गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

हिन्दी ग़ज़ल / शैलेश ज़ैदी

मैं कि था निःशब्द फिर भी कोई मुझमें था मुखर।
मेरे अन्तस में थी मेरी अपनी ही पीड़ा मुखर ॥
कल्पना मेरी बना लेती है आकृतियाँ कई,
रंग मैं जो भी भरूं रहता है वो मुखड़ा मुखर्॥
बस्तियाँ गोकुल की पल भर में बसा लेता हूं मैं,
कृष्ण , राधा, गोपियाँ हो जाते हैं सहसा मुखर्॥
मन में कोई भी महाभरत उभर आती है जब,
चेतना के मंच पर पाता हूं मैं गीता मुखर ॥
व्यावहारिक रूप संकल्पों को जब देता हूं मैं,
हो नहीं पाती मेरे मन में कोई दुविधा मुखर्॥
होती है नैराश्य में नीरव निशा की कालिमा,
रश्मियाँ सूरज की लेकर र्है सदा आशा मुखर्॥
घर की दीवारें सिमट कर घेर लेती हैं मुझे,
देखती हैं जब कि मुझ में है कोई विपदा मुखर्॥
कैसे कह दूं भीड़ में स्तब्ध सा रहता हूं मैं,
कैसे बतलाऊं कि है एकान्त में क्या क्या मुखर्॥
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बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

ख़ून के रिश्तों में अब कोई कशिश कैसे मिले

ख़ून के रिश्तों में अब कोई कशिश कैसे मिले।

लोग हैं सर्द बहोत दिल में तपिश कैसे मिले॥

दुश्मनी दौरे-सियासत की दिखावा है फ़क़त,

मस्लेहत पेशे-नज़र हो तो ख़लिश कैसे मिले॥

बर्क़-रफ़्तार शबो-रोज़ हैं, ठहराव कहाँ,

वज़अदारी-ओ-मुहब्बत की रविश कैसे मिले॥

किस ख़ता पर हैं लगाये गये उसपर इल्ज़ाम,

राज़ खुलता नहीं रूदादे-दबिश कैसे मिले ॥

साहबे-रुश्दो-कमालात कहाँ से लायें,

मकतबे-दानिशो-इरफ़ानो-अरिश कैसे मिले॥

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मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

घी और गुड़ के रोटी के पोपे लज़ीज़ थे

घी और गुड़ के रोटी के पोपे लज़ीज़ थे ।
हाथों से माँ खिलाए तो लुक़्मे लज़ीज़ थे॥

लह्जे में उसके होता था यूं प्यार का नमक,
अल्फ़ाज़ उसके लब पे जो आये, लज़ीज़ थे॥

चटख़ारे ले के सुनते थे हम देर रात तक,
माँ ने सुनाये जितने भी क़िस्से लज़ीज़ थे॥

करते थे हम शरारतें कुछ ऐसी चटपटी,
पड़ते थे गाल पर जो तमाचे लज़ीज़ थे॥

होती थी ख़ान्दानों में उल्फ़त की चाशनी,
आपस की इस मिठास के रिश्ते लज़ीज़ थे॥
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तुम्हारे दिल में हैं लेकिन शरीके-ग़म हैं वहाँ

तुम्हारे दिल में हैं लेकिन शरीके-ग़म हैं वहाँ ।
उपनिषदों में तलाशो हमें के हम हैं वहाँ ॥

बलंदियाँ वो जिन्हें पाने की तमम्ना है।
हमारे जैसों के कितने ही सर क़लम हैं वहाँ ॥

न तुम से पार कभी होगा इश्क़ का दरिया।
के तश्नालब कई गिर्दाबे-चश्मे-नम हैं वहाँ॥

वो जंगलात जहाँ क़ैस का बसेरा है,
वहाँ न जाना, हज़ारों ही पेचो-ख़म हैं वहाँ॥

तलाश जारी है सी मुर्ग़ की परिन्दों में,
ये जानते हुए ख़तरात दम-ब-दम हैं वहाँ॥

बशर के रिश्ते से मेराजे-अब्दहू हैं हम,
रुबूबियत है जहाँ मिस्ले-नूर ज़म हैं वहाँ॥

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

फ़िरऔन मिलते रहते हैं मूसा कहीं नहीं

फ़िरऔन मिलते रहते हैं मूसा कहीं नहीं ।
इज़हारे-हक़ की आज तमन्ना कहीं नहीं॥

छोटी बड़ी हैं कितनी महाभारतें यहाँ,
तीरों से छलनी भीष्म पितामा कहीं नहीं॥

दुर्योधनों के क़ब्ज़े में है द्रोपदी का हुस्न,
मुश्किल-कुशाई के लिए कान्हा कहीं नहीं॥


लैलाएं महमिलों में हैं तस्वीरे-इज़्तेराब,
खोया है जिसमें क़ैस वो सहरा कही नही॥

मिट जाये उसके और मेरे दर्मियाँ का फ़र्क़,
मेरी हयात में ये करिश्मा कहीं नहीं ॥
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फ़िरऔन=मिस्र का अहंकारी सम्राट जिस् ने ख़ुदाई का दावा किया।मूसा= मुसलमानों और ईसाइयों के नबी और यहूदियों के पथ-प्रदर्शक जिन्होंने फ़िरऔन का सर्वनाश किया।,इज़हारे-हक़=सत्य की अभिव्यक्ति । मुश्किलकुशाई=सकट दूर करना । महमिलों=ऊँट पर बाँधने की वह डोली जिसमें स्त्रियाँ बैठती हैं। क़ैस=मजनूं । सहरा=जगल ।

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

लौट कर आयी थी यूं मेरी दुआ की ख़ुश्बू

लौट कर आयी थी यूं मेरी दुआ की ख़ुश्बू ।

दिल को महसूस हुई उसकी सदा की ख़ुश्बू॥

रेग़ज़ारों में नज़र आया जमाले-रुख़े-यार,

कोहसारों में मिली रंगे-हिना की ख़ुश्बू॥

हम ने देखा है सराबों में लबे-आबे-हयात,

माँ की शफ़्क़त में है मरवाओ-सफ़ा की ख़ुश्बू॥

लज़्ज़ते-हुस्न की मुम्किन नहीं कोई भी मिसाल,

लज़्ज़ते-हुस्न में होती है बला की ख़ुश्बू॥

पलकें उठ जयें तो बेसाख़्ता बिजली सी गिरे,

पलकें झुक जायें तो भर जाये हया की ख़ुश्बू॥

हुस्ने-मग़रूर पे छा जाये मुहब्बत का ख़ुमार,

दामने-इश्क़ से यूं फूटे वफ़ा की ख़ुश्बू॥

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रेगज़ारों=मरुस्थलों, जमाले-रुखे-यार=महबूब का रूप-सौन्दर्य,

कोहसारों=पहाड़ों, रंगे-हिना=मेहदी का रग, लज़्ज़ते-हुस्न=सौन्दर्य का आस्वादन, बे-साख्ता=सहज,

हुस्ने-मगरूर=घमंडी सौन्दर्य,

नज़र में हर सम्त बस उसी की है जलवासाज़ी

नज़र में हर सम्त बस उसी की है जलवासाज़ी।
ये दुनिया इन्साँ की ज़िन्दगी की है जलवासाज़ी॥

फ़रेफ़्ता अपने हुस्न पर है वुजूद उसका,
निगारिशे-दोजहाँ, ख़ुदी की है जलवा साज़ी॥

तमाम अशया के सीनों से फूटते हैं नगमे,
किसी के हुस्ने-सुख़नवरी की है जलवासाज़ी॥

ख़याल-आरास्ता हैं नक़्शो-निगारे-ग़ालिब,
वो मीर हैं जिनमें सादगी की है जलवासाज़ी॥

सुनो ये आफ़ाक़-लब हक़ीक़त का है फ़साना,
उफ़क़-उफ़क़ साज़े-दिलबरी की है जलवासाज़ी॥
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हर सम्त=प्रत्येक दिशा, जलवसाज़ी=सौन्दर्यपूर्ण उपस्थिति, फ़रेफ़्ता=मुग्ध, वुजूद=अस्तित्त्व,अशया=वस्तुएं, हुस्ने-सुख़नवरी=काव्य-सौन्दर्य,ख़याल-आरास्ता=कल्पनासे सुसज्जित, नक़्शो-निगार=चित्रांकन, आफ़क़-लब-हक़ीक़त=विश्वमुखर सत्य,उफ़क़=क्षितिज, नायिकत्त्व-युक्त वाद्य

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

सुना है उसके शबो-रोज़ उससे पूछते हैं

सुना है उसके शबो-रोज़ उससे पूछते हैं।
जहाँ में उसके हैं क्या क्या करिश्मे पूछते हैं॥

सुना है उसको ग़ुरूर अपने हुस्न पर है बहोत,
हमी नहीं, उसे दिन रात कितने पूछते हैं॥

सुना है उसके ही जलवे हैं सारे आलम में,
रुमूज़े-इश्क़ है क्या ज़र्रे-ज़र्रे पूछते हैं॥

सुना है रातों को भी नीन्द उसे नहीं आती,
जभी तो उसको हमेशा उजाले पूछते हैं॥

सुना है सारे गुनाहों को बख़्श देता है,
करीम है वो जभी उसको बन्दे पूछते हैं॥
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गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

सूरज की शुआएं शायद थीं आसेब-ज़दा

सूरज की शुआएं शायद थीं आसेब-ज़दा ।

डर था के न हम हो जायें कहीं आसेब-ज़दा॥

हम कुछ बरसों से सोच के ये बेचैन से हैं,

आते हैं नज़र क्यों मज़हबो-दीं आसेब-ज़दा ॥

ये वक़्त है कैसा गहनाया गहनाया सा,

फ़िकरें हैं सभी अफ़्सुरदा-जबीं आसेब-ज़दा ॥

तख़ईल के चूने गारे से तामीर किया,

हमने जो मकाँ, हैं उसके मकीं आसेब-ज़दा ॥

महफ़ूज़ नहीं कुछ द्श्ते-बला के घेरे में,

हैराँ हूँ के हैं अफ़लाको-ज़मीं आसेब-ज़दा ॥

नाहक़ हैं परीशाँ-हाल से क्यों जाफ़र साहब,

इस दुनिया में कुछ भी तो नहीं आसेब-ज़दा॥

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मैं देखता रहूं ता-उम्र जी नहीं भरता

मैं देखता रहूं ता-उम्र जी नहीं भरता।

पियाला शौक़ का शायद कभी नहीं भरता॥

सुपुर्दगी के है जज़बे में बे-ख़ुदी का ख़मीर,

शुआए-ज़ीस्त में रंगे- ख़ुदी नहीं भरता ॥

सफ़ीना ख़्वाबों का ग़रक़ाब हो भी जाये अगर,

मैं आह कोई कभी क़त्तई नहीं भरता ॥

न रख के आता मैं सर मयकदे की चौखट पर,

तो आज साक़ी मेरा जाम भी नहीं भरता ॥

जो ज़र्फ़ ख़ाली है कितनी सदाएं देता रहे।

हवा भरी हो जहाँ कुछ कोई नहीं भरता॥

अना ये कैसी है जो कर रही है तनहा मुझे,

मैं अपनी ज़ात में क्यों सादगी नहीं भरता॥

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