बुधवार, 20 अगस्त 2008

मक़बूल ग़ज़लें / अहमद फ़राज़

[1]
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्मो-रहे-दुनिया ही निभाने के लिए आ
किस किस से बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से खफा है तो ज़माने के लिए आ
कुछ तो मेरे पिन्दारे-मुहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ
इक उम्र से हूँ लज़्ज़ते-गिरिया से भी महरूम
ऐ राहते-जां मुझ को रुलाने के लिए आ
अब तक दिले-खुश-फ़ह्म को तुझ से हैं उमीदें
ये आखिरी शमएं भी बुझाने के लिए आ
[2]
सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते
वरना इतने तो मरासिम थे कि आते जाते
शिकवए-ज़ुल्मते-शब् से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शमअ जलाते जाते
इतना आसां था तेरे हिज्र में मरना जानां
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते
उसकी वो जाने उसे पासे-वफ़ा था कि न था
तुम फ़राज़ अपनी तरफ़ से तो निभाते जाते
[3]
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शह्र में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से
सो अपने आपको बरबाद कर के देखते हैं
सुना है दर्द की गाहक है चश्मे-नाज़ उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं
सुना है उसको भी है शेरो-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बामे-फलक से उतर के देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं
सुना है उसकी सियह-चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमा-फरोश आँख भर के देखते हैं
सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं
कि फूल अपनी क़बाएं कतर के देखते हैं
सुना है उसके शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी, जलवे इधर के देखते हैं
कहानियां ही सही सब मुबालगे ही सही
अगर वो ख्वाब है ताबीर कर के देखते हैं
****************

बेहतरीन गज़लें / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

[1]
खमोशी में हमेशा अम्न का साया नहीं होता
समंदर का लबो-लहजा बहोत अच्छा नहीं होता
मेरे ख़्वाबों में आने को वो अक्सर आ तो जाता है
मगर अंदाज़ उसकी खुश-मिज़ाजी का नहीं होता
सफ़र आसान हो जाता है ऐसे राहगीरों का
कि जिन की राह में कुहसार या दरिया नहीं होता
दरख्तों के हसीं झुरमुट में जब मिलते हैं दो साए
ज़बानों से, दिलों का उनके अन्दाज़ा नहीं होता
मुहब्बत जुर्म है, पढ़ना न इसकी दास्तानों को
कहा था माँ ने, लेकिन मुझ से अब ऐसा नहीं होता
हर एक आ आ के उसपर जब भी चाहे नाम लिख जाए
वरक दिल का कभी भी इस कदर सादा नहीं होता.
[2]
चलो हुकूमते-हाज़िर से इक सवाल करें
हम अपने ख़्वाबों को, क्यों रोज़ पायमाल करें
वो पत्थरों का अगर है तो मोम हम भी नहीं
बदल दें वक़्त को, हालात हस्बे-हाल करें
नकाबे-राह्बरी में खुदाओं के हैं बदन
खरीद कर, ये जिसे चाहें मालामाल करें
हमारा घर भी है सैलाबे-वक्त की ज़द में
बचेगा ये भी नहीं, कितनी देख-भाल करें
गिरह जो डाली है दिल में पड़ोसियों ने मरे
न खुल सकेगी, भले रिश्ते हम बहाल करें
सितमगरों से कभी दोस्ती नहीं अच्छी
क़रीब आयें तो ये ज़िन्दगी मुहाल करें
वो रंगों-नूर का पैकर है जो भी चाहे करे
सवाल उससे, हमारी है क्या मजाल, करें
[3]
मैं किसी जंगल के वीरानों में गुम हो जाऊँगा
इक हकीक़त बन के अफ़सानों में गुम हो जाऊँगा
जानता हूँ अश्क की सूरत कटेगी ज़िन्दगी
मोतियों के बे-बहा दानों में गुम हो जाऊँगा
मैं नशा करता नहीं, फिर भी नशे में चूर हूँ
देखना कल,मय के पैमानों में गुम हो जाऊँगा
मुझ से पोशीदा नहीं होगा किसी के दिल का हाल
कीमिया होकर, शफाखानों में गुम हो जाऊँगा
गो नहीं मैं खुश-गुलू पर लहने-शीरीं के लिए
ढल के मीठी तान में गानों में गुम हो जाऊँगा
[4]
बदन आबशार का दूध सा,था धुला-धुला मरे सामने
वहीं एक चाँद मगन-मगन, था नहा रहा मरे सामने
मैं तकल्लुफात में रह गया, कोई और उसकी तरफ़ बढ़ा
उसे देखते ही बसद खुशी, वो लिपट गया मरे सामने
कभी फूल बन के जो खिल सका, तो खिलूँगा उसके ही बाग़ में
मुझे अपने होंटों से चूम लेगा, वो दिलरुबा मरे सामने
मैं अज़ल से हुस्न परस्त हूँ, मुझे क्यों बुतों से न इश्क़ हो
मैं न बढ़ सकूँगा जो आ गया, कोई बुतकदा मेरे सामने
नहीं चाँद में वो गुदाज़, जैसा गुदाज़ उसके बदन में है
कोई फूल उसका बदल नहीं, है वो गुल-अदा मेरे सामने
कहा उसने मुझ से कि इश्क़ के, ये रुमूज़ तुम नहीं जानते
वो गिना रहा था खुशी-खुशी, मेरी हर खता मेरे सामने
[5]
अगर ख़्वाबों को मिल जाता कहीं से आइना कोई
यकीनन छोड़ जाता उनपे नक्शे-दिलरुबा कोई
नहाकर चाँदनी में फूल की रंगत नहीं बदली
मगर खुशबू के बहकावे से कुछ घबरा गया कोई
मैं सबका साथ सारी उम्र ही देता रहा लेकिन
न जाने बात क्या थी क्यों नहीं मेरा हुआ कोई
गुलों से रात कलियों ने बहोत आहिस्ता से पूछा
हमारा खिलना छुप कर क्या कहीं है देखता कोई
दरख्तों ने चमन में सुब्ह की आपस में सरगोशी
फलों का आना हम सब के लिए है हादसा कोई
शिकारी के निशाने पर न आता वो किसी सूरत
परिंदा जानता गर, उसका ही मुश्ताक़ था कोई
समंदर में फ़ना होना ही दरिया का मुक़द्दर था
इसी सूरत निकल सकती थी बस राहे-बका कोई
कोई खुशबू-बदन था या फ़क़त एहसास था मेरा
मेरे कमरे में दाखिल हो गया आहिस्ता-पा कोई
तकल्लुफ बर्तरफ जाफर उसी से पूछ लो चलकर
निकालेगा वही इस कशमकश में रास्ता कोई
*****************

हमशक्ल / शैलेश ज़ैदी [लघु कथा]


टाडा की साँस रुक गई थी. आँखें खुली रह गई थीं और ज़बान मुंह से बाहर निकल आई थी. पोटो ने टाडा की यह स्थिति देखी तो उसे अपने पूरे शरीर में एक झुरझुरी सी महसूस हुई.
ठायं..ठांय, . रक्त, धमाका भगदड़ और कंपकंपाती चीख.. हे राम !
पोटो ने इधर उधर दृष्टि दौडाई. गांधी नाथू, गांधी बेंत सिंह, गांधी आत्मघाती बम, लहू-लुहान शरीर, चीथड़े की तरह उड़ता शरीर ! गांधी होना कितना बड़ा अपराध है. गांधीवाद जिंदाबाद ! मी गोडसे बोलतोय ! उसे लगा की उसके भीतर भी एक गोडसे छुपा हुआ है जो उसे बता रहा है की राष्ट्रपिता होना राष्ट्रवादी होना नहीं है.
पोटो ने पीछे मुड़कर देखा. राजघाट से सदभावना स्थल तक सन्नाटा सायं-सायं कर रहा था. उग्रवाद और आतंकवाद के मध्य का फासला उसकी खोपडी में घुस कर नृत्य करने लगा. राजनीति के गूढ़ रहस्य उसपर खुलने लगे. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद संहारमूलक है. और आसुरी शक्तियों का संहार ही भारतीयता है. आसुरी शक्तियां ! पोटो बडबडाया. तालिबान और कश्मीर आसुरी शक्तियों की ही उपज हैं.
पोटो ने एक बार फिर टाडा के ठंडे शरीर पर उचटती दृष्टि डाली. खादी का उजला वस्त्र मटमैला हो चुका था. कुरते की ऊपरी जेब से जो समय की रगड़ खाकर कुछ फट सी गई थी, चांदी का त्रिशूल साफ़ झाँक रहा था. पोटो ने झुक कर त्रिशूल अपने अधिकार में कर लिया और उसपर खुदी लिखावट को पढ़ने का प्रयास करने लगा. रक्त पीने, रक्त में स्नान करने और रक्त का चंदन लगाने के सारे नियम वह एक साँस में पढ़ गया.
पोटो यह देख कर आश्चर्यचकित रह गया की त्रिशूल से रक्त की एक ताज़ा धार निकलकर उसकी हथेली में पेवस्त हो गई. उसने त्रिशूल को दोनों आंखों से लगाया और फिर चूम कर अपनी जेब में रख लिया. उसे अपने भीतर आत्मविश्वास की एक लहर सी दौड़ती महसूस हुई.
वह जब घर लौटा तो उसने देखा की उसके प्रशिक्षक उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं. उसे बताया गया कि उसका कार्य क्षेत्र केवल तालिबान है. और यह तालिबान अब अफगानिस्तान में न होकर भारत के ढेर सारे शहरों में आज़ादी के साथ अपनी दाढी हिला रहा है. इतिहास के नवीनीकरण के साथ पोटो को यही शिक्षा दी जा रही थी. उसे बताया गया की भारत के मध्ययुगीन इतिहास में कितने पाकिस्तान घुसपैठियों की तरह धंसे बैठे हैं. आज के तालिबानों की दाढ़ी का हर बाल उनसे ऊर्जा प्राप्त कर रहा है. उसे आदेश दिया गया की वह नितांत चालाकी के साथ इस दाढी को क़तर कर साफ़ कर दे.
पोटो का चेहरा पसीने से तर हो गया. उसने अपने कन्धों से चार अतिरिक्त भुजाएं उगती देखीं. उसके माथे पर लगी तिलक की लकीरें गहरी और मोटी हो गयीं और उसकी दाढी अकस्मात घनी और लम्बी हो गई. उसे लगा की तालिबान उसके भीतर पूरी तरह घुस गया है. सामने की दीवार पर लगे आईने में अपनी सूरत देख कर वह स्तब्ध रह गया. वह हू-ब-हू तालिबान का हमशक्ल हो गया था. उसके होंठ हिले और वह आहिस्ता से बडबडाया - हिन्दू तालिबान.
******************

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

कबीर की भक्ति का स्वरुप / प्रो. शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 1]

रामानुजाचार्य, पातंजलि, विष्णुपुराण, नारद भक्ति सूत्र , शांडिल्य भक्ति सूत्र आदि के सन्दर्भों से भारतीय चिंतन परम्परा में भक्ति के स्वरुप का जिस प्रकार विवेचन किया जाता है, उसकी कोई ठोस परम्परा हिन्दी कविता में नहीं दिखाई देती. कबीर के समय तक रामानंद के तमाम प्रयासों के बावजूद वैष्णव भक्ति का उत्तरी भारत में कोई स्पष्ट जनाधार नहीं था. गोरखनाथ की निरंतर गहराती छवि एवं सूफियों की प्रेममूलक भक्ति का कोमल मानवीय स्पर्श लोकमानस को अपने चुम्बकीय प्रभाव से आलोकित कर रहा था. एक ओर साधनामूलक ज्ञान का अध्यात्मपरक आकर्षण था तो दूसरी ओर ह्रदय में परम सत्ता की अनुभूति से ज्योतित प्रेममूलक भक्ति की निरंतर बढ़ती लोकप्रियता थी. पुस्तकीय एवं बौद्धिक ज्ञान से उत्पन्न वाद-विवाद एवं तर्क-वितर्क अपनी सार्थकता खो बैठे थे. कबीर की भक्ति के स्वरुप का विवेचन एवं विश्लेषण इसी पृष्भूमि में किया जाना चाहिए.
1. प्रेममूलक भक्ति
कबीर की गणना भले ही ज्ञानाश्रयी भक्तों की पंक्ति में रखकर की जाय किन्तु कबीर की भक्ति का सार-तत्व एकान्तिक सत्ता के प्रति अनन्य प्रेम ही है. इस प्रेम के 'ढाई आखर' तात्विक ज्ञान का मूलाधार हैं. किंतु इन ढाई अक्षरों की शिक्षा किसी परंपरागत शास्त्रीय पाठशाला में नहीं दी जाती. इन्हें पढने के लिए सद गुरु की कृपा अनिवार्य है. पर इस सद गुरु की प्राप्ति सभी को नहीं हो पाती. यह तो प्रभू की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है- 'जब गोविन्द कृपा करी/ तब गुरू मिलिया आइ.'
1.1 सद् गुरू की भूमीका
हिन्दी आलोचक विशेष रूप से इस तथ्य पर बल देते हैं और वैसे भी सामान्य रूप से यह माना जाता है कि ' गुरू की भक्ति का जैसा रूप भारत वर्ष में है, वैसा कहीं नहीं है।' ( 1) इसमें संदेह नहीं कि 'श्वेताश्वतर' एवं ' मुण्डकोपनिषद ' में गुरू की महत्ता को स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया गया है. किंतु गुरूवाद की कोई सुदृढ़ परम्परा वैष्णव काव्य साहित्य में नहीं मिलती. गुरू की महत्ता को रेखांकित करना और बात है और गुरू को व्यावहारिक स्तर पर ब्रह्म जैसा अथवा ब्रह्म समझ कर और मानकर उसकी उपासना करना और बात है। तुलसी और सूर जैसे सगुण भक्त भी गुरु की महिमा का बखान करते नहिं दिखायी देते. भारत के साधना मार्गों में गुरूवाद की ठोस परम्परा निश्चित रूप से मिलती है और योगियों में तो गुरू के प्रति सम्मान भावना अनिवार्य सी प्रतीत होती है. किंतु सूफी साहित्य में गुरू की महत्ता का जैसा आदर्श दृष्टिगत होता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है. वहां परम सत्ता और गुरू के मध्य अभेदत्व की स्थिति स्पष्ट देखी जा सकती है. मौलाना जलालुद्दीन रूमी ने अपने गुरू शम्स तबरेज़ के प्रति अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किए हैं-
पीरे-मन मुरीदे-मन, दर्दे-मन, दवाए मन .
रास बेगुफ्त्म ईं सुखन, शम्से-मन, खुदाए-मन.(2)
अर्थात्- मैं ये बात सच कहता हूँ कि मेरा गुरू मेरा मुरीद, मेरी पीड़ा मेरी औषधि मेरा शम्स है जो मेरा खुदा है.
प्रभु के प्रेम में उन्मत्त मलिक मसऊद ने अपने गुरू को संबोधित करते हुए कहा- 'तेरी भृकुटियों के किबला की ओर सिजदा करना (मेरे लिए) अनिवार्य है (3) (सजदा बसूए क़िब्लये अब्रूए तस्त फ़र्ज़ ). प्रख्यात सूफी कवि अमीर खुसरो ने भी अपने गुरू निज़ामुद्दीन औलिया के प्रति ऐसे ही विचार व्यक्त किए थे- 'मैं अपना किबला' (मक्के का वह पवित्र स्थान जिसकी ओर मुंह करके मुसलमान नमाज़ पढ़ते हैं) तिरछी टोपी वाले (हज़रत निजामुदीन औलिया तिरछी टोपी पहनते थे) की ओर सीधा कर लेता हूँ.(4) (मन किबला रास्त कर्दम बर सिम्ते कज कुलाहे) . निजामुद्दीन औलिया के अनेक शिष्य अपने गुरू को सिजदा किया करते थे. शेख जलालुद्दीन तबरेज़ी अपने गुरू शेख शहाबुद्दीन के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थे. गुरू सेवा में लीन रहना उनका धर्म था. अपने गुरू की हज यात्रा के समय उन्हें गर्म भोजन देने के लिए वे भोजन के बर्तन की अंगीठी सर पर रखकर गुरू के पीछे-पीछे चलते थे.(5) शेख अब्दुल कुद्दूस ने 'रुश्दनामा' में ऐनुल्कुज्जात हमदानी का यह मत उद्धृत किया है- 'फकीर (संत) ही अल्लाह है, सूफी ही अल्ल्लाह है, मार्ग दर्शक ही अल्लाह है, गुरू ही अल्लाह है. (6)(अल्फकीर हुवल्लाह, अस्सूफी हुवल्लाह, अल्हादी हुवल्लाह, अश्शैख हुवल्लाह)
कबीर काव्य में गुरू की महत्ता इसी पृष्ठभूमि में देखी जा सकती है.कबीर की निश्चित अवधारणा थी कि 'गुरू गोविन्द तो एक हैं, दूजा यह आकार' अर्थात् जो रूप और आकार के भेद में पड़ गया वह गुरू और परमात्मा के मध्य अभेदत्व की स्थिति को नहीं समझ सकता. सूफी साधकों तथा कवियों में इस प्रसंग में नाबीश्री को पूर्ण मानव, सिद्ध पुरूष, सद गुरु और बिना मीम का अहमद अर्थात 'अहद' अर्थात् आकार से मुहम्मद और बिना आकार के प्रभु मानने की परम्परा रही है. इस सम्बन्ध में कबीर के समकालीन हिन्दी सूफी कवि अलखदास ने नाबीश्री की कुछ हदीस उद्धृत की है(7) जो द्रष्टव्य है-
1- मुझसे अल्लाह ने कहा कि मैं तुमसे तुम्हारी सत्ता से भी अधिक निकट हूँ.
2- जिसने मुझे देखा उसने परम सत्ता को देखा.
3- मैं अहमद हूँ बिना मीम का.
4- ऐ मेरे बन्दे ! तू मेरा हो जा, जिससे कि मैं तेरा हो जाऊं और जो कुछ मेरा है वह सब तेरा हो जाय.
श्रीप्रद कुरआन में नबीश्री को ज्योतिपुंज कहा गया है. (8) जो कि ईश्वर के प्रकाश का सत्व है और बताया गया है कि बौद्धिकता और पुस्तकीय ज्ञान से रहित समुदाय से चुनकर मुहम्मद को नबी बनाया गया जो सर्व सामान्य को प्रभु की आयतें सुनाते हैं अर्थात प्रभु के गूढ़ एवं दिव्य रहस्यों से युक्त शब्दज्ञान से ज्योतित करते हैं और उनके हृदयों को परिष्कृत करते हैं जिससे यह मनुष्य सांसारिक विषय विकारों से मुक्त रह सके.(9) इस प्रकार नबीश्री में सद् गुरु के वे सभी गुण विद्यमान हैं जिनकी चर्चा सूफियों और संतों ने की है.
कबीर का सद् गुरु कोई व्यक्ति विशेष न होकर विशिष्ट गुणों का पुंज है. वह गंभीर है, गौरव पूर्ण है, अपने स्वरुप के साथ अपने शिष्य को इस प्रकार मिला लेता है जैसे आटे में नमक मिल जाता है. इस स्थिति को प्राप्त करते ही जाति-पांति, कुल इत्यादि सब मिट जाता है. शिष्य का कोई नाम नहीं रह जाता- 'कबीर गुरु गरवा मिल्या, रलि गया आंटे लूँणि/ जाति पांति कुल सब मिटे, नाँव धरोगे कूँणि.' प्रतीत होता है जैसे कबीर ने सिद्ध पुरूष के रूप में नबीश्री अथवा किसी अन्य 'वली' को पाकर उन्हें सदगुरु के रूप में स्वीकार कर लिया हो. अध्यात्म जगत में ऐसा अनेक साधक करते आए हैं. ' खोजत- खोजत' सद् गुरु पाया’ के माध्यम से कबीर ने कुछ ऐसा ही संकेत भी किया है.
कबीर का गुरू ज्ञान प्रकाश से प्रकाशित (ज्ञान प्रकास्या गुरू) है. इसलिए वह शिष्य के हाथ में तेल से भरा दीपक, जिसकी बत्ती कभी नहीं घटती, पकड़ा देता है जिससे कि वह सांसारिकता के हाट में क्रय-विक्रय की प्रक्रिया से पूरी तरह मुक्त रहकर दीपक के प्रकाश से मार्ग दर्शन प्राप्त करता रहता है- 'दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघटट् / पूरा किया बिसाहूणा , बहुरि न आवौं हटट् .'.
कबीर अपने उस गुरू पर मुग्ध हैं, सब कुछ न्योव्छावर कर देने के पक्ष में हैं. जिसने अस्थिचर्ममय शरीर को ऐसे दिव्य गुणों की ज्योति से ज्योतित कर दिया कि मनुष्य रूप में विषय विकारों से युक्त शिष्य कुछ ही क्षणों में पूजनीय बन गया- 'बलिहारी गुरु आपनें' द्यो हाड़ी कै बार, / जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार.'
कबीर का गुरु जिस समय मार्ग दर्शन हेतु शिष्य के हृदय को शब्द बाण से बेधता है तो ज्ञान की अपूर्व ज्योति पाकर वह ऐसा स्तब्ध रह जाता है कि उसकी ज़बान गूंगी हो जाती है, कान बहरे हो जाते हैं, पाँव चलने के योग्य नहीं रह जाते और वह पूर्ण रूप से बावला हो जाता है- 'गूंगा हुआ, बावला, बहरा हुआ कान/ पांऊँ थैं पंगुल भया, सतगुरु मार्या बान. ' कबीर का सदगुरू सच्चा शूरवीर है. (सतगुरु साचा सूरिवां). उसका निशाना कभी चूकता नहीं . उसका चलाया हुआ तीर शरीर में भीतर तक जाकर धंस जाता है (भीतरि रह्या सरीर) और जब वह मूठ को सीधी करके प्रेम के अग्निवाण से शिष्य के शरीर को बेधता है तो दावाग्नि सी फूट पड़ती है और विषय वासना के वृक्ष की टहनियां चिटख-चिटख कर जलने लगती हैं और सम्पूर्ण जंगल जलकर राख हो जाता है- 'सतगुरु मारया बाण भरि, धरि करि सूधी मूठि/ अंगि उघाडै लागिया, गयी दवा सूँ फूटि.' कबीर ने इसी से मिलते-जुलते भाव अन्य स्थलों पर भी व्यक्त किए हैं-' प्रकट प्रकास ज्ञान गुरुगमि थैं, ब्रह्म अगिनि परजारी. ' अथवा 'कहें कबीर गुरु दिया पलीता, सो झल बिरलै देखी.'
कबीर का दृढ़ विश्वास है कि गुरु के वचनों के रस में जब शिष्य पूरी तरह डूब जाता है तभी वह इस योग्य हो पता है कि प्रभु के नाम से लौ लगा सके- ' गुरु बचना मंझि समावै, तब राम नाम लौ ल्यावै।' कबीर की दृष्टि में सबकुछ गुरु की कृपा पर निर्भर करता है. गुरु की महिमा से सूई की नोक से हाथी भी आसानी से आ जा सकता है- ' गुरु प्रसाद सूई के नाकैं, हस्ती आवै जाहिं.' किंतु ऐसा गुरु आसानी से प्राप्त नहीं होता. कबीर के समकालीन कवि अलखदास ने अपनी एक चिट्ठी में अब्दुर्रहमान सूफी को लिखा कि जिस समय गुरु का 'जमाल' (सौन्दर्य) सच्चे शिष्य के लिए प्रभु के सौन्दर्य का दर्पण बन जाय तो सच्चा शिष्य गुरु पूजक बन जाता है. यह शिष्य खुदापरस्त शिष्य से श्रेष्ठ होता है. (10) कबीर 'गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, वाली साखी में एक ऐसे ही शिष्य के रूप में अपना परिचय कराते हैं. गुरु की तलाश में भटकने वाले कबीर की, कितने ही महापुरुषों में सदगुरु को खोजने के बाद वास्तविक सदगुरु से भेंट हुई- 'अनेक जन का गुरु-गुरु करता , सतगुरु तब भेंटाना.'इस पंक्ति के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि प्रारम्भ में शेख़ तक़ी ही नहीं अन्य अनेक सूफियों-संतों को कबीर ने गुरु माना होगा किंतु एकत्ववाद का ज्ञान हो जाने पर उनकी आस्था से मेल न खाने के कारण उन्हें छोड़ दिया होगा. ध्यान रहे कि अस्तित्व के एकत्व में आस्था रखने वाले कबीर अपने समय के गुरु होने का दंभ भरने वाले ज्ञान रहित तथा चक्षुविहीन गुरुओं से भली प्रकार परिचित थे और इसके कुपरिणामों से भी अनभिज्ञ नहीं थे-'जाका गुरु भी आंधला, चेला खरा निरंध./ अन्धै अँधा ठेलिया, दुन्यु कूप पडंध.' यह साखी कबीर के एक अन्य समकालीन कवि शेख़ नूर के नाम से भी मिलती है जिसका उल्लेख अलाखदास ने रुश्दनामा (अलखबानी ) में किया है।
1.2. प्रेम का स्वरुप एवं महत्त्व
कबीर काव्य के अध्ययन से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि उनकी रचनाओं में दिव्य आत्मतत्व के प्रति प्रेममूलक भावानुभूति की तीव्रता मानव को उसके स्थूल सीमाभाव से निकालकर उसके भीतर विद्यमान दैवी स्वरुप के साथ समरस बना देती है. यह समरसता उसके सांत एवं अनंत तथा मर्त्य एवं अमृत तत्वों को प्रेम के पवित्र स्पर्श से एकमेक कर देती है. इस अवस्था को प्राप्त करके यह मनुष्य परम सत्ता की अनंतता और अमरत्व प्राप्त कर लेता है. कबीर की प्रेम मूलक भक्ति साधक में अध्यात्म के प्रति तीव्र आकर्षण जगाकर उसके मन और ह्रदय को प्रेमतत्त्व के साथ अभिन्न बना देती है. अध्यात्म तत्व के प्रति यह आकर्षण, गुरु कृपा के फलस्वरूप ह्रदय की स्वाभाविक उमंग का नतीजा होता है. किंतु जैसा कि शेख सादी ने कहा है- 'संपत्ति, प्रतिष्ठा, यश, शुभ-अशुभ का परित्याग, प्रेम मार्ग का प्रथम सोपान है.'(11) कबीर की दृष्टि में भी दंभ, अंहकार, सांसारिक सुख, धन और यौवन का गर्व, काम, क्रोध, अपवित्रता, मोह, मद, दुष्कर्म आदि का परित्याग किए बिना ह्रदय में प्रेम तत्व का प्रकाश नहीं हो सकता. कबीर को ऐसे तथाकथित भक्त बहुत बड़ी संख्या में मिले जिनके पास प्रभु की भक्ति तो नाम मात्र को थी, हाँ अंहकार भरा पड़ा था-''थोरी भगति बहुत अहंकारा, ऐसे भक्त मिलें अपारा.'' कबीर के निकट 'भगति हजारी कापड़ा' है जिसमें किसी प्रकार की कलुषता का समावेश सम्भव नहीं है- 'ता मन मल न समाई'. ऐसी स्थिति में श्वेत वस्त्र धारण करके और गले में माला डालकर भक्त होने का स्वांग रचने से कोई लाभ नहीं, मन की कालिमा तो ज्यों की त्यों बनी हुई है. भक्ति का मूलाधार प्रेम है और बिना प्रेम के अश्रु बहाने से कोई लाभ नहीं-'स्वांग सेत करणी मन काली, कहा भयो गलि माला धाली.' अथवा ' बिन ही प्रेम कहा भयौ रोयें, भीतरि मैल बाहर कहा धोयें.'
कबीर जिस प्रेम मूलक भक्ति के पक्षधर हैं, उसकी पहचान स्पष्ट कर देने में उन्हें तनिक भी संकोच नहीं है. वे कहते हैं- 'प्रेम भगति हिंडोलना सब संतन को विश्राम,' किंतु यह प्रेम सरल नहीं है. इसके लिए प्रतिष्ठा और प्राण दोनों ही दाव पर लगाना पड़ता है. कबीर के समकालीन कवि अलखदास (जन्म- 1456 ई०) ने जो फारसी में अहमदी उपनाम से कविता लिखते थे, एक शेर में इसी विचार को व्यक्त किया है-
अहमदी तादर न बाज़ी मालो-जातो-जानो-तन,
हरगिज़ अज इश्क़त न बाशद शम्मए अन्दर मशाम. (12)
अर्थात- अहमदी! यदि तू संपत्ति, प्रतिष्ठा, प्राण और संपत्ति दाव पर नहीं लगा देता तो तुझे परम सत्ता के प्रेम की सुगंध कभी प्राप्त नहीं हो सकती.
कबीर भी इस रहस्य से पूरी तरह परिचित हैं. जभी तो वे शरीर को गोंट बनाकर प्रेम का पासा पकड़ते हैं और गुरु के बताये हुए दांव के अनुरूप चौपड़ खेलते हैं- 'पासा पकड़या प्रेम का, सारी किया सरीर/ सतगुरु दांव बताइया, खेलै दास कबीर.' अहमदी ने एक अन्य शेर में भी प्रभु प्रेम के मार्ग में आगे बढ़ने के लिए पांसे पर संपत्ति, प्रतिष्ठा, और प्राण का दांव लगाने की बात की है- 'गर तू आशिक नर्दबाजी मालो, जाहो जां बेबाज़' अर्थात यदि तू प्रभु का प्रेमी है तो पांसे पर संपत्ति, प्रतिष्ठा और प्राण का दांव लगा दे. मलिक मोहम्मद जायसी के पद्मावत में रत्नसेन के इस आश्वासन पर कि वह अन्तिम साँस तक पद्मावती से कभी अलग न होगा, पद्मावती कहती है- 'ऐसे राज कुंवर नहिं मानों/ खेलु सारि पासा तौ जानौं.' (312/1) अर्थ स्पष्ट है कि चौपड़ के खेल में यदि तुम युग बाँध सको अर्थात युगनद्ध हो सको तो मैं समझूंगी कि तुम सच्चे प्रेमी हो.चौपड़ के खेल में जुग बांधकर खेलने से खिलाडी का मनोबल बना रहता है. जुग गोट कभी पिट नहीं सकती. अच्छा खिलाडी जुग बांधने पर उसे कभी अलग नहीं होने देता. इसी लिए कबीर कहते हैं कि जिसे पासा डालने का ज्ञान है वह प्रेम की चौपड़ में कभी नहीं हारता -' कहें कबीर वे कबहूँ न हारें, जानी जु ढ़ारें पासा. अथवा 'बाजीगर संसार कबीरा, जानी ढारौं पासा.
फारसी के एक सूफी कवि का शेर है- 'गर मरदे राहे इश्के जांरा हदफ़ बेसाज़./ अज़ तीर रूबगरदाँ वज़ तेग दम बेज़न.' (13) अर्थात यदि तू प्रेम मार्ग का पुरूष है तो प्राण को निशाने के समक्ष कर दे. तीर के सामने से अपना मुंह मत फेर और तलवार के सामने साँस ले. कबीर भी इसी विचारधारा के पक्षधर हैं. प्रभु के प्रेम में तन्मय पुरूष उसके मार्ग में अपने प्राण बचाने की चिंता नहीं करता. वह टुकड़े-टुकड़े हो जाय पर मैदान नहीं छोड़ता- सूरा तबही परखिये, लड़ें धणी के हेत./ पुर्जा- पुर्जा ह्वै पडै, तऊ न छोडै खेत. ' अथवा ' खेत न छाडै सूरिवां, जूझै द्वै दल माहिं./ आसा जीवन मरण की, मन मैं आनै नाहिं. श्रीपद कुरान में कहा गया है - वलातकूलू लिमैंयुक्तलु फी सबीलिल्लाहि अम्वातुन बल अहयाउन्वला किल्ला तशअरुन.(14) अर्थात 'और उन लोगों को जो प्रभु प्रेम के मार्ग में क़त्ल हो जाते हैं, उन्हें मुर्दा मत कहो. वे तो जीवित हैं, हाँ तुम्हें इसकी अनुभूति नहीं होती. इस्लाम में प्रभु के मार्ग का योद्धा विजयी होने पर 'गाजी' और मारे जाने पर 'शहीद' कहलाता है. 'शहीद' को अमरत्व प्राप्त होने के कारण उसका पद उच्चतम स्वीकार किया गया है. कबीर भी ' शहीद' के पद को जीवन की श्रेष्ठतम उपलब्धि मानते हैं. कबीर के समकालीन कवि अलखदास ने प्रेम के मार्ग में विजयी और हताहत होने वाले दोनों प्रकार के योद्धाओं को श्रेष्ठ माना है- 'जो जूझै तो अति भला, जे जीतै तो राज/ दुहूँ पंवारे हे सखी, मांदल बाजौ आज.'
सूफियों का विश्वास है कि इश्क के मार्ग में यदि आशिक मारा जाय तो माशूक स्वरूप हो जाता है. कबीर की आस्था इससे भिन्न नहीं है-' जो हारया तो हरि संवाँ, जो जीत्या तो डाव, पारब्रह्म कै सेवतां, जो सर जाई तो जाव.' भगवतगीता में भी कहा गया है- 'हतोवा प्रापस्यसि स्वर्गः जित्वा व भोक्ष्यसे महीम. (2/37). किंतु प्राचीन भारतीय इतिहास में 'शहीद' को उच्च स्थान देने की कोई परम्परा नहीं मिलती. जिस मृत्यु से हर व्यक्ति डरता है कबीर की प्रेममूलक भक्ति में वह आनंद की वस्तु है- जिस मरनैं थें जग डरै, सो मेरे आनंद/ कब मरिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमानन्द.' शीआ आस्था के मुसलमान नबीश्री के उन तथाकथित मित्रों को प्रिय नहीं रखते जो धर्म युद्धों में जब भी रणक्षेत्र में भेजे जाते तो न हताहत होते न ही विजयी. अपने प्राण बचाकर रणक्षेत्र से लौट आते. फिर भी बढ़-चढ़ कर बातें करने में कोई कमीं न आती. खैबर के युद्ध में जब चालीस दिनों तक यही स्थिति बनी रही तो नबीश्री ने कहा कि - 'मैं कल सेना की पताका उसके हाथ में दूँगा जो कर्रार है (जमकर युद्ध करने वाला) और गैर फ़र्रार है अर्थात भगोड़ा नहीं है. दूसरे दिन सेना की पताका शूर वीर अली को दी गयी और धर्मयुद्ध में उन्हें विजय प्राप्त हुई. यह देखकर नबीश्री के तथाकथित मित्रों के चेहरों के रंग उड़ गए. कबीर ने प्रेममार्ग के ऐसे ही भगोड़े योद्धाओं पर चोट की है- 'कायर बहुत पमावहीं, बहकि न बोलै सूर/ काम पड्या ही जानिए, किसके मुख परि नूर.'
नबीश्री की यह 'हदीस' सूफियों में अत्यधिक लोकप्रिय है कि 'निष्ठावान भक्त का प्रभु के प्रति प्रेम उस समय तक पूर्ण नहीं होता जब तक लोग यह न कह दें कि यह पागल है.' कबीर ने प्रभु-प्रेम में अपनी दीवानगी और पागलपन को जिन शब्दों में व्यक्त किया है उसका उदाहरण हिन्दी काव्य में दुर्लभ है. कबीर कहते हैं कि ठीक है सारी दुनिया सयानी है एक बस मैं ही पागल हूँ, बिगड़ गया हूँ. और लोग अपना ध्यान रखें और मेरी तरह न बिगडें- 'सब दुनी सयानी मैं बौरा, हम बिगरे, बिगरौ जिनि औरा.' किंतु कबीर यह भी बता देना चाहते हैं कि मैं स्वयं नहीं दीवाना या पागल हो गया. मुझे प्रभू के प्रेम ने पागल कर दिया है- 'मैं नहिं बौरा, राम कियो बौरा.' और सच तो यह है कि मैं विद्या पढने और वाद-विवाद के चक्करों में पड़ने से सदैव बचा रहा. मेरा यह बावलापन तो प्रभु के गुणों की चर्चा करते रहने और इस चर्चा को सुनते रहने का परिणाम है- विद्या न पढ़ बाद नहीं जानूं, हरिगुन कथत सुनत बौरानूं.' मैं तो भीतर और बाहर से प्रभु के रंग में समा गया हूँ. इस स्थिति में लोग मुझे पागल कहते हैं- 'अभि अंतरि मन रंग समाना, लोग कहैं कबीर बौराना.' किंतु कबीर के इस पागलपन का मर्म तो केवल प्रभु ही जानते हैं- 'लोग कहैं कबीर बौराना, कबीर कौ मर्म राम भल जाना.'
नबीश्री की एक हदीस सूफियों में पर्याप्त चर्चित रही है- 'अल्लाह ने मुझसे कहा कि मेरे पास मेरे मित्रों (भक्तों)' के लिए शराब है। जब वे उस शराब को पीते हैं तो मस्त हो जाते हैं. जब वे मस्त हो जाते हैं तो नृत्य करने लगते हैं. और जब नृत्य करते हैं तो प्रेम के भावावेश में मुझे प्राप्त कर लेते हैं और मुझसे उनका साक्षात्कार हो जाता है. इस अवस्था में मेरे और उनके बीच कोई अन्तर नहीं रह जाता.' इस प्रसंग में शेख फखरुद्दीन इब्राहीम हमदानी का एक शेर द्रष्टव्य है- ' बदीं सिफत कि मनम अज़ शराबे-इश्क़ ख़राब, मरा चे जाए -करामातो- नाम यां नंगस्त.' (16 ) अर्थात मैं जो इस प्रकार अलौकिक प्रेम की शराब से मस्त हूँ, मुझे चमत्कारों की या मान तथा नाम की क्या आवश्यकता है.शराब, शराब की भट्ठी और कलाल आदि के प्रतीक मेरी जानकारी में कबीर से पूर्व हिन्दी काव्य में उपलब्ध नहीं है. संस्कृत काव्य में भी इन प्रतीकों की कोई परम्परा नहीं है. सूफी कवियों में जुन्नून ने कदाचित पहली बार अपनी रचनाओं में इन प्रतीकों का प्रयोग किया. हाफिज़ के यहाँ तो ये प्रतीक उनकी कविता की पहचान बन गए. अन्य फारसी कवियों ने भी इन प्रतीकों का जमकर उपयोग किया. कबीर की रचनाओं में ये प्रतीक निश्चित रूप से फारसी कविता के प्रभाव से आए. प्रभु प्रेम की मदिरा की एक बूँद भी कलाल की भांति सहज भाव से यदि कोई संत कबीर की मदिरा के प्याले में भर दे तो उसके बदले में वह उसे अपनी सम्पूर्ण तपस्या दलाली के रूप में देने के लिए तत्पर हैं- '' है कोई संत सहज सुख उपजै, जाको जप-तप देऊँ दलाली.' 'एक बूँद भरि देइ राम रस, जिऊँ भर देई कलाली.' कबीर की दृष्टि में प्रभु प्रेम की मदिरा का पान करने वाला उसके अनंत खुमार में डूबा रहता है. वह तो बस मदमस्त घूमता रहता है जहाँ उसे अपने शरीर की भी कोई सुध नहीं रहती- ' हरि रस पीया जाणिए, जै कबहूँ न जाई खुमार./ मैमनता घूमत रहै, नाहीं तन की सार.' और ऐसा क्यों न हो. कलाल की भट्ठी को घेर कर पीने की इच्छा से न जाने कितने आकर बैठे हुए हैं. किंतु इस मदिरा का पीना आसान नहीं है. जो अपना सर सौंप दे, वही इसका पान कर सकता है-' कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई/ सिर सौंपे सोई पिवै, नहिं तो पिया न जाई.'
सन्दर्भ
(1). डॉ. यश गुलाटी, सूफी कविता की पहचान, दिल्ली 1979, पृ0 68
(2). अलखबानी ( अनूदित पाठ, अनुवाद तथा सम्पादन प्रो. शैलेश ज़ैदी ), पृ0 102
(3). वही, प्रस्तावना भाग, पृ0 100
(4). हसन निजामी, फवायादुलफुवाद, 1856, पृ0 147
(5). अलखबानी, पृ0 101
(6). वही
(7). वही, पृ0 71
(8). श्रीप्रद कुरआन, अल्माइदा, आयत 15-16
(9). वही, सुरा अल-बकरा, आयत 151
(10). अलखबानी, प्रस्तावना भाग, पृ0 92
(11). वही, पृ0 56
(12). वही
(13). वही, पृ0 57
(14). श्रीप्रद कुरआन, सुरा अल-बक़रा, आयत 154
(15)। अलखबानी, अनुवाद भाग, पृ0 87
(16)। कुल्लियाते-शेख इराकी, तेहरान 1383, पृ0 156
************************* क्रमशः

इस्लाम की समझ / प्रो. शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 1.7]


इस्लाम दीन है, धर्म या मज़हब नहीं
दुखद स्थिति यह है कि सुन्नी शीआ दोनों ही मुस्लिम सम्प्रदायों के धर्माचार्य, राजनीति को दीन से पृथक कर के देखने के पक्ष में नहीं हैं. दोनों की ही राजनीतिक वैचारिकता नबीश्री के निधनोपरांत खलीफा के पद पर केंद्रित है. सुन्नी सम्प्रदाय के धर्माचार्य जहाँ हज़रत अबूबकर (र.), हज़रत उमर (र.) और हज़रत उस्मान (र.) ही को नहीं बाद के उमैया खलीफाओं को भी इसका अधिकारी मानने के पक्ष में हैं, वहीं शीआ सम्प्रदाय के धर्माचार्य नबीश्री के बाद चारित्रिक गुणों और नबीश्री से नैकट्य के आधार पर हज़रत अली (र,) तथा नबीश्री की बेटी फ़ातिमा की सुयोग्य संतानों को ही, जिन्हें वे इमाम मानते हैं, इस पद का अधिकारी समझते हैं. सुन्नी सम्प्रदाय के लगभग सभी आचार्य नबीश्री की उन संतानों को जिन्हें इमामत का पद प्राप्त था हर दृष्टि से श्रेष्ठ और आदरणीय स्वीकार करते हैं किंतु उन्हें खिलाफत के लिए उपयुक्त नहीं समझते.
इस्लामी इतिहास का सूक्ष्मतापूर्वक अवलोकन करने से एक बात स्पष्ट रूप से दिखायी देती है कि नबीश्री के जीवन काल में और उसके बाद भी कुरैश के क़बीलों की राजनीति बनी हाशिम का वर्चस्व किसी भी दृष्टि से स्वीकार करने के पक्ष में नहीं थी. नबीश्री ने जब भी और जिस अवसर पर भी बनी हाशिम के किसी सुयोग्य व्यक्ति की प्रशंसा की या उसकी श्रेष्ठता रेखांकित की, वे सहाबा जिनका सम्बन्ध कुरैश के दूसरे क़बीलों से था, उन्हें यह प्रशंसा बिल्कुल अच्छी नहीं लगी.उदहारणस्वरूप मैं यहाँ कुछ तथ्य रखना चाहूँगा.
1. यह कि जब उहद में नबीश्री के चचा हज़रत हमज़ा (र.) शहीद हुए और नबीश्री उनकी जनाजे की नमाज़ पढने के पश्चात उन्हें दफ़्न कर चुके तो नबीश्री ने दुआ की "ऐ मेरे रब ! ये वो हैं जिनके ईमान की पराकाष्ठा पर होने की मैं गवाही देता हूँ. हज़रत अबू बक्र (र.) को अच्छा नहीं लगा. उन्होंने तत्काल प्रश्न किया "या रसूल अल्लाह क्या हम उनकी तरह नहीं हैं ? जिस प्रकार उन्होंने इस्लाम स्वीकार किया, हम ने भी स्वीकार किया और जिस प्रकार उन्होंने जिहाद किया हमने भी किया ? नबीश्री ने यह नहीं कहा कि तुम लोग तो इसी युद्ध में मुझे अकेला छोड़ कर अपनी जानें बचाने के चक्कर में भाग गए. नबीश्री ने उत्तर दिया "क्यों नहीं, किंतु मैं नहीं जानता कि तुम लोग मेरे बाद क्या अहदास (दीन में कुछ घटाना-बढ़ाना या फेर-बदल करना) करोगे. (इमाम मालिक, मुवत्ता, किताबुलजिहाद, पृ0173 तथा शेख अब्दुलहक़ मुहद्दिस दिहल्वी, जज़बकुलूब, बाब 13, पृ0 176)
2. यह कि हज़रत अब्दुल मुत्तलिब (र.) के निधनोपरांत नबीश्री के पालन-पोषण का सारा भार हज़रत अबू तालिब इब्न अब्दुल मुत्तलिब (र.) ने उठाया और वे नबीश्री को, जो आयु की दृष्टि से उस समय कुल आठ वर्ष के थे, अपने बच्चों से भी अधिक प्रिय रखते थे. उन्होंने मक्के के मुशरिकों की धमकियों की कोई चिंता नहीं की और अन्तिम साँस तक नबीश्री की सुरक्षा के लिए समर्पित रहे. इस्लाम में नातगोई (नबीश्री की प्रशस्ति में लिखी गई कवितायेँ) का शुभारम्भ हज़रत अबू तालिब की कविताओं से माना जाता है. उनका यह शेर जो सीरत इब्ने हुश्शाम में भी दर्ज है (भाग 1, पृ0 276) नबीश्री को अत्यधिक प्रिय था और वे अक्सर सहाबियों से इसे सुनाने की फरमाइश करते थे."वह गोरे-चिट्टे मुखडे वाला जिसके आकर्षक मुखमंडल के माध्यम से वृष्टि के बादलों की दुआएं मांगी जाती है, वह अनाथों का सहारा है, विधवाओं और दरिद्रों की सुरक्षा का दुर्ग है, बनी हाशिम के वो लोग जो दयनीय स्थिति में हैं जब समय पड़ता है तो उसकी ओर दौड़ते हैं और उससे शरण लेते हैं और उसकी देख-रेख में सम्पन्न और श्रेष्ठ हो जाते हैं." अबुलफिदा ने अपनी तारीख में अबू तालिब के अनेक शेर उद्धृत किए हैं (भाग 1, पृ0 107) जिनमें से एक शेर द्रष्टव्य है." ऐ मुहम्मद ! तुमने मुझे दीन इस्लाम की ओर आमंत्रित किया. तुम वास्तव में मत के सच्चे, सत्यवादी और अल्लाह के आदेशों की रक्षा करने वाले (अमानतदार) वास्तविक नबी हो. निस्संदेह मेरा विशवास है कि तुम्हारा दीन संसार के अन्य सभी दीनों से उत्तम है. खुदा की क़सम मैं जबतक जीवित हूँ, तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता."
कुरैश के कबीले जब एक जुट होकर नबीश्री और अबू तालिब के साथ सारे तिजारती और सामजिक सम्बन्ध तोड़ बैठे तो अबू तालिब सभी बनू हाशिम को साथ लेकर अपनी घाटी में चले गए जहाँ तीन वर्षों तक भूके प्यासे रहकर भी सभी ने नबीश्री की रक्षा की. जब अबू तालिब का निधन हुआ तो नबीश्री ने उस वर्ष को दुःख और संताप का वर्ष घोषित किया. यह तमाम बातें ऐसी हैं जिनपर मुसलमानों में कोई मतभेद या विवाद नहीं है. फिरभी बनीहाशिम विरोधी कुरैश के अन्य क़बीलों ने हज़रत अबू तालिब के विरुद्ध प्रचार किया कि जीवन के अंत तक वे काफिर रहे और उन्होंने इस्लाम कभी स्वीकार नहीं किया. इस प्रचार के पीछे कुरैश की वह खीझ थी जो अबू तालिब के रहते नबीश्री का कुछ भी नहीं बिगाड़ पायी और जिसने दिखा दिया कि हज़रत अबू तालिब (र.) की आँख बंद होते ही नबीश्री का मक्के में रहना दूभर हो गया. परिणाम यह हुआ कि बुखारी शरीफ में यहांतक लिख दिया गया कि नबीश्री की हदीस है कि हज़रत अबू तालिब का स्थान दोज़ख में है.
मुझे ऐसे स्थलों पर मुसलमानों की सोंच और उनकी अक्ल पर आश्चर्य भी होता है और दुःख भी. एक व्यक्ति जो मुहम्मद (स.) के इश्क में अपना सब कुछ लुटा दे उसे तो काफिर घोषित कर दिया जाय और दोज़ख का भागीदार बताया जाय और दूसरा व्यक्ति जिसने जगह-जगह मुहम्मद (स.) की राह में रोडे अटकाए हों, उसे ला इलाह इल्लल्लाह मुहमदन रसूलल्लाह के उच्चारण मात्र से, जन्नत में आरक्षण दे दिया जाय. यदि इस्लाम ऐसा ही होता तो न जाने कितने लोग इसे कबका खुदा हाफिज़ कह चुके होते. मैं यहाँ मुस्लिम धर्माचार्यों से जो हज़रत अबूतालिब के काफिर होने के पक्षधर हैं केवल इतना पूछना चाहूँगा कि वे कलमा पढ़कर कब मुसलमान हुए थे ? कम से कम वो दिन और तारीख तो उन्हें याद ही होगी. मुसलमानों को चाहिए था कि जिस प्रकार इस्लाम में अकीका, खतना, निकाह इत्यादि की औपचारिकताएं हैं उसी प्रकार कलमा पढने की भी एक औपचारिकता अनिवार्य रूप से रखते. कम-से-कम यह पता तो चलता कि किसने कब इस्लाम स्वीकार किया. यदि आज के मुसलमान कलमा पढ़ने की किसी औपचारिकता से गुज़रे बिना भी मुसलमान हैं, तो हज़रत अबू तालिब (र.) से कलमा पढ़वाने पर इतना ज़ोर क्यों है. इस वैचारिकता में बनी हाशिम के प्रति शत्रुता का भाव नहीं है तो और क्या है ? यदि हज़रत इब्राहीम की इस दुआ को कि "मेरे रब ! मेरी संतानों में से एक समूह को ऐसा रखना जो इस्लाम दीन पर कायम रहे, अल्ल्लाह ने स्वीकार किया, तो कम से कम उस समूह के ऐसे लोगों को, जो नबीश्री के प्रेम में अपने प्राणों को भी कुछ नहीं समझते थे, अपने जैसा क्यों समझा जाता है ? यदि हज़रत अबू तालिब हज़रत इब्राहीम की संतान थे, और यदि क्या निश्चित रूप से थे, तो उनके दीन की गवाही तो स्वयं श्रीप्रद कुरान से साबित हो गई. अन्यथा मुसलमान नबीश्री हज़रत इब्राहीम (अ.) की संतानों में वह समूह कहाँ तलाश करेंगे जो पहले से मुसलमान था.
मुस्लिम धर्माचार्यों की दृष्टि में ऐसी हदीसें बहुत महत्वपूर्ण और प्रमाणिक होती हैं जो विभिन्न स्रोतों से बार-बार दुहराई गई हों। रोचक बात यह है कि बुखारी शरीफ की हज़रत अबू तालिब (र।) के दोज़ख में होने की हदीस तो मुस्लिम धर्माचार्यों को इतनी पसंद आई कि वे उसे बार-बार उद्धृत करते रहे. किंतु उसी बुखारी शरीफ की एक दूसरी हदीस जो विभिन्न स्रोतों के माध्यम से तेरह स्थानों पर संदर्भित है मुस्लिम आचार्यों का ध्यान तक आकृष्ट नहीं करती. हदीस इस प्रकार है - "सचेत हो जाओ कि क़यामत में मेरी उम्मत के कुछ लोग लाये जायेंगे और फ़रिश्ते उनको दोज़ख की जानिब ले चलेंगे. मैं निवेदन करूँगा ऐ मेरे रब ये तो मेरे सहाबी हैं. पस उत्तर मिलेगा तुम्हें नहीं मालूम कि तुम्हारे बाद इन्होंने दीन में क्या-क्या फेर-बदल (अहदास) किए. अन्य स्थलों पर यह भी लिखा गया है कि "ये उल्टे पाँव अपने बाप-दादा के धर्म की ओर लौट गए या दीन से विमुख हो गए."स्पष्ट है कि दीन में फेर-बदल वही कर सकता है जो अधिकार-संपन्न हो यानी या तो खलीफा हो या धर्माचार्य हो. नबीश्री के सहाबियों में किसी के धर्माचार्य होने का कोई संकेत नहीं मिलता. फिर यह हदीस किन अधिकार सम्पन्न लोगों का संकेत करती है जो नबीश्री के सहाबी भी रह चुके हों, मुस्लिम धर्माचार्य इसपर विचार करने से कतराते हैं. ध्यान रहे कि इस हदीस में 'उम्मत के कुछ लोग' कहा गया है. अर्थात इन अधिकार-संपन्न सहाबियों की संख्या निश्चित रूप से दो से अधिक है.

3. तिरमिजी ने जामेतिर्मिज़ी में (अबवाबुल्मनाक़िब पृ0 535) जाबिर के हवाले से और मुहद्दिस देहलवी ने मदारिजुन्नबूवा में (रुक्न 4, बाब 11, पृ0 156) लिखा है कि ताइफ़ के घेराव के पश्चात नबीश्री ने एकांत में हज़रत अली (र.) से कुछ रहस्य की बातें कीं. कुरैश को यह अच्छा नहीं लगा. हज़रत उमर (र.) ने शिकायातन नबीश्री से कहा "या रसूलल्लाह ! क्या यह उचित है कि आप एकांत में अली (र.) से रहस्य की बातें करते हैं ? नबीश्री ने उत्तर दिया कि मैं एकांत में अली से रहस्य की बातें नहीं करता, बल्कि अल्लाह करता है. (मैं तो माध्यम मात्र हूँ.) शरहे मिश्कात शरीफ में मुहद्दिस देहलवी ने इतना और जोड़ दिया है कि "अली से रहस्य की बातें करने की शुरूआत मैं ने नहीं की बल्कि खुदा ने की." ऐसा ही उत्तर नबीश्री ने मुहजरीन को उस समय भी दिया था जब नबीश्री ने सब के मस्जिद में खुलने वाले दरवाज़े बंद करा दिए थे और इमाम अली (र.) का दरवाज़ा खुला रखने की इजाज़त दी थी. कुरैश का ख़याल था कि नबीश्री अली की मुहब्बत में पथ-भ्रष्ट हो गए हैं. नबीश्री ने कहा था कि दरवाज़े मैं ने नहीं अल्लाह ने बंद कराये हैं और श्रीप्रद कुरआन ने सूरए नज्म की प्रारंभिक आयतों में यह घोषित करके कि "(ईमान वालो) तुम्हारा स्वामी (नबी) पथ-भ्रष्ट नहीं हुआ है. वह तो उस समय तक मुंह भी नहीं खोलता जबतक अल्लाह का आदेश न हो." नबीश्री के कथन की पुष्टि की थी.
उदाहरण तो और भी बहुत से दिए जा सकते हैं किंतु उनकी आवश्यकता इस लिए नहीं है कि मेरे विचारों की पुष्टि हज़रत उमर (र।) के एक वक्तव्य से हो जाती है जो उन्होंने अब्दुल्लाह इब्ने-अब्बास को अपनी खिलाफत के दौर में दिया था. तारीखे-इब्ने-जरीर तबरी (भाग 5, पृ0 23-24) और तारीखे-कामिल इब्ने-असीर जज़री में (भाग 3, पृ0 24-25, वाकिआत सन् 23 हिज0) हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास (र.) से रिवायत है कि "एक दिन मैं हज़रत उमर की गोष्ठी में पहुँच गया. उन्होंने मुझसे पूछा कि ऐ इब्ने-अब्बास ! क्या तुम जानते हो कि मुहम्मद सल्'अम के बाद किस बात ने बनू हाशिम को अमरे-खिलाफत से वंचित किया ? मैं ने उसका उत्तर देना मसलेहत के ख़िलाफ़ समझा और कहा कि यदि मैं नहीं जानता तो आप मुझे अवगत कराएँ. हज़रत उमर (र.) ने फरमाया कि क़ौम (कुरैश) ने इस बात को नापसंद किया कि नबूवत और खिलाफत दोनों बनू-हाशिम में जमा हों और तुम इसपर इतराते फिरो. इसलिए कुरैश ने यह पद अपने पास रखा." स्पष्ट है कि कुरैश के क़बीलों में बनी हाशिम के प्रति प्रारंभ से ही जो द्वेष और वैमनस्य था वह नबीश्री के निधनोपरांत पुरी तरह खुल कर सामने आ गया. ऐसी स्थिति में यह प्रश्न ही अर्थहीन है कि नबीश्री का प्रतिनिधित्व करने के लिए मुसलमानों में कौन सुयोग्य था और कौन नहीं और खलीफा चुने जाने की प्रक्रिया दीन से सम्बद्ध थी या नहीं. कुरैश का एक मात्र उद्देश्य बनी-हाशिम का वर्चस्व समाप्त करना था और उन्होंने ऐसा ही किया.

यह बात भी विचारणीय है कि प्रथम तीन खलीफाओं के दौर में, जिनका सम्बन्ध क्रमशः कुरैश के क़बीलों बनी तैम, बनी अदी और बनी उमैया से था, बनी हाशिम का कोई भी व्यक्ति किसी पद पर नियुक्त नहीं किया गया. ऐसा दो ही स्थितियों में होने की संभावना है. एक यह कि बनी हाशिम ने सिरे से इन खलीफाओं की बैअत (आज्ञापालन का मौखिक अनुबंध) ही न की हो. दूसरे यह कि इन खलीफाओं की दृष्टि में बनी हाशिम विश्वसनीय न रहे हों या उनके प्रति इनके मन में कहीं गहरा द्वेष पल रहा हो. जो स्थिति भी रही हो इतना तो बिल्कुल स्पष्ट है कि कुरैश के मन में बनी हाशिम के प्रति कहीं न कहीं दूरियां और कटुताएं निश्चित रूप से थीं. आज के अधिकतर मुसलमान कुरैश के उन्हीं क़बीलों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो यह जानते हुए भी कि बनी हाशिम में विशेष रूप से हज़रत फातिमा की संतान हर दृष्टि से श्रेष्ठ है और उससे प्रेम नबीश्री की अनेक हदीसों के प्रकाश में मुसलामानों के लिए अनिवार्य भी है और लाभप्रद भी, व्यावहारिक स्तर पर उसका ज़िक्र करना भी पसंद नहीं करते.
मुसलमानों में श्रीप्रद कुरआन के बाद सबसे महत्वपूर्ण वह छे पुस्तकें मानी जाती हैं जिन्हें सहाहे-सित्ता अर्थात छे असत्य से मुक्त ग्रन्थ कहा जाता है. इनमें सहीह बुखारी को सर्वोपरि महत्त्व दिया जाता है. यद्यपि शीआ धर्माचार्य इन पुस्तकों की बहुत सी हदीसें गैर प्रामाणिक मानते हैं फिर भी वे हदीसें जो श्रीप्रद कुरआन के किसी आदेश से नहीं टकरातीं और जिनमें नबीश्री की सुयोग्य सात्विक संतानों की प्रशस्ति और प्रशंसा है, उन्हें न केवल स्वीकार करते हैं अपितु बेझिझक उनके सन्दर्भ भी देते हैं. नबीश्री की एक हदीस ऐसी है जो इन छओ ग्रंथों में संदर्भित है और जिसे सुन्नी और शीआ दोनों ही प्रामाणिक मानते हैं. हदीस इस प्रकार है -"जाबिर बिन समूरा से रिवायत है कि मैं एक बार अपने पिता के साथ नबीश्री की सुहबत में था. मैं ने नबीश्री को कहते सुना "मेरे बाद बारह अमीर होंगे" जाबिर बिन समूरा ने यह भी कहा कि उसके आगे भी नबीश्री ने एक वाक्य कहा जो मैं नहीं सुन सका. मेरे पिता का कहना है कि उन्होंने कहा कि "वे सब कुरैश से होंगे." किसी-किसी ग्रन्थ में अमीर के स्थान पर खलीफा शब्द का भी प्रयोग किया गया है.
उक्त हदीस को लेकर मुस्लिम धर्माचार्यों में जितना विवाद है मुझे सहाहे-सित्ता की किसी हदीस पर इतना वाद-विवाद नहीं दिखायी दिया. एक बात पर सुन्नी शीआ दोनों ही धर्माचार्य एकमत हैं कि इन अमीरों या खलीफाओं में से अन्तिम अमीर या खलीफा नबीश्री की बेटी हज़रत फातिमा की संतान में से हज़रत इमाम मेहदी (र.) होंगे.
प्रख्यात सुन्नी धर्माचार्य अल-जुवायनी ने हदीसों के संग्रह फ़राइज़-अल-सिमतैन (पृ0 160) में इस प्रसंग में कुछ और महत्वपूर्ण सन्दर्भ जोड़े हैं. उन्होंने इब्ने-अब्बास से रिवायत की है कि नबीश्री ने फरमाया "निश्चित रूप से मेरे बाद मेरे खलीफा और मेरे सफीर बारह होंगे. उनमें से पहला मेरा भाई होगा और अन्तिम मेरा प्रपौत्र होगा"
नबीश्री से प्रश्न किया गया "ऐ अल्लाह के रसूल ! आपका भाई कौन है ? नबीश्री ने उत्तर दिया "अली इब्ने-अबी तालिब" फिर पूछा गया "और आपका प्रपौत्र कौन है ?" सम्मानित नबी ने उत्तर दिया " अल-महदी, जो इस पृथ्वी पर न्याय और समता स्थापित करेगा और क़सम है उस रब की जिसने मुझे एक सचेत करने वाला बनाया यदि क़यामत में एक दिन भी शेष रह जायेगा तो वह उस दिन को उस समय तक लंबा करता जायेगा जब तक वह मेरे प्रपौत्र महदी को भेज नहीं देगा. यह पृथ्वी उसके प्रकाश से ज्योतित दिखायी देगी और रूहुल्ल्लाह हज़रत ईसा इब्ने-मरयम उसके पीछे नमाज़ अदा करेंगे." इस प्रसंग में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि नबीश्री ने फरमाया कि ये बारह अमीर मेरे बाद अली, हसन हुसैन और नौ अल्लाह द्वारा पवित्र घोषित की गई सात्विक विभूतियाँ होंगी"
अल-जुवायनी ने यहीं पर यह भी लिखा है कि "खलीफा की संस्था के प्रबुद्ध आचार्यों की सामान्य रूप से यह प्रवृत्ति रही है कि राजनीतिक दबाव के कारण वे इन रिवायतों को आम जनता से छुपाते रहे हैं। अधिकतर आचार्यों ने इन रिवायतों को उलझाव पैदा करने की दृष्टि से प्रस्तुत किया है। उन्होंने अनावश्यक अनुमानों के आधार पर इन रिवायतों में संदर्भित बारह खलीफाओं को रेखांकित करने का प्रयास किया है, जबकि नबीश्री ने स्पष्ट शब्दों में इनके नामों की घोषणा कर दी थी."

**************** क्रमशः

शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

पसंदीदा नज़्में / शब्बीर हसन

तुम्हारे शहर का बाशिंदा हूँ
मैं भी तुम्हारे शहर का बाशिंदा हूँ
यहीं मेरी माँ ने अन्तिम हिचकियाँ ली हैं
यहीं मेरे पिता ने आंखों की कटोरियों में
मनोरम दृश्य सजाये हैं
यहीं के कब्रिस्तान में
मेरी एक बेटी दफ़्न है

मैं भी तुम्हारे शहर का बाशिंदा हूँ
यहाँ मैं ने आंसुओं के बीज बोए हैं
यहाँ मैं ने ग़मों की खेती की है
यहाँ मैं ने पीड़ा के फूल उगाए हैं
सब दुःख झेला है यहाँ
अपने लिए, तुम्हारे लिए,
नयी कोंपलों के लिए भी

मैं भी तुम्हारे शहर का बाशिंदा हूँ, लेकिन
तुम क्यों बज़िद हो
लिखने के लिए मेरे नाम
मौत का परवाना
मैं नहीं हूँ कोई मुसाफिर या
कोई अजनबी
मैं भी तुम्हारी तरह ही
इस शहर का बाशिंदा हूँ

देखो मेरी आंखों में आँखें डालकर देखो
एक बार बस एक बार.......

मार डाले गए
खिड़कियों के पट बंद कर लिए गए
लोग दरवाजे की ओट में छुप गए
हम मार डाले गए

होंठ कांपते रहे, खून की धार बहती रही
लोग देखते रह गए, हम मार डाले गए

कानून चुप रहा, मुहाफिज़ भी चुप रहे
सब निगाहें नीची किए, खड़े रह गए
हम मर डाले गए

बाद में बहुत चर्चे हुए, आंसू भी बहाए गए
फिर हर बार की तरह हम भुला दिए गए
लोग देखते रह गए, हम मर डाले गए.

बड़ी प्यारी लाग रही है
गौरैया के नन्हे-नन्हे बच्चों ने
अभी-अभी देखी है सतरंगी दुनिया
वो चीं-चीं के संगीत पर
मेज़ से फुदक कर कुर्सियों पर जाते हैं
कुर्सियों से फुदक कर अलमारी पर आते है
वो खेलना चाहते हैं आँख-मिचोली का खेल
दुनिया की तमाम चीज़ों के साथ

उन्होंने अभी नहीं देखा है कर्फ्यू का आतंक
नहीं देखी हैं धुएँ की काली लकीरें
नहीं भोग है उन्होंने अभी
पिता का अंतहीन इंतज़ार
गौरैया के बच्चों को ये दुनिया
बड़ी प्यारी लग रही है.

विस्थापित की वेदना
माँ का ज़रा भी मन नहीं लगता
बंद कमरे उसे जेल मालूम होते हैं
उमस से उसकी जान निकली जाती है
सब कुछ अजनबी सा लगता है.

उसे याद आता है झरोका
खुला आँगन
अमरूद के पेड़
पिछवाडे से आती हुई ठंडी बयार

लेकिन वहाँ अब कुछ भी नहीं है
न खुला आँगन, न खुला दिल
न अमरूद के पेड़
न मुहब्बत की छाँव

माँ बावली हो जाती है
कमरे से निकल कर गली में आती है
गंदे नाले पर पड़ी
चारपाई पर बैठकर
रोने लगती है
समय को कोसने लगती है.
******************

पसंदीदा नज़्में / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

1. यज्ञ और हवन
यज्ञ की आग पहले सुलगती थी
रौशन हवन कुण्ड होते थे
सारी फ़िज़ा
ऊदो-अम्बर की खुशबू के
हौज़े-मुक़द्दस में अशनान करती थी
पाकीज़गी का तसौवुर था हर सिम्त माहौल में.

यज्ञ होते हैं अब भी, मगर
यज्ञ की आग में
अब झुलसती हैं जिंदा जवां लडकियां
खिलखिलाती हुई बस्तियां
नन्हे मासूम बच्चों की किलकारियां
और अब जो हवन कुण्ड रौशन किए जाते हैं
उनमें जलते हैं मीनारो-गुम्बद, इबादत-कदे
बाइबिल, रहलो-कुरआं, सलीबें, सदाए-अजाँ
2. राख (1)
हर तरफ़ राख ही राख थी
राख का ढेर था
और कुछ भी न था.
एक सन्नाटा इस राख के ढेर से
दिल के वीरान-खानों के जलते हुए आबलों की तरह
दर्द-आलूद, पुरसोज़, बे-लफ्ज़ आवाज़ में
अपने ज़ख्मों के बोसीदा पैराहनों के
सुलगते लहू की कहानी सुनाने में मसरूफ था
राख को मैं ने छूने की कोशिश जो की
उंगलियाँ जल गयीं
इक पिघलता हुआ गर्म सय्याल
मेरी झुलसती हुई उँगलियों से गुज़रता हुआ
मेरी रग-रग में पेवस्त होने लगा.
मैं ने देखा मेरे जिस्म में कितनी ही बस्तियां
आग के आसमां छूते शोलों की ज़द में हैं
फरयाद करती हुई
अल-अमां, अल-मदद,
अल-हफीज, अल-मदद, अल-अमां
और मैं कितना मजबूर हूँ.
3. राख (2)
सर पे अपने कफ़न बाँध कर
जब बरहना हवाओं ने जलती हुई राख को
इस ज़मीं से कुशादा हथेली पे अपनी उठा कर
जहां भर की जिंदा फिजाओं की दहलीज़ पर रख दिया
अहले-दिल चीख उठे
जो मुहाफिज़ थे इंसानी क़दरों के
दुनिया के हर गोशे से
हो के सर-ता-क़दम मुज़महिल, चीख उठे
खूने-नाहक में डूबा नज़र आया हिन्दोस्तां.
4. राख (3)
सियाही में तब्दील होने से पहले
सुलगती हुई राख के एक अम्बार ने
मुझ को आवाज़ दी.
ऐ मुसाफिर ! कभी तूने देखा है
किस तर्ह आबादो-खुशहाल हँसते घरों को
दरिंदा-सिफत मज़हबी सर फिरे
नफरतों की धधकती हुई आग से
एक पल में बदल देते हैं राख में ?
देख उस गोशे में
राख की मोटी तह में दबी
कितनी मजबूरो-माज़ूर, उरियां-बदन
लुट चुकी, हाँपती-कांपती
दर्द-आमेज़ दोशीज़ा चीखें मिलेंगी तुझे
और उस से ज़रा फासले पर मिलेगा
बहोत दूर तक राख का इक समंदर
जहाँ ज़ह्र-आलूद मज़हब-ज़दा
ज़ाफरानी हवाओं ने
कितनी ही माँओं की ममता भरी कोख को चीर कर
गैर-जाईदा बच्चों को बाहर निकाला
तिलक और तिरशूल का जितना तेजाब था
उनपे छिड़का कि गल जाएँ नाज़ुक बदन
और फिर नेकरों में भरी आग का तांडव
देर तक खुल के होता रहा
ऐ मुसाफिर ! तेरे घर में कुछ
बाल-बच्चे तो होंगे
कुँवारी जवां लड़कियां भी तेरे घर में होंगी
उन्हें जाफरानी हवाओं के
गंदे इरादों से महफूज़ रखना
हमारी तरह वो बदलने न पायें कभी राख में
5। राख (4)
इस से पहले कि आज़ादी का जश्न मिल कर मनाएं !
मुझे ये बताओ
कहीं कुछ तुम्हें भी सुलगता सा महसूस होता है
या वहम है ये मेरा
जिसकी कोई हकीकत नहीं है.
चलो मान लेता हूँ ये वहम होगा.
मगर वो जो इक शहर का शहर
शोलों की ज़द में है
जिसको मैं अन्दर कहीं जिस्म की वादियों में
मुसलसल झुलसता हुआ देखता हूँ
उसे वहम किस तर्ह समझूं
वहाँ सिर्फ़ बदबू है
जलते हुए, राख होते हुए
बेखता, बे-ज़बां
हसरतों के जवां-साल जिस्मों की बदबू
ये एहसास क्यों सिर्फ़ मुझको है
तुमको नहीं है
मैं हैरत जादा हूँ !
मगर जश्ने आज़ादी तो हम मनाएंगे मिल कर
हवाओं में लहरायेंगे
मुल्क की साल्मीयत का परचम
इन्हीं जिस्मों की राख के ढेर पर बैठ कर.
***************************

पसंदीदा नज़्में / गुलज़ार

18 मर्तबा फ़िल्म फेअर अवार्ड जीतने वाले गुलज़ार एक अच्छे शायर, एक कामयाब स्क्रिप्ट राइटर,एक बेमिसाल डाइरेक्टर और एक चुम्बकीय व्यक्तित्व के मालिक हैं. उनकी गज़लें, नज्में, गीत उनके कुछ और नज्में, पुखराज, रात पश्मीने की और त्रिबेनी में संकलित हैं. उनकी कहानियो के संग्रह रावी पार, खराशें और धुंआ अपनी एक अलग कशिश रखते हैं. आनंद, मौसम, लिबास, आंधी, खुशबू इत्यादि की स्क्रिप्ट गुलज़ार की खुशबु से शराबोर है. समपूरन सिंह कालरा यानी गुलज़ार 1936 में वर्त्तमान पाकिस्तान के झेलम जिले में जन्मे ज़रूर, लेकिन हिन्दुस्तानी मौसमों की आबो-हवा उन्हें इस तरह रास आई कि उर्दू तहजीब की रेशमी चादर लपेट कर फकीराना शान और रिन्दाना तेवर से अपनी रचनाओं से कला और साहित्य का खजाना भरते रहे. पेश हैं यहाँ गुलज़ार की चन्द नज्में.
1. उर्दू
ये कैसा इश्क है उर्दू ज़बां का
मज़ा घुलता है लफ्जों का ज़बां पर
कि जैसे पान में महंगा क़माम घुलता है
नशा आता है उर्दू बोलने में.
गिलोरी की तरह हैं मुंह लगी सब इस्तिलाहें
लुत्फ़ देती हैं.

हलक़ छूती है उर्दू तो
हलक़ से जैसे मय का घूँट उतरता है !
बड़ी एरिस्टोक्रेसी है ज़बां में.
फकीरी में नवाबी का मज़ा देती है उर्दू.

अगरचे मानी कम होते हैं और अल्फाज़ की
इफरात होती है
मगर फिर भी
बलंद आवाज़ पढिये तो
बहोत ही मोतबर लगती हैं बातें
कहीं कुछ दूर से कानों में पड़ती है अगर उर्दू
तो लगता है
कि दिन जाडों के हैं, खिड़की खुली है
धूप अन्दर आ रही है.

अजब है ये ज़बां उर्दू
कभी यूँ ही सफर करते
अगर कोई मुसाफिर शेर पढ़ दे मीरो-गालिब का
वो चाहे अजनबी हो
यही लगता है वो मेरे वतन का है
बड़े शाइस्ता लह्जे में किसी से उर्दू सुनकर
क्या नहीं लगता -
कि इक तहजीब की आवाज़ है उर्दू.
2.शफक
रोज़ साहिल पे खड़े हो के यही देखा है
शाम का पिघला हुआ सुर्ख सुनहरी रोगन
रोज़ मटियाले से पानी में ये घुल जाता है.
रोज़ साहिल पे खड़े हो के यही सोचा है
मैं जो पिघली हुई रंगीन शफक का रोगन
पोंछ लूँ हाथों पे
और चुपके से इक बार कभी
तेरे गुलनार से रुखसारों पे छप से मल दूँ.
शाम का पिघला हुआ सुर्ख सुनहरी रोगन.
3. दस्तक
सुबह सुबह इक ख्वाब की दस्तक पर दरवाज़ा खोला,
देखा
सरहद के उस पार से कुछ मेहमान आए हैं
आंखों से मानूस थे सारे

चेहरे सारे सुने-सुनाये
पाँव धोया हाथ धुलाये
आँगन में आसन लगवाये
और तंदूर पे मक्की के कुछ
मोटे-मोटे रोट पकाए
पोटली में मेहमान मरे
पिछले सालों की फसलों का गुड लाये थे
आँख खुली तो देखा घर में कोई नहीं था
हाथ लगाकर देखा तो तंदूर अभी तक
बुझा नहीं था.
और हाथों पर मीठे गुड का जायका अबतक
चिपक रहा था
ख्वाब था शायद
ख्वाब ही होगा
सरहद पर कल रात सुना है चली थी गोली
सरहद पर कल रात सुना है
कुछ ख़्वाबों का खून हुआ है.
**********************

बुधवार, 13 अगस्त 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 4]

[ 22 ]
हरी बिन अपनौ को संसार.
माया-लोभ-मोह हैं चांडे, काल-नदी की धार..
ज्यौं जन संगति होति नाव मैं, रहति न परसैं पार..
तैसैं धन-दारा, सुख-संपति, बिछुरत लगै न बार..
मानुष जनम, नाम नरहरि कौ, मिलै न बारम्बार..
इहिं तन छन-भंगुर के कारन, गरबत कहा गंवार..
जैसैं अंधौ अंधकूप मैं, गनत न खाल पनार..
तैसेहिं 'सूर' बहुत उपदेसैं, सुनि सुनि गे कै बार..


अपना नहीं जहान में कोई बजुज़ खुदा
हिर्सो-हवस का, लज़्ज़ते-दुनिया का सिल्सिला
जूए-अजल की धार का जैसे हो काफ़ला
कश्ती में जैसे होते हैं हमराह कितने लोग
साहिल पे आके साथ सभी का है छूटता
वैसे ही मालो-ज़ौजओ-आसाइशे-जहाँ
इक पल में सब बिछड़ते हैं आती है जब क़ज़ा
इंसान की हयात वो नामे-खुदाए-पाक
मिलते नहीं किसी को भी दुनिया में बारहा
इस जिस्मे-आरज़ी पे न बद-अक़्ल कर गुरूर
नादान जान ले इसे हासिल नहीं बक़ा
नाबीना जैसे कूएँ में ज़ुल्मत के क़ैद हो
रहता नहीं नशेब का जैसे उसे पता
वैसे ही 'सूर' सुनके भी आला नसीहतें
गिरते हैं ख़न्दकों में अंधेरों की बेहया
[ 23 ].
सब तजि भजिये नंदकुमार.
और भजे तैं काम सरै नहिं, मिटे न भव जनजार..
जिहिं जिहिं जोनि जनम धारयौ,बहु जोरयौ अध कौ भार
तिहिं काटन कौ समरथ हरि कौ, तीछन नाम कुठार..
वेद पुरान भागवत गीता, सब कौ यह मत सार..
भव समुद्र हरिपद नौका बिनु, कोऊ न उतरै पार..
यह जिय जानि इहीं छिन भजि, दिन बीतत जात असार..
'सूर' पाई यह समय लाहू लहि, दुर्लभ फिरि संसार..


सब को तज कर मालिके-कुल की इबादत कीजिये.
नन्द के बेटे की लीलाओं से उल्फ़त कीजिये..
और माबूदों से बन सकता नहीं कोई भी काम
घेरे रक्खेंगी जहाँ भर की बलाएं सुब्हो-शाम..
जिस किसी खिलक़त में जब जैसे जहाँ पैदा हुए
जोड़ते आये गुनाहों के हमेशा सिलसिले..
काटना है इन गुनाहों को तो कीजे एतबार..
काट सकती है इन्हें नामे-हरी की तेज़ धार..
भागवत गीता में, वेदों में, पुरानों में उसे
याद करते आये हैं हम सब इसी अंदाज़ से..
जो न हो हरि की मुहब्बत के सफीने पर सवार
बहरे-दुनिया कर नहीं सकता किसी सूरत से पार..
इस हकीकत को समझ कर कीजिये खालिक को याद..
बे इबादत के, गुज़र जाते हैं सब दिन बेमुराद..
मिल गया है 'सूर' मौक़ा कुछ उठा लें फ़ायदा..
फिर न होगा इस जहाँ की ज़िन्दगी से वास्ता..
[ 24 ]
जौ मन कबहुँक हरि कौ जांचै..
आन प्रसंग उपासन छाँडै, मन-वच-कर्म अपने उर सांचै..
निसि दिन स्याम सुमिरि जस गावै, कलपन मेटि प्रेम रस मांचै..
यह ब्रत धरे लोक मैं बिचरै, सम करी गिने महामनि कांचै..
सीत-ऊश्न, सुख-दुःख नहिं मानै, हानि-लाभ कछु सोंच न रांचै..
जाइ समाइ 'सूर' वा विधि मैं, बहुरि न उलटि जगत मैं नांचै..

परख ले दिल अगर ज़ाते-हरी को.
तो गैरों की इबादत तर्क कर के.
बने क़ौलो-अमल से, दिल से हक़-गो
रहे दिन-रात ज़िक्रे-श्याम लब पर
डुबो दे प्रेम रस में बेकली को..
जहाँ में घूमे गर ये अज़्म लेकर
तो समझे कांच को हीरे को यकसां
असर कुछ भी न सर्दो-गर्म का ले
किसी सूरत भी दुःख-सुख को न माने
नफ़ा होता हो, या होता हो नुक़सां
उभरने दे न हरगिज़ बद-दिली को..
समो दे 'सूर' ख़ुद को यूँ खुदा में
न झेले फिर जहाँ की बरहमी को..
[ 25 ]
झूठे ही लगि जनम गँवायौ.
भूल्यो कहा स्वपन के सुख मैं, हरि सौं चित न लगायौ..
कबहुँक बैठ्यो रहिस-रहिस कै, ढोटा गोद खिलायौ..
कबहुँक फूलि सभा मैं बैठ्यो, मूछनि ताव दिखायौ..
टेढी चाल, पाग सिर टेढी, टेढ़ैं टेढ़ैं धायौ..
'सूरदास' प्रभु क्यों नहिं चेतत, जब लगि काल न आयौ..

बरबाद कर दी झूठ में पड़कर ये ज़िन्दगी
गाफिल हुआ है पा के फ़क़त ख्वाब की खुशी..
खालिक़ से लौ लगाई नहीं एक पल कभी..
हो-हो के मस्त, बैठ के आसाइशों के साथ..
औलाद को खिलाता रहा गोद में कभी.
मगरूर बन के बैठा कभी महफ़िलों के बीच..
मूछों को अपनी ऐंठ के दिखलाई हेकडी
साफ़े को तिरछा बाँध के, बांकी बना के चाल.
भटका किया इधर से उधर थी वो कज-रवी..
ऐ 'सूर' ! इस से पहले कि आये पयामे-मौत..
क्यों होश में तू आता नहीं, क्यों है बे-दिली..
[ 26 ]
जैसैं राखहु तैसैं रहौं.
जानत हौं दुःख-सुख सब जन के, मुख करि कहा कहौं.
कबहुँक भोजन लहौं कृपानिधि, कबहुँक भूख सहौं..
कबहुँक चढ़ौं तुरंग महागज, कबहुँक भार बहौं..
कमल नयन, घनस्याम मनोहर, अनुचर भयौ रहौं..
'सूरदास' प्रभु ! भगत कृपानिधि, तुम्हारे चरण गहौं..

जैसे रखते हैं उसी हाल में रहता हूँ मैं.
आप दुःख-सुख से हैं बन्दों के बखूबी वाक़िफ़,
इसलिए कुछ भी ज़बां से नहीं कहता हूँ मैं..
कभी खाना जो मयस्सर हो तो खा लेता हूँ,
भूख का बोझ कभी हंस के उठा लेता हूँ..
घोडे-हाथी पे कभी बैठ के खुश होता हूँ.
कभी मजदूर की मानिंद वज़न ढोता हूँ..
चाहता हूँ कि रहूँ श्याम का खादिम बन कर
ज़िन्दगी 'सूर' हो बस श्याम के चरनों में बसर..
[ 27 ]
यह सब मेरियै आई कुमति..
अपनै ही अभिमान दोष दुःख, पावत हौं मैं अति..
जैसैं केहरि उझकि कूप जल, देखै आप परति..
कूद परयौ कछु भरम न जान्यौ, भई आइ सोई गति..
ज्यौं गज फटिक सिला मैं देखत, दसननि डारत हति..
जौ तू 'सूर' सुखहिं चाहत है, तौ क्यों बिषय बिरति..

ये तो मेरी ही बद-अक्लियों का,है नतीजा जिसे झेलता हूँ..
अपने पिन्दार की सब खता है, रंजो-गम में जो मैं मुब्तिला हूँ.
देख कर अपनी परछाईं जैसे, नासमझ शेर कूएँ में कूदे,
मेरी हालत भी है उसके जैसी, कुछ भी करता हूँ बे सोचे-समझे.
संगे बिल्लौर में अपनी सूरत, देख कर जैसे बदमस्त हाथी,
दांत से मारे टक्कर पे टक्कर, और हो जाए बे वज्ह ज़ख्मी
मैं भी ख़ुद अपनी नादानियों से, आये दिन चोट खाता हूँ गहरी..
चाहता है अगर 'सूर' खुशियाँ, वादियों से निकल आ हवस की.
**************************** क्रमशः

मंगलवार, 12 अगस्त 2008

परवेज़ फ़ातिमा की दो ग़ज़लें

[ 1 ]
यकीं करो, न करो, है ये अख्तियार तुम्हें
वफ़ा पे अपनी, नहीं ख़ुद भी एतबार तुम्हें
दिलो-दमाग़ की तकरार से है कब फुर्सत
किसी भी लमहा मयस्सर नहीं क़रार तुम्हें
न जाने कैसा ये आलम है ख़ुद-फरेबी का
कि रेगज़ार भी लगता है लालाज़ार तुम्हें
अना तुम्हारी डुबो देगी एक दिन तुमको
न होश आ सका होकर भी शर्मसार तुम्हें
चुभोते आए हो अबतक जिन्हें ज़माने को
मिलेंगे देखना राहों में अब वो खार तुम्हें
वो कश्ती जिसको डुबोने की तुमको जिद सी है
वाही निकालेगी तूफां से बार-बार तुम्हें
[ 2 ]
कहते हैं वो तह्ज़ीबो-रिवायात मिटा दो
ये सब हैं बुजुर्गों के तिलिस्मात, मिटा दो
गैरों की हुकूमत हमें अच्छी नहीं लगती
गैरों की हुकूमत के निशानात मिटा दो
जिस तर्ह भी हम चाहेंगे तारीख लिखेंगे
जो राह में हायल हैं वो जज़बात मिटा दो
माज़ी पे तुम्हें फ़ख्र है, नादान हो शायद
बेहतर है कि माज़ी के खयालात मिटा दो
महफूज़ हो जिनमें कहीं नसलों की फ़जीलत
चुन-चुन के वो लायानी इबारात मिटा दो
*******************