बुधवार, 6 अगस्त 2008

तुमने तहरीक मुझे दी थी कि जाओ देखो / मीरा जी

[मीरा जी (1912-1949) उन गिने-चुने उर्दू कवियों में हैं जो अपनी छोटी सी जिंदगी में बड़ी सी पहचान छोड़ गए.गुजरानवाला में जन्मे मुहम्मद सनाउल्लाह सनी दर को मीरा सेन के इश्क ने मीरा जी बना दिया.उनके पिता इंडियन रेलवेज़ में इंजिनियर थे. लेकिन मीरा जी अपना घर छोड़कर बंजारों की जिंदगी गुजारना अपना मुक़द्दर बना चुके थे. स्कूल से नाम जरूर कटवा लिया लेकिन गहन अध्ययन के स्कूल की स्थायी सदस्यता कभी नहीं छोड़ी. अदबी दुनिया लाहौर, साकी दिल्ली और ख़याल बम्बई जैसी उच्च साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़े रहे.कुछ वर्षों आल इंडिया रेडियो दिल्ली में भी काम किया. संस्कृत और फ्रेंच साहित्य से प्रभावित थे. विशेष रूप से बादलेयर से. उर्दू कविता में प्रतीकात्मकता को जन्म देने का श्रेय मीरा जी को है. संस्कृत कवि दामोदर गुप्त और फ़ारसी कवि उमर खैयाम का अनुवाद करके उन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा का लोहा मनवा लिया. किंतु जिंदगी को शराब में इस गहराई तक डुबो चुके थे कि तैर कर बाहर निकलने का कोई रास्ता बचा नहीं रह गया.]
तुमने तहरीक मुझे दी थी कि जाओ देखो
चाँद तारों से परे और भी दुनियाएं हैं
तुमने ही मुझसे कहा था कि ख़बर ले आओ
मेरे दिल में वहीं जाने की तमन्नाएं हैं

और मैं चल दिया, कुछ गौर किया कब इसपर
कितना महदूद है इंसान की कूवत का तिलिस्म
बस यही जी को ख़याल आया तुम्हें खुश कर दूँ
ये न सोचा कि यूँ मिट जायेगा राहत का तिलिस्म

और अब हम्दमियो-इशरते-रफ़्ता कैसी
आह अब दूरी है, दूरी है, फ़क़त दूरी है
तुम कहीं और कहीं मैं नहीं पहले हालात
लौट के आभी नहीं सकता ये मजबूरी है

मेरी किस्मत की जुदाई तुम्हें मंज़ूर हुई
मेरी किस्मत को पसंद आयीं न मेरी बातें
अब नहीं जलवागहे-खिल्वते शब अफ़साने
अब तो बस तीरओ तारीक हैं अपनी रातें
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मंगलवार, 5 अगस्त 2008

लेकिन मैं यहाँ फिर आऊंगा / अली सरदार जाफ़री

फिर एक दिन ऐसा आएगा
आंखों के दिये बुझ जायेंगे
हाथों के कँवल कुम्हलाएँगे
और बर्गे-ज़बां से नुत्क़ो-सदा
की हर तितली उड़ जायेगी

इक काले समंदर की तह में
कलियों की तरह से खिलती हुई
फूलों की तरह से हंसती हुई
सारी शक्लें खो जायेंगी
खूं की गर्दिश दिल की धड़कन
सब रागिनियाँ सो जायेंगी
और नीली फ़िज़ा की मख़मल पर
हंसती हुई हीरे की ये कनी
ये मरी जन्नत मेरी ज़मीं
इसकी सुब्हें इसकी शामें
बे जाने हुए बे समझे हुए
इक मुश्ते-गुबारे-इन्सां पर
शबनम की तरह रो जायेंगी

हर चीज़ भुला दी जायेगी
यादों के हसीं बुतखाने से
हर चीज़ उठा दी जायेगी
फिर कोई नहीं ये पूछेगा
सरदार कहाँ है महफ़िल में ?

लेकिन मैं यहाँ फिर आऊंगा
बच्चों के दहन से बोलूंगा
चिडियों की जुबां में गाऊँगा
जब बीज हँसेंगे, धरती से
और कोपलें अपनी ऊँगली से
मिट्टी की तहों को छेड़ेंगी
मैं पत्ती-पत्ती कली-कली
अपनी आँखें फिर खोलूंगा
सरसब्ज़ हथेली पर लेकर
शबनम के क़तरे तोलूँगा
मैं रंगे-हिना आहंगे-ग़ज़ल
अंदाजे-सुखन बन जाऊँगा.
रुख्सारे-उरूसे-नौ की तरह
हर आँचल से छन जाऊँगा

जाड़े की हवाएं दामन में
जब फ़स्ले-खिजां को लायेंगी
रह्वों के जवाँ क़दमों के तले
सूखे हुए पत्तों में मेरे
हंसने की सदाएं आएँगी
धरती की सुनहली सब नदियाँ
आकाश की नीली सब झीलें
हस्ती से मेरी भर जायेंगी
और सारा ज़माना देखेगा
हर किस्सा मेरा अफसाना है
हर आशिक है सरदार यहाँ
हर माशूका सुल्ताना है

मैं एक गुज़रता लम्हा हूँ
अय्याम के अफसूँ खाने में
मैं एक तड़पता क़तरा हूँ
मसरूफ़े-सफ़र हो जाऊँगा
माजी की सुराही के दिल से
मुस्तकबिल के पैमाने में
मैं सोता हूँ और जागता हूँ
सदियों का पुराना खेल हूँ मैं
मैं मर के अमर हो जाऊँगा
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मेडिकल कालेज का एक कमरा और मैं / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

इब्तिदाई अल्फाज़
जनवरी 1991 में जब मैं हार्ट अटैक की ज़द में आया, मुझे यूनिवर्सिटी के मेडिकल कालेज में डाल दिया गया. अस्पतालों से मैं बहोत घबराता था और उन्हें खुदा जाने क्यों इलाज-गाह के बजाय क़त्ल-गाह समझता था. चालीस-पैतालीस दिन अस्पताल में रहना कोई मामूली बात न थी. सुबह शाम कार्डियोग्राफी, ज्यादा बोलने पर पाबंदी, कभी नब्ज़ देखने और कभी टेम्परेचर देखने के लिए रोज़ नई नई नर्सों का आना जाना, टाइलेट के अलावा चलने फिरने की कत्तई इजाज़त नहीं, अजब मुसीबत थी. इन हालात में नज्में ग़ज़लें लिखने के आलावा और करता भी क्या. ये नज़्म मेडिकल कालेज के इसी तजरबे और एहसास की तर्जुमान है. [ज़ैदी जाफ़र रज़ा]
धडकनों के पेचो-ख़म का ढूँढने निकला था हल
दफ़अतन झपटे मेरी जानिब दरिन्दाने-अजल
रहमते-यज़दाँ ने लेकिन की हिफ़ाज़त बर-महल
इज़्तिराबे-क़ल्ब ने पाया सुकूने-लायज़ल

इस्तिलाहे-आम में कहते है जिसको अस्पताल
मुद्दतों जिसको समझता आया मैं जाए-क़िताल
सरहदें जिसकी मेरी नज़रों में थीं काँटों का जाल
अब करम-फ़रमा हैं मुझ पर, उसकी आंखों के कँवल

सुब्ह आते ही, छिड़क जाती है अफ़्शां चार सू
नूरो-नगहत, संदलीं साग़र से करते हैं वज़ू
भावनाओ-तल'अतो-फरजाना के जामो-सुबू
नर्मिए-साक़ी से मयनोशी का जारी है अमल

वैसे तो पाबंदियां रहती हैं मुझपर बेशुमार
लब हिलाना जुर्म है, और बोलना ना-साज़गार
दस्तो-पा हैं, फिर भी चलने का नहीं है अख़तियार
खून की रफ़्तार, नब्जों का चलन, बैते-ग़ज़ल

बेडियाँ पैरों में, हाथों में पिन्हा कर हथकडी
कार्डियोग्राफी की लैला, आफतों की फुलझडी
दिन में दो-दो बार मुझको छेड़ती है दो घड़ी
तायरे-आज़ाद को मुश्किल से मिल पाता है कल

नर्मो-नाज़ुक उँगलियों के लम्स से नब्ज़ों के तार
झनझना उठते हैं अज ख़ुद, बे झिझक बे-अख़तियार
साज़े-दिल पर राग बज उठते हैं बालाए-शुमार
ये वो मौसीकी है जिसका कुछ नहीं नेमुल्बदल

मुझको डर है उँगलियों से होके कोई सुर्ख रंग
मेरी नब्ज़ों में न दर आए कहीं मिस्ले-फ़िरंग
और फिर आहिस्ता-आहिस्ता बना ले इक सुरंग
यूँ कहीं तामीर हो जाए न उल्फ़त का महल

मुझको ये जन्नत न रास आएगी तेरी ऐ खुदा
गफ़लत-आगीं वो खुमार आलूद है इसकी हवा
मुझसे कहती है मुहब्बत से मेरे दिल की सदा
ऐ क़लन्दर ! अब यहाँ से चल, यहाँ से दूर चल

जगमगाती शमओं के हर नीम-वा लब को सलाम
सर्व-क़द रौशन दरीचों के हर इक ढब को सलाम
इस म'आलिज-गाह के दीवारोदर सबको सलाम
जा रहा हूँ मैं, कि दिल क़ाबू में है कुछ आज-कल
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पसंदीदा शायरी / अख्तर शीरानी

दो ग़ज़लें
निकहते-ज़ुल्फ़ से नींदों को बसा दे आकर
मेरी जागी हुई रातों को सुला दे आकर
किस क़दर तीरओ-तारीक है दुनिया मेरी
जल्वए-हुस्न की इक शमअ जला दे आकर
इश्क़ की चाँदनी रातें मुझे याद आती हैं
उम्रे-रफ़्ता को मेरी मुझसे मिला दे आकर
जौके-नादीद में लज्ज़त है मगर नाज़ नहीं
आ मेरे इश्क़ को मगरूर बना दे आकर
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मस्ताना पिए जा यूँ ही मस्ताना पिए जा
पैमाना तो क्या चीज़ है मयखाना पिए जा
कर गर्क मयो-जाम गमे-गर्दिशे अयियाम
अब ए दिले नाकाम तू रिन्दाना पिए जा
मयनोशी के आदाब से आगाह नहीं तू
जिया तरह कहे साक़िए-मयखाना पिए जा
इस बस्ती में है वहशते-मस्ती ही से हस्ती
दीवाना बन औ बादिले दीवाना पिए जा
मयखाने के हंगामे हैं कुछ देर के मेहमाँ
है सुब्ह करीब अख्तरे-दीवाना पिए जा
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सोमवार, 4 अगस्त 2008

प्रोफ़ेसरी / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

[ एक तंज़िया नज़्म, यूनिवर्सिटी के उस्तादों से माज़रत के साथ ]

इल्मो-हुनर की दौड़ है दर्दे - सरी की दौड़
दिन रात जाँ खपाती है दानिशवरी की दौड़
तहकीक़ का तो काम है कुबके दरी की दौड़
अच्छी है सबसे दौड़ में प्रोफेसरी की दौड़.

कैसा भी कैरियर हो न कुछ फ़िक्र कीजिये
गढ़ गढ़ के, कारनामों का बस ज़िक्र कीजिये
दिलबर समझिये सबको, ये है दिलबरी की दौड़
अच्छी है सबसे दौड़ में, प्रोफेसरी की दौड़

गर डीन आपका है, चेयरमैन आपका
बस जान लीजिये कि है सुख चैन आपका
इक छोटी-मोटी है ये फ़क़त फ़्लैटरी की दौड़
अच्छी है सबसे दौड़ में प्रोफेसरी की दौड़

कुछ शैखे-जामिया से तअल्लुक़ बनाइये
रूठे हों देवता जो उन्हें भी मनाइए
जादू ज़बान बनिए, है जादूगरी की दौड़
अच्छी है सबसे दौड़ में, प्रोफेसरी की दौड़

प्रोमोशनों के दौर में है और भी मज़ा
अच्छा बुरा है कौन, ये है कौन देखता
होती है आज थोक में सौदागरी की दौड़
अच्छी है सबसे दौड़ में, प्रोफेसरी की दौड़

आलिम अगर नहीं हैं, तो बन जाइये जनाब
मैटर उडा उड़ा के, बना लीजिये किताब
चोरी का रास्ता है उड़नतश्तरी की दौड़
अच्छी है सबसे दौड़ में प्रोफेसरी की दौड़.
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सूफ़ी तत्त्व-चिंतन और कबीर / प्रोफ़ेसर शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 2]

कबीर द्वैत-अद्वैत से परे परम सत्ता को एकान्तिक और संख्यातीत मानते हैं. यह आस्था इब्ने अरबी की ही नहीं अनेक अन्य सूफियों की भी है. परम अस्तित्व केवल उस एकान्तिक सत्ता का है. प्रश्न अस्तित्व, सत्ता या वुजूद के एकत्व (वहदत) को समझने का है. जीव और जगत तत्त्व उससे भिन्न नहीं हैं. वह भेद रहित है. बीजक की यह पंक्ति इस दृष्टि से विचारणीय है - 'जब हम रहल, रहल नहिं कोई / हमरे मांह रहल सब कोई.'
यहाँ कबीर ने सूफियों के इजमाल (संकुचन) और तफ़सील (विस्तारण) के सिद्धांत की पुष्टि करते हुए जगत की भेद-रहित स्थिति और उसके उसी स्थिति से प्रकट होने का संकेत किया है. सूफियों के अनुसार नबीश्री हज़रत दाउद की जिज्ञासा पर परमात्मा ने उन्हें बताया "कुंत कन्ज़न मख्फ़ीअन फ़'अज़ैत इन्न आरिफ़ फ़ख़लक़्तुल खलक़ लिआरिफ़" अर्थात् मैं एक छुपी हुई निधि था, मेरी इच्छा हुई कि मैं पहचाना जाऊं,अतः मैं ने जगत की रचना की जिससे कि मैं पहचाना जा सकूँ. इस कथन की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया गया है कि परम सत्ता समस्त गुणों से युक्त है और जगत उस सत्ता के गुणों का ही प्रतिरूप है. यह छुपी हुई निधि अर्थात् जगत उस परम सत्ता में उसी प्रकार निहित थी जिस प्रकार बीज में वृक्ष.(शेख अब्दुल कुद्दूस गंगोही, रुश्द्नामा, हस्त लिखित).कबीर का अभिप्रेत भी यही जान पड़ता है. अभिनव गुप्त ने बटघानिका के दृष्टांत से यद्यपि यही बात कही है "न्याग्रोध बीजस्थ शक्ति रूपों महाद्रुम / तथा ह्रदय बीजस्थ जगदेच्चराचरम" किंतु कबीर की विचारधारा इससे थोड़ा हटकर है. कबीर ने अन्य स्थलों पर भी "आपणा माझे आप छिपाया" तथा " सूक बिरख यह जगत उपाया" के माध्यम से अपनी अवधारण स्पष्ट की है.
जिस समय केवल बीज होता है, प्रकट रूप में न शाखाएँ होती हैं, न पत्ते, न फूल और न फल. किंतु बीज के भीतर ये सभी विद्यमान होते हैं. "हमरे मांह रहल सब कोई" कहकर कबीर परम सत्ता के भीतर विद्यमान किंतु अदृश्य जगत की इसी स्थिति का संकेत करते हैं. और फिर यह उदघोष "खालिक खलक़, खलक़ मैं खालिक, , सब घट रह्यो समाई" इस तथ्य को और भी गहरा देता है कि समस्त जीवात्माओं से भरे इस जगत को परम सत्ता से अलग नहीं किया जा सकता. शंकर का अद्वैत इस अवधारणा के साथ मेल नहीं खाता. कबीर परम सत्ता की अद्वितीयता और आत्मा परमात्मा की अभिन्नता को स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करते हैं - "हम सब माहिं, सकल हम माहीं / हम थैं और दूसरा नाहीं." सूफी कवि उसमान ने इसी विचार को चित्रावली में इन शब्दों में व्यक्त किया है-"सब वह भीतर वह सब माहिं / सबै आपु दूसर कोई नाहिं."
जगत की रचना से पूर्व भी परमात्मा की अनादि, अनंत एकान्तिक सत्ता अपनी अदभुत अद्वितीयता के साथ विद्यमान थी. प्रख्यात एकत्ववादी सूफी तत्ववेत्ता एवं कवि अबू सईद अबिल्खैर (मृ0 1049 ई0) एक स्थल पर लिखते हैं -
आं वक़्ते कि ईं अन्जुमो-अफ़लाक न बूद.
ईं आबो-हवा व आतिशो-ख़ाक न बूद.
असरारे-यगानगी सबक़ मी गुफ़्तम,
ईं क़ालिबो-ईं- नवा व इदराक न बूद..

(रुबाइयाते-अबूसईद अबिल्खैर, लाहौर पृ0७०).
अर्थात्- “प्रभु का कथन है कि जिस समय यह सितारे और आकाश न थे और ये पानी, हवा, आग, और धरती तत्व न थे, मैं उस समय भी अपनी अद्वितीयता के रहस्यों का पाठ कर रहा था. किंतु जीवात्मा की इस काया और इसमें विद्यमान ध्वनि और बुद्धि के न होने के कारण उन रहस्यों को समझने वाला कोई नहीं था."
अबू स'ईद अबिल्खैर के उपर्युक्त कथन की तुलना कबीर की इन पंक्तियों के साथ कीजिए -
समद नाहीं, सिषर नाहीं, धरती नाहीं गगना,
रवि ससि दोउ एकै नाहीं, बहत नाहीं पवना,
नाद नाहीं, ब्यंद नाहीं, काल नाहीं काया,
जब तैं जलब्यंद न होते, तब तूं ही राम राया.
(पदावली,219)
अबू स'ईद अबिलखैर का दृढ़ विश्वास था कि परम सत्ता पिंड में स्थित है और इस मनुष्य को चाहिए कि मक्के में स्थित काबे का हज करने के बजाय पिंड में स्थित काबे का हज करे जहाँ प्रभु का निवास है आर.सी. जेहनेर, (हिंदू एण्ड मुस्लिम मिस्टिसिज़्म, पृ0 177). कबीर भी "सत्तर काबे इक दिल भीतर" की घोषणा करते हैं. कबीर के सूफी चिंतन को समझने के लिए आवश्यक जान पड़ता है कि प्रसिद्ध सूफी अब्दुल्लाह अंसारी (1005-1089) की एक मुनाजात पर विचार कर लिया जाय. पूरी मुनाजात यहाँ रूपांतरित करना उपयुक्त नहीं है, इसलिए सार रूप में मुनाजात के कुछ अंश प्रस्तुत हैं-
“जान लो कि नबी ने पानी और मिट्टी से / एक बाह्य काबा निर्मित किया./ और प्राण और ह्रदय में एक आतंरिक काबा भी / बाह्य काबा पवित्र इब्राहीम ने /और आतंरिक काबा अल्लाह ने स्वयं बनाया./भरपूर प्रयास करो /कि आतंरिक काबे की उपासना कर सको /ह्रदय पर विजय प्राप्त करो /ताकि कुछ बन सको / एक व्यक्ति वह है जिसने सत्तर वर्ष पढ़ा /और कोई प्रकाश न कर सका /एक वह है जिसने कभी कुछ पढा ही नहीं / बस एक शब्द उसके कानों में पड़ गया /जिसे उसने आत्मसात कर लिया /और वह तृप्त हो गया /इस मार्ग में कोई तर्क नहीं है,/बस खोजो, ताकि सत्य को पा सको.”
(द पर्शियन मिस्टिक्स, पृ0 35)
कबीर के "कांकर पाथर जोड़ के, मस्जिद लियो बनाय" तथा "पोथी पढि पढि जग मुवा, भया न पंडित कोय / ढाई आखर प्रेम का, पढे सो पंडित होय." का गूढार्थ उपर्युक्त मुनाजात के प्रकाश में बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है. " पूजा करूँ न निमाज गुजारूं, / इक निराकार ह्रदय नमस्कारुं" कहने वाले कबीर यह देख कर दुखी हैं कि "मन मसीत किनहूं न जाना". वे आकाश के बीच बहने वाली सरिता अर्थात हौज़े-कौसर में स्नान कर चुके हैं - "आसमान म्याने लहंग दरिया, तहां गुसल करदा बूद." इस लिए मुस्लिम मुल्लाओं को मधुर कंठ में अजान देने और नमाज़ के लिए मुसल्ले (जानमाज़) पर जम कर बैठने के बजाय चित्त के भीतर नमाज़ पढ़ने का उपदेश देते हैं. ऐसे मुल्ला के नाम की गूँज सर्वत्र फैल जायेगी.
मुलनां बंग देइ सुर जानीं, आप मूसला बैठा तानीं.
आपुन में जे करै निमाजा, सो मुलना सर्बत्तर गाजा
वस्तुतः यह "कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर" की अवधारणा को व्यावहारिक रूप देने की स्थिति है. यहाँ "काबा फिर कासी भया" के मर्म को अनुभव के धरातल पर महसूस करने किया जा सकता है. यहाँ "हज काबे को जाइथा, आगे मिला खुदाई / मीरां मुझसे यों कहा, तुझे किन्हीं फरमाई" की मंजिल मुखर हो उठी है. 'आपुन में जे करै निमाजा' के गूढ़ अर्थ को समझने के लिए फ़ारसी कवि मलिक मसऊद का निम्न लिखित शेर द्रष्टव्य है -
नमाज़ि-मस्ति-खराबात नौइ-दीगर दान
दरिन नमाज़ न बाशद रवा रुकूओ-सुजूद

अर्थात्- उसके मदिरालय से इश्क की शराब पीकर जो मस्त हैं उनकी नमाज़ कुछ और ही प्रकार की है. उस नमाज़ में रुकू और सजदे की अपेक्षा नहीं रहती.स्पष्ट है कि यह नमाज़ आम मुसलामानों की तरह मुसल्ले पर बैठ कर नहीं पढी जाती. साधक इसे ध्यानावस्था में ही पढ़ता है.
अबू स'ईद अबिलखैर, अब्दुल्लाह अंसारी, बायजीद बिस्तामी, सरमद इत्यादि सूफियों की एक बड़ी संख्या है जो पवित्र काबे को चित्त के भीतर ही स्वीकार करते हैं. उनकी दृष्टि में 'काबा' साधक और साध्य का मिलन स्थल है और हज साधना मार्ग का प्रतीक. इस स्थिति को स्वीकार किए बिना यदि साधक काबे के स्थूल रूप के पीछे दौड़ता है तो उसका गुरु भी उससे प्रसन्न नहीं होता - "हज काबे ह्वै ह्वै गया, केती बार कबीर / मीरां मुझ में क्या खता, मुखां न बोलै पीर" किंतु कबीर को गुरु-कृपा से अपनी मूर्खता का शीघ्र ही आभास हो गया -"ज्यूँ नैनन में पूतली, त्यूं खालिक घट माहिं / मूरखि लोग न जाणहीं, बाहर ढूँढण जाहिं", अब कबीर को हज के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं रह गई.
ख्वाजा फरीदुद्दीन अत्तार ने अपने एक शेर में कहा है-"हरचे दीदी ज़ाति-पाके-ऊ बुवद / ईं चुनीं दीदन तरा नेकू बुवद" अर्थात्- तू जो कुछ देखता है सब उसी की परम सत्ता है. तेरा इस प्रकार देखना तेरे लिए शुभ सिद्ध हुआ. श्रीप्रद कुरआन में कहा गया है- "फ़ऐनुमा तवल्लू फ़सम्म वजहुल्लाह"(24/35) अर्थात् तुम जिधर भी मुंह करोगे उधर अल्लाह का चेहरा होगा. मिर्जा गालिब से जब धर्मोपदेशक (वाइज़) ने मस्जिद में बैठकर शराब पीने से मना किया तो उनका कवि सहज भाव से कह उठा -"वाइज़ शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर / या वो जगह बता कि जहाँ पर खुदा न हो."कबीर के समक्ष भी ऐसी समस्या आई होगी जिसपर कबीर की असहमतिमूलक चेतना कसमसा उठी और कबीर ने बड़े तीखे ढंग से चोट की -"जहाँ मसीत देहुरा नाहीं, तहं काकी ठकुराई." कबीर का साधना-जन्य ज्ञान उनपर कुछ और ही सत्य उदघाटित कर चुका था- "जहाँ जहाँ जाई, तहां तहां रामा." फरीदुद्दीन अत्तार के उपर्युक्त शेर की सहज गूँज कबीर में सर्वत्र देखी जा सकती है.
कबीर भी अपने पूर्ववर्ती सूफियों की भाँति श्रीप्रद कुरआन की इस आयत में आस्था रखते हैं -"अल्लाहु नूरुस्समावति वल अर्ज़" अर्थात परम सत्ता पृथ्वी और आकाश की ज्योति है. उस ज्योतिस्वरूप परमात्मा ने अपने सौन्दर्य (जमाल) का दर्शन करने की इच्छा से स्वयं को जो सूक्ष्म था, अपना दर्पण बनाया अर्थात स्थूल रूप में व्यक्त किया और अपने सौन्दर्य का अपने आप में दर्शन किया. कबीर के अनुसार परम सत्ता -"आपन रूप को आपहि जानै, आपन रहै अकेला" यहाँ अकेला शब्द संख्यावाचक न होकर अस्तित्व या सत्ता के एकत्व का द्योतक है जो पूर्ण, अद्वितीय एवं भेद रहित है. भेद की पूँछ पकड़ कर भवसागर नहीं पार किया जा सकता-" पूँछ ज पकडी भेद की,उतरा चाहै पार." इसके लिए एकान्तिक सत्ता (वुजूदे-मुतलक) से परिचय होना आवश्यक है जो पूर्ण मानव (इन्सान-कामिल), वली, सद्गुरु और सिद्ध पुरूष है. इस परिचय के बाद सम्पूर्ण दुःख समाप्त हो जाता है. -"पूरे से परिचय भया, सब दुःख मेल्या दूरि" यह "जो जाँचौ तो केवल राम" और "केवल राम रहै ल्यौ लाइ." की स्थिति है, पूर्णतः भेद रहित है. यहाँ "मैं तैं, तैं मैं,ए द्वै नाहीं" का अनुभूतिजन्य ज्ञान अनिवार्य है. इसके बाद "हरि मैं तन है, तन मैं हरि है" की वास्तविकता का सहज बोध हो जाता है. अबू स'ईद अबिल खैर की प्रसिद्ध रुबाई द्रष्टव्य है-
मन तू शुदम तू मन शुदी, मन तन शुदम तू जां शुदी
ताकस न गोयद बाद अज़ीं, मन दीगरम तू दीगरी

(रुबाइयाते-अबू स'ईद अबिल खैर,लाहौर, पृ0 17)
अर्थात्- मैं तू हो गया, तू मैं हो गया, मैं शरीर हो गया, तू प्राण हो गया, ताकि फिर कोई यह न कह सके कि मैं कोई और हूँ और तू कोई और.
मालिक मुहम्मद जायसी के काव्य का विवेचन करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है -'इस अद्वैतवाद के मार्ग में बाधक होता है अंहकार. यह अंहकार यदि छूट जाय तो इस ज्ञान का उदय हो जाय कि सब मैं ही हूँ. मुझ से अलग कुछ नहीं है.'(जायसी ग्रंथावली, भूमिका,पृ0 146). कबीर का व्यक्तित्व इस ज्ञान के उदय से पूरी तरह जगमगा उठा था. जभी तो कबीर निःसंकोच भाव से कहते है -"मैं मैं मेरी जिन करैं, मेरी मूल बिनास" और अंततः "जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं / सब अंधियारा मिटि गया, दीपक देख्या माहिं" इतना ही नहीं, "तूं तूं करता तूं भया, मुझ में रही न हूँ" कबीर में ज्ञान का यह उदय उन्हें मंसूर हल्लाज, बायजीद बिस्तामी और समद की पंक्ति में खड़ा कर देता है. तत्वज्ञान की यह एकत्ववादी परम्परा वैष्णव कवियों की रचनाओं में नहीं दिखायी देती. राममय होना और स्वयं राम हो जाना, दो अलग-अलग स्थितियां हैं. कबीर का रामत्व परम सत्ता की अनंतता का गुण है. इसलिए कबीर स्पष्ट शब्दों में उदघोष करते हैं - "राम मरैं तब हमहूँ मरिहैं". किंतु कबीर को संसारी जनों की नश्वरता का पूरी तरह आभास है. कबीर का रामत्व सांसारिकता से पूरी तरह मुक्त है. "हम न मरैं, मरिहै संसारा" में इसी तथ्य का संकेत है.
सूफ़ी कवियों ने श्रीप्रद कुरआन के आधार पर परम तत्व की अद्वितीयता और सौन्दर्यशीलता का अदभुत विवेचन किया है. उनके अनुसार परम तत्व की ज्योति से समस्त संसार प्रकाशित है. सम्पूर्ण सृष्टि की दीप्ति और सौन्दर्य उसी से उदभासित है. हाफिज़ शीराजी की दृष्टि में "हर दो आलम यक फ़रोगे-रूए-उस्त" (दीवाने-हाफिज़, लाहौर, पृ0 459).अर्थात् - दोनों लोक उसके मुख के तेज से आलोकित हैं. कबीर ने इसी तथ्य को इन शब्दों में व्यक्त किया है- "कबीर तेज अनंत का, मानो ऊगी सूरज सेणि" कबीर की दृष्टि में उसका तेजयुक्त सौन्दर्य वाणी द्बारा व्यक्त नहीं किया जा सकता. वह तो एकमात्र दर्शन का विषय है- "कहिबे को सोभा नहीं, देख्या ही परवान." वह परम सत्ता तेज पुंज पारस घणी है. जहाँ मलिक मुहम्मद जायसी सृष्टि की लालिमा में प्रियतम के आलोक का परम साक्षात्कार करते हैं (पदमावत, पृ0 98), वहीं कबीर भी "लाली मेरे लाल की, जित देखो तित लाल / लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल." के आनंदप्रद अनुभव से गुज़रे बिना नहीं रहते.
सूफ़ी कवियों ने नबीश्री की हदीस "परम सत्ता ने अपने नूर से सर्वप्रथम मेरे नूर की सृष्टि की" के आधार पर नबीश्री हज़रत मुहम्मद (स.) की ज्योति को सम्पूर्ण सृष्टि की रचना का कारण स्वीकार किया है. ख्वाजा फरीदुद्दीन अत्तार ने इस प्रसंग में कहा है-
हक़ चूँ दीद आं नूरे-मुतलक दर हुज़ूर
आफरीद अज़ नूरे-ऊ सद बहरे नूर
. (मन्तिक़ुत्तयर, लखनऊ,पृ0 16)
अर्थात्-परम सत्य प्रभु ने अपना प्रकाश जब हज़रत मुहम्मद में देखा तब उनके प्रकाश से सृष्टि रुपी प्रकाश के सागर को पैदा किया.
"प्रथम जोति बिधि ताकर साजी / औ तेहि प्रीति सिहटि उपराजी" (पदमावत,पृ0 ४), के माध्यम से जायसी ने इसी आस्था का उदघाटन किया है. "एक ज्योति संसारा" के पक्षधर कबीर की आस्था मलिक मुहम्मद जायसी सहित अन्य सूफ़ी कवियों से भिन्न नहीं है. कबीर की यह पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -
अल्ला एक नूर उपाया, ताकी कैसी निंदा
ता नूर थैं सब जग कीया, कौन भला कौ मंदा
.(पदावली, 51)
यहांपर यद्यपि कबीर ने हज़रत मुहम्मद (स.) का नामोल्लेख नहीं किया है, किंतु उनका अभिप्रेत वही है जो अन्य सूफियों का है. आगे की पंक्तियों में यह बात और स्पष्ट हो जाती है. इब्ने अरबी की परम्परा के सूफियों ने नबीश्री को इन्साने-कामिल अर्थात् पूर्ण मानव स्वीकार किया है. यह पूर्ण मानव परम सत्ता की प्रतिमूर्ति है. सद गुरु के ज्ञानोपदेश से जब इस पूर्ण मानव का सान्निध्य प्राप्त हो जाता है. तो सभी प्राणियों में परम सत्ता का वास दृष्टिगत होता है -"ता अला की गति नहीं जानी गुरु गुड दिया मीठा. / कहै कबीर मैं पूरा पाया, सब घटि साहब दीठा."यहाँ पूरा पाया का प्रयोग द्रष्टव्य है.
मैं समझता हूँ कि उपर्युक्त विवेचन के आधार पर एक बात स्पष्ट हो जाती है कि कबीर काव्य का अध्ययन सूफ़ी तत्व चिंतन की पृष्ठभूमि में किए बिना सम्पूर्ण अध्ययन अधूरा रह जाता है.
****************** समाप्त

रविवार, 3 अगस्त 2008

इस्लाम की समझ / क्रमशः 1.6

इस्लाम दीन है, धर्म या मज़हब नहीं
नबीश्री के निधनोपरांत खलीफा निर्वाचित किया जाना यदि दीन से सम्बद्ध कार्य होता तो जिस प्रकार दीन की अन्य तमाम बुनियादी बातें बदस्तूर चल रही हैं, खलीफा की संस्था को भी अल्लाह की ओर से नैरन्तर्य प्राप्त होता. मुसलामानों के बड़े वर्ग ने जहाँ उमैया, अब्बासी और फातमी खलीफाओं में से बहुतों के दुष्कृत्य को देखते हुए खिलाफत की संस्था को सम्मानित बनाये रखने के विचार से प्रथम चार खलीफाओं को ही 'राशिदीन' (गुरु से दीक्षा प्राप्त) की संज्ञा दी, वहीं इस संस्था के टूटने पर, वे पूरे दक्षिण एशिया में खिलाफत आन्दोलन चलाने में (1919-1924) सक्रिय दिखायी दिए. स्पष्ट है कि यदि प्रथम चार के अतिरिक्त अन्य खलीफा अनुकरणीय नहीं थे तो उनके प्रति मुसलामानों की इतनी रागात्मकता क्यों थी और खिलाफत की संस्था के समाप्त होने पर सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में इतनी बेचैनी क्यों पायी गई ? ज़ाहिर है कि मुसलमान ज़बान से भले ही चार खलीफाओं को राशिदीन मानते हों, उनकी राजनीतिक ज़रूरतें अन्य सभी खलीफाओं के साथ निश्चित रूप से जुड़ी हुई थीं.
यह कहना कि प्रारंभिक खलीफा शासक नहीं थे और उनमें साम्राज्य के प्रति मोह नहीं था, जो बाद के खलीफाओं में पाया गया, निराधार है और इसे किसी प्रकार भी उचित नहीं ठहराया जा सकता. प्रथम निर्वाचित खलीफा हज़रत अबूबक्र (र.) को अन्तिम नाबीश्री के बाद रिसालत का पद समाप्त हो जाने के बावजूद 'खलीफतुर्रसूल' अर्थात रसूल (स.) का उत्तराधिकारी कहा गया. समस्या उस समय जटिल हो गयी जब हज़रत उमर (र) को हज़रत अबूबक्र (र) ने अपना उत्तराधिकारी घोषित किया. हज़रत उमर (र.) रसूल के खलीफा तो कहला नहीं सकते थे. वे खलीफा के खलीफा हुए जिसके लिए कोई उपयुक्त शब्द नहीं था. शुभचिंतकों के सुझाव पर हज़रत उमर (र) ने ख़ुद को अमीरुल्मोमिनीन (अल्लाह और रसूल में सच्ची आस्था रखने वालों का सरदार) कहलवाना प्रारंभ किया. जिसका लाभ उठाकर आगे के खलीफा भी, चाहे वे चारित्रिक दृष्टि से जैसे भी रहे हों, स्वयं को अमीरुल्मोमिनीन कहलवाने लगे. यहाँ तक कि यजीद जैसे दुष्कर्मी को भी मुसलामानों का एक वर्ग अमीरुल्मोमिनीन कहता था. ध्यान देने की बात यह है कि हज़रत सलमान फारसी (र.), हज़रत अबूज़र (र.) और हज़रत मिकदाद (र.), ईमान के उच्च शिखर पर रह कर भी ‘अमीरुल्मोमिनीन’ नहीं कहे गए.
ऐतिहासिक सच्चाई यह है कि नबीश्री के जीवनकाल में अमीरुल्मोमिनीं कहलाने का श्रेय केवल इमाम अली (र.) को प्राप्त था.सामान्य रूप से देखा गया है कि मुसलमान अपनी प्रामाणिक पुस्तकों से नज़र बचाते हुए इस तथ्य को चर्चा में ही नहीं लाते. मिश्कात शरीफ में मसनद अहमद इब्ने-हम्बल (खंड 4, पृ0 281) के हवाले से बताया गया है कि अन्तिम हज से लौटते हुए नबीश्री जब ग़दीरे-खुम के मैदान में आए तो उनके आदेश पर मुनादी की गई कि सब लोग यहीं ठहर जायं. वृक्षों के नीचे लोगों के बैठने के लिए ज़मीन साफ़ की गई. तत्पश्चात नमाज़े-ज़ुह्र समाप्त करके नाबीश्री ने इमाम अली (र.) का हाथ पकड़ कर मुसलामानों को संबोधित किया "ऐ लोगो ! क्या तुम यह नहीं जानते कि मैं ईमान वालों की अंतरात्मा पर उनसे अधिक अधिकार रखता हूँ ? सबने उत्तर में कहा 'इसमें किसे संदेह है.' नबीश्री ने आगे कहा मुसलमानों, याद रखो, मैं जिसका मौला (निष्ठां से स्वीकार किया गया स्वामी) हूँ, अली (र.) भी उसका मौला है. फिर दुआ के लिए हाथ उठाकर कहा 'ऐ मेरे रब ! तू उसे मित्र रख जो अली के साथ मैत्री रखे और उसे शत्रु समझ जो अली से शत्रुता बरते,' इसके बाद हज़रत अबूबकर (र.), हज़रत उमर तथा अन्य सहाबियों ने इमाम अली (र.) को मुबारकबाद दी. हज़रत उमर ने इमाम अली से कहा - बधाई हो ऐ अबू तालिब के बेटे ! कि आज से तुम हर ईमान वाले पुरूष और महिला के मौला हो गए. मुहद्दिस दिहल्वी ने मदारिजुन्नुबूवा ( रुक्न 4. अध्याय 12, पृ0 182) में लिखा है कि इस अवसर पर नाबीश्री की पत्नियों ने भी अली को अमीरुल्मोमिनीन कहकर मुबारकबाद दी.
उपर्युक्त घोषणा नबीश्री ने अल्लाह के इस आदेश पर की थी कि "ऐ रसूल ! जो आदेश आपको दिया जा रहा है उसे आप प्रसारित कर दीजिये, यदि आप ने ऐसा नहीं किया तो समझ लीजिये कि रिसालत का कोई कार्य ही नहीं किया. "यह सन्दर्भ इमाम अबिल-हसन अली बिन अहमद अल्वाहिदी (मृ0 468 हिज0) की पुस्तक अस्बाबुन्नुजूल (पृ0,150),इमाम जलालुद्दीन सुयूती (मृ0 911 हिज0) की पुस्तक दुर्रे-मंसूर (खंड 2, पृ0 298), काजी अबू अली मुहम्मद बिन अली बिन मुहम्मद अश्शौकानी की पुस्तक तफसीरे-फ़तहुल्क़दीर (आयए बल्लिग़), इत्यादि में देखे जा सकते हैं. अल्लामा बदरुद्दीन अबी मुहम्मद महमूद अल-ऐनी (मृ0 855 हिज0) ने अपनी पुस्तक शरहे-सहीह बुखारी (खंड 8, पृ 584) में श्रीप्रद कुरआन की उपर्युक्त आयत की व्याख्या करते हुए लिखा है कि ‘इस आयत का अर्थ यह है कि "ऐ रसूल ! उस आदेश को पहुँचा दो जो तुम्हारे रब ने अली इब्ने-अबीतालिब की महिमा में तुम्हारे पास भेजा है." सच तो यह है कि नबीश्री ने इसी प्रकार अनेक अवसरों पर ऊलिलअम्र (अल्ल्ल्लाह के आदेशों का सच्चा ज्ञाता) को पहचनवाने का प्रयास किया. किंतु कुछ ख़ास सहाबियों के राजनीति-उद्वेलित मस्तिष्क में जो कुछ पक रहा था, उसने नबीश्री के इस प्रकार के तमाम वक्तव्यों को सिरे से नज़र-अंदाज़ कर दिया.
प्रारंभिक खलीफाओं की सीमा यदि दुनियावी शासन व्यवस्था तक ही होती और उन्हें ईमान वालों का मार्ग-दर्शक या अमीरुल्मोमिनीन न कहा गया होता, तो उनके कृत्य इस्लाम के स्वनिर्मित चौखटे में रखकर न देखे जाते. इस्लाम के इतिहास में यह एक नया मोड़ था. वास्तव में इसके पीछे सोची-समझी राजनीति यह थी कि श्रीप्रद कुरआन में जिन ऊलुलअम्रों की आज्ञा का पालन करना ज़रूरी बताया गया है, साबित किया जा सके कि यही खलीफा वह ऊलुलअम्र हैं.
यह विचित्र विडम्बना है कि खलीफा का पद प्राप्त करने का मोह नबीश्री के कुछ सहाबियों में इतना अधिक था कि अपने नबी (स.) की मैयत को बेकफ़न छोड़कर वे सकीफ़ा बनी साअदा में खलीफा चुनने दौड़ पड़े. यहाँ तर्क यह दिया जाता है कि यदि खलीफा चुनने में जल्दी न की जाती तो अरब में गृह-युद्ध भड़क जाने की संभावना थी, जबकि ऐसी किसी साधारण सी घटना का भी उल्लेख नहीं मिलता जिसमें किसी बात को लेकर तलवारें खिंच गयीं हों. बहरहाल नबीश्री को इमाम अली (र.) ने गुस्ल दिया, ओसामा और सुक़रान ने पानी डाला और अब्बास(र.), क़सम (र.),तथा फजल ने शरीर को करवट फेर कर गुस्ल में सहयोग दिया.( काजी हुसैन दयार बकरी [मृ0 966 हिज0], तारीख अल-खमीस, खंड २, पृ0 91). यह भी विडम्बना है कि आज भी मुस्लिम आचार्य नबीश्री की निधन-तिथि पर एक मत नहीं हैं.
हज़रत अबूबक्र के खलीफा चुने जाने की प्रक्रिया के विस्तार में मैं नहीं जाऊँगा।हाँ खलीफा चुने जाने के बाद जिस प्रकार सहाबियों को अपना अनुयायी बनाने के लिए, यह जानते हुए भी कि इस्लाम में जब्र या ज़बरदस्ती या इस प्रकार के किसी अत्याचार की अनुमति नहीं है, हज़रत अबूबक्र ने अनेक सहाबियों के साथ जब्र किया, जो निश्चित रूप से दुखद है। मुस्लिम शास्त्राचार्य इब्ने-अब्दर्बा ने अक़दल्फरीद (खंड 2, पृ0 253) में लिखा है कि जिन लोगों ने हज़रत अबूबक्र के खलीफा होने पर उनके अनुयायी होने से इनकार किया उनमें अली और अब्बास और जुबेर और साद बिन इबादा विशेष थे। अली और अब्बास और जुबेर नबीश्री की बेटी हज़रत फातिमा के घर में बैठे रहे. हज़रत अबूबक्र ने हज़रत उमर को आदेश दिया कि जो लोग हज़रत फातिमा के घर में हैं यदि वे बाहर न निकलें और मेरा अनुयायी होना स्वीकार न करें तो उन्हें क़त्ल कर दो. एतदर्थ हज़रत उमर थोडी सी आग लेकर इस इरादे से वहाँ पहुंचे कि फातिमा के घर में आग लगा दें. जनाबे-फातिमा बिगड़कर बोलीं ऐ खत्ताब के बेटे ! तू मेरा घर जलाने आया है ? हज़रत उमर (र।) ने उत्तर दिया 'हाँ, इसी विचार से आया हूँ, अन्यथा तुम लोग अबूबकर के अनुयायियों में शामिल हो जाओ .यही बातें इस्माइल अबुल्फिदा (मृ०७३२हिज0) ने किताबलमुख्तसर फी अख्बारुल्बशर में,इब्ने जरीर तबरी ने तारीखे-तबरी में, इब्ने क़तीबा ने किताबल इमामा वस्सियासा में भी लिखी हैं. इब्ने असीर जज़री ने नहाया में और मुल्ला ताहिर क़तनी ने मज्मउलबह्हार में इसे फ़ितना-अंगेज़ घटना का नाम दिया है. स्पष्ट है कि मुसलामानों का यह हिंसात्मक रवैया खिलाफ़त की देन है. और यह खिलाफ़त शासकीय मिजाज को प्रतीकयित करती है ऊलिल अम्र के स्वभाव को नहीं. नबीश्री ने जिस दीन को प्रचारित-प्रसारित किया वह शान्ति और अम्न का दीन था, किंतु मुसलामानों का राजनीतिक इतिहास जिस मज़हब को प्रोत्साहित करता रहा वह तलवार और जब्र का मज़हब था, शान्ति और अम्न का नहीं. आज मुसलामानों के मध्य जो उग्रवादी और आतंकवादी प्रवृत्तियाँ पनप रही हैं इसकी जड़ें कहीं-न-कहीं राजनीति द्बारा प्रोत्साहित मज़हब में हैं ।

**************** क्रमशः

खलीलुर्रहमान आज़मी की याद में / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

प्रारंभिक शब्द
खलीलुर्रहमान आज़मी उर्दू के प्रतिष्ठित कवि और उच्च श्रेणी के आलोचक थे और अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में अन्तिम साँस तक रीडर के पद पर रहे. विभागीय राजनीति के चलते उनके प्रोफेसर होने के मार्ग में हर सम्भव रुकावटें डाली गयीं. राजनीति की इस गन्दगी का दुःख खलील साहब झेल नहीं पाये. उनकी तुलना में जो सज्जन शोर मचा रहे थे उनकी योज्ञता खलील साहब का पासंग भी नहीं थी. 1964 में ऐसा ही हंगामा राही मासूम रज़ा के विरुद्ध किया गया था और उसमें भी यही सज्जन पेश-पेश थे. खलील साहब को उनके निधनोपरांत प्रोफेसर बनाया गया. इस नज़्म में इन्हीं तथ्यों का संकेत है. [ ज़ैदी जाफ़र रज़ा ]

मौत के नाम से वाक़िफ़ हैं सभी
मौत लाज़िम है, ये सब जानते हैं
ज़ीस्त से ज़ात की वाबस्तगिए-बेमानी
हसरतो-ख्वाहिशो-लज्ज़त की तरंग
नफ़्से-इंसान में भर देती है
और इंसान समझता है कि वो जिंदा है.

जिंदगी नफ़्स-परस्ती तो नहीं
ज़ीस्त ऊपर से बरसती तो नहीं
ज़ात है तशनए-मानीए-वुजूद
ज़ात को चुन के बशर
जी तो सकता है, मगर
सिर्फ़ तारीक फ़िज़ाओं में भटकने के लिए.

वो जो कल उठ गया इस दुनिया से
यानी हम सब का खलील
मौत को उसने चुना
ज़ात को तरजीह न दी
बात ये है कि वो था
वाक़िफ़े-सिर्रे-जमील
मौत से पहले जो मर जाता है,
हर मुसीबत से ब-आसानी गुज़र जाता है
ज़िन्दगी उसकी थी इस क़ौल की रौशन तमसील.

उसकी पेशानी पे उभरी न कभी कोई लकीर
उसके होंटों ने बनाए न कभी ज़ाविए टेढे-सीधे
उसकी आंखों में न झलका कोई लायानी सवाल
वो सरापा था तबस्सुम की मिसाल.
मौत थी उसके लिए शोख़ सहेली की तरह
कमनज़र बूझ न पाये उसको
एक पुरपेच पहेली की तरह.
मक़्सदे-ज़ीस्त पे थी उसकी निगाह
इल्मो-हिकमत का वो दरिया था अथाह
हम उसे प्यार से मौलाना कहा करते थे
उसके जीने की दुआ करते थे
लोग कहते हैं कि बीमार था वो
जी नहीं, सिर्फ़ सदाक़त का तलबगार था वो
खोले-इंसान में पोशीदा दरिंदों के लिए
मिस्ले तलवार था वो.
पाँव से रौंद के औराक़े-सियासत उसने
हक़्क़ो-इन्साफ़ को दी थी आवाज़
मस्नादो-कुर्सियो-मंसब की उसे भूक न थी
इन्तेहा दर्जे का ख़ुददार था वो
जुम्बिशे-नोके-क़लम से उसने
उहदे तिफली में की 'आतिश' पे करम की बारिश
उसकी तहरीर ने अश'आर को मानी बख्शे
उसकी तखलीक में था सोजो-गुदाज़
उस से तनकीद ने पाया एजाज़
हंसके वो झेल गया जुल्मो-सितम की बारिश.
मानने के लिए मजबूर थे सब उसका वुजूद
चश्मे-बातिल में खटकता था वो कांटे की तरह
सोग में उसके फ़िज़ा करती है गम की बारिश

हक तो ये है कि वो दुनियाए-अदब का था इमाम
सर-ब-सजदा था अदब उसकी इता'अत के लिए
उसको मालूम था आदाबे-इमामत क्या है.
इक इदारा था वो अरबाबे-बसीरत के लिए

मौत की उसके ख़बर मैं ने सुनी, सबने सुनी,
लोग दौडे उसे कांधा देने
रस्मे-दुनिया है यही
वो था खामोश मगर सारी फ़िज़ा कहती थी
जिस्म को छू के हवा कहती थी
दर्स्गाहों के ज़मींदारों से जाकर पूछो
उनकी फिहरिस्त में हैं और अभी कितने नाम ?
और किस-किस को पिलायेंगे शहादत का ये जाम ?
क्या लगायेंगे किसी रोज़ सियासत को लगाम ?
या इसी तौर चलेगा हर काम ?

मैं ने ताबूत को कांधा जो दिया
घुल गई जिस्म में मेरे भी क़ज़ा
मुझको महसूस हुआ
मैं भी ताबूत के इक गोशे में लेटा हूँ कहीं
लोग मुझको भी सुला देंगे इसी सूरत से
मौत के नाम से वाक़िफ़ हैं सभी
मौत लाज़िम है ये सब जानते हैं
**********************

शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [ क्रमशः 3 ]

[ 15 ]
तुम्हरी कृपा गोपाल गुसाईं, हौं अपने अज्ञान न जानत.
उपजत दोष नैन नहिं सूझत, रवि की किरन उलूक न मानत..
सब सुख निधि हरिनाम महा-मनि सो पाएहुं नाहीं पहिचानत..
परम कुबुद्धि, तुच्छ, रस-लोभी, कौडी लगि मग की रज छानत..
सिव कौ धन, संतनि कौ सरबस, महिमा बेद पुरान बखानत..
इते मान यह 'सूर' महा सठ, हरि नग बदलि बिषय बिष आनत..


ज़ुल्मते-जिहालत में, पड़ गया हूँ मैं ऐसा.
आपकी नवाज़िश भी, जानता नहीं आक़ा.
ऐब अपनी आंखों का, देखतीं नहीं आँखें,
उल्लुओं ने कब माना, आफ़ताब का जलवा.
पा के क़ीमती हीरा, नामे-रब की दौलत का,
है ये मेरी कमज़र्फी, खुश नहीं मैं हो पाया.
हिरसे-लज़्ज़ते-दुनिया, मेरी बेवकूफ़ी थी,
ख़ाक रास्तों की मैं, यूँ न छानता फिरता.
शिव की तुम ही दौलत हो, कायनात संतों की,
वेद में, पुरानों में, अज़मातों का है चर्चा.
'सूर' की है नादानी, श्याम के नगीने को,
देके, उसके बदले में, ज़हरे-ग़म उठा लाया.
[ 16 ]
अब कैसें पैयत सुख मांगे.
जैसोई बोइयै तैसोई लुनिऐ, करमन भोग अभागे..
तीरथ ब्रत कछुवै नहिं कीन्हीं, दान दियौ नहिं जागे..
पछिले कर्म सम्हारत नाहीं, करत नहीं कछु आगे..
बोवत बबुर, दाख फल चाहत, जोवत है फल लागे..
'सूरदास' तुम राम न भजि कै, फिरत काल संग लागे..


मांगे से अब मिलेगी तुझे किस तरह खुशी.
आमाल का नतीजा है इन्सां की जिंदगी..
बोया है तूने जैसा भी काटेगा तू वही
रोज़ा, जियारत और सखावत न की कभी
करना न चाहा तूने कोई काम मज़हबी.
माज़ी में जो भी फ़ेल किए उसका ग़म नहीं
और आखिरत की फ़िक्र भी तुझ को बहम नहीं.
बोटा है तू बबूल, मुनक्का है चाहता.
करता है इन्तेज़ार कि फल का मिले मज़ा
कहते हैं 'सूर' छोड़ के तू राम का भजन
फिरता है अपनी मौत लिए साथ हर घड़ी.
[ 17 ]
मोसौं बात सकुच तजि कहिये.
कट ब्रीड़त कोऊ और बतावौ, ताहीके ह्वै रहिये..
कैधौं तुम पावन प्रभु नाहीं, कै कछु मो मैं झोली.
तौ हौं अपनी फेरि सुधारौं, बचन एक जौ बोलौ..
तीनों पन में ओर निबाहे, इहै स्वांग कौं काछे..
'सूरदास' कौं यहै बडौ दुःख, परत सबनि के पाछे..


तकल्लुफ तर्क कर के मुझ से कह दो साफ़ लफ्ज़ों में.
खुदाया मुझको भटकाओ न इस सूरत से राहों में.
अगर है और कोई क़ादिरे-मुतलक़ तो बतला दो.
उसी का हो रहूँगा, मुझ को अब नाहक़ न धोका दो.
कहीं कुछ नुक्स है या तो तुम्हारी शाने-रहमत में.
या फिर कोई कमी है मेरे अंदाजे-मुहब्बत में..
फ़क़त इक बार कह दो, हैं अगर कोताहियाँ मुझ में.
सुधारूँगा मैं ख़ुद को, हैं अभी ये खूबियाँ मुझ में..
गुज़ारी मैं ने सारी उम्र उल्फत को निभाने में.
तुम्हारा हूँ, ये दम भरता रहा हर दम ज़माने में..
मुझे है 'सूर' गम इस बात का ,मैं रह गया पीछे..
जो थे अग्यार, उन सब पर करम तुमने किया पहले..
[ 18 ]
सो कहा जू मैं न कियौ सोई चित्त धरिहौ.
पतित-पावन-बिरद सांच कौन भांति करिहौ..
जब मैं जग जनम लियौ, जीव नाम पायौ.
तब तीन छुटि औगुन इक नाम न कहि आयौ..
साधु-निंदक, स्वाद-लम्पट, कपटी, गुरु-द्रोही,
जेते अपराध जगत, लागत सब मोही..
गृह-गृह, प्रति द्वार फिरयौ, तुमकौ प्रभु छांडे ..
अंध अवध टेकि चलै, क्यों न पडै गाडे..
सुकृति-सूचि-सेवकजन, काहि न जिय भावै.
प्रभु की प्रभुता यहै, जु दीन सरन पावै..
कमल-नैन, करुनामय, सकल-अंतरजामी..
बिनय कहा करै 'सूर', कूर, कुटिल, कामी..


कौन सी ऐसी बुराई है जो मैं ने की नहीं
इस ज़माने में तो मुझ जैसा कोई पापी नहीं
मेरी बाद-आमालियों को दिल में रक्खोगे अगर.
फिर करीमी की सदाक़त कैसे होगी मोतबर..
जबसे मैं पैदा हुआ ज़ीरूह कहलाने लगा
ले न पाया, छोड़कर बदकारियाँ, नामे-खुदा..
नेक बन्दों की बुराई कर के खुश होता रहा..
लाज्ज़ते-दुनिया की खातिर, सिर्फ़ आवारा फिरा..
दिल से चाहा कुछ, जुबां से कुछ, ये थी आदत मेरी..
मुर्शिदों से दुश्मनी रखना ही थी फितरत मेरी..
सारी दुनिया के जराइम से बनी खसलत मेरी..
छोड़कर तुमको, फिरा मैं छानता दर-दर की ख़ाक..
अंधे का रहबर हो अंधा, होंगे फिर दोनों हलाक..
बंदगाने-खुश-अमल, अच्छे किसे लगते नहीं..
है कमाले-कुदरते-खालिक इसी से बिल-यकीं..
रखने दे नाचीज़ को भी अपनी चौखट पर जबीं..
दिल की बातें जनता है, तू है रहमानो-बसीर..
अर्ज़ तुझसे क्या करे, है 'सूर' ज़ुल्मत का असीर..
[ 19 ]
अब मेरी राखौ लाज मुरारी..
संकट मैं इक संकट उपजौ, कहै मिरग सौं नारी..
और कछू हम जानति नाहीं, आई सरन तिहारी..
उलटि पवन जब बावर जरियौ, स्वान चल्यौ फिर झारी..
नाचन कूदन मृगनी लागी, चरन कमल पर वारी..
'सूर' स्याम प्रभु अविगत लीला, आपुहिं आप संवारी..


रख लीजिये अब आप भरम इल्तेफात का ..
कुछ कम न था मसाइबे-दुनिया का सिलसिला ..
मुश्किल नई है आन पडी, वा मुसीबता..
वहशी शिकारियों से घिरा है मेरा हिरन
सौगंद उसकी है तुम्हें या रब्बे-ज़ुल्मनन
कुछ और जानती नहीं बस तुम हो ध्यान में..
आई हूँ आका सिर्फ़ तुम्हारी अमान में..
मुश्किलकुशा के फैज़ से उलटी हवा चली ..
ऐसा हुआ कि फैल गई बन में खलबली..
जंगल तवह्हुमात का इक पल में जल गया..
सगहाए-हिर्स भागे, बुरा वक़्त ताल गया..
हिरनी खुशी से होके मगन नाचने लगी..
चरनों में आई श्याम के, आसूदगी मिली..
वाकिफ नहीं है 'सूर' कोई मोजजात से..
आका करिश्मे करते हैं ख़ुद अपनी ज़ात से..
[ 20 ]
जग मैं जीवत ही को नातौ.
मन बिछुरे तन छार होइगौ, कोऊ न बात पुछातौ..
मैं मेरी कबहूँ नहिं कीजै, कीजै पंच सुहातौ..
बिषयासक्त रहत निसि बासर, सुख सियरौ, दुःख तातौ..
सांच झूठ करि माया जोरी, आपुन रूखौ खातौ..
'सूरदास' कछु थिर न रहैगो, जो आयो सो जातौ..


रिश्ते जहाँ में सारे इसी जिंदगी के हैं.
जब रूह होगी तन से जुदा, जिस्म होगा ख़ाक
पूछेगा खैरियत न कोई फिर, बी-इन्हेमाक .
मैं और मेरी का, न कभी ज़िक्र कीजिये.
पंचों को हो पसंद जो वो फ़िक्र कीजिये..
दुनिया की लिपटी-चुप्टी में रहते हैं रोजो-शब..
दुःख में फ़सुर्दा, सुख में मगन हैं यहाँ पे सब
सच को बदल के झूठ में जोड़ी है मिलकियत.
ख़ुद रूख सूखा खा के मरोड़ी है मिलकियत.
कायम रहेगी 'सूर' न कोई भी शय यहाँ.
आया है जो भी जायेगा वो, छोड़ कर जहाँ..
[ 21 ]
सबै दिन एकै से नहिं जात.
सुमिरन ध्यान कियो करि हरि कौ, जब लगि तन कुसलात..
कबहूँ कमला चपला पाके, टेढौ टेढौ जात..
कबहुँक मग-मग धूरि टटोरत, भोजन को बिलखात..
या देही के गरब बावरो, तदपि फिरत इतरात..
बाद बिबाद सबै दिन बीते, खेलत ही अरु खात..
हौं बड़ हौं बड़, बहुत कहावत, सूधे कहत न बात..
योग न युक्ति, ध्यान नहिं पूजा, बृद्ध भये अकुलात..
बालपन खेलत ही खोये, तरुनापन अलसात.
'सूरदास' अवसर के बीते, रहिहौ पुनि पछतात..


नहीं होते सभी दिन एक जैसे.
हरी का ज़िक्र कर जबतक बदन में जान बाक़ी है.
कभी दौलत को पाकर आदमी इतरा के चलता है..
कभी राहों की खाको-गर्द को है छानता फिरता..
बिलखता भूक से है, पर तरस जाता है खाने को.
तुझे है नाज़ फिर भी जिसमे-फ़ानी पर ऐ दीवाने.
गुज़र जाते हैं तेरे दिन बहस में, खेलते खाते.
अना में गर्क है, सीधी तरह से बातें नहीं करता..
न कोई जोग, नै करतब, न कोई ध्यान नै पूजा..
बुढापा आ गया टो दिल में क्यों बेचैन होता है.
लड़कपन खेल कर खोया, जवानी बे-अमल काटी..
निकल जाने पे मौक़ा 'सूर' रह जायेगा अपने हाथ मल के॥
*************************क्रमशः

सूफी तत्त्व-चिंतन और कबीर / प्रोफेसर शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 1]

कबीर की रचनाओं में सूफी चिंतन की झलक का संकेत अनेक विद्वानों ने किया है. रवेरेंड जी. एच. वेस्टकाट ने अनेक तर्कों के आधार पर कबीर का सूफी होना ही घोषित नहीं किया, उनके परंपरागत मुसलमान होने के पक्ष में भी अनेक प्रमाण दिए हैं ( कबीर ऐंड द कबीर पंथ, [कानपुर,1974], पृ0 29-32). डॉ. तारा चन्द ने कबीर की आस्था में शीआ मुस्लिम आस्था और उनके चिंतन में गहरे सूफी प्रभाव की चर्चा की है.(इन्फ्लुएंस आफ इस्लाम आन इंडियन कल्चर, पृ0 152-53).श्री वी. राघवन के निकट कबीर की आध्यातमिकता गहरे सूफी प्रभाव को व्यक्त करती है. (सोर्सेज़ आफ इंडियन ट्रेडिशन, न्यूयार्क 1958, पृ0 360). अली सरदार जाफरी (कबीर बानी, पृ0 9-10) और डॉ. गोपीचंद नारंग (कबीर की छे सौवीं जयंती पर साहित्य अकादमी की संगोष्ठी में पढ़ा गया लेख) के विचार भी उक्त विद्वानों से भिन्न नहीं हैं. डॉ. विष्णुकांत शास्त्री और डॉ. वासुदेव सिंह ने कबीर पर सूफी मत के प्रभाव का खंडन करते हुए अनेक बचकाने तर्क दिए हैं जिनसे उनके अध्ययन की सीमित परिधियों का संकेत मिलता है.
कबीर के मुवह्हिद (एकत्त्ववादी) होने का तथ्य जहाँ संदेह और विवाद के घेरे से बाहर है, वहीं यह भी जानना ज़रूरी है कि जलालुद्दीन रूमी, फरीदुद्दीन अत्तार, बायजीद बिस्तामी, महमूद शाबिस्तरी,अबू सईद अबिल्खैर, जुनैद, मंसूर हल्लाज, मसऊद बक इत्यादि अनेक सूफी चिन्तक और कवि मुवह्हिद (एकत्त्ववादी) थे. दरवेशों की आस्थाएं और चिंतन पद्धतियाँ भी परंपरागत शरीअत-सम्मत इस्लाम के अनुकूल नहीं थीं. मुस्लिम शरीअताचार्यों ने अपने प्रभाव और दबाव से भले ही सूफियों और दरवेशों को तरह-तरह की यातनाएं दिलवाई हों, और मंसूर हल्लाज, शिहाबुद्दीन सुहर्वर्दी एवं सरमद को भले ही प्राणों से हाथ धोना पड़ा हो, किंतु 'बे-खतर कूद पड़ा आतिशे-नमरूद में इश्क़' की परम्परा निरंतर जारी रहीऔर इनमें से किसी के मुस्लिम सूफी अथवा दरवेश होने पर कोई प्रश्न-चिह्न नहीं लगाया गया.
कबीर के समय तक एकत्त्ववाद (वह्दतुल्वुजूद) का दर्शन सूफियों के मध्य पर्याप्त लोकप्रिय हो चुका था. चिश्तिया सम्प्रदाय के अधिकतर सूफी इसी सिद्धांत में आस्था रखते थे. कबीर पर यद्यपि सहजिया सम्प्रदाय की गुह्य साधना का भी प्रभाव था, फिर भी एकत्त्ववाद में उनकी गहरी आस्था थी. डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को द्वैताद्वैत-विलक्षण-समतत्ववाद का समर्थक माना है. (कबीर, पृ0 46). वह्दतुल वुजूद का दर्शन इससे बहुत भिन्न होते हुए भी इसके बहुत निकट है. इस लिए कबीर सम्बन्धी डॉ. द्विवेदी की यह अवधारण सर्वथा निराधार नहीं कही जा सकती. किंतु द्वैताद्वैत विलक्षण समतत्ववाद के दर्शन से कबीर का कितना परिचय था यह बता पाना पर्याप्त कठिन है. इस दर्शन से उनके विचारों का मेल वह्दतुल्वुजूद के दर्शन के प्रति उनकी आस्था का परिणाम प्रतीत होता है.
इब्ने-अरबी (1165-1240) ने वह्दतुल्वुजूद के दर्शन को उस पूर्वकालिक आस्था के आधार पर विकसित किया था जो परम सत्ता के मूलभूत एकत्व पर विशवास रखती थी और उस से इतर किसी भी सत्ता को अमान्य ठहराती थी. इब्ने अरबी के मतानुसार एकान्तिक सत्ता एकान्तिक जगत से अभिन्न है और समस्त विद्यमान जगत का मूल स्रोत है. वह उसके अतिरिक्त किसी अन्य के लिए ग्राह्य नहीं है. उसे उसके अतिरिक्त कोई नहीं जानता. वह अपने एकत्त्व से ही आच्छादित है. उसकी सत्ता ही उसका आवरण है. उसे उसके अतिरिक्त कोई नहीं देख सकता, चाहे वह देखने वाला नबी, वली या फ़रिश्ता ही क्यों न हो (डी.एम्. मथेसन, ऐन इंट्रोडकशन टू सूफी डाक्टराइन [लाहौर,1963], पृ0 23-24). इब्ने अरबी की दृष्टि में अल्लाह वुजूदे-मुतलक़ (एकान्तिक सत्ता) है जिसने स्वयं को समस्त विद्यमान रूपों में व्यक्त किया है. उसकी उच्चतम अभिव्यक्ति पूर्ण मानव (इन्साने-कामिल) अथवा मर्यादा पुरुषोत्तम या सिद्ध पुरूष है.
यहाँ यह बता देना भी आवश्यक है कि जीली ने पूर्ण मानव को परम सत्ता की प्रतिमूर्ति बताया है. उसकी दृष्टि में पूर्ण मानव एक ऐसा दर्पण है जिसमें परम सत्ता के समग्र गुण झलकते हैं. वह परमात्मा और जीवों के बीच की कड़ी है. (आउटलाइन आफ इस्लामिक कल्चर पृ0 406). जीली का यह भी मानना है कि सभी मनुष्यों में पूर्णता की यह शक्ति थोडी-बहुत पायी जाती है. किंतु वास्तव में पूर्ण मानव कोई बिरला होता है. पूर्णता का स्तर प्रत्येक व्यक्ति द्बारा दैवी आलोक ग्रहण करने की सामर्थ्य पर निर्भर करता है (आर.ए. निकाल्सन, स्टडीज़ इन इस्लामिक मिस्टिसिज्म, पृ0 80)
इब्ने अरबी की दृष्टि में आध्यात्मिक संयोग अथवा सम्मिलन परम सत्ता के साथ एक हो जाना या उस सत्ता में विलयन नहीं है अपितु पहले से विद्यमान एकत्व को पहचानना और महसूस करना है. इसके लिए चित्त का परिष्कृत रखना अनिवार्य है. इल्म अथवा शास्त्र-ज्ञान का सम्बन्ध बुद्धि से है, जबकि 'मारिफा' अथवा आत्म ज्ञान का सम्बन्ध चित्त से है. चित्त की स्थिति दर्पण की है. इस दर्पण में ही उसे देखा जा सकता है. यह जगत प्रत्येक क्षण नवीनता की और अग्रसर है और उसकी सम्पूर्ण गतिशीलता एकान्तिक सत्ता तक पहुँचने का प्रयास है. 'फ़ना' बाह्य रूप का विनाश है और 'बक़ा' परम सत्ता में स्थायित्व. उसकी उपासना, प्रेम या इश्क में ही सम्भव है जो उस एकान्तिक सत्ता का उच्चतम रूप है.(एम्.एम्. शरीफ संपादित ‘अ हिस्ट्री आफ मुस्लिम फ़िलासफी’ [1966] पृ0 413).
सच पूछिए तो इब्ने अरबी ने अपनी आस्था बहुत स्पष्ट शब्दों में व्यक्त कर दी है -
“मेरा ह्रदय मूर्तियों का देवालय और हाजियों का काबा है
यहाँ तौरैत की पट्टिका और कुरआन है
मैं इश्क के धर्म का अनुयायी हूँ
अब ऊंट चाहे किसी करवट बैठे
मेरा धर्म और मेरी आस्था यही है.”

(अ हिस्ट्री ऑफ़ मुस्लिम फिलासफी,पृ0 144)
कबीर और इब्ने अरबी के विचारों का साम्य देखने योग्य है. कबीर के यहाँ भी 'प्यंजर प्रेम प्रकासया, अंतरि भया उजास' की स्थिति है. कारण यह है कि वे भी इश्क ही को धर्म स्वीकार करते हैं. और परम सत्ता के इश्क का बादल बरस कर उनकी अंतरात्मा तक को भिगो चुका है -'कबीर बादल प्रेम का हम पर बरस्या आई / अंतरि भीगी आत्मा, हरी भई बनराई'. कबीर के लिए भी इंसाने कामिल अर्थात पूर्ण मानव परम सत्ता और सद् गुरु को प्रतीकायित करता है. जभी तो वे 'पूरे से परिचय भया,' तथा 'कहै कबीर मैं पूरा पाया' की घोषणा करते हैं. यहाँ 'पूरा' शब्द विचारणीय है.
कबीर के निकट मन मथुरा, ह्रदय द्वारका और काया काशी है तथा मन ही गोरख और मन ही गोविन्द है. वे मन को काबा और काया को कर्बला देखने के भी पक्षधर हैं. 'जो मन राखै जतन करि, तो आपै करता सोई' कि स्थिति इब्ने अरबी के इंसाने कामिल कि स्थिति से भिन्न नहीं है. यह पूर्ण मानव या इंसाने-कामिल बे-हद अर्थात असीम है. इसलिए जो इस ‘बेहद’ के साथ जुड़ कर स्वयं 'बे-हद’ हो गए हैं, कबीर उन्हीं के समक्ष अन्तर खोलने की बात करते हैं -"जो लागे बेहद्द सों, तिन सूं अन्तर खोलि'. और यह ‘बेहद्द’ स्वभाव, कर्म और चरित्र से संत है, वली है, परम सत्ता का अभिन्न मित्र है, उसका राज़दाँ है. कबीर इसी आधार पर संत और राम में अभेदत्व की स्थिति मानते हैं -"संत राम हैं एकौ."
इब्ने अरबी ने 'मारिफ़ा' अर्थात आत्म ज्ञान या परम सत्ता की प्रेमानुभूति का सम्बन्ध चित्त से माना है और चित्त की स्थिति उनकी दृष्टि में दर्पण की है. कबीर भी "हिरदै भीतर आरसी" की बात करते हैं और "जो दरसन देखा चहै, तौ दर्पन मंजत रहै" का उपदेश देते हैं. उर्फी ने एक स्थल पर इखा है -
निशाने-जाँ हमी जू, ता निशाँ अज़ बेनिशाँ याबी
मकाने-दिल तलब कुन,ता मकां दर लामकां बीनी [क़सायादे-उर्फी, पृ0 77]

अर्थात - तू अपने प्राणों के चिह्नों (निशाने-जाँ) की खोज कर ताकि उन चिह्नों से चिह्न-मुक्त परम सत्ता को प्राप्त कर सके. तेरा ह्रदय ही वह आवास-स्थल या मकान है जिसे तू यदि स्वच्छ और निर्मल रख सके तो उसमें तू आवासमुक्त (लामकां) परम सत्ता का दर्शन कर सकता है.
ध्यान पूर्वक देखा जाय तो कबीर दो सत्ताओं के एकमेक होने की बात नहीं करते. परम सत्ता उनकी दृष्टि में एकान्तिक या मुतलक है. चित्त की मलिनता (दर्पन लागै काई) और मन की दुविधा के कारण मनुष्य अपने चित्त के भीतर उस एकान्तिक सत्ता का दर्शन कर पाने में असमर्थ है. जीव इस एकान्तिक सत्ता या वुजूदे-मुतलक से उसी प्रकार एकत्व रखता है जिस प्रकार तिल के भीतर विद्यमान तेल और चकमक में आग. बात सुषुप्तावस्था से जाग्रतावस्था में आने की है. सुषुप्तावस्था द्वैत के भाव को जन्म देती है और जाग्रतावस्था परम सत्ता के एकत्व का बोध कराती है - "जो सोऊँ तो दोई जणा, जो जागूं तौ एक." तिल और चकमक रूप को प्रतीकायित करते हैं और तेल तथा आग अर्थ को. यह संसार उसी एकान्तिक सत्ता का व्यक्त रूप है. इस व्यक्त रूप के अर्थ पर यदि दृष्टि डाली जाय, तो सम्पूर्ण विद्यमान जगत एकान्तिक सत्ता से इतर कुछ नहीं है. प्रख्यात सूफी कवि फरीदुद्दीन अत्तर (1142-1220 ई0) इस तथ्य को इस प्रकार व्यक्त करते हैं –
आसमांहां वो ज़मींहा वो फ़लक / जुमला रा यक्दानो-बेगुज़रत ज़ि शक.
सूरतो-मानी बहम तौ ज़ात दां / जुमला अशया मुसहफ़ो- आयात दां [रुशद-नामा , हस्त-लिखित]
अर्थात, संदेह की सीमा से निकल कर आकाश, धरती और देवलोक को अभिन्न समझने का प्रयास कर. सम्पूर्ण पदार्थों को पवित्र आसमानी किताब और उसकी आयतें समझ.
स्पष्ट है कि वह्दतुल्वुजूद के दर्शन में जगत मिथ्या न होकर परम सत्ता का ही व्यक्त रूप है. कबीर भी जगत को मिथ्या नहीं मानते. उनकी दृष्टि में यह संसार काजल की कोठरी जैसा है -'काजल केरी कोठडी, तैसा यह संसार,' और यह काजल की कोठरी मिथ्या नहीं है. बात तो जब है कि उसमें रहते हुए साधक उसके प्रभावों से अछूता निकल आए. -'बलिहारी ता दास की, पी सर निकसण हार.' स्रष्टा ने इस संसार को वणिक के हाट की भाँती पसार रखा है -'जैसे बनिया हाट पसारा, सब जग का सो सिरजन हारा' और कबीर इस हाट में खड़े कर दिए गए हैं. किंतु कबीर इस तथ्य से परिचित हैं कि वही परमात्मा ग्राहक भी है और वही बेचने वाला भी."आनि कबीरा हाट उतारा, सोई ग्राहक सोई बेचन हारा." ***************क्रमशः