वो हादसा हुआ उस रोज़ शाम से पहले ॥
के जश्न सोग बना, धूम-धाम से पहले ॥
हमारे ज़हनों में जमहूरियत की शीशगरी,
न होती थी कभी इस इहतमाम से पहले ॥
ग़ज़ल में जूए-रवाँ जैसी ताज़गी थी कहाँ,
जनबे-मीर के दिलकश कलाम से पहले ॥
ख़ुमार रिन्दों की आँखों में रक़्स करता था,
गज़क थी हुस्न की मौजूद जाम से पहले॥
ख़बर न थी मुझे उस की गली में आया हूं,
बस एक शोला सा लपका क़याम से पहले॥
उसी के इश्क़ ने घर घर किया मुझे रुस्वा,
फ़साना पहोंचा मेरा, मेरे नाम से पहले ॥
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1 टिप्पणी:
बहुत सहज ढंग से आपने अपनी बात कह दी, अच्छा लगा पढकर।
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मानवता के नाम सलीम खान का पत्र।
इतनी आसान पहेली है, इसे तो आप बूझ ही लेंगे।
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