शनिवार, 10 अप्रैल 2010

सकते में सब थे और भबकता रहा चेराग़् / سکتے میں سب تھے اور بھبکتا رہا چراغ

सकते में सब थे और भबकता रहा चेराग़्।
तारीकियाँ सी फैल गयीं गुल हुआ चेराग़्॥
उसकी हथेलियों से निकलती थी रोशनी,
दस्ते हिना था या था कोई बा-वफ़ा चेराग़्॥
महसूस कर रहा था मैं आहट सी बार-बार,
कुछ भी नज़र न आया जो रौशन किया चेराग़्॥
इन्साँ के दिल का ख़ौफ़ हैं दुनिया की ज़ुल्मतें,
तू चाहता है चैन तो दिल में जला चेराग़्॥
ख़जर तले भी बुझ न सकी लौ चेराग़ की,
नैज़े की नोक पर भी नुमायाँ रहा चेराग़्॥
ज़र्रात की फ़सीलों पे बिखरी हैं आयतें,
इस रेगज़ारे-गर्म पे हैं जा-ब-जा चेराग़॥
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سکتے میں سب تھے اور بھبکتا رہا چراغ
تاریکیاں سی پھیل گئیں گل ہوا چراغ
اس کی ہتھیلیوں سے نکلتی تھی روشنی
دست حنا تھا یا تھا کوئ با وفا چراغ
محسوس کر رہا تھا میں آھٹ سی بار بار
کچھ بھی نظرنہ آیا جو روشن کیا چراغ
انسان کے دل کا خوف ہیں دنیا کی ظلمتیں
توچا ہتا ہے چین تو دل میں جلا چراغ
خنجر تلے بھی کم نہ ہوئی لو چراغ کی
نیزے کی نوک پر بھی نمایاں رہا چراغ
ذرّات کی فصیلوں پہ بکھری ہیں آیتیں
اس ریگ زار گرم پہ ہیں جا بہ جا چراغ
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शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

प्रारंभिक सूफ़ी चिन्तन और हज़रत हसन बसरी [642-728ई0] / प्रो0 शैलेश ज़ैदी

सूफी चिंतन वस्तुतः उस अन्तःकीलित सत्य का उदघाटन है जिसमें जीवात्मा और परमात्मा की अंतरंगता के अनेक रहस्य गुम्फित हैं .सूफियों ने सामान्य रूप से ऐसे रहस्यों का स्रोत नबीश्री हज़रत मुहम्मद [स०] और हज़रत अली [र०] के व्यक्तित्त्व में निहित उस ज्ञान मंदाकिनी को स्वीकार किया है जिसका परिचय सामान्य व्यक्तियों को नहीं है.किन्तु सूफ़ियों का एक वर्ग ऐसा भी है जो इन रहस्यों को सीधे परमात्मा से प्राप्त करने का पक्षधर है. ऐसे सूफी हज़रत अबूबक्र [र०] और हज़रत उमर [र०] को अपना प्रेरणास्रोत मानते हैं .नबीश्री के निधन पर मुसलमानों को संबोधित करते हुए हज़रत अबूबक्र [र०] ने कहा था-"तुम में से जो लोग मुहम्मद [स0] की इबादत करते थे वो ये जान लें के मुहम्मद [स0] तो मर गए और तुम में से जो लोग अल्लाह की इबादत करते थे वो जान लें के अल्लाह को कभी मौत नहीं आती."[शेख अबू नस्र अब्दुल्लाह बिन अली अस्सिराज अत्तूसी,किताब अल्लम'अ फित्तसव्वुफ़, लीडेन,1914 0, पृ० 168]

ज़ाहिर है कि हज़रत अबूबक्र [र0] " तुम में से जो लोग मुहम्मद की इबादत करते थे" कहक्रर यह संकेत कर रहे हैं कि कुछ लोग नबीश्री [स0] की मुहब्बत को आधार बनाकर अल्लाह की उपासना करते थे, जिसकी अब आवश्यकता शेष नहीं रही क्योंकि नबीश्री [स0] का निधन हो गया। अब केवल उनके कार्यों का ही अनुकरण संभव है। शेख अबू नस्र सिराज तूसी ने हज़रत अबूबकर [र0] के इस वक्तव्य में तौहीद [अल्लाह को एक मानना] में उनका दृढ विश्वास देखने का प्रयास किया है[अल्लमअ, पृ0 168]

मुस्लिम धर्माचार्यों का विश्वास है कि परम सत्ता तक पहुंचने के दो मार्ग हैं।एक वही [फ़रिश्ते द्वारा प्राप्त ईश्वरीय आदेश] और नबियों की शिक्षा से होकर गुज़रता है और दूसरा आत्मज्ञान [इल्हाम] और औलिया [सिद्ध पुरुषों] की परम सत्तात्मक मनःस्थिति [सिद्धि] का है।[शाह वलीउल्लाह,अत्तफ़हीमातुल-इलाहीया,मदीना प्रेस बिजनौर,1936 0,पृ0 2/28]।शेख़ सिर्री सक़ती की अवधारणा है कि "क़यामत के दिन उम्मतों को उनके नबियों के नाम से पुकारा जायेगा, किन्तु जो परम सत्ता से अनन्य प्रेम करते हैं, उन्हें"ख़ुदा के दोस्तो" कहा जायेगा"[हाफ़िज़ ज़ैनुद्दीन एराक़ी, अहया'अ उलूमुद्दीन, मिस्र 1939 0, पृ0 4/288]। स्पष्ट है कि ऐसे लोग जो हद्दसनी क़ल्बी अन रबी अर्थात मेरे दिल ने मेरे रब की तरफ़ से मुझ से कहा.कहने के पक्ष में हैं, वो नबीश्री की मुहब्बत को इश्क़े-इलाही का आधार नहीं समझते। इब्ने जौज़ी ने ऐसे लोगों को काफ़िर कहा है [तल्बीसे-इब्लीस, क़ाहिरा 1950ई0, पृ0 374]। मुस्लिम धर्माचार्यों के एक वर्ग ने सूफ़ियों में 'क़ुतुब' की उपाधि से याद किये जाने वालों को हज़रत अबूबक्र[र0] का बदल सिद्ध करने का प्रयास किया है। अबूतालिब मक्की इस प्रसंग में लिखते हैं-"सिद्दीक़ और रसूल के बीच केवल नबूवत का अन्तर होता है।इस दृष्टि से क़ुतुब हज़रत अबूबक्र [र0] का बदल होता है [अबूतालिब मक्की,क़ूवतुलक़ुलूब, मिस्र 18840,पृ02/78] किन्तु इस प्रकार के वक्तव्य प्रतिष्ठित सूफ़ियों में लोकप्रिय नहीं हैं

द्रष्टव्य यह है कि लगभग सभी प्रख्यात और प्रतिष्ठित सूफ़ियों ने अपना सिल्सिला हज़रत अली [क] से स्वीकार किया है। सैयद मुज़फ़्फ़र अली शाह [मृ018810] जवाहरे-ग़ैबी में लिखते हैं-"हिन्द, ईरान, तूरान, तुर्किस्तान,बदख़्शाँ, बल्ख़, बुख़ारा,समरक़न्द, ख़ुरासन,इराक़, गीलान, बग़दाद, रूम और अरब के तमाम सूफ़ी अपने ज्ञानार्जन का सिल्सिला हज़रत अली से जोड़ते हैं [जवाहरे-ग़ैबी, नवल किशोर प्रेस, लखनऊ, 18980, पृ0 709] भारत के प्रसिद्ध चिश्ती और सुहरवर्दी सिल्सिले हज़रत हसन बसरी से होते हुए हज़रत अली तक पहुंचते हैं। क़ादिरी और कुबरवी सिलसिले क्रमशः इमाम जाफ़र सादिक़ और इमाम मूसी रज़ा से होते हुए हज़रत अली तक पहुंचते हैं।मौलाना जलालुद्दीन रूमी का निश्चित मत है कि मेराज [नबीश्री का उच्चतम आकाश पर अल्लाह की निशानियों के दर्शनार्थ बुलाया जाना] की रात हज़रत मुहम्मद[स0] ने हज़रत अली को दस हज़ार ऐसे रह्स्यों से परिचित कराया जिनका ज्ञान उन्हें अल्लाह ने दिया था [शम्सुद्दीन अफ़लाकी, मनाक़िबुल-आरिफ़ीन,आगरा 1897 ई0,पृ0359]।

निज़ाम यमनी ने हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के हवाले से लताइफ़े-अशरफ़ी में इस तथ्य से भी अवगत कराया है कि मेराज की रात नबीश्री हज़रत मुहम्मद [स0] को अल्लाह ने ख़िरक़ा[वह वस्त्र जिसे सूफ़ी पीर अपने सुयोग्य मुरीद को प्रदान करते हैं] प्रदान किया और ताकीद की कि इसे सुयोग्य पात्र को ही दें। नबीश्री ने कुछ विशिष्ट सहाबियों की परीक्षा ली और अन्त में हज़रत अली को सुयोग्य पाकर उन्हें वह ख़िरक़ा प्रदान किया [लताइफ़े-अशरफ़ी,नुसरतुलमताबे देहली,1295हि0,पृ0332]। शेख़ अबू नस्र सिराज तूसी क विचार है कि एक व्यक्ति ने हज़रत अली से पूछा कि ईमान क्या है? हज़रत अली ने उत्तर दिया कि ईमान चार स्तंभों पर टिका हुआ है सब्र[धैर्य], यक़ीन [विश्वास], अद्ल [न्याय] और जिहाद [धर्म-युद्ध]।उसके बाद उन्होंने उन चारो स्तंभों के दस-दस मुक़ामात [पड़ाव] का विवेचन किया। इस दृष्टि से हज़रत अली पहले सूफ़ी हैं जिन्होंने अहवाल [अधयात्म की मनःस्थितियाँ] और मुक़ामात पर बात की। उनका यह भी मानना है कि हज़रत अली पहले व्यक्ति हैं जिन्हें इल्मे लदुन्नी[ईश्वरीय गूढ़ रहस्यों का ज्ञान] प्रदान किया गया। इल्मे-लदुन्नी वह ज्ञान है जो विशेष रूप से हज़रत ख़िज़्र [अ0] को मिला था। [अल्लमअ-फ़ित्तसव्वुफ़, पृ0180 तथा 179]। हज़रत जुनैद बग़दादी का कहना है कि उसूल और आज़माइश के क्षणों में हज़रत अली ही हमारे पीर [शैख़]हैं। उल्लेख्य यह है कि शाह वलीउल्लाह ने भी यह स्वीकार किया है कि हज़रत अली इस उम्मत के पहले सूफ़ी हैं, पहले मजज़ूब [ब्रह्मलीनता की स्थिति में रहने वाला] और पहले आरिफ़ [ईश्वरज्ञ] हैं [फ़ुयूज़ुलहरमैन, मतबा अहमदी देहली,1308 हि0, पृ051]।

मौलाना जलालुद्दीन रूमी ने हज़रत अली से सबद्ध एक रिवायत बयान की है-एक दिन नबीश्री ने हज़रत अली को एकान्त में कुछ असरार[रहस्यों] से अवगत कराया और कहा कि इसे किसी अयोग्य पात्र से मत कहना। हज़रत अली ने महसूस किया कि इन रहस्यों के बोझ से वे दबे जा रहे हैं। तत्काल एक वीराने की ओर निकल गये ।एक कूएं में झुक कर उन्होंने एक-एक करके सारे रहस्य बयान किये। मस्ती की इस स्थिति में मुंह से कुछ झाग भी गिरा जो कूएं के पानी में शामिल हो गया । कुछ दिनों के बाद उसी कूएं से नय [बाँसुरी] का एक वृक्ष उगा जो बढकर बहुत ऊँचा हो गया। एक चरवाहे को किसी प्रकार इस की जानकारी हो गयी। उसने वृक्ष काटकर उसकी बाँसुरी बनाई जिसे बजा-बजा कर मवेशी चराता रहा। अरब के क़बीलों में उसकी बाँसुरी की मिठास की चर्चा होने लगी। जिस समय वह बाँसुरी बजाता, सारे पशु उसे घेर कर बैठ जाते। नबीश्री को जब इसकी सूचना मिली तो उन्होंने चरवाहे को बुलवाया और उसे बाँसुरी बजाने का आदेश दिया । उसकी बाँसुरी सुनकर सारे सहाबी वज्द में झूमने लगे। नबीश्री ने फ़रमाया कि इस बाँसुरी की लय में उन रहस्यों की व्याख्या है जिनसे मैं ने अली को एकान्त में अवगत कराया था[मनाक़िबुला-आरिफ़ीन, पृ0 289]। हो सकता है कि इस रिवायत का कोई ऐतिहास्क महत्त्व न हो और यह मौलाना रूमी की मात्र कल्पना हो। किन्तु मौलाना की मसनवी का प्रारंभ जिस प्रकार बाँसुरी की हिकायत से होता है, उससे यह निश्चित संकेत मिलता है कि हज़रत अली के प्रति मौलाना की अपार श्रद्धा इस रूहानी अनुभूति का आधार थी जिसका ज्ञान उन्हें एक रिवायत के रूप में हुआ।

सूफ़ियों ने हज़रत अली को जहाँ एक ओर सूफ़ी विचारधारा का मूल स्रोत माना है वहीं उन्हें ख़िलाफ़ते-बातिनी [रूहानी ख़लीफ़ा] का अधिकारी भी स्वीकार किया है। हज़रत बन्दानवाज़ गेसू दराज़ की इस प्रसंग में स्पष्ट अवधारणा है- ख़िलाफ़त दो प्रकार की है, ख़िलाफ़ते कुबरा [विराट] और ख़िलाफ़ते- सुग़रा [लघु]।ख़िलाफ़ते कुबरा बातिनी [आन्तरिक अर्थात रूहानी] ख़िलाफ़त है और ख़िलाफ़ते-सुग़रा ज़ाहिरी [व्यक्त अर्थात भौतिक]। ख़िलाफ़ते कुबरा को उम्मत ने एकमत से [ब-इज्माए-उम्मत] हज़रत अली के लिए विशिष्ट माना है।[ सैयद मुहम्मद अकबर हुसैनी, जवामेउल्किलम [मल्फ़ूज़ात व इरशादात ख़्वाजा बन्दानवाज़ गेसूदराज़],मतबा इन्तेज़ामी कानपूर 1356 हि0,पृ0 98 तथा अब्दुर्रहमान चिश्ती, मिरातुल-असरार,पाण्डुलिपि दारुल-उलूम नदवतुल-उलेमा लखनऊ,पृ0 1/17]। अबू नईम इस्बहानी ने हुलयतुल-औलिया में हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ के हवाले से लिखा है कि जब उनसे पूछा गया कि एक आम सुन्नी और एक सूफ़ी में क्या अन्तर है तो उन्होंने कहा कि जिसने रसूल [स0] की ज़ाहिरी ज़िन्दगी की रोशनी में ज़िन्दगी बसर की वह सुन्नी है और जिसने रसूल [स0] के बातिन के मुताबिक़ ज़िन्दगी गुज़ारी वह सूफ़ी है [हुलयतुल-औलिया,दारुलकिताब बैरूत,1980 ई0,पृ0 1/20]। सुन्नी मुस्लिम शरीयताचार्य और मुहद्दिस बातिनी ख़िलाफ़त या रसूल [स0] की बातिनी ज़िन्दगी के पक्ष में नहीं हैं और इल्मे-बातिन को सूफ़ियों की मात्र कल्पना समझते हैं। फलस्वरूप सूफ़ियों की बहुत सी बातें उनकी दृष्टि में अविश्वसनीय हैं। यह स्वाभाविक भी है। ईश्वर के गुप्त रहस्यों का ज्ञान रखने वालों की बातें शरीयताचार्यों की समझ से बाहर होने पर आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। फिर भी शेख़ मुहीउद्दिन इब्ने अरबी [अल फ़ुतूहात-अल्मक्किया, मिस्र 1329 हि0, 2/254],शेख़ अबू नस्र सिराज तूसी [अल्लमअ, पृ0 457],शेख़ बायज़ीद बस्तामी [जवामेउलकिलम, पृ0254-273] और तमाम प्रतिष्ठित सूफ़िया इल्मे बातिन में पूर्ण विश्वास रखते हैं। हज़रत अली के इल्मे बातिनी का अनुमान इस बात से भी किया जा सकता है कि हज़रत उमर [र0] के सामने जब भी ऐसी कोई समस्या आती थी जिसका हल उनकी समझ से बाहर होता तो बग़ैर झिझक के हज़रत अली को याद करते।

ख़्वाजा बन्दानवाज़ गेसूदराज़ ने इस प्रसग में एक रिवायत बयान की है। एक बार चार यहूदी हज़रत उमर [र0] के पास आये और कहा के आप के नबी [स0] दुनिया से रेहलत कर गये। आप ख़लीफ़ा हैं। हम कुछ प्रश्न आप से पूछेंगे, अगर आप ने सही जवाब दिये तो हम मान लेंगे कि आप का दीन सच्चा है और अगर आप नहीं बता सके तो इस्लाम एक झूठा दीन है। हज़रत उमर [र0] ने कहा पूछ लो। उन्होंने ये प्रश्न पूछे-* दोज़ख़ के दर्वाज़े का ताला क्या है और उसकी कुंजी क्या है? * जन्नत के दर्वाज़े का ताला क्या है और उसकी कुंजी क्या है? * कौन जीवित रह्ते हुए क़ब्र में था और उसकी क़ब्र उसे लिये-लिये फिरती रही? हज़रत उमर [र0] किसी भी प्रश्न का उत्तर न दे सके और कहा के अगर उमर [र0] को कुछ बातें मालूम नहीं हैं तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? यहूदियों ने मज़ाक़ उड़ाना शुरू किया। कुछ लोगों ने दौड़कर इसकी सूचना हज़रत अली को दी और कहा के इस्लाम ख़तरे में है। हज़रत अली ने तत्काल नबीश्री [स0] की क़मीस पहनी, उनकी पगड़ी सिर पर रखी और आकर हज़रत उमर के पहलू में बैठ गये। यहूदियों से कहा पूछ लो क्या पूछना चाहते हो। नबीश्री ने मुझपर इल्म के हज़ार दर्वाज़े और हर दर्वाज़े से हज़ार दर्वाज़े खोले हैं। प्रश्नों का सिल्सिला शुरू हुआ-

यहूदी* दोज़ख़ के दर्वाज़े का ताला क्या है ?

अली * अल्लाह से इतर किसी को उपास्य न मनना और मुहम्मद को रसूलल्लाह [स0] स्वीकार करना दोज़ख़ के दर्वाज़े का ताला है।

यहूदी* इस ताले की कुंजी क्या है ?

अली * किसी को अल्लाह का शरीक ठहराना इस दर्वाज़े की कुंजी है।

यहूदी* जन्नत के दर्वाज़े का ताला क्या है ?

अली * किसी को अल्लह का शरीक ठहराना जन्नत के दर्वाज़े का ताला है।

यहूदि* इस ताले की कुंजी क्या है ?

अली * अल्लाह से इतर किसी को उपास्य न मनना और मुहम्मद को रसूलल्लाह [स0] स्वीकार करना इस दर्वाज़े की कुंजी है।

यहूदी* कौन जीवित रह्ते हुए क़ब्र में था और उसकी क़ब्र उसे लिये-लिये फिरती रही?

अली * वो हज़रत यूनुस अलैहिस्सलाम थे जो मछली के पेट में थे और मछली चलती फिरती थि। [जवामेउलकिल्म, पृ0 254-255]।

नबीश्री की ज़िन्दगी में सहाबी का पद इतना उच्च माना जाता था कि उसके समक्ष सूफ़ी या ज़ुहाद जैसे शब्द नहीं टिक सकते थे। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उस समय तसव्वुफ़ की कोई कल्पना नहीं थी। स्वयं नबीश्री और हज़रत अली का जीवन अधयात्म की दृष्टि से आदर्श था। आधुनिक विद्वान डी0 बी0मैकडान्ल्ड का विचार है कि नबूवत प्राप्त होने से पूर्व नबीश्री [स0] एक सूफ़ी थे [डेवलपमेन्ट आफ़ मुस्लिम थियालोजी, न्यूयार्क 1903 पृ0227]। नबीश्री के जीवन काल में भी हज़रत उवैस क़रनी को,जिन्होंने नबीश्री के कभी दर्शन नहीं किये थे और हज़रत सलमान फ़ारसी को सूफ़ी की श्रेणी में रखा जाता है [हुलयतुल-औलिया,पृ01/185, तबक़ात इब्ने साद 4/53, अलअसाबा फ़ी तमीज़ुस्सहाबा,पृ03/141]। यह भी कहा जात है कि ये लोग पेवन्द लगे हुए वस्त्र पहनते थे[कश्फ़लमह्जूब, पृ038]। कुछ सूफ़ियों की यह भी मान्यता है कि नबीश्री ने हज़रत ओवैस क़रनी के लिए ख़िरक़ा भेजा था[लताइफ़े-अशरफ़ी, पृ0 1/323]। यह भी कहा जाता है कि नबीश्री का ख़िरक़ा जो उनकी कमली थी, हज़रत उमर [र0] या हज़रत अली ने अपनी ख़िलाफ़त के दौर में हज़रत ओवैस क़रनी को नबीश्री की वसीयत के अनुरूप पहुंचाया था [सफ़ीनतुल-औलिया, पृ030]। मुल्ला अली क़ारी ने यद्यपि इस रिवायत का ख्ण्डन किया है [अलमौज़ूआत-अलकबीर,पृ055] किन्तु हसनुज़्ज़माँ ने क़ारी से अपनी असहमति व्यक्त करते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा है-मैदाने-अरफ़ात में हज़रत उमर[र0] ने हज़रत अली [र0] की मौजूदगी में हज़रत ओवैस क़रनी [र0] को वह क़मीस पहनायी थी जो आँ हज़रत [स0] ने अता फ़रमाई थी और हज़रत अली [र0] ने सिफ़्फ़ीन के मौक़े पर हज़रत ओवैस क़रनी को वह रिदा[चादर] ओढ़ाई जो उन्होंने हुज़ूर [स0] से प्रप्त की थी [ मिरक़ातुल-मफ़ातीह 1/313]। हज़रत ओवैस क़रनी सिफ़्फ़ीन के युद्ध में हज़रत अली की ओर से युद्ध करते हुए शहीद हुए।

सूफ़ी शब्द का प्रयोग पहली बार जिन महात्मा के लिए किया गया वो अबूहाशिम कूफ़ी [निधन 150 हि-] थे [जामी,नफ़हातुल-उन्स,कानपूर 1893, पृ022]। उनका नाम अहमद और उपाधि अबूहाशिम थी और अपने जीवन काल में सूफ़ि के नाम से प्रसिद्ध थे[हुलयतुल-औलिया,पृ0 10/255]।इस प्रसग में डा0 ज़की नजीब ने जाबिर बिन हयान का नाम भी लिया है । अबूहाशिम और जाबिर बिन हयान समकालीन थे[डा0 ज़की नजीब,जाबिर बिन हयान, मतबूआ क़ाहेरा 1981, पृ0 16] अबूहाशिम की स्पष्ट अवधारणा थी कि मनुष्य को उसका घमन्ड और तकब्बुर नष्ट कर देता है। वो कहते थे कि दिल से तकब्बुर को निकालने की तुलना में सूई से पहाड़ खोदना अधिक आसान है [हुलयतुल-औलिया, 10/255]। किन्तु आगे चलकर जो मान्यता हज़रत हसन बसरी और हज़रत राबिआ बसरी को मिली वो प्रारंभिक सूफ़ियों में किसी के हिस्से में नहीं आयी।

हज़रत हसन बसरी का जन्म मदीने में 642 ई0 में हुआ। उनकी वालिदा [माँ] का नाम ख़ैरा था,जो उम्मुलमोमिनीन हज़रत उम्मे सलमा की बाँदी थीं और पिता यासर, ज़ैद इब्ने साबित के आज़ाद कर्दा ग़ुलाम थे। ख़ैरा के यहाँ जब उम्मुलमोमिनीन ने बेटे के जन्म की ख़बर सुनी तो बहुत खुश हुईं और बच्चे को देखने के बाद माँ की ख़्वाहिश पर उसका नाम हसन रखा जो आगे चल कर बहुत बड़े आलिम और सूफ़ी हुए और हज़रत हसन बसरी के नाम से जाने गये। चौदह-पद्रह वर्ष की अवस्था तक हज़रत हसन बसरी मदीने में ही रहे और उम्मुल्मोमिनीन हज़रत उम्मे-सलमा ने उनकी तरबियत का विशेष ख़याल रखा।

चिश्तिया और सुहरवर्दिया सूफ़ियों की अवधारणा है कि इल्मे बातिन जिसे ख़िरक़ा पहनाने की रस्म के रूप में भी स्वीकार किया जाता है हज़रत हसन बसरी को हज़रत अली से प्राप्त हुआ। कुछ इस्लामी आचार्यों का विचार है कि हज़रत जुनैद से पहले ख़िरक़ा पहनाने का रिवाज नहीं था [नफ़हातुल-उन्स; पृ0366, सियरुल-औलिया, पृ0354]। किन्तु अधिकतर सूफ़ी चिन्तक प्रमाणों के साथ इस मत का खण्डन करते हैं। उनकी निश्चित अवधारणा है कि नबीश्री ने हज़रत अली को और हज़रत अली ने हज़रत हसन बसरी और हज़रत कुमैल इब्ने ज़ियाद को ख़िरक़ा पहनाया था [जवामेउलकिलम, पृ0253 तथा नफ़हातुल-उन्स, पृ0 366]। नक़्शबन्दी सिलसिले के आलिम शाह वली उल्लाह ने जब हज़रत अली से हज़रत हसन बसरी की मुलाक़ात में स्न्देह व्यक्त किया और उसपर प्रश्नचिह्न लगाये तो चिश्तिया सिल्सिले के सूफ़ियों ने इसका जमकर ख्ण्डन किया।

इस प्रसंग में शेख़ फ़ख़्रुद्दीन निज़ामी चिश्ती देहलवी की पुस्तक फ़ख़्रुलहसन विशेष उल्लेख्य है। इसमें विभिन्न प्रामाणिक रिवायतों से हज़रत अली और हज़रत हसन बसरी की मुलाक़ात पर प्रकाश डाला गया है। इस पुस्तक की चिश्ती सिल्सिले में लोकप्रियता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि मौलाना हसनुज़्ज़माँ हैदराबादी ने अरबी भाषा में इसकी व्याख्या अल-क़ौलल्मुस्तह्सन फ़ी फ़ख़्रुलहसन के नाम से की और इसका उर्दू अनुवाद मौलाना अबुलहसनात अब्दुलग़फ़ूर दानापुरी ने अली हसन शीर्षक से किया। इन पुस्तकों का खण्डन अनेक इस्लामी आचार्यों ने करना चाहा, किन्तु किसी को सफलता नहीं मिली।

यह अवधारणा कि हज़रत हसन बसरी की मुलाक़ात किसी भी बदरी [जिसने जंगे बदर में हिस्सा लिया हो] सहाबी से नहीं हुई, सर्वथा निराधार है। हज़रत हसन बसरी जब 656-657 ई0 में सपरिवार मदीने से बसरा आकर बस गये, उस समय बसरा इस्लामी ज्ञान का सबसे बड़ा केन्द्र माना जाता था और वहाँ की मुख्य मस्जिद सहाबा तथा ताबिईन से भरी रहती थी। मदीने में हज़रत उम्मे सलमा की विशेष कृपा के कारण हज़रत हसन बसरी को हज़रत अली, हज़रत अबूज़र ग़िफ़ारी, हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने उमर, हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास,हज़रत अबू मूसा अशरी,हज़रत अनस इब्ने मलिक इत्यादि से हदीसें सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका था। यदि शाह वलीउल्लाह की यह बात मान भी ली जाय कि हज़रत अली ने जब मदीने से कूफ़े का सफ़र अख्तियार किया उस समय हज़रत हसन बसरी की उम्र अधिक से अधिक चौदह-पंद्रह वर्ष थी और इतनी कम अवस्था में हज़रत अली से ज्ञान प्राप्त करना कोई अर्थ नहीं रखता,तो इस तथ्य पर विचार अवश्य करना चाहिए कि इमाम शाफ़ई पन्द्रह वर्ष की अवस्था में मुफ़्ती घोषित हो चुके थे। फिर चौदह पन्द्रह वर्ष की अवस्था तक हज़रत अली से हज़रत हसन बसरी का ज्ञान प्राप्त करना आश्चर्य का विषय क्यों है। सूफ़ियों की यह भी अवधारणा है कि हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास से हज़रत हसन बसरी ने तफ़सीर और तजवीद की शिक्षा प्रप्त की [www.inter-islam.org/biographies/hasanbasri].। बसरे में यह ज्ञान और भी समृद्ध हुआ।

हज़रत हसन बसरी के व्याख्यानों में बड़ी संख्या में विद्वज्जन एकत्र होते थे। हज़रत राबिआ बसरी भी नियमित रूप से इन व्याख्यानों से लाभान्वित होती थीं। यदि किसी दिन हज़रत राबिआ बसरी नहीं आ पाती थीं, हज़रत हसन बसरी व्याख्यान नहीं देते थे। लोगों ने इसका कारण पूछा । हज़रत हसन बसरी ने उत्तर दिया कि वह शर्बत जो उस बर्तन में रखा गया हो जो हाथी के लिए हो उसे च्यूंटी के बर्तन में नहीं उन्डेला जा सकता। एक बार लोगों ने प्रश्न किया कि इस्लाम क्या है और मुस्लिम कौन है ? हज़रत बसरी ने उत्तर दिया। इस्लाम किताब में बन्द है और मुस्लिम मक़बरे में। इसी प्रकार एक बार कुछ लोगों ने प्रश्न किया कि दुनिया [सांसारिकता] और आखिरत [पर्लोक] क्या है ? हज़रत हसन बसरी ने उततर दिया दुनिया और आख़िरत की मिसाल पूर्व और पश्चिम जैसी है।यदि तुम एक की दिशा में बढते जाओगे तो दूसरे से सहज ही दूर हो जाओगे।

तसव्वुफ़ की ओर पूरी तरह आने से पूर्व हज़रत हसन बसरी पर कुछ घटनाओं का विशेष प्रभाव पड़ा। एक बार एक शराबी डगमगाता चल रहा था। सामने गडढा था। हज़रत हसन बसरी ने उसे सतर्क किया। उसने उत्तर दिया हसन यदि मैं गिरूंगा तो केवल मेरे शरीर को चोट पहुंचेगी। तुम अपना विशेष ख़याल रखो, इसलिए कि यदि तुम गिर गये तो तुम्हारी सारी इबादत ख़ाक में मिल जायेगी।एक बच्चा एक दिन एक रौशन चिराग़ ले कर चल रहा था। हज़रत हसन बसरी ने उस से कहा ये रोशनी तुम कहाँ से लायेबच्चे ने चिराग़ बुझा दिया और प्रश्न किया अब मुझे आप बताइए कि रोशनी कहाँ चली गयी।एक और घटना जो बज़ाहिर बहुत साधारण सी है, लेकिन हज़रत हसन बसरी के लिए महत्त्व्पूर्ण बन गयी। एक सुन्दर युवती गली से गुज़र रही थी। उसका सर खुला हुआ था और वह अपने पति के ख़िलाफ़ कुछ बड़बड़ा रही थी। हज़रत हसन बसरी ने उससे सर ढकने के लिए कहा। उसने पहले तो आभार व्यक्त किया फिर कहा। हसन ये बताओ कि मैं तो अपने पति की मुहब्बत में ऐसी दिवानी हूं कि मुझे ये भी होश नहीं कि मेरा सर खुला हुआ है, यदि तुम न बताते तो मुझे इसका ख़याल भी न रहता । पर मुझे आश्चर्य है कि तुम अल्लाह से मुहब्बत के दावे करते हो फिर भी तुम्हें इतना होश रहता है कि तुम हर वो चीज़ जो तुम्हारे रास्ते में आती है उसके प्रति चौकन्ने रह्ते हो। यह अल्लाह से तुम्हारी किस प्रकार की मुहब्बत है ?”[sufiesaints.s5.com]

जिस ज़माने में हज़रत हसन बसरी बसरे में मिम्बर से व्याख्यान दिया करते थे कुछ क़ुस्सास [कथावाचक] भी मिम्बरों से व्यख्यान देने लगे । हज़रत अली जब बसरा तशरीफ़ लाये तो उन्होंने सभी के मिम्बर तुड़वा दिये। केवल हज़रत हसन बसरी का मिम्बर उनकी अनुमति से सुरक्षित रह गया। हज़रत अली से हज़रत हसन बसरी को ये इजाज़त मिलना कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।[जवमेउल-किलम, पृ0254]।

हज़रत हसन बसरी अक्सर कहा करते थे कि लोग उस सांसारिकता के पक्षधर क्यों हैं जिसका अन्त क़ब्र है। ऐसा कभी नहीं हुआ किहज़रत हसन बसरी की आँखे नम न पायी गयी हों। आप से निरन्तर रोते रहने क कारण पूछा गया तो आपने उत्तर दिया कि मैं उस दिन के लिए रोता हूं जिस दिन मुझसे कोई ऐसी ख़ता हो गयी हो कि अल्लाह प्रश्न करे और कह दे कि हसन तुम हमारी बारगाह में बैठने के योग्य नहीं हो। हज़रत हसन बसरी का कहना था कि इस संसार में नफ़्स [अहं] से अधिक सरकश कोई जानवर नहीं जो सख़्ती से लगाम के लायक़ हो। उनकी अवधारणा थी कि बुद्धिमान बोलने से पहले सोचता है और मूर्ख बोलने के बाद्। उनका दृढ विश्वास था कि झूठा व्यक्ति सबसे अधिक नुक़्सान ख़ुद को पहुंचाता है। उनका कहना था कि इस ससार को अपनी सवारि समझो और उसपर नियंत्रण रखो।यदि तुम इस पर सवार हुए तो ये तुम्हें मज़िल तक ले जायेगी और यदि तुमंने इसे ख़ुद पर सवार कर लिया तो तुम्हारे हिस्से में केवल ज़िल्लत है।

हज़रत हसन बसरी का व्यक्तित्त्व एक ऐसा प्रकाश पुंज है जिस से हर कोई रोशनी प्राप्त कर सकता है। आपका निधन छियासी वर्ष की अवस्था में बसरे में 728ई0 में हुआ।

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सफ़र में अड़चनें आती रहीं क़दम न रुके / سفر میں اڑ چنیں آتی رہیں قدم نہ رکے

सफ़र में अड़चनें आती रहीं क़दम न रुके ।
बग़ैर मंज़िले-जानाँ कहीं भी हम न रुके ॥
मज़ा तो जब है के उस कैफ़ियत से हम गुज़रें,
के लिखते जायें तेरी मद'ह ये क़लम न रुके॥
हमारे हौसलए-ज़ीस्त को शिकस्त नहीं,
बला से सिल्सिलए- हसरते- सितम न रुके॥
ग़ज़ल में लफ़्ज़ वो मानी हों मिस्ले-आबे-रवाँ,
के सौतियात का पुरलुत्फ़ ज़ीरो-बम न रुके॥
उसी की यादों में हर लहज़ा डूबती जाये,
वो आ भी जाये तो ये सैले-चश्मे-नम न रुके॥
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سفر میں اڑ چنیں آتی رہیں قدم نہ رکے
بغیر منزل جاناں کہیں بھی ہم نہ رکے
مزہ تو جب ہے کہ اس کیفیت سے ہم گزریں
کہ لکھتے جائیں تری مدح یہ قلم نہ رکے
ہمارے حوصلہ زیست کوشکست نہیں
بلا سے سلسلہ حسرت ستم نہ رکے
غزل میں لفظ و معنی ہوں مثل آب رواں
کہ صوتیات کا پر لطف زیر و بم نہ رکے
اسی کی یادوں میں ہر لحظہ ڈوبتی جائیں
وہ آ بھی جاےء تو یہ سیل چشم نم نہ رکے
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बुधवार, 7 अप्रैल 2010

फ़िक्रे-बूदोबाश है ज़जीरे-इश्क़ / فکر بود و باش ہے زنجیر عشق

फ़िक्रे-बूदोबाश है ज़जीरे-इश्क़ ।
नक़्श है दीवार पर तह्रीरे-इश्क़्॥1॥
भर गयी बुनियाद संगे-हिज्र से,
रफ़्ता-रफ़्ता हो गयी तामीरे-इश्क़्॥2॥
रंगो-रोग़न था फ़क़त दिल का लहू,
बेश-क़ीमत थी बहोत तस्वीरे-इश्क़्॥3॥
देखता है रख के अपने रू-ब-रू,
शौक़ से वो मंसबे ताबीरे-इश्क़॥4॥
लोग कह देते हैं जिसको बर्क़े-तूर,
दर हक़ीक़त है वही तनवीरे-इश्क़्॥5॥
बाए-बिस्मिल्लाह से वन्नास तक,
कुछ नहीं जुज़ मंबए-तफ़सीरे-इश्क़॥6॥
सुन्नते-ख़ैरुलबशर तल्क़ीने-हक़,
सुन्नते-मुश्किलकुशा तौक़ीरे-इश्क़॥7॥
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فکر بود و باش ہے زنجیر عشق
نقش ہے دیوار پر تحریر عشق
بھر گئی بنیاد سنگ ہجر سے
رفتہ رفتہ ہو گئی تعمیر عشق
رنگ و روغن تھا فقط دل کا لہو
بیش قیمت تھی بہت تصویر عشق
دیکھتا ہے رکھ کے اپنے رو بہ رو
شوق سے وہ منصب تعبیر عشق
لوگ کہہ دیتے ہیں جس کو برق طور
در حقیقت ہے وہی تنویر عشق
باے بسم الله سے والنّاس تک
کچھ نہیں جزمنبع تفسیر عشق
سنّت خیر البشرتلقین حق
سنّت مشکل کشا توقیر عشق
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नक्सलीयत की ये ख़ूँरेज़ियाँ क्या चाहती हैं

नक्सलीयत की ये ख़ूँरेज़ियाँ क्या चाहती हैं।
क्यों बदलना ये सियासत की फ़िज़ा चाहती हैं॥
अब तो अख़बार के सफ़हों से टपकता है लहू,
ख़ुन में डूबी इबारात फ़ना चाहती हैं॥
आ के शायर भी सरे बज़्म रचा करते हैं स्वाँग,
महफ़िलें आज सुख़नवर से अदा चाहती हैं॥
फ़िकरें ऐसी हैं के अंजाम से है बे-ख़बरी,
ख़्वाहिशें ऐसी के जीने का मज़ा चाहती हैं॥
सर उठाती हुई ख़ुशरंग नयी तहज़ीबें,
अपनी पहचान बहरहाल जुदा चाहतीहैं॥
वक़्त की धड़कनें कुछ और ही देती हैं पता,
बेवफ़ा हो के भी तस्दीक़े-वफ़ा चाहती हैं॥
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نکسلیت کی یہ خوں ریزیاں کیا چاہتی ہیں
کیوں بدلنا یہ سیاست کی فضاء چاھتی ہیں
اب تو اخبار کے صفحوں سے ٹپکتا ہے لہو
خون میں ڈوبی عبارات فنا چاہتی ہیں
آ کے شاعر بھی سر بزم رچا کرتے ہیں سوانگ
محفلیں آج سخنور سے ادا چاہتی ہیں
فکریں ایسی ہیں کہ انجام سے ہے بے خبری
خواہشیں ایسی کہ جینے کا مزا چاہتی ہیں
سر اٹھاتی ہوئی خوش رنگ نئی تہذیبیں
اپنی پہچان بہرحال جدا چاہتی ہیں
وقت کی دھڑکنیں کچھ اور ہی دیتی ہیں پتہ
بے وفا ہو کے بھی تصدیق وفا چاہتی ہیں
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मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

घने कुहरे में बीनाई भी हो जाती है लायानी / گھنے کہرے میں بِینائی بھی ہو جاتی ہے لا یعنی

घने कुहरे में बीनाई भी हो जाती है लायानी।
मुसीबत में पज़ीराई भी हो जाती है लायानी॥
निशाने-मंज़िले-जानाँ की जानिब जब मैं बढ़ता हूं,
मेरे नज़दीक रुस्वाई भी हो जाती है लायानी॥
फ़रावानी अगर दौलत की हो फिर सोचना क्या है,
ज़माना-सोज़ महँगाई भी हो जाती है लायानी॥
अगर मक़्सद न हो पेशे-नज़र, हर जेह्द ला-हासिल,
हमारी कोह-पैमाई भी हो जाती है लायानी॥
जहाँ तश्नालबी ख़ंजर की ज़द पर मुस्कुराती हो,
वहाँ ज़ख़्मों की गहराई भी हो जाती है लायानी॥
हमारे सामने ले देख ले ऐ क़ूवते-बातिल,
तेरी मग़रूर अँगड़ाई भी हो जाती है लायानी॥
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گھنے کہرے میں بِینائی بھی ہو جاتی ہے لا یعنی
مصیبت میں پزیرائی بھی ہو جاتی ہے لا یعنی
نشان منزل جاناں کی جانب جب میں بڑھتا ہوں
مرے نزدیک رسوائی بھی ہو جاتی ہے لا یعنی
فراوانی اگر دولت کی ہو پھر سوچنا کیا ہے
زمانہ سوز مہنگا ئی بھی ہو جاتی ہے لا یعنی
اگرمقصد نہ ہو پیش نظرہر جہد لا حاصل
ہماری کوہ پیمائی بھی ہو جاتی ہے لا یعنی
جہاں تشنہ لبی خنجرکی زد پرمسکراتی ہو
وہاں زخموں کی گہرائی بھی ہو جاتی ہے لا یعنی
ہمارے سامنے لے دیکھ لے اے قوت باطل
تری مغرور انگڑائی بھی ہو جاتی ہے لا یعنی
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बीनाई=देखने की शक्ति ।लायानी=अर्थहीन ।पज़ीराई=प्रशंसात्मक स्वीकृति ।निशाने-मज़िले-जानाँ=प्रियतम की मंज़िल के निशान ।रुस्वाई=बदनामी ।फ़रावानी=बहुतायत ।ज़माना-सोज़=ज़माने को जला देने वाली ।जेह्द=प्रयास ।लाहासिल=व्यर्थ ।कोह-पैमाई=पहाड़ों को नापना ।तश्नालबी=प्यास ।क़ूवते-बातिल=असत्य शक्ति ।मग़रूर=घमण्डी ।

भीड़ में रास्ता बनाते रहे / بھیڑ میں راستہ بناتے رھے

भीड़ में रास्ता बनाते रहे।
हम भी तक़दीर आज़माते रहे॥
जान अपनी बचा के ख़ुश थे बहोत,
जाँनिसारी के गीत गाते रहे॥
सुल्ह करना जिन्हें गवारा न था,
जंग होने पे मुँह छुपाते रहे॥
आज किस शान से हैं कुर्सी नशीं,
लोग जिनका मज़ाक़ उड़ाते रहे॥
कैसी जज़बातियत है मज़हब में,
ख़ुब लोगों को वरग़लाते रहे॥
उसके घर से उठा किये शोले,
और हम क़हक़हे लगाते रहे॥
सच तो ये है के दिल ही जानता है,
किस तरह दोस्ती निभाते रहे॥
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بھیڑ میں راستہ بناتے رھے
ہم بھی تقدیر آزماتے رھے
جان اپنی بچا کے خوش تھے بہت
جاں نثاری کے گیت گاتے رھے
صلح کرنا جنھیں گوارہ نہ تھا
جنگ ہونے پہ منہ چھپاتے رھے
آج کس شان سے ہیں کرسی نشین
لوگ جن کا مذاق اڑاتے رھے
کِسی جذباتیت ہے مذھب میں
خوب لوگوں کو ورغلاتے رھے
اس کے گھر سے اٹھا کۓ شعلے
اور ہم قہقہے لگاتے رھے
سچ تو یہ ہے کہ دل ہی جانتا ہے
کس طرح دوستی نبھاتے رھے
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सोमवार, 5 अप्रैल 2010

सच तो ये है के हुए पल के जवाँ जन्नत में॥


सच तो ये है के हुए पल के जवाँ जन्नत में॥
अब भी मिल जायेंगे पैरों के निशाँ जन्नत में।

अपनी ख़िल्क़त से ही होते हैं फ़रिश्ते मासूम,
एक ही तर्ज़ पे जीते हैं वहाँ जन्नत में॥

मैं के इन्सान हू रखता हूं ज़मीनों का ख़मीर,
टिकते हैं साहिबे इदराक कहाँ जन्नत में॥

हमनशीनी है तेरी जन्नतो-दोज़ख से अलग,
कौन समझेगा वहाँ मेरी ज़ुबाँ जन्नत में॥

हूरो-ग़िल्मान बराबर तो नहीं हो सकते,
यानी है मामलए-सूदो-ज़ियाँ जन्नत में॥

तू यहाँ रहता है हर लमहा रगे-जाँ के क़रीब,
क्यों मैं तामीर करूं अपना मकाँ जन्नत में॥
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سچ تو یہ ہے کہ ہوۓ پل کے جواں جنت میں
اب بھی مل جائیں گے پیروں کے نشان جنت میں
اپنی خلقت ہی سے ہوتے ہیں فرشتے معصوم
ایک ہی طرز پہ جیتے ہیں وہاں جنت میں
میں کہ انسان ہوں رکھتا ہوں زمینوں کا خمیر
ٹکتے ہیں صاحب ادراک کہاں جنت میں
ہم نشینی ہے تری جنت و دوزخ سے الگ
کون سمجھے گا وہاں میری زباں جنت میں
حور و غلمان برابر تو نہیں ہو سکتے
یعنی ہے معاملہ سو د و زیاں جنت میں
تو یہاں رہتا ہے ہر لمحہ رگ جان کے قریب
کیوں میں تعمیر کروں اپنا مکاں جنت میں
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जन्नत=स्वर्ग । ख़िल्क़त=उत्पत्ति ।तर्ज़=ढंग ।ख़मीर=सत्त्व ।साहिबे-इदराक=समझ-बूझ वाले॥हमनशीनी=साथ उठना-बैठना ।हूरो-ग़िल्मान=सुन्दरियाँ और खूबसूरत लड़के । मामलए-सूदो-ज़ियाँ=घाटे और फ़ायदे मामला। रगे-जाँ=हृदय में जाने वाली रक्त की नली ।

हम ने तनहाई को नेमत समझा

हम ने तनहाई को नेमत समझा ।
हिज्र को इश्क़ की दौलत समझा॥
तेरी क़ुरबत उसे मिलती कैसे,
जिसने ग़म को भी मुसीबत समझा॥
ज़ेरे ख़जर हुई लज़्ज़त महसूस,
मानिए-ज़ौक़े-शहादत समझा॥
जब तेरा ज़िक्र ज़ुबाँ पर आया,
हमने मफ़हूमे-इबादत समझा॥
तपते सेहरा में खिले लालओ-गुल,
दिल के टुकड़ों की मैँ क़ीमत समझा॥
सिर्फ़ सुनता रहा तेरी आवाज़,
दिल की धड़कन को तिलावत समझा॥
क़ैद ख़ानों के मनाज़िर देखे,
इसको भी तेरी मशीयत समझा॥
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ہم نے تنہائی کونعمت سمجھا
ہجر کو عشق کی دولت سمجھا
تیری قربت اسے ملتی کیسے
جس نے غم کو بھی مصیبت سمجھا
زیر خنجر ہوئی لذت محسوس
معنیئ ذوق شہادت سمجھا
جب ترا ذکر زباں پر آیا
ہم نے مفہوم عبادت سمجھا
تپتے صحرا میں کھلے لالہ و گل
دل کے ٹکڑوں کی میں قیمت سمجھا
صرف سنتا رہا تیری آواز
دل دھڑکنے کو تلا وت سمجھا
قید خانوں کے مناظر دیکھے
اس کو بھی تیری مشیت سمجھا
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बत्ने-मादर से ही बे-नूर हुआ था पैदा

बत्ने-मादर से ही बे-नूर हुआ था पैदा।
लोग कहते हैं के मजबूर हुआ था पदा॥

हक़ अगर कहता है कोई तो तहे-तेग़ करो,
जाने किस वक़्त ये दस्तूर हुआ था पैदा ॥

क़ल्बे-मूसा को भी शायद मेरा इरफ़ान न था,
मैं तजल्ली हूं लबे-तूर हुआ था पैदा॥

तू-ही-तू सिर्फ़ नज़र आया था मुझको हर सू,
जिस घड़ी ये दिले-रंजूर हुआ था पैदा॥

अर्श से देख के है तेरी ज़मीं कितनी बलन्द,
मैं तेरा हुस्न हूं मग़रूर हुआ था पैदा॥
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بطن مادر سے ہی بے نور ہوا تھا پیدا
لوگ کہتے ہیں کہ مجبور ہوا تھا پیدا
حق اگر کہتا ہے کوئی تو تھ تیغ کرو
جانے کس وقت یہ دستور ہوا تھا پیدا
قلب موسیٰ کو بھی شاید مرا عرفان نہ تھا
میں تجلی ہوں لب طور ہوا تھا پیدا
تو ہی تو صرف نظر آیا تھا مجھ کو ہر سو
جس گھڑی یہ دل رنجور ہوا تھا پیدا
عرش سے دیکھ کہ ہے تیری زمین کتنی بلند
میں ترا حسن ہوں مغرور ہوا تھا پیدا
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बत्ने-मादर=माँ के पेट । बेनूर=अंधा । हक़=सत्य । तहे-तेग़=तलवार के नीचे रखना/क़त्ल कर देना । क़ल्बे मूसा=मूसा के हृदय [हज़रत मूसा यहूदियों और मुसल्मानों के नबी हैं।तूर नामक पहाड़ पर उन्होंने अल्लाह को देखने की इच्छ व्यक्त की और जब वहा>ण एक प्रकाश फूटा [तजल्ली] तो वो उसे बर्दाश्त न कर सके और मूर्च्छित हो गये]। दिले-रजूर=दुखी हृदय । अर्श=अल्लाह का सिंहासन ।