शनिवार, 11 जून 2011

इश्क़ के धरातल पर मनुष्य होने की सम्पूर्ण गरिमा : नासिरा शर्मा की कहानियाँ [ 1 ]

[1 ] इश्क़ के धरातल पर मनुष्य होने की सम्पूर्ण गरिमा

इश्क, मुहब्बत, प्यार, लगाव, तअल्लुक्, उल्फ़त इत्यादि कितने ही ऐसे शब्द हैं जिनके सहारे इन्सानी सांसों की गरमी बनी रहती है। और यह सांसें भौगोलिक परिधियों से नियंत्रित नहीं होतीं । क्या अन्तर पड़ता है इनके ईरानी, अफ़ग़ानिस्तानी, फ़िलिस्तीनी अथवा भारतीय और पाकिस्तानी होने से ? आवाज़, अहसास और दर्द के तराज़ू पर यह धड़कनें एक दूसरे से अलग नहीं होतीं। उनकी सांसों की गरमाहट उनकी भौगोलिक पहचान नहीं बनाती। हाँ उस गर्माहट का सहजपन और उसका स्वाभाविक विकास उस लगाव के पैमाने ज्ररुर तय करता है जो उसकी सतह पर बरक़रार रहता है। देखने की बात यह है कि यह पैमाना नदी, नाला, पहाड़ आबशार आदि मे नही है, इसलिए कि ये सांसों की गरमी से महरूम हैं। शायद इसीलिए नासिरा शर्मा “शामी काग़ज़ की भूमिका मे लिखती हैं। “मैं तो केवल दो हाथ, दो पैर, दो कान,दो आंख, एक दिल और एक दिमाग़ वाले इनसान को पहचानती हूं । वह जहाँ कहीं, जिस सीमा , जिस परिधि में जीवन की संपूर्ण गरिमा के साथ मिल जाये वहीं मेरी कहानी का जन्म होता है। ज़ाहिर है कि नासिरा शर्मा की कहानियाँ किसी विशेष मुल्क, मज़हब और क़ौम की न होकर “उस जनसमुदाय की संवेदनाओं और वेदनाओं की धड़कनें हैं जो धरती से जुड़ा आशा-निराशा का संघर्षमय सफ़र तय कर रहा है । ईरानी परिवेष में शामी काग़ज़ की कहानियाँ लिपटी अवश्य हैं, किन्तु उसके पात्र अच्छी तरह जानते हैं कि सहानुभूति और प्यार में बहुत अन्तर होता है और जीवन की सम्पूर्ण गरिमा प्यार में है, सहानुभूति में नहीं।
शामी काग़ज़ की कई कहानियाँ अपने शीर्षकों की दृष्टि से तिलिस्मी और ज़ादुइ सी प्रतीत होती हैं । सहरानवर्द, आबे-तौबा, मिस्र की ममी, दादगाह, उक़ाब वग़ैरह फ़ारसी ज़बान की तहों में दबे हुए ऐसे नाम हैं जिनकी दुनिया कुछ अलग सी लगती है। किन्तु इन कहानियों के साथ शीघ्र ही इनका पाठक अन्तरंग हो जाता है । इसका कारण यह है कि इनका ब्ररताव और इनका कथ्य अजनबीपन से खाली है और संवेदना की आत्मीय परतें खोलता है। वैसे ईरान में ऐसी कहानियाँ भरी पड़ी हैं जिनमें शृंगार भी है और सज्जा भी ,किन्तु न कोई टीस है न टपकन और न कोई ज़िन्दगी। नासिरा शर्मा ऐसी ऐय्यारी और तिलिस्मी दुनिया से अपना दामन पाक रखती हैं । शाहे-ईरान के समय में कामवासना से परिपूर्ण यूरोपीय यंत्र-चालित जीवन की शोख़ रंगों से लिपी-पुती झाँकियों में भी नासिरा के लिए कोई आकर्षण नहीं था अन्यथा एक विशेष पाठक के चटख़ारे भर कर पढने की सामग्री तो एकत्र हो ही जाती। यह और बात है कि यह आस्वादन अपना साहित्यिक महत्व खो बैठता ।
आबे-तौबा की सूसन एक विवाहिता स्त्री है। कामरान के साथ उसका विवाह दस वर्ष पूर्व हुआ था । कामरान एक इंजीनियर था और वह एक चाइल्ड साइकालोजिस्ट थी। किसी परीशानी के बग़ैर घरेलू जीवन सुखी था। अगर वो साइकालोजिस्ट न होती तो शायद एक आम पत्नी, एक आम माँ, एक आम नागरिक की तरह रहती। एक मामूली सी आम जिन्दगी जीती। मगर उसे तो सोंचने की, हर काम के अच्छे-बुरे प्रभाव, हर घटना को पहली और दूसरी घटना से जोड़ने की आदत सी पड़ गयी थी। पुरुषों के साथ काम करने में उसे एक ही शिकायत थी कि वो औरत के काम, बुद्धि से ज़्यादह उसके औरत होने में रुचि रखते हैं। पुरुषों की ओर से सदैव सतर्क और चौकन्नी होने के बावजूद सूसन किस प्रकार शमशाद को आत्मसमर्पण कर बैठी और गुनाहों के एहसास की दावाग्नि में जलने लगी, ये अवश्य विचारणीय है। द्रष्टव्य यह है कि यह सब कुछ इतना सहज गति से हो गया कि सूसन के पास मुड़कर देखने के लिए समय ही नहीं बचा । स्थिति यह है कि अब उस से अपना इस प्रकार सुलगते रहना सहन नहीं हो पाता। उसे विश्वास है कि जहन्नम के शोलों की तपिश भी इतनी असह्य नहीं होगी।
वह समझती थी कि वह खरा सोना है और परिस्थितियाँ उसे प्रभावित नहीं कर सकतीं। उसका भरोसा देखने योग्य था।“फड़फड़ाने दो, इस समुद्र पर कोई नहीं टिक सकता। और फिर यह कोई इशक़ के परिन्दे थोड़े ही हैं जो सिर पटक कर मर जायेंगे। ये तो मौसमी परिन्दे हैं जो मौसम के साथ आते हैं और मौसम के बदलते ही लौट जाते हैं। इस भरोसे को यदि शमशाद के बल प्रयोग ने तोड़ा होता और सूसन के लिए कोई अन्य रस्ता चुनना संभव न होता,तो और बात थी । आश्चर्य यह है कि सूसन जैसी स्त्री ने स्वयं आत्मसमर्पण किया था। बिना कुछ कहे शमशाद ने एकदम से सूसन का हाथ अपने हाथ में लिया था । उसने सूसन को अपने समीप कर चुम्बन ले लिया और इस से पहले कि सूसन अपने को बचाती शमशाद का हाथ उसके शरीर के नाज़ुक, मुलायम हिस्सों पर पहुँच गया। उस समय शमशाद को रोकते हुए उसने केवल इतना कहा था ‘इस खंडहर में तुमको क्या मिलेगा ? नहीं, नहीं मुझे छोड़ दो। मैं कोई लड़की नहीं हूँ। प्लीज़ शमशाद समझो।‘ किन्तु उस समय तक सब कुछ इतना आगे बढ़ चुका था जहाँ कोई भी रोक-थाम अब अपना अर्थ खो बैठी थी।‘
सूसन अब भले ही पश्चाताप की आग में जल रही हो और उसे अपना आत्म समर्पण याद करके भले ही ये पछ्तावा हो कि वह कहाँ गिरी। गंदगी से भरपूर गड्ढे में। वो अपने कानों में गूँजते उन औरतों के भयानक क़हक़हों को नहीं रोक पाई जिन पर कभी उसने उँगली उठाई थी। जिनको उसने ऊँच-नीच समझाया था। ‘झूठी, बगुला भगत कहीं की। ‘वह घबराकर अब्दुल अज़ीम गयी। धार्मिक स्थान पर शायद कुछ शान्ति मिले । वहाँ हरम से निकल कर घर की तरफ़ लौट रही थी कि एक मौलवी ने दो घ्ण्टे के लिए सीग़े अर्थात शरीअत-स्म्मत वैवाहिक अनुबंध करने को कहा और सूसन ने जो कुछ सुना उसे सुन कर चकरा गयी।उसे एक धक्का सा लगा। क्या कुछ नहीं होता इस धरती पर ।बस कड़वाहट को निगलने की बात है। उसने बड़े ठण्डे स्वर में कहा – “सीग़ा किया था मौलवी साहब, समय का कोई ब्न्धन न था। हर तरह की स्वतंत्रता थी , फिर भी आजतक जहन्नम की आग में जल रही हूं।‘उसके इन वाक्यों जीवन की ऐसी सुलगती हुई सच्चाई थी जिसकी आँच उस मौलवी ने भी महसूस की और आबे-तौबा सिर पर डालकर तौबा की दुआएं प्ढ्ने का सुझाव दिया। सूसन ने ऐसा ही किया और वह इस कुण्ठा से अपने आप को बाहर निकाल लायी। किन्तु सच्चाई यह है कि तौबा की दुआ और आबे-तौबा भी सूसन को आज़ादी न दे सके । सूसन घर की चहार्दीवारियों में घिर कर रह गयी। वह आज तक अपने लिए नहीं जी सकी। फिर अपने लिए मरे क्यों ? बस इसी भावना ने उसे जीवित रखा।
सहरानवर्द की कथा नारी की अस्मिता को एक नये कोण से देखती है आबे-तौबा की सूसन अपने सम्बन्ध में निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है । सहरानवर्द की शोला औरत है और उसकी अस्मिता को पहचानती है। वह एक जिन्स के रूप में जीना स्वीकार नहीं करती। वह दुकान में सजी हुई सामग्री नहीं है कि दुकान का मालिक उसकी मन चाही क़ीमत वसूल कर ले । या फिर उमराव जान अदा की तरह शहरयार के शब्दों में फ़रियाद करती दिखायी दे “ हम हैं मताए- कूचओ-बाज़ार की तरह । उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह ।“ उसमें वास्तविकता का मुक़ाबला करने का सामर्थ्य है। “बाबा ने अपनी जायदाद समझकर मुझे बेच दिया, आपने अपनी मिल्कियत समझकर मुझे दान कर दिया । मेरे बारे में ये फ़ैसला बिना मेरी राय के आपने कैसे कर दिया ?” जिस इस्लाम ने औरत की स्वेच्छा और उसकी स्वतंत्रंता को उसके वैवाहिक जीवन के निर्णय के लिए अनिवार्य माना हो, और जिसके नबीश्री ने अपनी अवस्था से पन्द्रह वर्ष बड़ी कन्या हज़रत ख़दीजा तथा बीस वर्ष से भी अधिक छोटी हज़रत आयशा से उनकी इच्छानुरूप विवाह किया हो, उसी इस्लामी समाज के दरीवश को ईरान में इस उत्तर-आधुनिकता के युग में जीवन काटना मुश्किल हो जाय । कभी उसे अपनी पत्नी का बेटा समझा जाय और कभी पिता । इस दृष्टि से सहरानवर्द की क्था हिन्दी कहानी लेखन के इतिहास में एक इज़ाफ़ा है । नारी की इच्छा को महत्त्व देना और उसकी अस्मिता को एक नये साँचे में देखना आकर्षक तो है किन्तु आज की स्थितियों में कितना व्यावहारिक है, यह विचारणीय है ।
नासिरा शर्मा अपनी सहृदयता और सर्जनात्मक प्रतिभा से कल्पना के धरातल पर जो बेल-बूटे तैयार करती हैं और उनमें हल्के तथा गहरे कलात्मक रंगों को जिस प्रकार भरती हैं वह उनके पाठक को कुछ देर के लिए स्तब्ध कर देता है । कविता और पेन्टिंग नासिरा के रोचक विषय रहे हों या न रहे हों, शामी काग़ज़ की अनेक कहानियों में ईरानी परिवेश का उर्वर फलक पाकर लेखिका का शिल्प समूची आबो-ताब के साथ जीवन्त हो उठा है। क़िस्सागोई और कहानीपन की कमज़ोर परम्परा से मुक्त रहते हुए इन कहानियों का एक निजी चेहरा है जिसकी दो चमकदार आँखें युगीन यथार्थ के साथ संवाद करती हैं और अपनी पहचान दर्ज कराना नहीं भूलतीं। पतझड़ का फूल, तलाश, उक़ाब, मिट्टी का सफ़र और खुशबू का रंग इत्यादि ऐसी ही कहानियाँ हैं। पतझड़ का फूल की अनाहिता बुटीक से निकलती है, पर्स से गागिल्स निकाल कर आँखों से साँप की तरह चिकनी, चमकीली सड़क में हल्की सी ठंडक भरती है। एक कैमिस्ट की दुकान से दवा की शीशी लेती है, सामने आईने में अपना मुँह देखकर स्कार्फ़ बराबर करती है और टैक्सी के लिए सड़क के किनारे खड़ी हो जाती है। सारा द्श्य सामान्य सा है। मैकदे और रेस्तराँ के शीशों पर काग़ज़ चिपका कर रमज़ान की वजह से उन के बन्द होने का गुमान सा किया गया है। हालाँ कि जीवन अपनी सामान्य गति से ही चल रहा है। फिर अचानक बिना किसी घन-गरज के चिन्तन के आकाश पर जैसे बिजली सी कौन्ध गयी हो और अनाहिता ज़रा सा भी ढकी छिपी न रह गयी हो । टैक्सी न मिलने की स्थिति में वो एक प्राइवेट कार पर बैठ जाती है ‘यदि समय हो तो आप मेरे साथ शाहयाद तक चलें’ ‘उत्तर भी क्या देती, ‘शुक्रिया’ । चलती ज़रूर, जबकि आपने इतनी मेहरबानी की है। मगर माँ की तबियत ठीक नहीं है और मुझे फ़ौरन घर पहुँचना है।“
अनाहिता घर पहुँच गयी । किन्तु माँ से उसकी तकलीफ़ छिपी न रह सकी । अनाहिता के पूछने पर –“बहुत तकलीफ़ हो रही है माँ ? उसने कहा था _ “नहीं बेटी मैं तुम्हारी तकलीफ़ देख रही हूँ । और उसी तकलीफ़ से प्रेरित होकर रात को अनाहिता ने जैसे ही तकिये पर सर रखा उसे दोपहर की घटना याद आ गयी। युवक का चेहरा, तिरछे होठों की घुटी-घुटी मुस्कुराहट। उसने आँखें बन्द कर लीं। अर्थात दृश्य को पूरी तरह सुरक्षित कर लेना चाहा। पर वह ऐसा न कर सकी। भयानक सपनों के अन्देशे से उसकी आँखें खुल गयीं। वह ऐसे ऊटपटाँग स्वप्न क्यों देखती है। उसकी छोटी बहेन कतायून जिसके कंधे और सीने पर गुच्छेदार बाल झूल रहे थे और जो लैम्प के नीचे बैठी पढ़ रही थी, ऐसे स्वप्न नहीं देखती होगी। कारण यह है कि वह इश्क़ के धरातल पर मनुष्य होने की सम्पूर्ण गरिमा के साथ जीना जानती है। वह फ़िरोज़ के रूप में अपने जीवन साथी का चयन कर चुकी है और उसे माँ-बहेन से मिलाकर स्वतंत्र हो गयी है। यह स्थिति अनाहिता की नहीं है।
अनाहिता को देखने लड़के वाले उसके घर आए हैं। लड़के की माँ को रिश्ता पसन्द भी है, किन्तु लड़के के पिता को दोनों का उम्र में बराबर होना पसन्द नहीं है। रिश्ता तय नहीं हो पाता। अनाहिता दफ़्तर से एक दिन सीधे शहयाद जाती है। शायद प्राइवेट कार में लिफ़्ट देने वाले लड़के से मुलाक़ात हो जाय। लेकिन ऐसा नहीं होता। अनाहिता अपनी ज़िन्दगी को एक ज़िन्दा लाश से ताबीर करती है जिसके लिए कोई क़ब्र ख़ाली नहीं है। ‘उसकी ज़िन्दा लाश कफ़न में लिप्टी गहवारे में रखी है। सब परीशान हैं कोई क़ब्र ही ख़ाली नहीं है कि वह दफ़नाई जाय। वह खामोश बेजान सी पड़ी है। अनाहिता ऊपर नज़र उठाती है। ऊपर पेड़ पर बेशुमार गिद्ध बैठे हैं।“ लेखिका ने यहाँ बहुत ही बारीकी से हालात का संकेत किया है जिससे अनाहिता की कहानी एक दम से मुखर हो उठी है। मौलाना रूम ने अपनी प्रख्यात मसनवी में कहा है-“ हर के रा जामा ज़ इश्क़े चाक शुद । ऊ रा हिर्सो ऐबे-कुल्ली पाक शुद्।“ अर्थात जिसका वस्त्र इश्क़ की वजह से चाक हो चुका है, वह हर प्रकार के लालच और ऐब से पाक हो चुका है। क़तायून का जीवन इसका बेहतरीन उदाहरण है और अनाहिता अपने जीवन में और जीवन के बाद भी सुरक्षित नहीं है। गिद्धों की भूखी दृष्टि उस पर जमी हुई है।

आईना कहानी में सौन्दर्य और प्रेम अपनी अनोखी छवि के साथ सृजन का एक नया क्षितिज प्रस्तुत करते हैं ।हाँ कहानी का शीर्षक यदि आईना के स्थान पर मिनिएचर होता तो शायद प्रेमाभिव्यक्ति की सांकेतिक संप्रेषणीयता कुछ और बढ जाती । रामिश एक चित्रकार है और ईरान में अपनी कला के लिए प्रख्यात है । वह स्वय भी सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति है । जो उसे देखता है देखता ही रह जाता है । उसके बनाये हुए मिनीएचर अद्भुत हैं । पर जिस दिन से वह चादर में लिप्टी हुई हिरनी उस से टकराई है और उसने उसके मिनीएचर की क़ीमत पूछी है वह अपनी सुध-बुध खो बैठा है ।रंगों के डिब्बों के पीछे से रामिश ने तस्वीर उठाई जिसे वह बना रहा था और ऊसे ईज़ल पर लगाकर उस लड़की की आँखों की कैफ़ियत उभारने लगा । हाथ और दिमाग़ साथ-साथ चल रहे थे ।उन आँखों में वहशत थी, डर था, नहीं बुलावा था, नहीं सिर्फ़ जादू था, ठ्ण्ढ्क थी, नहीं आतशकदे की गरमी थी, सम्मोहन था, नहीं नहीं , ग़लत, यह सब कुछ न था । उन आँखों में पोखरों में खिले कमल जैसी रंगीनी थी, ताज़गी थी। दीवाना बनाने वाली कशिश थी । एक के बाद एक भाव बदल रहा था । पन्द्रह दिनों से वह कुछ नहीं बना पाया । यूँ ही परीशान था, थका सा, खोया हुआ महसूस कर रहा था । नासिरा ने इस कैफ़ियत की गहराई में बड़ी सफलता के साथ झाँकने का प्रयास किया है ।
चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की प्रख्यात कहानी उसने कहा था की नायिका अभी पूरी तरह शैशव-यौवना भी नहीं है । फिर भी जब नायक उससे प्रश्न् करता है – “तेरी कुड़माई हो गयी है ?” वह शरमा कर ” धत” कहती है और भाग जाती है । नासिरा शर्मा की नायिका रौशनक पूर्ण युवती है और प्रेम तथा सौन्दर्य की प्रतीकात्मक एवं सांकेतिक भाषा अच्छी तरह समझती और बोलती है ।दुकान में बार-बार आकर एक ही मिनीएचर की क़ीमत पूछना और आगे बढ़ जाना रामिश के लिए एक खुला दावतनामा था । एक दिन उसके ‘कितने का है’ पूछने पर उत्तर मिला-‘कल ही वाली क़ीमत है। लेकिन रोज़-रोज़ के प्रश्न से चिढ़ कर आखिर रामिश से न रहा गया और वह चादर में लिप्टी हिरनी जब फिर आई और उसने हमेशा की तरह जैसे ही उस तस्वीर की क़ीमत पूछी, रामिश ने कहा-‘आखिर तुम्हें कितने में चाहिए ?’ आधी क़ीमत कम कर देता हूँ।‘’ उत्तर के लिए वह पहले से तैयार थी। ‘’पर आधी क़ीमत है किसके पास?’’ कहकर वह हँसी तो हमेशा दाँतों के कोनों से पकड़ी चादर फिसल गयी। रामिश उस शाह्कार की ताब न ला सका। उसके पुरुष सौन्दर्य की वरचस्व भावना को ठेस लगी। कितनी ही लड़कियाँ बिना किसी कारण के केवल उससे बात करने के बहाने तलाश करती हैं और इस लड़की को अपने सौन्दर्य पर शायद इतना अभिमान है कि उसने रुकना भी पसन्द नहीं किया। रामिश ने अपने भीतर एक स्पर्धा सी महसूस की। उसके चित्रकार ने उसे चुनौती दी। ‘’मैं इस से भी हसीन आकृति उभारूँगा। अभी, इसी समय। लेकिन वह ऐसा नहीं कर सका। लड़की के घर का पता लगाकर उसने उससे विवाह भी कर लिया। किन्तु इस विवाह के पीछे उसके पुरुष सौन्दर्य की वर्चस्व भावना की विजय का एहसास मात्र था और वह रौशनिक को नीचा दिखाना चाहता था। ‘’तुम बादलों से उड़कर नहीं आई हो। न ज़मीन ने तुमको जन्म दिया। तुम मेरी तरह इन्सान हो।‘’ वह रौशनिक के साथ बेदर्दाना सुलूक करता है। पर अपने इस सुलूक पर वह शर्मिन्दा है। रौशनिक अस्पताल में है और तड़प रही है। रामिश अपराधबोध से ओत-प्रोत है। वह लेखिका के शब्दों में यह हक़ीक़त भूल गया है कि सृजन से पहले हर चित्रकार, हर कलाकार ज़िन्दगी-मौत के झूले में झूलता है। चाहे वह तूलिका से रंग भरना हो, या बरतन पर क़लमकारी के नमूने उभारने हों या कविताओं व गद्य की पंक्ति से काग़ज़ काले करने हों, गुज़रना सबको मौत के पुल से होता है। और फिर जुड़वाँ बच्चों को जन्म देने की मुबारकबाद के शोर में वह इन नए मिनिएचर्स का रचनाकार होने का गर्व कर उठता है। किन्तु इस बार उसमें पुरुष सौन्दर्य की वर्चस्व भावना नहीं है। उसे महसूस होता है ‘’ इस बार रौशनिक मुझसे बाज़ी ले गयी। रौशनिक ने फीके होठों से पूछा –‘’देखा ! कैसी लगीं दोनो मिनिएचर ?’’
मिट्टी का सफ़र और आशियाना कहानीपन का हल्का सा पुट होने के बावजूद अपनी पृथक पहचान बनाती हैं। मुशद ग़ुलाम अपने बेटे मेहरम को डाक्टर बनाना चाहता था जिसकी तालीम के लिए उसे बाहर भेजना ज़रूरी था। बाप-बेटे पैसा कमाने के खयाल से दिन-रात मेहनत करते थे। अभी बेटा कुल बारह साल का था और बाहर भेजने में भी काफ़ी देर थी। लेकिन मुश्द ग़ुलाम शीघ्र से शीघ्र पैसा इकट्ठा कर लेना चाहते थे। इमाम रज़ा की वर्षगाँठ होने से मशहद में काफ़ी भीड़ थी। कमाई भी काफ़ी अच्छी हो रही थी। पैसे के मोह में बेटे के पैर का ज़ख़्म आज और कल पर इलाज के लिए टलता जा रहा था। अस्पताल ले जाने का मतलब था एक दिन के लिए होटल बन्द करना। उस दिन की कमाई सिफ़र । अस्पताल का ख़र्च अलग और परीशानी अपनी जगह। बेटे के लिए मुश्द्ग़ुलाम की चाहत में कोई कमी नहीं थी । हाँ, पैसे की लालच ने और अधिक से अधिक कमा लेने के मोह ने उसकी आँखों पर पट्टी बाँध रखी थी। किसी ने चाय की चुस्की लेते हुए मुश्द्ग़ुलाम से मेहरम के पैर की चोट के बारे में पूछा-‘पैर की चोट कैसी है ?’ उस ने उत्तर दिया-‘ठीक हो जाएगी।‘ प्रश्न हुआ-‘दवा लगाई थी?’ उत्तर मिला- ‘अब सारे दिन यहाँ जूझने के बाद अस्पताल का समय कहाँ से निकालूँ ? सारा दिन वहाँ निकल जाएगा।‘’
मेहरम के पैर से ख़ून रिस रह था । शायद पट्टी अपनी जगह से खिसक गयी थी । पर उत्साह में वह भूला हुआ था । जितने ज़्यादा गाहक आयेंगे , पैसे उतने ही ज़्यादा मिलेंगे । तभी कुर्सी से उसे ठोकर लगी और मुँह से “सी” निकल गया । “बाबा आज दर्द काफ़ी है । ठीक हो जायेगा । घबरा मत । मुरादों के दिन हैं । और नौबत यहाँ तक पहुँच गयी । ज़ख्म के आस-पास ख़ू्न की कत्थई पपड़ी जम गयी थी। पास में चुग़ती हुई मुर्ग़ियों में से एक ने मेहरम के खुले ज़ख़्म पर गोश्त के छीछड़े को चिपका समझ कर ज़ोर से ठोंग मारी। मेहरम बिलबिलाकर तड़पा। अचेत सा नीला होकर कुरसी पर झूल गया। लेखिका की सूक्ष्मानुभूतियों का यह विस्तार देखने योग्य है । वीभत्स में करूणा का रंग कितने सहज ढंग से शामिल हो गया है ।। पिता ने दूसरे दिन अस्पताल जाकर इन्जेक्शन भी लगवाया। कोई बेड ख़ाली न होने के कारण ऐडमिट न करा सका। उस समय तक काफ़ी देर हो चुकी थी। मुश्दग़ुलाम मेहरम को डाक्टरी की तालीम के सफ़र के लिए बाहर न भेज सका। हाँ, क़ुदरत ने उसकी मिट्टी को सफ़र के लिए ज़रूर भेज दिया।
आशियाना कहानी भी पर्याप्त रोचक है और भौगोलिक परिधियों से कहीं अधिक मानवीय संवेदनाओं की परिक्रमा करती है। शारीरिक सुख की तुलना में आत्मतोष का सुख शायद कहीं अधिक गर्माहट पहुँचाता है और बर्फ़ की ठण्ढी चुभन के अहसास को विलुप्त कर देता है । सिर पर एक छत होने का स्वप्न कौन नहीं देखता । जमशेद चौथी श्रेणी का कर्मचारी अवश्य था किन्तु जीवन को सुन्दर और सुखद देखने के लिए प्रयत्नशील था इस लिए उस की पत्नी बुतूल भी टाइप सीख रही थी तकि वह भी पैसे कमा सके । किरमान से पैसे कमाने के विचार से तो तेहरान आ गये । पर तेहरान में घर मिलने की समस्या कोई साधारण नहीं थी और केवल सोचने से इसका कोई हल नहीं निकल सकता था । बहुत दौड़-धूप के बाद तीसरी मज़िल की छत पर एक साहब ने कमरा बनवा दिया तो किरायेदार कहलाना नसीब हुआ । पहले दिन सुबह उठने पर छत पर इतनी बर्फ़ जमी हुई थी कि किचन तक जाने के लिए रास्ता साफ़ करना पड़ा । शाम को भी यही हाल था । कब तक चलेगा ये सब ? अगर पैसा हो तो कुछ सोचा भी जाय । कई लोगों ने अपार्ट्मेन्ट ख़रीदा है । बुरा तो नहीं है । दो कमरे, किचेन, बाथ रूम, आराम अलग । रात-दिन खटने के बद सिर पे छत का इन्तेज़ाम भी नहीं कर पया तो लानत है इस कमाने पर । बुतूल ने टाइप सीख लिया और वह भी नौकरी करने लगी ।पति और पत्नी दाँतों से पकड़कर एक एक पैसा ख़र्च करते । नौरोज़ में किरमान भी नहीं गये । यहाँ तक कि रूज़े-मादर के दिन उपहार भी नहीं लिया । और फिर एक दिन किरमान से जब ख़त आया और भाई ने कुछ ज़मीन निकालने की ख़्वहिश ज़ाहिर की तो बुतूल के मशवरे पर जमशेद ने अपना हिस्सा बेचने से साफ़ इनकार कर दिया । ख़याल था कि दो साल बाद जब ज़मीन महंगी होगी तब बेचेंगे । लेकिन क़ुदरत के खेल भि अजीब हैं । खेत-खलिहान की लड़ाई में भाई को चाक़ू लग गया । घर से ख़त आया था । कुछ पैसे मँगवाये थे ।
बुतूल, पास-बुक उठाना ।
क्यों क्या काम है ?
देखूँ , रूपया कितना है ?
दस हज़ार तुमान , अपना हिस्सा बेचने की सोच रहे हो ? जमशेद को सोच में डूबा देखकर बुतूल ने सवाल किया ।
नहीं , कुछ पैसे निकलवाने की सोच रहा हूँ ।
और फिर परिस्थितियाँ तेज़ी से करवट लेती रहीं। भाई की चाक़ू लगने से सैप्टिक में मौत। किरमान की भाग-दौड़। तय पाया सब कुछ बेचकर हिस्सा बाँट कर लिया जाए। और भाभी को तेहरान साथ ले चलें। नतीज यह हुआ कि एक कमरे के इस हंडियानुमा घर में बघारी जामुन की तरह पूरा ख़ानदान भर गया। बैंक की पासबुक भी धीरे-धीरे ख़ाली हो गयी। मकान मिलने का नम्बर आया और चला गया। जमशेद को एक ख़याल सा आया कि अगर वह भाभी और बच्चों को न लाता तो कितने आराम से होता दो कमरों के अपने फ़्लैट में। लेकिन उनका क्या होता ? गाँव में न जाने किस तरह लोग बरतते और ये लोग हालात से हार जाते। आराम से यहाँ न सही मगर सन्तोष से तो हैं। जमशेद को महसूस हुआ कि यह आशियाना जैसा भी है, इसमें कुछ न होने पर भी बहुत कुछ है। शारीरिक सुख की कल्पना आत्मतोष की फुहार से भीग कर नर्म हो गयी और भाई का पूरा परिवार एक दूसरे से अपनी टाँगेँ जोड़कर निस्संकोच ज़रा सी ज़मीन पर पसर गया ।
नासिरा शर्मा की विशेषता ये है कि ईरान की नारी को उसके भौगोलिक और साँस्कृतिक परिवेष में मूल्यांकित तो करती ही हैं , साथ ही उसके स्म्पूर्ण समाज का भी अवलोकन करती चलती हैं और घरों के ठ्ण्ढे बिखराव तथा अनुशासित संतुलन में नारी की भूमिका और साझीदारी की परख करना नहीं भूलतीं । ‘ख़ुश्बू का रंग’ कहानी में कुछ बिखरी हुई यादों को इस तरह समेटा गया है कि जीवन क एकान्त अपने यथार्थ पर गर्व करता है और बहिश्ते ज़हरा की क़ब्र शहादत की उच्चस्तरीय सार्थकता का ऐसा विस्तार करती है कि मौत के बाद की ज़िन्दगी एक दूसरे की धड़कनों के निकट रहते हुए गुज़ार देने की इच्छा ही मन का स्न्तोष बन जाती है । ईरान की अंकुश भरी शाही व्यवस्थामें ज़बान और क़लम की आज़ादी की बात उभर कर आयी और जे0 एन0 यू0 के साम्यवादी माहौल में सारिका में छपी इस कहानी ने दो-आतिशे का काम किया । “काश मैं तुम्हारे क़रीब दफ़्न हो सकूँ ।क्या ऐसा हो सकता है ? क्यों नहीं ?ज़िन्दगी में न सही । मर कर तुम्हारी क़ुरबत पा सकती हूँ । शहीद का रक्त कितना लाल होता है कि जिस ज़मीन में जज़्ब होता है उसका सीना चीरकर लाल फूल ही उगता है । “आज मैं सोच रही हूँ कि जहाँ तुम्हारा ख़ून गिरा होगा , गर्म, उबलता ,जोशीला सुर्ख़ ख़ून , वहाँ लाल फूल तो ज़रूर खिला होगा । वैसे मुसलमानों में हर एक की इच्छा अपने प्रिय के निकट दफ़्न होने की होती है और फिर शहीद का दर्जा तो श्र्रीपद क़ुरआन की दृष्टि से भी श्रेष्ठ है । उसके समीप दफ़्न होने का सौभाग्य किसे मिलता है । भारत में भले ही शहीद का कोई धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व न हो, लेकिन मुसलमानों के प्रभाव से और कार्बला के शहीदों के बलिदान से आज़ादी की लड़ाई में अपनी जानें क़ुर्बान करने वाले शहीद कहलाये और भगत सिंह, अशफ़क़ उल्लाह ख़ाँ, च्न्द्र शेखर आज़ाद इत्यादि शहीद की हैसियत से श्रद्धेय माने गये । 1857 की महाक्रान्ति में इस शब्द का प्रयोग पहले-पहल अज़ीमुल्लाह ख़ाँ ने अपनी एक नज़्म में किया था जिसके प्रकाशन पर ‘पयामे-इस्लाम’ के स्म्पादक बेदार बख़्त को शरीर पर सूवर की चरबी मलवा कर फाँसी दे दी गयी थी । हिन्दी में शहीदों को केन्द्र में रख कर बहुत कम कहानियाँ लिखी गयीँ और जो दो-चार हैं भी उनका प्रभाव बहुत गहरा नहीं है । शहादत के विषय से जुड़ी नासिरा शर्मा की कहानियाँ हिन्दी कथा साहित्य को पर्याप्त समृद्ध करती हैं ।
शामी काग़ज़ की दूसरी कहानियाँ भी जिनमें तलाश, दीमक, परिन्दे, उक़ाब और बेगाना ताजिर शामिल हैं अपने समय की हिन्दी कहानियों से अलग अपनी पहचान बनाती हैं । इन कहानियों में कहानीपन तलाश करना इनके प्रतीकात्मक संकेतों को समझने से पलायन करना है। सघर्ष और एहतिजाज का यह ख़रामाँ अंदाज़ अपने शरीफ़ाना तीखेपन के साथ बड़े संतुलित ढंग से अपने मज़बूत पाँव जमाता दिखायी देता है । ईरानी क्रान्ति ने ईरानियों को भले ही ज़िन्दगी की चेतना से रूशनास न कराया हो, नासिरा शर्मा के भीतर की लेखिका पिघले हुए लावे की तरह इस ज्वालामुखी के दहाने से लग कर खड़ी हो गयी है और उसने अपने सुनहरे क़लम को इस आग में तपा कर कुन्दन कर लिया है।


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लेखिका = नासिरा शर्मा
कहानी सग्रह= शामी काग़ज़
स्त्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली ,1997

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

दर्द या दर्द का कोई पहलू नहीँ

दर्द या दर्द का कोई पहलू नहीँ।
देवताओं की आँखों में आँसू नहीं॥

लोग मिलते हैं अब भी बड़े जोश से,
पर ख़ुलूसो-मुहब्बत की ख़ुश्बू नहीं॥

जैसी मरज़ी हो पर्वाज़ करता रहे,
तायरे नफ़्स पर कोई क़ाबू नहीं॥

ये नयी नस्ल करती है ख़ुद फ़ैस्ले,
अब बुज़ुरगों में शायद वो जादू नहीं॥

दिल है ऐसा कोई जो धड़कता न हो,
कोई ऐसी जगह है जहाँ तू नहीं॥
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बुधवार, 30 जून 2010

ज़बानें तितलियोँ की आज भी समझता हूं

ज़बानें तितलियोँ की आज भी समझता हूं।
गुलों की उनसे है क्यों बेरुख़ी समझता हूं॥

मैं अब भी बादलों से हमकलाम रहता हूं,
के उनके दर्द की हर बेकली समझता हूं॥

सुनाता रहता है दरिया मुझे फ़सानए-दिल,
के उसके ग़म को भी मैं अपना ही समझता हूं॥

मिठास उसके लबों में शहद सी होती है,
मैं उस मिठास को उसकी ख़ुशी समझता हूं॥

मैं पढता रहता हूं आँखों की हर इबारत को,
के उसको हुस्न की जादूगरी समझता हूं॥

कोई ख़ुलूस से मुझसे अगर नहीं मिलता,
मैं इस को अपनी ही कोई कमी समझता हूं॥
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रविवार, 27 जून 2010

जिसने अपयश की चिन्ता कभी की

जिसने अपयश की चिन्ता कभी की।
प्यार में उसने सौदागरी की॥

जबसे उसने प्रशंसा मेरी की।
कोई सीमा नहीं बेकली की॥

घर मेरा धूएं से भर गया है,
गीली हैं लकड़ियाँ ज़िन्दगी की॥

कुछ भी आपस में बँटता नहीं है,
सरहदें हैं कहाँ दोस्ती की॥

कुछ भी शायद नहीं मेरे वश में,
अब मैं सुनता हूं केवल उसी की॥

राजनेता कभी बन न पाया,
चापलूसी में जिसने कमी की॥

हर ख़ुशी परकीया नायिका है,
हो न पायी कभी भी किसी की॥
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शनिवार, 26 जून 2010

हज़रत अली / जन्म दिवस [26 जून 2010 / तेरह रजब 1431 हि0]पर विशेष

दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम होते हैं जिन्हेँ उनकी ज़िन्दगी में भी और ज़िन्दगी के बाद भी सर-आँखों पर बिठाया जाय और एक अच्छी ज़िन्दगी गुज़ारने की उन से प्रेरणा ली जाय्। हज़रत मुहम्मद इस्लाम के अन्तिम नबी हैं और हज़रत अली उसी इस्लाम की जीवन्त व्याख्या।श्रीप्रद क़ुर'आन की एक-एक आयत मौलाना रूमी की दृष्टि में अपने व्यक्त रूप से पृथक, चि्न्तन के कई-कई गर्भ रखती है- हर्फ़े क़ुर'आँ रा बिदाँ के ज़ाहिरस्त/ज़ेरे-ज़ाहिर बातिने बस क़ाहिरस्त्॥हमचुनी ता हफ़्त बत्न ऐ ज़ुल्करम / मी शमुर तू ज़ीं हदीसे मोतसम्॥ज़ाहिरे क़ुर'आँ चु शख़्से-आदमीस्त/ के नुक़ूशश ज़ाहिरो जानश ख़्फ़ीस्त्॥अर्थात- श्रीप्रद क़ुर'आन के शब्द उसकी बाह्य अभिव्यक्ति मात्र हैं।उन शब्दों के अन्तस में एक सशक्त बातिन है जो उसका गर्भ है। ऐ भले आदमी विचार कर कि इसी प्रकार एक के बाद एक कर के सात गर्भ हैं, जैसी के नबीश्री ने अपने प्रवचन में चर्चा की है।क़ुर'आन का व्यक्त रूप मनुष्य के अस्तित्व जैसा है कि उसका रूप और आकार व्यक्त है किन्तु उसकी आत्मा गुप्त है। हज़रत अली के सबंध में नबीश्री ने कहा था कि अली क़ुरान के साथ हैं और क़ुर'आन अली के साथ है, और फिर यह भी घोषणा कर दी कि मैं इल्म का शहर हूं और अली उसका दरवाज़ा हैं। स्पष्ट है कि अब जो मुसलमान क़ुर'आन का इल्म प्राप्त करना चाहता है उसे अली का दर्वाज़ा खटखटाना होग।
कटटर सुन्नी मुसलमान आज भले ही वहाबियत के प्रभाव से हज़रत अली की सुपात्रता और श्रेष्ठता को लेकर शीओं का विरोध करते रहें किन्तु सूफ़ी मुसलमानों में, जो निश्चित रूप से शीआ नहीं हैं, हज़रत अली की श्रेष्ठता असंदिग्ध है।मौलाना रूम हज़रत अली को अल्लाह का वली [मित्र] और नबीश्री का वसी, नायब या उत्तरधिकारी स्वीकार करते हैं और मेराज [नबीश्री का आकाश की सरहदों को पार करके अल्लाह के बुलावे पर लामकां [महाशून्य]तक जाना और अल्लाह से बातें करना और उसकी निशानियाँ देखना] की शब में नबीश्री के साथ हज़रत अली के होने की घोषणा करते हैं- शाहे के वसी बूद, वली बूद, अली बूद/ सुल्ताने सख़ाओ-करमो-जूद अली बूद्॥आँ शाहे-सर-अफ़राज़ के अन्दर शबे मेराज/ बा अहमदे मुख़्तार यके बूद अली बूद्।सन्नाई भी हज़रत अली को नबीश्री का दामाद और उतराधिकारी स्वीकर करते हैं और यह भी कहते हैंकि नबीश्री की आत्मा उनके जमाल से उल्लसित हो उठती थी- मर नबी रा वसीओ हम दामाद/ जाने-पैग़म्बर अज़ जमालश शाद्। हज़रत ख़्वाजा फ़रीदुद्दिन अत्तार नबीश्री की इस हदीस में गहरी आस्था व्यक्त करते हैं "अना व अली मिन नूरिंव्वाहिद" अर्थात मैं और अली एक ही नूर से हैं-पयम्बर गुफ़्त चूं नूरे दो दीदह/ज़यक नूरेम हर दो आफ़रीदह। अली चूं बा नबी बाशद ज़यक नूर / यके बाशन्द हर दो अज़ दुई दूर्।
हज़रत मुहम्मद[स0] के निधनोपरान्त मदीने में जो परिस्थितियां बनीं उनमें हज़रत अली चौथे ख़लीफ़ा स्वीकार किये गये। हज़रत ख़्वाजा बन्दानवाज़ गेसूदरज़ ने इस बहस से दामन बचाते हुए स्पष्ट किया कि ख़िलाफ़त दो प्रकार की है। एक भौतिक या दुनियावी [ख़िलाफ़ते सुग़रा] और दूसरी आधयात्मिक या रूहानी [ख़िलाफ़ते कुबरा]। उनका मानना है कि ख़िलाफ़ते कुबरा यानी श्रेष्ठ ख़िलाफ़त या रूहानी ख़िलाफ़त पर उम्मत को इत्तेफ़ाक़ है कि यह हज़रत अली की है। ख़िलाफ़ते-सुग़रा या दुनियावी ख़िलाफ़त पर उम्मत में विवाद है।[जवामेउलकिलम, पृष्ठ 98 तथा मिरातुल असरार 1/17] । शाह वलीउल्लाह का मानना है कि हज़रत अली मुस्लिम उम्मत के पहले सूफ़ी,पहले मजज़ूब[अल्लाह के प्रेम में डूबा रहने वाला] और पहले आरिफ़ [अल्लाह के रहस्यों का ज्ञान रखने वाला] हैं[फ़ुयूज़ुलहरमैन, दिल्लि, पृष्ठ 51]।
इस्लाम के प्रथम प्रतिष्ठित सूफ़ी हज़रत हसन बसरी ने अल्लह के गुप्त रहस्यों का ज्ञान हज़रत अली से प्राप्त किया।हज़रत जुनैद बग़दादी सैद्धान्तिक स्थितियों और परीक्षा के क्षणों में हज़रत अली को अपना गुरु और मार्गदर्शक मानते हैं[कश्फ़लमहजूब पृष्ठ 60]।ख़्वजा बन्दानवाज़ के कथनानुसार हज़रत बायज़ीद बस्तामी हज़रत अली के वंशज हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ के यहाँ फ़र्श बिछाया करते थे जिससे उन्हें अल्लह के रहस्यों का ग़्यान प्राप्त हुआ।
अल्लामा इक़बाल ने असरारे-ख़ुदी में हज़रत अली की चार उपाधियों [अबू तुराब अर्थात मिटटी का पिता,यदुल्लाह अर्थात अल्लाह का हाथ, कर्रार अर्थात मैदान में डटे रहने वाला और दर्वाज़ए-इल्म अर्थात ज्ञान का प्रवेश द्वार] की व्याख्याएं की है और उन्हें हज़रत मुहम्मद का प्रथम अनुयायी घोषित किया है। डा0 इक़बाल की दृष्टि में हज़रत अली ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिनमें इल्म, इश्क़ और जिहाद [अल्लाह के दीन की रक्षा के लिए विरोधियों से युद्ध करना] एक साथ एकत्र थे।नबीश्री ने ख़ुद को इल्म का शहर और हज़रत अली को उसका दर्वाज़ा कहा। इश्क़ में जान की पर्वा नहीं होती । हज़रत अली का इश्क़ इस बात से नुमायाँ है कि जब मदीने से प्रस्थान करते हुए नबीश्री ने हज़रत अली को शत्रुओं के बीच तलवारों में घिरे हुए अपने बिस्तर पर सो जाने को कहा तो हज़रत अली ने निःसंकोच आदेश का पालन किया यह कार्य एक सच्चा आशिक़ ही कर सकता था। जहाँ तक जिहाद का प्रश्न है हज़रत अली की ही वजह से इस्लाम की सभी जंगों में मुसलमानों को सफलता प्रप्त हुई।
हज़रत अली को नबीश्री ने अल्लमा इक़बाल के अनुसार अबूतुराब [मिटटी का पिता] इस लिए कहा कि वे इस मिटटी से निर्मित भौतिक शरीर पर विजय प्राप्त कर् चुके थे और मोह माया से पूरी तरह मुक्त थे।उन्होंने इस भौतिक काया को औषधि स्वरूप बना दिया था- शेरे-हक़ ईं ख़ाक रा तस्ख़ीर कर्द/ ईं गिले-तारीक रा अक्सीर कर्द्।इक़बाल इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि जो व्यक्ति हज़रत अली की तरह भौतिक शरीर पर विजय प्राप्त कर ले और अबूतुराब बन जाये वो सूर्य को पश्चिम से पूर्व की ओर ला सकता है-हरके दर आफ़ाक़ गर्दद बूतुराब/ बाज़ गर्दानद ज़ मगरिब आफ़्ताब"। ऐसा व्यक्ति भौतिक तत्त्वों को अपने अधीन कर लेता है।इसी लिए ख़ैबर जैसा क़िला जिसे चालीस दिन तक, हज़रत अली की अनुपस्थिति और हज़रत मुहम्मद[स0] के अस्वस्थ होने के कारण, हज़रत अबूबक्र तथा हज़रत उमर आदि फ़तह न कर सके और रणक्षेत्र से हताश लौट आये, हज़रत अली के पाँवों के नीचे पाय गया अर्थात उन्होंने बहुत आसानी से उस पर विजय प्राप्त कर ली।इतना ही नहीं अपने अनेक गुणों के कारण स्वर्ग में हज़रत अली ही साक़िए कौसर होंगे अर्थात पवित्र कौसर के जल से स्वर्गवासियों को तृप्त करेंगे- ज़ेरेपाश ईं जा शिकोहे-ख़ैबरस्त / दस्ते- ऊ आँजा क़सीमे-कौसरस्त्।
अल्लामा इक़बाल के अनुसार हज़रत अली की उपाधि यदुल्लाह इस्लिए थी कि श्रीप्रद क़ुर'आन में नबी श्रीके हाथ को अल्लाह का हाथ कहा गया है और हज़रत अली का हाथ फ़ना फ़िर्रसूल अर्थात पूर्णतः रसूल को समर्पित होने के करण,रसूल के हाथ से भिन्न नहीं थाअज़रत अली ने अपनी आत्मा को पहचान लिया था और जो अपनी आत्मा को पहचान लेता है, अपने रब का हाथ हो जाता है और शहंशाही करता है- अज़ ख़ुद-आगाही यदुल्लाही कुनद अज़ यदुल्लाही शहंशाही कुनद्।अल्लामा की दृष्टि मे हज़रत अली कर्रार इस लिए थे कि उन्होंने मैदाने-जंग में दुश्मन को कभी पीठ नहीं दिखाई।जब कि तथ्य यह है कि उहद में हज़रत अबूबक्र, हज़रत उमर और हज़रत उस्मान जैसे रसूल के सम्मानित सहाबी भी मैदान चोड़ कर भाग खरे हुए- मर्दे किश्वरगीर अज़ कर्रारी अस्त/ गौहरश रा आबरू ख़ुद्दारी अस्त्।
उर्दू के श्रेष्ठ कवि मीर तक़ी मीर तो हज़रत अली के व्यक्तित्व पर फ़िदा हैं।उनकी स्पष्ट अवधारणा है-
गाह बेगाह कर अली ख़्वानी। है अली दानी ही ख़ुदा दानी॥
फ़र्शे राहे अली कर आँखों को। यूँ बिछा तू बिसाते ईमानी ॥
है वही मेह्र चर्ख़े-इरफ़ाँ का । है वही शाहे ज़िल्ले सुबहानी॥
क़ामत आराए किब्रिया हक़ का। चेहरा पर्वाज़े-नूरे- यज़दानी॥
हाथ उसका वही ख़ुदा का हाथ । बात उसकी कलामे-रब्बानी॥
हम अली को ख़ुदा नहीं जाना ।
र ख़ुदा से जुदा नहीं जाना ॥
हज़रत अली की प्रशस्ति मे अनेक मन्क़बत एवं मुनाजातें लिखकर मीर ने अपने उदगार व्यक्त किये हैं, कुछ उदाहरण देखिए- "है दोस्ती अली की तमन्नए-कायनात/बे लुत्फ़ उस बग़ैर है क्या मौत क्या हयात/ यानी के ज़ाते-पाक है उसकी ख़ुदा की ज़ात/ क्या उन मवालियों के तईं है ग़मे-निजात /मरते हुए जिन्हूंके दिलों में रहा अली॥उनकी यहाँ तक इच्छा है कि निधनोपरान्त जब यह शरीर नष्ट होकर मिटटी में मिल जाय और उस से हरियाली उगे, तो उसके एक एक पत्ते से आवाज़ आये कि मैं अली का अनुयायी हुँ-शौक़-कामिल से तअज्जुब है ये क्या/जो बदन हो ख़ाक सब बादे-फ़ना/ और फिर उससे उगे सब्ज़ा हया/ बर्ग बर्ग उसका करे फिर ये सदा/ हैदरी हूं हैदरी हूं हैदरी॥एक अन्य मन्क़बत में कहते हैं- रह विलाए अली का ख़्वाहिश्मन्द/है ये शेवा ख़ुदा रसूल पसन्द/ दब के हरगिज़ न रख ज़बान को बन्द/पस्त करने को मुद्दई के, बलन्द/ या अली या अली कहा कर तू॥
मिर्ज़ा ग़ालिब भी हज़रत अली के प्रति श्रद्धाभाव व्यक्त करने में मीर से पीछे नहीं हैं। एक क़सीदे के कुछ शेर द्रष्टव्य हैं-नक़्शे लाहौल लिख ऐ ख़ामए-हिज़ियाँ तहरीर/ या अली अर्ज़ कर ऐ फ़ितरते विसवासे क़री/नज़हरे फ़ैज़े ख़ुदा जानोप्दिले ख़त्मे रसुल/ क़िब्लए आले नबी काबए ईजादे यक़ीं/ जल्वा परदाज़ हो नक़्शे क़दम उसका जिस जा/ वो कफ़े-ख़ाक है नामूसे दोआलम की अमीं/बुर्रिशे तेग़ का उसकी है जहाँ में चर्चा/ क़तअ हो जाये न सर रिश्तए ईजाद कहीं।जाँपनाहा, दिलोजाँ फ़ैज़रसाना, शाहा/वसिए-ख़त्मे-रसुल तू है बफ़त्वाए यक़ीं।जिस्मे अतहर को तेरे दोशे पयम्बर मिम्बर/नामे-नामी को तेरे नासियए अर्श नगीं।
मधययुगीन हिन्दी कवियो ने भी हज़रत अली की प्रशंसा में अनेक कवित्त एवं दोहे रचे हैं। सम्राट हुमायूं के दरबारी कवि "क्षेम" का एक कवित्त इस दृष्टि से और भी उल्लेख्य है कि उसमें भारतीय देवताओं की पृष्ठभूमि में हज़रत अली के शौर्य का विवेचन किया गया है-
धरनि थरनि थरथरति डरनि रथ तरनि पलटठिउ ।
धूम धाम धरुव लोक सोक सुरपति अति पटठिउ ॥
हिम गिरि सुमेर कैलास डिग हहरि हहरि स्रंकर हस्यो।
छेम कोप हजरत अली जब जुल्फिकार कमर कस्यो॥
प्रसिद्ध कवि रसखान ने हज़रत अली की प्रशस्ति में अनेक छन्द रचे हैं। यहाँ उनका एक कवित्त द्रष्टव्य हैं-
करतार तुम्हैं एतो जोर दियो न कियो कोई और समान बली।
छल कै जिन फेरो न मार को जात सो बांध लियो इब्लीस छली।
छूट गयो इफ़रीत तहाँ यह बात न जानत भाँति भली।
दुख संकट गाढ परै जिह को तिह को रसखान सुहाय अली॥
सम्राट अकबर के दरबारी कवि और संगीत सम्राट तानसेन हज़रत अली के प्रति अपनी श्रद्धा इस प्रकार व्यक्त करते हैं-
हजरत अली की सुदिश्टि भली मोपै जो दुक्ख जाये सब तन ते भाज्।
हौं सेवक तिहारो तुम जात पाक राख लीजो या जगत में हमारी लाज्।
हज़रत अली की प्रशंसा में जितनी सुन्दर रचनाएं अंग दर्पण और रस प्रबोध के रचनाकार रसलीन की हैं अन्य कवियों के यहाँ दुर्लभ हैं।उनके दो कवित्त यहाँ उद्धृत हैं-
बिधि मना कियो खानो, आदम को सोई दानो,हैदर न मुख आनो, सब लोक गायो है।
मूसा को न राख्यो छिन्जान के अजान जिन, सोइ खिजर आप तिन, हैदर सिखायो है।
ईसा जनायो निज भवन ते निकार कर, तिन प्रभु हैदर आप घर लै जनायो है।
ऐसो साह आलीजाह, बाहु बली दीं-पनाह,शेर अलह अली नाह, फात्मा ने पायो है।
तथा-
भूप अस बाहक हो, जग के निबाहक हो, जाचक के थाहक हो, जस के निधान जू।
भव सिन्धु थाहक हो,पापिन के दाहक हो, बिघन बगाहक हो, साहब सुजान जू।
दीनन के गाहक हो, सेवक के चाहक हो, दया के बलाहक हो, बरसई दान जू।
धर्म अवगाहक हो, नबी के सलाहक हो फात्मा के ब्याहक हो , साह मर्दान जू।
अन्त में हज़रत अली के व्यक्तित्व की कुछ विशिष्टताओं का संकेत करते हुए लेख समाप्त करूंगा।
हज़रत अली के व्यक्तित्व की विशिष्टताएं
* हज़रत अली माँ-बाप दोनों की ओर से हाश्मी हैं।* हज़रत अली का जन्म अल्लाह के घर में अर्थात काबे में हुआ।*हज़रत अली पहले व्यक्ति हैं जिनका नाम नबीश्री ने अल्लाह के नाम पर रखा। हज़रत अली से पहले यह नाम किसी का नहीं था।*हज़रत अली ने अपने जन्म के बाद जब आँखें खोली तो नबीश्री की गोद में, और पहल चेहरा जो देखा वह नबीश्री का ही था।*हज़रत अली नबीश्री के सगे चचाज़ाद भाई थे और उनका पालन पोषण भी नबीश्री ने ही किया।*हज़रत अली के गुरु, शिक्षक और अभिभावक नबीश्री ही थे।*नबीश्री ने जब नबूवत की घोषणा की हज़रत अली ने हज़रत ख़दीजा की तरह उसकी पुष्टि की और वो अरबों में प्रथम हैं जिन्हों ने इस्लाम स्वीकार किया। *नबीश्री के साथ प्रथम नमाज़ अदा करने वालों में हज़रत ख़दीजा के साथ होने का श्रेय अली को प्राप्त है।*जब नबी श्री ने तमाम हाश्मियों को भोजन पर बुलाया और कहा कि जो इस मिशन में मेरा साथ देगा, वही मेरा वसी और ख़लीफ़ा होगा, तो हज़रत अली ने ही नबीश्री के मिशन में सहयोग देने की इच्छा व्यक्त की।* मदीना से हिजरत करते समय नबीश्री ने हज़रत अली को अपने बिस्तर पर लिटाया ताकि मकान को घेर कर खड़े शत्रुओं को नबी के प्रस्थान का अहसास न हो और वे हज़रत अली को नबीश्री ही समझने के धोके में रहे।* मदीने पहुंचकर नबीश्री ने हर मुहाजिर को एक अंसार का भाई घोषित किया किन्तु अली को अपना भाई बनाया।*हज़रत अबूबक्र और हज़रत उमर जैसे प्रतिष्ठि सहाबियों की इच्छा ठुकरा कर अपनी बेटी फ़ातिमा का विवाह हज़रत अली से किया।* सुलहे हुदैबिया का सुलहनामा लिखने की ज़िम्मेदारी नबीश्हरी ने हज़रत अली को सौंपी॥* मक्का की विजय के बाद नबीश्री के आदेश पर उनके कन्धों पर चढकर काबे के बुतों को तोड़ा।*हज के मौक़े पर सुरए बर'अत हाजियों के मधय भेजने के लिए अली को अल्लाह के आदेश की रोशनी में नबी का अह्ल यानी सुयोग्य पात्र माना गया।*हज़रत अली अकेले व्यक्ति हैं जिन्हें नबीश्री ने अपनी ही तरह मुसलमानों का मौला कहा।*ईसाइयों के समक्ष झूठो पर लानत के लिए [मुबाहला] जो अकेला सिद्दीक़ [सच्चा इन्सान] चुना गया वह हज़रत अली थे।*हज़रत अली एक मात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें नबीश्री ने इल्मे लदुन्नी [अल्लह के विशिष्ट रहस्यों का ज्ञान] से अवगत कराया।* जब नबीश्री का निधन हुआ तो हज़रत अली ने ही उन्हें ग़ुस्ल दिया।प्रतिष्ठित सहाबियों में वहाँ कोई नहीं था।
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शुक्रवार, 25 जून 2010

कैसे मुम्किन है मसाएल से न टकराए हयात्

कैसे मुम्किन है मसाएल से न टकराए हयात्।
कौन चाहेगा ख़मोशी से गुज़र जाये हयात् ॥

कोई तूफ़ान, कोई ज़्ल्ज़ला, कोई सैलाब,
ज़िन्दगी में न अगर हो तो किसे भाए हयात्॥

आ के मख़मूर हवाएं कभी नग़मा छेड़ें,
ख़ुश्बुओं का कोई आँचल कभी लहराए हयात्॥

रोज़ यूं टूटते रहने से किसी दिन यारब,
ऐसे हालात न हो जाएं के शर्माए हयात्॥

उसके ही ख़्व्बों से आती है बहारों की हवा,
उसके ही ज़िक्र से खिल उठते हैं गुलहाए हयात्॥
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गुरुवार, 24 जून 2010

खो गया मैं ये किस कल्पना में

खो गया मैं ये किस कल्पना में।
चाँद ही चाँद हैं हर दिशा में॥

मैं अमावस से सुबहें तराशूँ,
घोल दो चाँदनी तुम हवा में॥

मैं पिघलता रहूं मोम बनकर,
तुम प्रकाशित रहो बस शिखा में॥

मेरे होंठों की मुस्कान हो तुम,
तुम ही सुबहें मेरी तुम ही शामें॥

मूंद लूं जब भी मैं अपनी आँखें,
तुम उपस्थित रहो वन्दना में॥

लड़खड़ा कर संभल जाऊंगा मैं,
कह दो लोगों से मुझको न थामें॥

मैं ने दर्शन किया है तुम्हारा,
अन्यथा कुछ नहीं है शिला में॥

मन को काबे में रखकर सुरक्षित,
काया छोड़ आया मैं कर्बला में॥*
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*अन्तिम शेर में कबीर की इस अवधारणा को आधार बनाया गया है- "मन करि कबा, देह करि कबिला" अर्थात मन को काबा और शरीर को कर्बला बना लो।

बुधवार, 23 जून 2010

उनवाने-गुफ़्तुगूए-दिले-दोस्ताँ न हों

उनवाने-गुफ़्तुगूए-दिले-दोस्ताँ न हों।
जीना भी हो मुहाल जो ख़ुश-फ़ह्मियाँ न हों॥

कुछ तल्ख़ियाँ भी होती हैँ शायद बहोत लतीफ़,
क्या लुत्फ़ है सफ़र का जो दुश्वारियाँ न हों॥

रुक जाये कारवाने-मुहब्बत न राह में,
यारब हमारी कोशिशें यूं रायगाँ न हों॥

तारीफ़ें सुन के होता है दिल बेपनाह ख़ुश,
फ़िरऔनियत के हम में कहीं कुछ निशाँ न हों॥

औलाद से मदद की तवक़्क़ो फ़ुज़ूल है,
बेहतर ये है किसी पे भी बारे-गराँ न हों॥

मौसीक़ियत, मिठास, रवानी, शगुफ़्तगी,
किस तर्ह लोग आशिक़े-उर्दू ज़ुबाँ न हों॥
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ख़्वाहिशें और तमन्नाएं सभी रखते हैं

ख़्वाहिशें और तमन्नाएं सभी रखते हैं।
हम तो हर हाल में जीने की ख़ुशी रखते हैं॥

नुक्ताचीनी की बहरहाल सज़ा मिलती है,
वो सम्झदार हैं जो होँटोँ को सी रखते हैं॥

आस्तीनों में नहीं साँपों को पाला करते,
डसने की चाह ये मरदूद बनी रखते हैं॥

दुशमनी का उन्हें अहबाब की होता है पता,
जागते-सोते भी जो आँख खुली रखते हैं॥

ज़िन्दगी के हैं दरो-बाम नुमायाँ जिनमेँ,
ऐसे अश'आर हयाते अबदी रखते हैं॥

आज लाज़िम है के मिलते हुए मुहतात रहें,
आज के दौर में सब चेहरे कई रखते हैं॥
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मंगलवार, 22 जून 2010

क़त्ल की साज़िशों से क्या हासिल्

क़त्ल की साज़िशों से क्या हासिल्।
तुमको इन काविशों से क्या हासिल्॥

इश्क़ पाबन्द हो नहीं सकता,
इश्क़ पर बन्दिशों से क्या हासिल्॥

मुझको ख़ामोश कर न पाओगे,
ज़ुल्म की वरज़िशों से क्या हासिल्॥

कौन सुनता है अब अदालत में,
दर्द की नालिशों से क्या हासिल्॥

हो नहीं सकतीं जो कभी पूरी,
ऐसी फ़रमाइशों से क्या हासिल्॥

मुझ तक आये तो कोई बात बने,
जाम की गरदिशों से क्या हासिल्॥

फ़ासले किस लिए बढाते हो,
बे वजह रंजिशों से क्या हासिल्॥
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