शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

फ़रशे-ज़मीं पे चाँद की क़न्दील देख कर

फ़रशे-ज़मीं पे चाँद की क़न्दील देख कर ।
हैराँ है आसमान कोई झील देख कर ॥

मुझ में ही रह के मुझ से है वो महवे-गुफ़्तुगू,
ख़ुश हूं मैं आर्ज़ूओं की तकमील देख कर ॥

नाज़ाँ है वो दरख़्त ख़ुद अपने वुजूद पर,
अपनी जड़ों की क़ूवते-तरसील देख कर ॥

मुमकिन है लौट जाऊं मैं फिर बचपने की सम्त,
यादों के सर पे ख़्वाबों की ज़ंबील देख कर ॥

नाकामयाबियों में भी वो टूटता नहीं,
हर मरहले की एक नई तावील देख कर ॥

इरफ़ाने-नफ़्स कुछ तो हुआ है मुझे ज़रूर,
ख़ालिक़ को अपनी ज़ात में तहलील देख कर्॥

नैज़े की नोक पर भी रहा हक़ ही सर बलन्द,
हासिल हुआ ये जग की तफ़सील देख कर ॥
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फ़रशे-ज़मीं=धरती, क़्न्दील=दीपक, तकमील= पूर्ण होन, वुजूद=अस्तित्त्व, क़ूवते-तरसील=संप्रेषण-क्षमता, ज़ंबील=पिटारी, मरहले=कठिन काम, तावील=स्पष्टीकरण, इरफ़ाने-नफ़्स=आत्मज्ञान, तहलील=घुला हुआ,

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

वो हादसा हुआ उस रोज़ शाम से पहले ॥

वो हादसा हुआ उस रोज़ शाम से पहले ॥
के जश्न सोग बना, धूम-धाम से पहले ॥

हमारे ज़हनों में जमहूरियत की शीशगरी,
न होती थी कभी इस इहतमाम से पहले ॥

ग़ज़ल में जूए-रवाँ जैसी ताज़गी थी कहाँ,
जनबे-मीर के दिलकश कलाम से पहले ॥

ख़ुमार रिन्दों की आँखों में रक़्स करता था,
गज़क थी हुस्न की मौजूद जाम से पहले॥

ख़बर न थी मुझे उस की गली में आया हूं,
बस एक शोला सा लपका क़याम से पहले॥

उसी के इश्क़ ने घर घर किया मुझे रुस्वा,
फ़साना पहोंचा मेरा, मेरे नाम से पहले ॥
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रविवार, 6 दिसंबर 2009

नर्गिसीयत के मरीज़ों से भरी है दुनिया

नर्गिसीयत के मरीज़ों से भरी है दुनिया ।
अस्पतालों में सिमटने सी लगी है दुनिया॥

नक्सली क़ूवतें सर्गर्मे-अमल हैं कब से,
सुनते हैं ज़ेरे-ज़मीं फैल रही है दुनिया ॥

क्यों है हमसाया मुमालिक में सियासी बुहरान,
किस लिए उन पे बहोत तंग हुई है दुनिया॥

दिल तो कहता है के इस दुनिय को लाज़िम है फ़ना,
दीदए-फ़िक्र में लेकिन अबदी है दुनिया ॥

आख़िरत के सभी सामान मुहैया कर लो,
एक बाज़ार सी हर वक़्त सजी है दुनिया ॥

हिम्मतो-अज़्मो-अमल,ज़ौक़े-जुनूं, मक़्सदे-हक़,
हैं अगर साथ तो क़दमों में झुकी है दुनिया ॥
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नर्गिसीयत = अपने आप से प्यार करना, सरगर्मे-अमल = सक्रिय,ज़ेरे-ज़मीं = धरती के नीचे,हमसाया मुमालिक=पड़ोसी देशों, सियासी बुहरान = राजनीतिक संघर्ष, फ़ना= नश्वरता,दीदए-फ़िक्र=चिन्तन की आँखें, अबदी = स्थायी/ अनश्वर,आख़िरत = परलोक, मुहैया = एकत्र, हिम्मतो-अज़्मो-अमल = साहस,संकल्प एवं व्यावहारिकता, ज़ौक़े-जुनूं = दीवानगी से भ्ररपूर लगन,मक़्सदे-हक़ = अभीष्ट सत्य,

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

फ़रेब खा के भी हर लहज़ा ख़ुश हुए सब लोग

फ़रेब खा के भी हर लहज़ा ख़ुश हुए सब लोग ।
के सिर्फ़ अपने ही ख़्वाबों में गुम रहे सब लोग ॥

सेहर से उसने सुख़न के दिलों को जीत लिया,
कलाम अपना वहाँ जब सुना चुके सब लोग ॥

ज़रा सी आ गयी दौलत, बदल गये अन्दाज़,
के अब नज़र मे ज़माने की हैं बड़े सब लोग ॥

नहीं रहा, तो सभी उस को याद कर्ते हैं,
वो जब हयात था क्यों दूर दूर थे सब लोग ॥

अक़ीदत उस से न थी, सिर्फ़ ख़ौफ़ था उस का,
जलाएं क़ब्र पे अब उस की क्यों दिये सब लोग्॥
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शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

आयोग के निष्कर्ष में अपराधी हैं कितने

आयोग के निष्कर्ष में अपराधी हैं कितने ।
सक्रिय थे विधवंस में जो साथी, हैं कितने ॥

सब जानते हैं द्न्ड क मिलना है असंभव,
सब को है पता दन्ड के सहभागी हैं कितने॥

मंत्रालयों से होते हैं आदेश जो पारित,
निष्ठा से उसे मानने पर राज़ी हैं कितने ॥

यश किस को मिला, कौन हुआ आज कलंकित,
कितने हैं प्रगतिशील, निशावादी हैं कितने ॥

सुख-शान्ति को लौटाने की इच्छा है किसे अब,
सन्यासियों के वेश में सन्यासी हैं कितने ॥
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मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

न जाने क्यों तुम्हारी दोस्ती पूरी नहीं मिलती

न जाने क्यों तुम्हारी दोस्ती पूरी नहीं मिलती ।
तुम्हारे साथ रह कर भी ख़ुशी पूरी नहीं मिलती॥

बहोत से काम ऐसे हैं जिन्हें हम कर नहीं पाते,
हमें क्यों हस्बे-ख़्वाहिश ज़िन्दगी पूरी नहीं मिलती॥

जुनूं साज़ी के दहशत-गर्द मिल्ली कारखानों में,
किसी मज़दूर को उजरत कभी पूरी नहीं मिलती॥

हयाते-नौए-इन्साँ में हैं तेरी रूह के जलवे,
मगर हर एक को ये रोशनी पूरी नहीं मिलती॥

ख़ुदा है ख़ानए-काबा में तो फिर ला-मकाँ क्यों है,
ख़बर क्यों हम को बैतुल्लाह की पूरी नहीं मिलती॥
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मंगलवार, 24 नवंबर 2009

ऐतिहासिक धरोहर की वापसी / शैलेश ज़ैदी [डायरी के पन्ने-6]

अयोधया की बाबरी मस्जिद एक ऐतिहासिक धरोहर थी, ठोस और मूर्त्त्।मिथकीय कथा पर आधारित जन विश्वास नहीं जो अवचेतन में पकते पकते इतिहास के बराबर अपने ऊंचे क़द के साथ खड़ा हो गया हो। मस्जिद को विवादित ढांचा घोषित किया जाना स्वाधीन भारत का एक अमूल्य तोहफ़ा ज़रूर था जो स्वतंत्रता सेनानियों ने नहीं, लौह पुरुषों ने इतिहास के भाल पर रोरी और चन्दन के तिलक की तरह चिपका दिया था।बाबरी मस्जिद का धवस्त किया जाना भी एक ऐतिहासिक घटना है। किन्तु ऐसा न तो उच्च न्यायालय के किसी निर्णय के आधार पर हुआ न ही सरकार के किसी अधयादेश से प्रेरित हो कर। ऐतिहासिक लौह पुरुषों की छाया अपार जन समूह में तब्दील हो गयी, और उनकी आत्मा बचे-खुचे आत्मीय जनों के शरीर में घुस कर एक काल्पनिक युद्ध का बिगुल बजाने लगी। अराजकता इतिहास में ढल गयी और इतिहास आँखें मून्द कर चुप्पी साधे पड़ा रहा। क़ानून लौह पुरुषों की रखैल बन कर उनके शरीर में तेल मालिश करता दिखायी दिया।एक कहानी अपनी समूची त्रासदी के साथ यहाँ समाप्त हो गयी। और फिर जन्म लिया कई एक कहानियों ने, कहानियों के सम्पादकों और समीक्षकों ने। किसी को अपने कृत्य पर शर्म आयी, कोई गौरवान्वित हुआ,किसी ने काली पटटियाँ बाँधीं, किसी ने विजय दिवस मनाया,किसी ने इस हथियार के उपयोग की नयी योजनाएं बना लीं और मस्जिद के स्थान पर मस्जिद में आस्था रखने वालों को निशाना बनाया। खुल कर नर्संहार हुआ।इतिहास ने एक और नया पृष्ठ टाँक दिया।इक्कीस्वीं शताब्दी के नर्संहार का पृष्ठ्। नये सिरे से लौह पुरुष बनने और चुनाव जीतने का पृष्ठ ।
इधर दो दिनों के समाचार-पत्र पढकर जिन में लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट छायी हुई है, अनायास ही मेरे होंठों पर यह शेर तैर गया-
क्या ख़बर थी कभी हालात के ज़ख़्मों पे नमक
वक़्त के हाथ ख़मोशी से छिड़क जायेंगे ।
बाबरी मस्जिद के विधवंस ने समूचे देश को सामन्य रूप से और मुसलमानों को विशेष रूप से पूरी तरह घायल कर दिया था। किन्तु यह बात 1992 ई0 और उसके बाद के दो-चार वर्षों की है।गुजरात के नर्संहार ने घावों को और गहरा दिया था। किन्तु यह घाव भी अब पहले की तरह रिस नहीं रहे थे। इस बीच कई एक ऐसी घटनाएं हुईं जिन से सोच की दिशा कुछ बदली और हालात में थोड़ा ठहराव सा आने लगा।लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट ने नासूर बन चुके ज़ख्मों को फिर से हरा कर दिया और उनसे गर्म गर्म लहू की बून्दें छलक पड़ीं । दूसरी ओर जो मस्त हाथी की तरह जंगल-जंगल घूम रहे थे और जिस तनावर वृक्ष की जो डाल चाहते थे तोड़ लेते थे, उन्हें नये सिरे से घायल कर दिया। और घायल हाथियों की क्या मनोवृत्ति होती है यह यह बताना बहुत ज़रूरी नहीं है।
समूचा देश जानता है और कांग्रेस सरकार भी जानती है कि आयोग ने जिन बड़े बड़े नामों की चर्चा की है उन में से कोई भी दंडित नही होगा। रह गये छोटे नाम । तो उनके लिए बड़े-बड़े नाम ढाल का काम करेंगे ही। अब नतीजा ये होगा कि बड़े बड़े नाम आश्वस्त होकर चुप्पी साधे रहेंगे और तमाशा देखेंगे उन छोटे छोटे नामों के शोर शराबे का, वक़्त के नमक से बेचैन पुराने ज़ख्मों की अपाहिज स्थितियों की तड़प का। और यह तमाशे भी इतिहास टाँकता रहेगा। हाँ बाबरी मस्जिद का ऐतिहासिक धरोहर अब अपने कायिक रूप में न सही, प्रतीत्मक रूप में वापस लौट आय है, एक नये अर्थ के साथ्।देखना ये है कि व्यावहारिक स्तर पर उसकी व्याख्याएं कितनी स्वस्थ या कितनी नकारत्मक और प्रहारत्मक होती हैं ।
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शाख़ से फल की तरह पक के टपक जायेंगे

शाख़ से फल की तरह पक के टपक जायेंगे ।
इतनी तारीफ़ करोगे तो बहक जायेंगे ॥

फ़र्श पर रहते हुए अर्श पे उड़ते हैं फ़ुज़ूल ,
रोक लो अपने देमाग़ों को भटक जायेंगे ॥

कब हमें बाहमी रिश्तों पे भरोसा होगा ,
कब दिलों में हैं जो बैठे हुए शक जायेंगे ॥

घुट के रह जायेगी सीनों में सदाए-फ़रियाद,
अब ये नाले न कभी ता-बः-फ़लक जायेंगे ॥

क्या ख़बर थी कभी हालात के ज़ख़्मों पे नमक,
वक़्त के हाथ ख़मोशी से छिड़क जायेंगे ॥
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कितना तबाहकुन था समन्दर का इज़्तेराब

कितना तबाहकुन था समन्दर का इज़्तेराब ।
आँखों में अब भी है उसी मंज़र का इज़्तेराब ॥

चुभती रही निगाहों में बस मेरी ख़ुदसरी ,
देखा किसी ने भी न सुख़नवर का इज़्तेराब ॥

इस ख़ौफ़ से के रिश्ते कहीं मुन्तशिर न हों,
सर पर उठाये फिरता रहा घर का इज़्तेराब ॥

आँखों में आँसुओं का अजब ख़ल्फ़िशार था,
मासूम सीपियों में था गौहर का इज़्तेराब ॥

किस तर्ह आब्दीदः हुआ वो सितम शआर,
मैं देखता ही रह गया पत्थर का इज़्तेराब ॥
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टिप्पणी : तबाहकुन = विनाशकारी, इज़्तेराब=तड़प, मंज़र = दृश्य, ख़ुदसरी= अवज्ञाकारिता, सुखनवर = कवि, मुन्तशिर=बिखरना,ख़ल्फ़िशार= खलबली, मासूम= अबोध, गौहर=मोती, आब्दीदः =सजल आँखें, सितम श'आर=अत्याचार ढाने वाला,

सोमवार, 23 नवंबर 2009

जुनूं-ख़ेज़ी में दीवानों से कुछ ऐसा भी होता है

जुनूं-ख़ेज़ी में दीवानों से कुछ ऐसा भी होता है।
के महबूबे-नज़र सहराओं का जलवा भी होत है॥

सफ़ीने की मदद को ख़ुद हवाएं चल के आती हैं,
हिफ़ाज़त के लिए ठहरा हुआ दरया भी होता है॥

मेरी राहों में लुत्फ़े-नकहते-बादे-बहारी है,
मेरे सर पर महो-ख़ुर्शीद का साया भी होता है ॥

ये मज़लूमी की चादर मैं जतन से ओढे रहता हूं,
के लग़ज़िश से मेर महबूब कुछ रुस्वा भी होत है ॥

उसी के फ़ैज़ से इस हाल में भी सुर्ख़-रू हूं मैं।
जहाँ वो दिल-शिकन है, हौसलः अफ़्ज़ा भी होता है॥

नज़र के सामने रहता है वो कितने हिजाबों में,
मगर ख़्वाबों में जब आत है, बे पर्दा भी होता है॥
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