यह है कि वह दूसरों की दया और मरज़ी से जी रही है । कल जब पिता जीवित थे और बहनों की शादी नहीं हुई थी, यह घर कितना भरा-भरा था ।ख़ूबसूरत परदों , सफ़ेद बरफ़ीली जाज़िमों और रगीन सोफ़ों से यह घर दमक्ता रहता था । अब तो इस घर में जाले लटकते हैं । हफ़्ता भर न देखो तो लगता है घर नहीं है कोई पुराना खण्डहर है । भाई साहब क़दम-क़दम पर रूपये की माँग करते रह्ते हैं । “बताये देता हूँ, सूट का रूपया न दिया तो मैं भी हास्टल वापस नहीं जाऊँगा । काम उनसे होता नहीं है मगर अभी तक वह अब्बा के ज़माने में जी रहे हैं । क़दम-क़दम पर खोखली बातें जिनका न सिर न पैर । अम्मी को जब-तब कचोके लगाते हैं । जैसे अम्मी किसी गुमनाम ख़ज़ाने की कुंजी दबाये बैठी हैं । फ़रीदा ही क्या ऐसा घर तो किसी को भी पागल बना देने के लिए कफ़ी है ।
लड़की में बचपन से बड़े होने तक परायेपन की चाभी इतनी अधिक भर दी जाती थी कि वह शादी में घर से बिदा होते-होते , बिना किसी की चिन्ता किये, अपने मायके की दौलत से पति को मालामाल कर देना चाहती थी । बावली कहानी में यह स्थितियाँ पर्याप्त मुखर हैं । माँ से जहेज़ कम मिलने की शिकायत करते रहना और घर आने पर पति की अधिक से अधिक ख़ातिर कराने की इच्छा रखना लड़कियों का स्वभाव बन गया था । बज्जो शादी के बाद अम्मा से कहा करती थीं –“अम्मा आप ने मुझे दिया ही क्या है ? बज्जो की आवाज़ से अम्मा का चेहरा धुआँ-धुआँ हो गया ।और अपिया तो अपनी तेज़-मिज़ाजी के लिए ख़नदान भर में मशहूर थीं । अम्मा के मना करने पर भी हर आने-जाने वाले से भिड़ जाना उनके लिए साधारण बात थी । शायद इसी लिए उनके पैग़ाम ही नहीं आते थे । सलमा की बात और थी। सबसे छोटी होने की वजह से ,परिस्थितियों ने उसे शालीन बना दिया था और वह घर का अच्छा-बुरा ख़ूब समझती थी । फिर अच्छी शिक्षा ने उसमें अपिया और बज्जो से अलग एक विशेष निखार पैदा कर दिया था । वैसे तो उसके बहुत से रिश्ते आये । लेकिन ख़ालिद के साथ उसकी शादी अम्मा की पसन्द से हुई थी । ख़ालिद उसे चाहते भी बहुत थे और पति के शब्दों में वह उनकी इकलौती मुहब्बत थी । बेगम शान मुहम्मद के साथ रहकर उसने सुसंस्कृत समाज में उठने-बैठने के तरीक़े भी सीख लिये थे ।
सलमा और ख़ालिद का दाम्पत्य जीवन वैसे तो एक आदर्श जीवन था । शादी के दो वर्ष बाद अम्मा का निधन हो गया था । बहनों ने पहचानना छोड़ दिया था । लेकिन ख़ालिद की मुहब्बत पाकर सल्मा ने पैरों के नीचे ठोस ज़मीन महसूस की थी । प्यार और विश्वास ने उसे जीना सिखाया था । सात वर्ष देखते ही देखते निकल गये । बच्चे का मुँह देखने के लिए ख़ालिद की अम्मी बेचैन रहने लगीं ।ख़ालिद पहले अपनी माँ की बात पर क्रोधित हो जाते थे , फिर चिढने लगे, फिर ख़ामोश ---और कुछ दिन बाद उनके ख़यालात भी बदल गये थे । सलमा के सामने अम्माँ की हाँ में हाँ मिलाने के इलावा कोई रास्ता नहीं रह गया था। अम्माँ बहू के इस बरताव से ख़ुश थीं । सलमा सोचती थी “मैँ पानी से भरी बावली रिश्तों के नाम पर बँटती आयी । हमेशा दिया, कुछ लिया नहीं आज जब अपनी कोख से एक बच्चा न दे सकी, तो मैं एक बेकार शै मान ली गयी । मेरा और ख़ालिद का रिश्ता इस औलाद को लेकर टूट गया । अगर ख़ालिद मेरी गोद न भर पाते तो क्या मैं दूसरी शादी करती ? उस समय गोद लेने की बात उठती । सब्र और क़ुरबानी जैसे शब्द केवल औरतों के लिए हैं।
सलमा की क्रान्तिकारी सोच यह बताती है कि वह पुरुष की इस अर्थहीन वर्चस्व भावना से अच्छी तरह परिचित है । बच्चा इस समाज में बुढापे की लाठी कहा जाता है। सलमा के दिल व दिमाग़ में तूफ़ान उठ रहा था । दूसरी शादी के लिए उसी ने ख़ालिद को तैयार किया था और लड़की भी उसने देख कर पसन्द की थी । इसलिए कि वह जानती थी कि वह समाज को बदल नहीं सकती और उसकी भलाई इसी में है कि वह ख़ालिद की माँ के साथ एकस्वर हो जाय । किन्तु वह अपनी सोंच को दफ़्न नहीं कर सकती थी। “इस घर में सिर्फ़ तनहा उसकी साँसें बसी हुई हैं और कल एक और साँस, एक और चूड़ियों की झंकार, अलगनी पर फैले कपड़ों में एक और जम्पर और ब्लाउज़ का इज़ाफ़ा । बचपन छत की तलाश में गुज़रा और आज छत है तो पैर के नीचे से ज़मीन ग़ायब हो रही है । हफ़्ते भर बाद मेरा कमरा अलग होगा । ख़ालिद मुझमें और सुहेला में बँट चुके होंगे । उफ़ मेरे ख़ुदा । सलमा ने आँखें बन्द कर लीं । “हर रिश्ता कुछ माँगता है । जब न दो तो टूट जाता है ।“
सलमा ऊपर से भले ही अपने पति की दूसरी शादी की तैयारियाँ कर रही हो, भीतर से वह पूरी तरह टूट चुकी थी । कल इस घर की रात कैसी रात होगी ? क्या मुझसे यह सब बर्दाश्त हो पयेगा ? और एक दिन तो ऐसा हुआ । ‘अरे ख़ालिद दौड़ो ! बहू बेहोश हो गयी “ अम्मा ने ख़ालिद को पुकारा । चेहरे पर पानी की छीँटें डालने पर उसे होश आ गया । और फिर ऐन बारात के दिन सुहैला से खालिद का निकाह होने के बाद सलमा दुल्हन के कमरे में फिर बेहोश हो गयी । बात फैलते देर नहीं लगी । जितने मुँह उतनी बातें । मेहमानों में एक लेडी डाक्टर भी थीं । डा0 अफ़रोज़ । नब्ज़ पर हाथ रखी और मुआयना कर के बोलीं “ यह तो बड़ी मुबारक बीमारी है ।“ ख़ालिद की अम्मा ने कहा “सच कहो ।“ और अधेड़ उम्र की डा0 अफ़रोज़ ने कहा “ यक़ीन न हो तो जाँच करा लें । मगर बहू है आपकी हामला । “
सलमा का पति दूसरी शादी इस लिए कर रह था कि सलमा से उसको कोई औलाद नहीं थी और सलमा की सास को औलाद देखने की जल्दी थी । चेक-अप कराते रहने की जागरूकता भी आम घरों में नहीं थी। सलमा जब पहली बार बेहोश हुई थीं , यदि उसी समय ठीक से चेक अप हो गया होता तो दूसरी शादी की ज़रूरत ही न पड़ती । दुल्हन के कमरे में सलमा के बेहोश होने को कृत्रिम संयोग कहना और कहानीकार को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराना कोई औचित्य नहीं रखता । ऐसा होना कोई अनहोनी बात नहीं है । औरत बेचारी अबला तो कहलाती ही आयी है । आँचल में दूध और आँखों में पानी की नियति के साथ सलमा अपने जीवन को पानी से भरी एक बावली सदृश समझती है । उसे तो ‘अन्तिम साँस तक खुले आसमान और ज़मीन के सीने में धंसे जीना है ।
संग्रह की दूसरी कहानी ‘सरहद के इस पार’ इश्क़ में होशो-हवास खो बैठने की कहानी है । सुरैया से रेहान की दोस्ती उस समय हुई थी जब वह बी0 ए0 में था । दोस्ती इश्क़ में बदली और शादी करके साथ ज़िन्दगी गुज़ारने के वादे किये जाने लगे । घर वालों को पता चला तो साफ़ कह दिया गया कि सैयद की लड़की शेख़ों में नहीं ब्याही जायेगी । हालाँकि शेख़ों और सैयदों में बराबर आपस में शादियाँ होती थीं । रेहान भी यदि दो वर्षों से बेकार न होता और किसी अच्छे पद पर होता या हैसियत के एतबार से दोनों ज़मीन्दार होते , तो शादी में कोई अड़चन न आती । नासिरा शर्मा ने तो बन्द दर्वाज़ा शीर्षक कहानी में सैयद की लड़की मिरज़ा के यहाँ ब्याह दी है जो सामन्य रूप से मुस्लिम शीया घरानों में राइज नहीं है ।सच पूछा जाय तो सरहद के इस पार की सुरैया बेवफ़ा निकली । उसका विवाह पाकिस्तान में किसी बड़े आफ़ीसर से हो रहा था और इस अवसर को वह खोना नहीं चाहती थी । वह रेहान से मिलती रही पर उसने अपनी शादी की उसे भनक तक नहीं लगने दी । एक बार बिदा होकर पति के साथ पाकिस्तान चले जाने के बाद रेहान की चिन्ता कौन करता है ।
रेहान जिस मानसिक स्थिति से गुज़र रहा था उसे विक्षिप्तावस्था या पागलपन का नाम नहीं दिया जा सकता । वह एक ऐसी स्थिति थी जिसमें आक्रोश अपनी चरम सीमा पर था और कुछ न कर पाने की विवशता आग को हवा दे रही थी । सच्चाई को चकमा देते हालात मुँह चिढा रहे थे और सब कुछ जला कर राख कर देने और तबाह और बर्बाद कर देने को मन चाह रहा था । कच्चे आँगन में ऊपर से तड़ातड़ गिरकर टूटती हुई खपरैल रेहान की इसी मनःस्थिति को व्यक्त कर रही थी । प्रथम श्रेणी में एम0ए0 करने वाला रेहान अपनी हरकतों के लिए चचा शकूर के हाथों बेतहाशा पिट जाता है किन्तु जवाब में कोई धृष्टता नहीं करता ।
शकूर चचा ग़ुस्से से काँपते हुए ऊपर चढे । बिना कुछ कहे दो ज़ोरदार चाँटे रेहान के मुँह पर जड़े और पीठ पर दो घूँसे –बदतमीज़ ! बेअदब ! जो मुँह में आता है बकता चला जा रहा है ।‘ धक्का देकर नीचे आँगन में रेहान को गिराया और लात घूसों की बारिश कर दी ।
शकूर चचा रेहान भाई को मार-कूट कर दद्दा के पास आकर बैठ गये उनके चेहरे से दुख और ग्लानि टपक रही थी । “मोहल्ले में इसकी बेहूदगी की वजह से नज़रें चुरानी पड़ती हैं । कम्बख़्त ने कहीं का नहीं रखा ।“लेकिन सच्ची बात तो यह थी कि सारा मोहल्ला रेहान को प्यार करता था और उसकी बेलाग-लपेट की खरी-खरी बातों का कोई बुरा नहीं मनता था। वर्मा जी की पत्नी अम्मा से कह गयी थीं “ परेशान न हों । हम रेहान को हमेशा से जानते हैं , अपना लड़का है । उसकी बातों को सब समझ रहे हैं ।”
नासिरा शर्मा ने ठीक ही लिखा है “ बेकारी, इश्क़ में नाकामी और बेवफ़ाई ने रेहान को दीवाना बना दिया ।“फ़र्स्ट क्लास में एम0ए0 करने के बाद यदि उसे कोई अच्छी नोकरी मिल गयी होती तो सुरैया को पाना भी आसान हो जाता और उसकी शादी पाकिस्तान में किसी आफ़ीसर से न होती ।
वैसे दूर के ढोल बड़े सुहाने होते हैं । क्या पता पाकिस्तान में सुरैया का मीयाँ आफ़िसर था भी या नहीं । पत्थर गली कहानी में लेखिका ने शायद ठीक ही कहा है –“लोग कहते हैं, लड़के तो बस, वह भी अच्छे बढिया कमाऊ लड़के केवल पाकिस्तान में मिलते हैं ---निपट झूठ है । मरयम कैसी फँसी थी । बताया गया था कि लड़का रेलवे में डाक्टर है । फ़ोन पर निकाह हुआ और निकला बाद में कम्पाउन्डर ।“पता यह चला कि पाकिस्तान सारे फ़साद की जड़ है । इक़बाल शायरे-अज़ीम जिसने पाकिस्तान का ख़्वाब देखा था यानी इन्सानी रिश्तों को तोड़ने की बात की थी, उसका अदब कोयला है जिसे छूकर हाथ काले होते हैं । अंग्रेज़ों ने हमें फ़साद की शक्ल में पाकिस्तान तोहफ़े में दिया है और हम इस ज़ख़्म को जब तक जियेंगे पालते रहेंगे । रेहान ने बहुत से घरों से माँग कर इक़बाल की रचनाएं एकत्र कीं और उन्हें आग के हवाले कर के संतोष का अनुभव किया । वास्तव में यह एक प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति थी । और ऐसी अभिव्यक्ति वही कर सकता है जिसका विवेक पूरी तरह सजग हो । उसे नारायण जी का जुम्ला नश्तर चुभो रहा था – ‘रहते हैं हिन्दुस्तान में, मगर सपने देखते हैं पाकिस्तान के !‘ दिल चाहा पटख पटखकर नारायण को मारकर पूछे – मन्दिरों की मूर्तियाँ डालर और पाउन्ड के लालच में कौन बेचता है ? वह पाकिस्तान का स्वप्न देखने वाले शायर इक़बाल ही से नहीं उन हिन्दुओं से भी बदला लेने पर आमादा है जो उसे उसीके वतन में चैन से जीने नहीं देते । “यह मेरा वतन है, मेरा वतन। देखता हूँ कौन मुझे जीने से रोकता है ? हिम्मत है तो आओ, निकलो । एक-एक का सिर तोड़ डालूँगा ।“
सच तो यह है कि रेहान हिन्दुओं, सिखों, ईसाइयों सभी से प्यार करता है ।कारण यह है कि वह हिन्दुस्तानी पहले है और मुसल्मान बाद में । हिन्दू-मुसलमान दंगे में कर्फ़्यू लग जाने का लाभ उठाकर तीन मुसल्मान लड़के जब बहला फुसला कर दुराचार की नीयत से राम खिलावन की लड़की सरस्वती को लाये और रात के सन्नाटे में खपरैल पर बैठकर औल-फ़ौल बकने वाले रेहान को मदद के लिए उसकी आवाज़ सुनाई दी तो वह बेख़ौफ़ आँगन मेँ कूद पड़ा और उस कमरे में घुस गया जिसमें मुसल्मान लड़के सरस्वती के साथ दुराचर करना चाहते थे । वह जानता था कि उसके सामने एक लड़की खड़ी है और लड़की की इस्मत हिन्दू या मुसलमान नहीं हुआ करती । वहाँ उसका अहसास ‘तीसरा मोर्चा’ कहानी की कश्मीरी औरत से अलग नहीं था जो राहुल और रहमान के बार-बार पूछने पर कि वह हिन्दू है या मुसलमान ? बता रही थी कि –“हिन्दू और मुसलमान तो सिर्फ़ वह मर्द होते हैं जो अपने मज़हब के उन्माद में औरत की आबरू लूटकर अपना धर्म निभाते हैं [इब्ने मरयम, पृ068]।“ और यह मज़हब का उन्माद इतना ख़तरनाक होता है कि रेहान ने सरस्वती को तो मुसलमान लड़कों के हाथों बरबाद होने से बचा लिया लेकिन अपनी ज़िन्दगी से हाथ धो बैठा । यहाँ रेहान का उन लड़कों से यह कहना कि “मेरे जीते जी इस मोहल्ले में किसी ज़ालिम औरगज़ेब की पैदाइश नहीं हो सकती ।“ इतिहास को भाजपाई कोण से देखना है। मेरी औरगज़ेब के साथ कोई सहानुभूति नहीं है ।पर अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रख्यात मार्क्सवादी इतिहासकार प्रो0 अतहर अली की पुस्तक “नोबुल्स अन्डर औरंगज़ेब” कुछ और ही तथ्य प्रस्तुत करती है । नासिरा शर्मा को चाहिए कि वह इस पुस्तक को अवश्य पढें ।
लेखिका ने अतिरिक्त उत्साह में यह भी बताने का प्रयास किया है कि हिन्दू मुसलिम दगों के अवसर पर मुसलमान घरों में बम बनाये जाते हैं जिसकी सूचना मोहल्ले के हर मुसलमान को होती है । शकूर चचा ने खिड़की से पुकार कर कहा “अम्मा ! कल्लन मियाँ चल बसे । अफ़ज़ल के बनाये बम फट गये । पुलिस उनके घर में है । कल्लन मियाँ की बीवी भी ज़ख़्मी हुई हैं और अफ़ज़ल, उसकी बोटियाँ छत की बल्लियों से लटक रही हैं ।“ मैं यह नहीं कहता कि मुसलमान ऐसा नहीं करते । ज़रूर करते होंगे । उनमें भी अपराधी मनोवृत्ति वालों की कमी नहीं है । मैं केवल यह कहता हूं कि इस घटिया कृत्य का धर्म से कोई रिश्ता नहीं है और तस्वीर का केवल एक रुख़ प्रस्तुत करना यथार्थ से आँखें चुराना है ।
प्रख्यात कहानीकार प्रेमचन्द के मिर्ज़ा साहब और मीर साहब नासिरा शर्मा की कहानी बन्द दर्वाज़ा के न सिर्फ़ यह कि पड़ोसी बल्कि संबंधी भी बन गये हैं । एक ही गाँव में एक दूसरे के मकान के पास मीर साहब और मिर्ज़ा साहब का रहना आश्चर्य की बात है । सैयद वाड़ा, सैयद पुरा या सादात की बस्ती में किसी मिर्ज़ा का मकान नहीं होता । दिल्चस्प बात यह है कि दोनों ही रईस हैं और आन-बान-शान में किसी से कम नहीं हैं । रईस मिर्ज़ा के घर के पिछवाड़े पासियों की बस्ती की चर्चा करके लेखिका ने एक प्रकार से संकेत कर दिया है कि वह गाँवों के वातावरण से परिचित नहीं है। पासियों की बस्ती किसी भी गाँव में आबादी से बहुत दूर होती है । कारण यह है कि वह सूवर पालते हैं जो मल इत्यादि खाते हैं और गन्दगी में रहते हैं ।
शबाना मीर साहब की बेटी है जिसकी शादी अस्करी मिर्ज़ा के बेटे काज़िम मिर्ज़ा से हो चुकी है । दोनों एक-दूसरे के साथ खेल-कूदकर बड़े हुए हैं और आपस में बेइन्तेहा मुहब्बत करते हैं । लेखिका ने बताया है कि चौथी के दिन ही कुछ ऐसी-वैसी हरकत हो गई जिस से रईस मिर्ज़ा का पारा चढ गया और फिर चौथी की रस्म के बाद मुहर्रम आ गया । मतलब यह कि चौथी अरबी महीना ज़िलहिज्जा की अन्तिम तारीखों में हुई थी । मोहर्रम में बिदाई संभव नहीं थी । इस अवसर पर लेखिका का कहना है कि ग़म का चान्द ऐसा निकला कि फिर डूबा ही नहीं । प्रतीत होता है कि लेखिका को मुसलमानों के अरबी महीनों का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं है । अन्यथा वह मोहर्रम के तुरत बाद यह न लिखती कि “दो माह बाद जब ईद पड़ी तो मीर साहब इन्तेज़ार करते रहे कि लड़की के ससुराल से बुलावा आये ।“ ग़रज़ यह कि बिना किसी ठोस तर्क के शबाना की रुखसती नहीं हुई और वह मायके में पड़ी रह गयी । उसके पिता ने काज़िम को भी शबाना से मिलने नहीं दिया । लेखिका ने यह तो बताया कि काज़िम को अम्मा की विशेष चिन्ता थी ।शबाना के आने पर वह ज़हर खाने को आमादा थीं । किन्तु इसके लिए शबाना कहाँ तक ज़िम्मेदार थी, यह कोई नहीं बताता । मिर्ज़ा साहब और मीर साहब की अर्थहीन अकड़ में पिसकर तिल-तिल मरती शबाना दो ऐसे परिवारों की हक़ीक़त उकेरती है जो अपनी झूठी शान के नशे में अपने वर्तमान से ग़ाफ़िल हैं ।
मीर साहब और अस्करी मिर्ज़ा के परिवार भी विचित्र हैं । मीर साहब को केवल तीन लड़कियाँ ही लड़कियाँ हैं जिनमें से केवल शबाना की चर्चा की गयी है और अस्करी मिर्ज़ा का काज़िम के अतिरिक्त और कोई बेटा या बेटी नहीं है । मीर साहब के घर का दर्वाज़ा गाँव का सब्से ऊँचा दर्वाज़ा है। मीर साहब का ख़याल है कि दूल्हा घोड़े पर बैठा-बैठा घर के अन्दर आना चाहिए । गाँव में काज़िम और शबाना के साथ खेलने पढने वला कोई दोस्त साथी नहीं है। किसी स्कूल का कोई उल्लेख नहीं । पता नहीं कभी यह बच्चे पढने भी गये या नहीं । शबाना के सामने गुज़रे कल की औरतों का आदर्श है । बलिदान की मूत्तियाँ ! ऐसे हालात में उसे भी जलते-जलते पिघलना है । मर्यादा की लौ को सिर पर उठाये दम तोड़ना है ।घूँट-घूँट इस दर्द के समुन्दर को पीना है । बड़े घर की कहानियाँ उनके आँगन में दम तोड़ती हैं । ऊँचा ख़ान्दान मान-मर्यादा का क़ब्रिस्तान होता है जहाँ हर रोज़ एक नयी क़ब्र खुदती है और बुज़ुरगों की ख़्वाहिशों के कफ़न में लिप्टी लाश दफ़न कर दी जाती है ।
अस्करी मिर्ज़ा को यह अकड़ है कि हमारे ख़ान्दान की रस्म रही है कि मर्द ने जिस औरत को छोड़ा, दोबारा उधर का रुख़ नहीं किया और मीर साहब का विचार है कि उनके ख़ान्दान में लड़कियाँ मर जाती हैं मगर नालायक़ ससुराल वालों का मुँह नहीं देखतीं । मीर साहब की बहन नौशाबा ने ठीक ही कहा था – “कब तक आप लोग ख़ान्दानी इज़्ज़त के नाम पर इन्सानी क़ुरबानी माँगेंगे भाई साहब !”और मीर साहब ने बहुत ठ्ण्डे लहजे में जवाब दिया था – “जब तक मैं ज़िन्दा हूँ बीबी, ख़ान्दानी तौर-तरीक़ों में तब्दीली नहीं आ सकती ।“ परिणाम यह हुआ कि शबाना अपने घर में ही सिसक-सिसक कर मर गयी और अपने प्यार को व्यावहारिक जीवन में रूपान्तरित न कर सकी ।
‘कच्ची दीवारें ‘कहानी में इब्बन मियाँ चचा और चची के कोई रिश्तेदार नहीं हैं किन्तु उनकी निगाह उनके कच्चे मकान पर जो बड़ा भी है और बहुत मौक़े की जगह पर है, टिकी हुई है । वह एक पैदाइशी ताजिर हैं और हर चीज़ को नफ़ा-नुक़सान की दृष्टि से देखते हैं । इस से पहले वह अपनी बेवा ख़ाला की सारी जायदाद धोखे से अपने नाम करा चुके थे । प्रारंभ में चचा मियाँ कुछ परेशान ज़रूर थे कि सरकार ने कच्चे मकान का टैक्स एक हज़ार रूपये वार्षिक लगा दिया , जिसका कोई औचित्य नहीं है । दिमाग़ भिन्ना जाता था । इतनी तो आमदनी भी नहीं है । महीने में चार कोठरियों का डेढ सौ मिलता है। पेनशन का पाँच सौ रूपया । इस महगाई में साढे छ्ह सौ होता क्या है । किन्तु चची बटुए बनाकर साल भर में इतने पैसे कमा लेती थीं कि टैक्स आसानी से भरा जा सकता था । इब्बन मियाँ ने चचा पर तरह-तरह से डोरे डाले कि वह मकान उनके हाथ बेच दें । पर चचा पर ज़रा भी असर न हुआ । “बाल-बच्चे तो हैं नहीं । घर की छत है । वह भी तुम चाहते हो हम से छिन जाये । “
चची ने जब सुना बेचैनी से उठकर बिस्तर पर बैठ गईं । “मैं उस मुर्दार की फुफी न ख़ाला । ख़ुदा की मार तुम्हारी अक़्ल पर । चुपचाप सुनकर चले आये । मैं होती तो जूतियों से गंजा कर देती । “ यही मकान तो बुढापे का सहारा है । यही मेरा बेटा, यही मेरी बेटी ।“ कुछ अरसे बाद चचा को डबल नमोनिया हो गया डाक्टर ने आकर कई इंजेक्शन लगाये । दवाएँ दीँ ।इब्ने फलों व दवाओं का ढेर लगाकर चले गये । मोहल्ले वाले इब्ने की तारीफ़ें कर रहे थे । चची को इब्ने से सख़्त नफ़रत थी । मगर उस नफ़रतज़दा इन्सान ने उनके सुहाग की देख-रेख की थी और चचा मियाँ फिर से सेहतमन्द हो गये थे। इब्बन मियाँ की वजह से मकान भी धीरे-धीरे पक्का बनने लगा था । आगे की दो दुकानें किराये पर उठ गयी थीं । नफ़रत और अहसानमन्दी की भावनाओं के बीच दबी चची सदा परेशान रहती थीं ।
कच्चा मकान अभी आधा बाक़ी था पक्का होने में कि चचा ने आँखें बन्द कर लीं । मियाँ इब्ने ने ठीक अपने बाप की तरह उनके कफ़न-दफ़न का इन्तेज़ाम किया । चची सोचतीं, इन परेशानियों के दिनों में इब्ने न होते तो वह क्या करतीं ।मियाँ इब्ने सुबह शाम चची की ख़ैरियत लेने आ जाते । इब्ने मियाँ की पत्नी कुल्सूम को शौहर की नीयत का पता था… उन्होंने सुन रखा था कि यतीम और बेवा की हाय बहुत बुरी होती है । निर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय । मुई खाल की साँस सों, लौह भसम होइ जाय ॥ जब उनकी बेटी सेहर बीमार हुई तो वह एकदम से डर गयीं । “मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूँ । मुझपर अब ज़ुल्म न करो । मेरी गोद सूनी मत करो “
इब्बन मियाँ की बेटी सेहर ठीक हो गयी । चची की बेचैनी और तड़प देखकर इब्बन मियाँ को थोड़ी सी ग्लानि हुई । दूसरे दिन बहुत ज़ोरों की बारिश हुई । चची के मकान के कमरा और दालान गिर गये । हर तरफ़ बस कच्ची-भीगी मिट्टी का ढेर था । चची का दीवार के नीचे दबकर इन्तेक़ाल हो चुका था । इब्बन मियाँ ने कफ़न- दफ़न क इन्तेज़ाम किया । आज उन्हें महसूस हो रहा था जैसे सचमुच उन के सिर से चची का साया उठ गया है । लेकिन अपने ताजिर दिमाग़ को क्या करें । चची को क़ब्र में उतारते हुए इब्बन मियाँ की सुर्मा लगी आँखों में आँसू ज़रूर भरे थे लेकिन दिल में सोंच रहे थे कि इस कच्चे मकान को हासिल करने के लिए उन्होंने क्या क्या पापड़ नहीं बेले । पर कुछ भी हासिल नहीं हुआ । उन्हें पता नहीं था कि चची किसी का क़र्ज़दार रहकर नहीं मरना चाहती थीं । इब्बन मियाँ के ताजिर दिमाग़ के आश्चर्य की कोई सीमा न रही जब उन्हें बताया गया कि चची ने सबसे छुपाकर यह वसीयत ग़फ़्फ़ार मियाँ के पास रखवा दी थी जिसमें अपनी सारी जायदाद का वारिस अपने गोद लिये बेटे इब्बन मियाँ को बनाया था । इब्बन मियाँ को यह भी पता चला कि ग़रीब इज़्ज़त से जीना ही नहीं इज़्ज़त से मरना भी जानता है ।
पत्थर गली की भूमिका में नासिरा शर्मा ने लिखा है कि मुस्लिम समाज सिर्फ़ ग़ज़ल नहीं है । लेकिन पत्थर गली की कहानी ‘सिक्का’ सिर्फ़ ग़ज़ल अवश्य है। महबूब से बातें करती हुई । कई-कई पड़ावों और मुक़ामात से गुज़रती । सुक्र की मंज़िलों में ख़ुदकलामी के कई-कई दरया लांघती । इश्क़ का खरा चमकीला सिक्का हथों में लिये , अहसास के लम्स से अभिभूत हो जाने की हमवार फ़िज़ा में उपहार स्वरूप ज़िन्दगी के बचे साल भेंट करती, जज़्बात के सायेदार दरख़्तों के नीचे रंग-बिरंगे फूलों की बेलौस बेग़रज़ पुर ख़ुलूस ख़ुश्बू से अनलहक़ का ज्ञान प्राप्त करती यह कहानी सत्तर हज़ार परदों में छुपे नूर के दरया से संवाद करती है । उर्दू में इस प्रकार के प्रयोग सलाहुद्दीन परवेज़ ने किये हैं । हाँ हिन्दी कहानी में नासिरा शर्मा का यह प्रयोग नया ज़रूर है । मैं जब भी इस कहानी को पढता हूँ ग़ालिब की एक मशहूर ग़ज़ल का यह शेर अनायास ही गुनगुनाने लगता हूं- “बे दरोदीवार सा इक घर बनाया चाहिए । कोई हमसाया न हो और पास्बाँ कोई न हो ।’’
संग्रह की धीमी गति से आगे बढने वाली कहानी ‘कातिब’ रोचक भी है और सशक्त भी । कला की नाक़दरी और मशीनी तथा बाज़ारवादी संस्कृति की चपेट में किताबत के हुनर का हस्तशिल्प मिटता सा प्रतीत हो रहा है और उसके अस्तित्व के मिट जाने का ख़तरा लेखिका को बेचैन सा कर देता है । उर्दू भषा में छपाई पहले हाथ से लिखकर होती थी और किताबत को बहुत बड़ी कला माना जाता था । लेखकों और प्रकाशकों द्वारा कातिबों का शोषण आम बात थी । कातिब भी कभी कभी अपनी हरकतों से लेखकों को रुला दिया करते थे । लिखने-पढने वालों के बीच उन्हें लेकर बहुत से चुटकुले मशहूर थे । एक चुट्कुला कुछ इस प्रकार है जिसे नासिरा शर्मा ने अपने ढग से लिखा है । किसी ख़लीफ़ा का विचार हुआ कि किसी अच्छे कातिब से क़ुरआन शरीफ़ लिखवाया जाय । कातिब बुलाया गया और ख़लीफ़ा ने उससे कहा “मियाँ यह अल्लाह का कलाम है, इसमें कोई इस्लाह मत कर बैठना । बगैर किसी तब्दीली के जो लिखा है वही लिखना।“ कातिब साहब बोले –“हुज़ूर ! मेरी क्या मजाल के अल्लाह के कलाम में कोई तब्दीली करूँ ।“ इनआम के लालच में कातिब साहब बड़ी शान्दार किताबत कर के लाये । ख़लीफ़ा ने लिखावट की तारीफ़ की और सवाल किया कि कोई तब्दीली तो नहीं की ? कहने लगे हुज़ूर ! हमारी समझ में एक बात नही आयी, अल्लाह के कलाम में शैतान की क्या ज़रूरत है ? ख़लीफ़ा ने सवाल किया “तुमने कुछ किया तो नही ?” बोले “हुज़ूर जहाँ जहाँ शैतान का नाम था वहाँ-वहाँ हुज़ूर का नाम कर दिया ।“
इन्डोपाक सेमीनार के पहले दिन की भीड़-भाड़ में ज़हूर साहब ने अपनी भारी आवाज़ में कहा – “ इतने सालों से उर्दू इस मुल्क में है, मगर वही किताबत का पुराना नुस्ख़ा । अंग्रेज़ी व हिन्दी की किताब दस दिन में छप कर आ जाती है ,मगर उर्दू की किताब को तो दस महीना सिर्फ़ किताबत में लगते हैं ।“रईस साहब फ़ौरी तौर पर बोले –“ आदत की बात है । किताबत के हुरूफ़ ज़्यादा ख़ूबसूरत और रौशन होते हैं। टाइप तो नेहायत बेकार लगता है । फिर किताबत एक हुनर है, फ़न है । “यानी उर्दू में किताबत के हुनर को अक्षरों की नोक-पलक से झलकने वाले सौन्दर्य ने बचा रखा था । यह सौन्दर्य नस्तालीक़ फ़ोन्ट में था जो उर्दू में नहीं बन पाया था और सिर्फ़ कातिब के पास था। कम्प्यूटर के राइज होते ही इस फ़ोन्ट ने बड़ी तरक़्क़ी की । आज जमील नस्तालीक़, नफ़ीस नस्तालीक़ , हिलाल नस्तालीक़ आदि कितने ही वेबसाइट्स पर उर्दू नस्तालीक़ फ़ोन्ट उपलब्ध है और राष्ट्रीय सहारा जैसा दैनिक पत्र इसमें निकलता है । उर्दू दैनिक सियासत, क़ौमी आवाज़, दावत इत्यादि तो पहले भी निकलते थे जिनकी वजह से उर्दू किताबत जीवित थी जबकि कम्प्यूट्रर कम्पोज़िंग की वजह से किताबत का हुनर आज विलुप्त हो चुका है ।
अकरम साहब कातिब कहानी के मुख्य पात्र हैं । तंग सा मकान । उसी में बीवी-ब्च्चों और अम्मा के साथ रहना, उसी में किताबत का कामधाम । कहीं छत के टपकने से किताबत किये हुए सफ़हों की तबाही, कहीं बच्चे के हाथ से खाना गिर जाने से किताबत की बरबादी । फिर काम हो जाने पर पैसों के लिए मारे मारे फिरना । दिमाग़ में तरह-तरह के विचार आये । पर अन्त में इसी नतीजे पर पहुँचे कि फ़न बहर हाल फ़न है । और वह एक फ़नकार हैं उन्हें अपने फ़न को मरने नहीं देना चाहिए । “इन्सान को सबसे ख़ूबसूरत चीज़ जो ख़ुदा ने दी है वह हैं उसके हाथ, जिनके ज़रिए वह अपने दिल व दिमाग़ का इज़हार करता है । अपने को दूसरों के सामने बेनक़ाब करता है । --जब वह इन हाथों से कुछ गढता है तो फ़नकार कहलाता है । मैं फ़नकार हूं । ख़ुदा के वुजूद को काग़ज़ पर उभारता हूँ । --फिर थकन का , मायूसी का अहसास मुझे क्यों घेरता है ? शायद यह मेरी अपनी कमज़ोरी है, अपने को सही न पहचानने की ।“नासिरा शर्मा की विशेषता यह है कि उनके पात्र ज़िन्दगी से हार नहीं मानते । बल्कि उसमें अन्दर-ही-अन्दर इस तरह की सुरंग बना लेते हैं जो कहीं भीतर छुपी रोशनी से जगमगा सी उठती है ।
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लेखिका = नासरा शर्मा

कहानी सग्रह = पत्थर गली

राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्लि, 2002