बुधवार, 12 नवंबर 2008

जहाँ विचारों को अनुकूल हम नहीं पाते.

जहाँ विचारों को अनुकूल हम नहीं पाते.
वो बात कैसी भी हो, उसमें दम नहीं पाते.
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विचार के लिए आधार चाहिए कुछ तो,
ज़मीं हो खोखली, तो पाँव जम नहीं पाते.
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वो भावनाएं ही क्या, जिनमें हो न कोई नमी,
वो दिल भी दिल है कोई, जिसमें ग़म नहीं पाते.
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सुना है स्वस्थ दिशाओं में बढ़ने वालों के,
क़दम जो उठ गए, ख़तरों से थम नहीं पाते.
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वो बात करते हो क्यों जो समय के साथ नहीं,
न घन चलाओ, जो लोहा गरम नहीं पाते.
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कोई भी घटना घटित हो, प्रभावहीन सी है,
अब ऐसी बातों से बच्चे सहम नहीं पाते.
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वो लिख रहे हैं, नहीं लिखना चाहते जिसको,
हम अपने हाथों में अपना क़लम नहीं पाते.
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मंगलवार, 11 नवंबर 2008

जिस्म के ज़िन्दाँ में उम्रें क़ैद कर पाया है कौन.

जिस्म के ज़िन्दाँ में उम्रें क़ैद कर पाया है कौन.
दख्ल कुदरत के करिश्मों में भला देता है कौन.
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चाँद पर आबाद हो इन्सां, उसे भी है पसंद,
उसकी मरज़ी गर न हो, ऊंचाइयां छूता है कौन.
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सब नताइज हैं हमारे नेको-बद आमाल के,
किसके हिस्से में है इज्ज़त, दर-ब-दर रुसवा है कौन.
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अक़्ल ने अच्छे-बुरे की दी है इन्सां को तमीज़ ,
घर की बर्बादी पे, बद-अक़ली से, आमादा है कौन.
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इस बशर में हैं दरिंदों की भी सारी खस्लतें,
देखिये इन खस्लतों से आज वाबस्ता है कौन.
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हो न गर ईमान, फिर मज़हब से है क्या फ़ायदा,
दिल में रखकर मैल, क्या समझे कोई अच्छा है कौन।
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वह सुदर्शन हो न हो, अपना है यह कुछ कम नहीं.

वह सुदर्शन हो न हो, अपना है यह कुछ कम नहीं.
उसने मुझको ठीक से समझा है, यह कुछ कम नहीं.
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घर के बर्तन माजने से हाथ उसके हैं कठोर,
पर ह्रदय कोमल बहुत उसका है, यह कुछ कम नहीं.
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इस गृहस्ती को समझना था कठिन मेरे लिए,
उसने ख़ुद यह भार स्वीकारा है, यह कुछ कम नहीं.
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स्वप्न में भी, जागती आंखों से भी, प्रत्येक पल,
उसने केवल मुझको ही चाहा है, यह कुछ कम नहीं.
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वह किसी भी धर्म का हो, मुझको रखता है करीब,
उस से मेरा प्यार का रिश्ता है, यह कुछ कम नहीं.
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कुछ भी हो अच्छा-बुरा, दुःख-सुख, मैं उसके साथ हूँ,
कह चुका हूँ मैं कि वह मेरा है, यह कुछ कम नहीं.
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आती हैं कठिनाइयाँ जब भी, वही आता है काम,
उसके होने से बहुत सुविधा है, यह कुछ कम नहीं.
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सोमवार, 10 नवंबर 2008

लहरें साहिल तक जब आयीं, चांदी के वरक़ चिपकाए हुए.

लहरें साहिल तक जब आयीं, चांदी के वरक़ चिपकाए हुए.
हम हौले-हौले पानी में, चलते रहे दिल गरमाए हुए.
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वो देखो उधर उस कश्ती पर, दो उजले-उजले कबूतर हैं,
कुछ राज़ की बातें करते हैं, आपस में चोंच मिलाए हुए.
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मैं उनके लिए कूचों-कूचों, छाना किया ख़ाक ज़माने की,
वो सामने मेरी आंखों के, निकले मुझ से कतराए हुए.
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परदेस में बेटा खुश होगा, माँ-बाप के दिल को ढारस है,
फिर भी ये शिकायत रहती है, मुद्दत गुज़री घर आए हुए.
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आँगन में बाँध के अलगनियां, कपडे कल लोग सुखाते थे,
अब शहरों में आँगन ही नहीं,सब हैं सिमटे-सिमटाए हुए।

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मिटटी के चरागों की रौनक़, बिजली के ये कुम्कुमे क्या जानें,
इनसे ही दिवाली रौशन थी, जलते थे क़तार बनाए हुए.
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मैं बाग़ से कल जब गुज़रा था, इक ठेस लगी थी दिल को मेरे,
कुछ फूलों में बे-रंगी थी, कुछ फूल मिले मुरझाये हुए.
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रिश्ता नहीं किसी का किसी फ़र्द से मगर.

रिश्ता नहीं किसी का किसी फ़र्द से मगर.
हम-मज़हबों के साथ हैं हमदर्द से मगर.
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जब आई घर पे बात तो लब बंद हो गए,
पहले बहोत थे गर्म, हैं अब सर्द से मगर.
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दहशत-गरी की गर्द न चेहरे पे आ पड़े,
परहेज़ भी, लगाव भी है गर्द से मगर.
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आजाद थे तो करते थे मर्दानगी की बात,
पकड़े गए तो हो गए नामर्द से मगर.
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आंधी चमन में आई तो सब बेखबर रहे,
कुछ सुर्ख फूल हो गए क्यों ज़र्द से मगर.
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ज़हनों को ऐसा क्या हुआ आख़िर अवाम के.

ज़हनों को ऐसा क्या हुआ आख़िर अवाम के.
हैराँ हूँ फ़र्क़ मिट गये क्यों सुब्हो-शाम के.
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फैलाए बाँहें देर से मंज़िल है मुन्तज़िर,
ऐ रह-रवाने-शौक़! बढो दिल को थाम के.
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नफ़रत में और उल्फ़ते-दुनिया में इश्क़ है,
रिश्ते हैं इनके जैसे शराब और जाम के.
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वो ख़ुद-ग़रज़ है और वो बे-लौस है तो क्या,
बस फ़ासले हैं दोनों में दो-चार गाम के.
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मैंने समन्दरों को भी पाया न मुत्मइन,
शिकवे उन्हें भी लोगों के हैं इज़्दहाम के.
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दो-चार लम्हों के लिए आया था वो फ़क़त,
नज़रें तवाफ़ करती रहीं उसके बाम के.
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रविवार, 9 नवंबर 2008

पानी भरा हुआ कोई बादल है ज़िन्दगी.

पानी भरा हुआ कोई बादल है ज़िन्दगी.
बरसे कहाँ कि ज़ख्मों से बोझल है ज़िन्दगी.
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इतने पड़े हैं काम समेटे तो किस तरह.
दो-चार रोज़ की ही तो हलचल है ज़िन्दगी,
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मुमकिन नहीं लिबास बदल ले किसी तरह
अश्कों में सर से पाँव तलक शल है ज़िन्दगी.
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राहों में कैसे-कैसे नशेबो-फ़राज़ हैं,
पल-पल यहाँ पे मौत है, पल-पल है ज़िन्दगी.
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जब प्यार मिल रहा था तो बेहद सुकून था,
अब नफरतें मिली हैं तो पागल है ज़िन्दगी,
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समझेंगे क्या वो फ़ाका-कशों की ज़रूरतें,
आंखों में जिनकी नर्म सा मख़मल है ज़िन्दगी.
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साँसों के आने-जाने का है सिल्सिला मगर,
मैं देखता हूँ कब से मुअत्तल है ज़िन्दगी.
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तारीख की किताबों में तब्दीलियाँ हुईं.

तारीख की किताबों में तब्दीलियाँ हुईं.
नफ़रत की दाग़-बेल पड़ी, तल्खियां हुईं.
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आया जब इक़तिदार में, बोये वो उसने बीज,
बदबूएँ जिनकी ज़ह्न पे बारे-गरां हुईं.
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खूं-रेज़ियों से कुछ ये ज़मीं लाल हो गई,
मजरूह कुछ शऊर की भी वादियाँ हुईं.
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तहजीब दाग-दाग थी, खतरे में था वुजूद,
इस तर्ह इन्तक़ाम की फ़िकरें जवाँ हुईं.
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दहशत-गरी के फैल गये पाँव हर तरफ़,
जानें गयीं, जहान में रुसवाईयाँ हुईं.
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तक़रीरें गर्म-गर्म हुईं शह्र-शह्र में,
कुछ दुख्तराने-कौम भी आतश-फ़िशां हुईं.
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‘जाफ़र’ वतन के चाहने वाले लरज़ गये,
जो कोशिशें थीं प्यार की सब रायगाँ हुईं.
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पेश कितनी भी दलीलें करो, मानेगा नहीं.

पेश कितनी भी दलीलें करो, मानेगा नहीं.
दूसरे भी हैं सही, ये कभी समझेगा नहीं.
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ऐब देखेगा वो तुम में, ये है फ़ितरत उसकी,
ख़ुद कभी अपने गरीबान में झांकेगा नहीं.
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लुत्फ़ ये है कि समझता है वो आलिम ख़ुद को,
यानी, कम-इल्मी के इक़रार से गुज़रेगा नहीं.
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नाग का ज़ह्र भी है उसमें, है खसलत भी वही,
जिसके पड़ जायेगा पीछे, उसे बख्शेगा नहीं.
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वो समझता है कि सब कुछ है उसी के दम से,
अपनी खुश-फ़हमियों के खोल से निकलेगा नहीं.
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जानलेवा हुआ करता है ये मज़हब का नशा,
जिसको चढ़ जायेगा, आसानी से उतरेगा नहीं.
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चराग़ राह में लेकर चला है नाबीना.

चराग़ राह में लेकर चला है नाबीना.
शऊरे-अहले-नज़र देखता है नाबीना.
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दिखायी देते नहीं रास्ते मुहब्बत के,
हमारा मुल्क भी अब हो गया है नाबीना.
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मिलाते हैं जो सियासत के साथ मज़हब को,
समझते हैं वो यक़ीनन, खुदा है नाबीना.
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खड़ा है फ़ाक़ा-कशों की मुंडेर पर लेकिन,
तरक़्क़ियों को दुआ दे रहा है नाबीना.
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जला रहा है वो इस घर में नफ़रतों के दिए,
कहूँ मैं क्या कि वो अब हो चुका है नाबीना.
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जब आया था वो तो आँखें भी थीं शऊर भी था,
मगर वो बज़्म से होकर उठा है नाबीना.
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