गुरुवार, 6 मई 2010

सफ़र का सारा मंज़र सामने था

सफ़र का सारा मंज़र सामने था।
कहीं बच्चे कहीं घर सामने था्।

हमें जो ले गया मक़्तल की जानिब,
थका-माँदा वो लश्कर सामने था॥

मिली थी नोके-नैज़ा पर बलन्दी,
मैं हक़ पर था मेरा सर सामने था।

फ़ना के साहिलों से क्या मैं कहता,
बक़ा क जब समंदर सामने था॥

तलातुम मौजे-दरिया में न होता,
कोई प्यासा बराबर सामने था॥

हँसी आती थी नादानी पे उसकी,
मज़ा ये है सितमगर सामने था॥
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बुधवार, 5 मई 2010

सरों से ऊँची फ़सीलें हैं क्या नज़र आये

सरों से ऊँची फ़सीलें हैं क्या नज़र आये।
न जाने किसकी ये चीख़ें हैं क्या नज़र आये॥
उमीदो-बीम के जंगल में हूँ घिरा हुआ मैं,
तमाम शाख़ें-ही-शाख़ें हैं क्या नज़र आये॥
वो पहले जैसी बसीरत कहाँ इन आंखों में,
बहोत ही धुंधली सी शक्लें हैं क्या नज़र आये॥
तअल्लुक़ात कई बार टूटे और बने,
हमारे रिश्तों में गिरहें हैं क्या नज़र आये॥
गिरी सी पड़ती हैं इक दूसरे पे होश कहाँ,
नशे में चूर सी यादें हैं क्या नज़र आये॥
न जाने कब से मैं ताबूत में हूं रक्खा हुआ,
धँसी-धँसी हुई कीलें हैं क्या नज़र आये॥
अजीब नज़अ का आलम है मैं पुकारूँ किसे,
न चारागर न सबीलें हैं क्या नज़र आये॥
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फ़सीलें=चार्दीवारियाँ ।उमीदो-बीम=आशा-निराशा ।बसीरत=बुद्धिमत्ता य चातुर्य। गिरहें=गाँठें । नज़अ का अलम= अन्तिम समय । चारगर=वैद्यक । सबीलें=उपाय ।

सोमवार, 3 मई 2010

मैं ग़ज़ल क्यों कहता हूं / शैलेश ज़ैदी

मैं ग़ज़ल क्यों कहता हूं
ग़ज़ल अरबी भाषा का शब्द अवश्य है किन्तु ग़ज़ल का प्रारंभ अरबी भाषा में नहीं हुआ।वैसे भी प्राचीन परिभाषाओं पर आधारित ग़ज़ल के अर्थ को रेखांकित करना ग़ज़ल की परंपरा के अनुरूप प्रतीत नहीं होता।ग़ज़लकारों ने प्रारभ से ही अपने युग के जीवन और वातावरण की अभिव्यक्ति इतने सूक्ष्म एवं परिपक्व ढग से की है कि ग़ज़ल का संपूर्ण कलेवर व्यापक फलक पर वैचारिक खुलेपन के साथ सार्थक हो गया है।सौन्दर्य और प्रेम, हाव-भाव, तपन, पीड़ा, आह इत्यादि तक ग़ज़ल के शेरों को सीमित रखने की पद्धति इस विधा में किसी युग में नहीं मिलती।यह तो अधयेता की रुचि पर निर्भर करता है कि उसके अधययन में किस प्रकार की ग़ज़लें आयी हैं। वस्तुतः ग़ज़लकार जगबीती को आपबीती और आपबीती को जगबीती बनाने की क्षमता रखता है। यही कारण है कि वैयक्तिक जीवन के दैनिक क्रिया कलाप से लेकर बहिर्जगत की कितनी ही घटनाएं और सामजिक वैचारिकता से सबद्ध कितने ही आयाम, अपनी जीवन्त चित्रात्मकता के साथ ग़ज़ल में उसके अर्थ फलक का विस्तार करते दिखायी देते हैं।हाँ इस चित्रात्मकता में विवेचनात्मक स्पष्टीकरण के स्थान पर रहस्यात्मक संकेत, व्याख्या के स्थान पर लाक्षणिकता, और वर्णनात्मक्त के स्थान पर सांकेतिकता से काम लिया जाता रहा है।सच तो ये है कि ग़ज़लकार की दृष्टि त'अस्सुर की सप्रेषणीयता पर केन्द्रित होती है।
यदि ग़ज़ल से अभिप्राय उसके पारंपरिक अर्थों में प्रेम कला की अभिव्यक्ति लिया जाय, तो प्रेम कला के अन्तर्गत सयोग वियोग के अतिरिक्त प्रकृति का व्यापक फलक भी आ जाता है जो अन्तर्जगत और बाह्य जगत के मधय अन्तरंगता स्थापित करता है। अरबी भाषा में एक शब्द है रहले-ग़ज़ल, जिस से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से है जो प्रेमी होने के साथ-साथ संगीत के प्रति रागात्मकता रखता हो। इस दृष्टि से संगीतात्मकता ग़ज़ल का अभिन्न अंग बन जाती है। कदाचित यही कारण है कि जिस ग़ज़ल में सगीतात्मकता नहीं होती वह धवन्यात्मक आह्लाद के अभाव में अर्थ और रस खो बैठती है। अरबी में एक शब्द ग़ज़ाल भी है जिसका अर्थ हिरन होता है। हिरन सगीत के प्रति असीम प्रेम रखता है। इससे भी ग़ज़ल के कलेवर में संगीतात्मकता के नाभीय तत्त्व क सकेत मिलता है। हिरन की आवज़ को 'ग़ज़लल-क़ल्ब' कहते हैं।यह आवाज़ हिरन उस समय निकालता है जब उसे चारों ओर से शिकारि कुत्ते घेर लेते हैं और उसके प्राणों पर बन आती है। इस आवाज़ के दर्द से प्रभावित होकर शिकारी कुत्ते हिरन को छोड़ देते हैं।स्पष्ट है कि ग़ज़ल में हिरन की स्थिति के अनुरूप निरकुश व्यवस्था, आतक और पीड़ा की जकड़न महसूस करने वाले व्यक्ति और समाज की दर्दनाक चीख़ भी देखी जा सकती है जो नैराश्य की स्थिति में भी उस आशा का सकेत है कि शीघ्र ही मौत का यह अंधेरा उसके सामने से छँट जायेगा। इस प्रकार ग़ज़ल की व्यापकता प्रारभ से ही देखी जा सकती है।
ग़ज़ल में क़ाफ़िए की वांछनीयता इस लिए है कि उस से शेर में लयात्मकता और संगीतात्मक मिठास पैदा होती है। ग़ज़ल में नग़्मगी अर्थात लयात्मकता और आहग अर्थात धवनि की सार्थक ओजस्विता लाज़मी है। वस्तुतः क़ाफ़िए से ही ग़ज़ल के लयात्मक स्वभाव की पहचान बनती है।रदीफ़ इसी स्वभाव को गहराती है और गतिशीलता प्रदान करती हैं। निज़ामी गंजवी और अमीर ख़ुसरो की फ़ारसी ग़ज़लें संगीत में उनकी गहरी पैठ के कारण अधिक प्रभावशाली दीखती हैं।उर्दू ग़ज़लकारों में 'आतिश', दाग़', 'मोमिन', 'मीर', 'ग़ालिब', 'फ़ैज़', 'फ़िराक़',नासिर काज़्मी' इत्यादि की ग़ज़लें इस कला के उपयोग का सही परिचय देती हैं।
आज की ग़ज़ल परंपरागत उर्दू ग़ज़ल से भिन्न भी है और उसका एक सहज विकास भी।उसमें नये वैश्विक और क़ौमी नज़रिए की हल्की सी चाश्नी भी है,जीवन और संस्कारों के स्वप्नगत एवं यथार्थजन्य रक्त की मिठास भरी सरसराहट भी। इसमें भारतीय साझी संस्कृति के सार्थक बेल-बूटे भी हैं, अधयात्म की शर्त-रहित गूँज भी है और चिन्तन की आज़ादी का एक अन्तहीन किन्तु संयमित क्षितिज भी। अर्थ का तह-दर-तह विस्तार और रंगारंगी इसकी संप्रेषणीयता की क्षमता को गहराते हैं और इसकी पहचान को रेखांकित करते हैं।फ़साद, फ़िरक़ा-परस्ती और दहशत गर्दी की पृष्ठभूमि में परवीन कुमार अश्क का यह शेर एहसास के स्तर पर मानी को कितना गहरा देता है, स्वयं देखिए-
तमाम धरती पे बारूद बिछ चुकी है ख़ुदा
दुआ ज़मीन कहीं दे तो घर बनाऊँ मैं॥
या फिर निदा फ़ाज़ली के इन अश'आर का आस्वादन लीजिए जिनमें आम हिन्दोस्तानी ज़िन्दगी अपने संस्कृतिक वरसे के साथ मुखर हो उठी है-
बेसन की सोंधी रोटी पर खटटी चटनी जैसी माँ।
याद आती है चौका बासन चिम्टा फुकनी जैसी माँ॥
बाँस की खुर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे
आधी सोती आधी जगती थकी दुपहरी जैसी माँ॥
रऊफ़ ख़ैर अभी बहुत पुराने शायर नहीं हैं। किन्तु उनकी रचनाओं में बदलते माहौल की मौसमी अँगड़ाई महसूस की जा सकती है।-
कोई निशान लगाते चलो दरख़्तों पर्।
के इस सफ़र में तुम्हें लौट कर भी आना है॥
यहाँ प्रतिपाल सिंह बेताब और गुलशन खन्ना के भी एक-एक शेर उद्धृत करना ज़रूरी जान पड़ता है जिनके यहाँ आन्तरिक पीड़ा और साँस्कृतिक ज़मीनी सच्चाई आसानी से देखी जा सकती है-
मेरी हिजरत ही मेरी फ़ितरत है।
रोज़ बस्ता हूं रोज़ उजड़ता हूं॥[बेताब]
देखो यारो बस्ती-बस्ती चोर लुटेरे फिरते हैं।
बीन बजाकर लूटने वाले कई सपेरे फिरते हैं॥[खन्ना]
मैं हिन्दी और उर्दू दोनों ही भाषाओं में ग़ज़ल कहता हूं।इन भाषओं के संस्कार विशुद्ध भारतीय होते हुए भी एक दूसरे से पर्याप्त भिन्न हैं। हिन्दी में जहाँ लोक सस्कृति का गहरा पुट है और ज़मीनी सच्चाइयाँ अपने समूचे खटटे-मीठेपन के साथ मौजूद हैं, उर्दू की शीरीनी और नग़्मगी धूल-मिटटी से दामन बचाकर शाहराहों पर चलने की आरज़ूमन्द है।मैं ने कोशिश की है कि दोनों भाषाओं को सस्कार के स्तर पर एक दूसरे के निकट ला सकूं।मैं ने महसूस किया है कि ग़ज़ल ही एक ऐसी विधा है जिसका दामन किसी विचार के लिए तंग नहीं है।कड़वी-से कड़वी बात भी ग़ज़ल में प्यार के लबो-लहजे में कही जा सकती है।ग़ज़ल के एक शेर में पूरे एक आलेख की सच्चाई समेटी जा सकती है।मेरी ग़ज़लों में आपको तसव्वुफ़ का अधयात्मिक स्पर्श भी मिलेगा,इश्क़ की लौकिक तस्वीरें भी दिखाई देंगी,गाँव का उजड़ा वीरान और निरन्तर प्रदूषित होता माहौल भी झलकता नज़र आयेगा, पड़ोसी देश की माशूक़ाना करतूतें भी मिल जायेंगी और देश में होते फ़सादात और आतंकी हमलों की दहशत भी अपने घिनौनेपन के साथ नज़र आयेगी।मेरी अपनी ज़िन्दगी भी मेरी ग़ज़लों में कहीं घुटन के साथ और कहीं खुली हवा में साँस लेती नज़र आयेगी।मैं उर्दू या हिन्दी का कोई चर्चित शायर या कवि नहीं हू। हो भी नहीं सकता।मैं अच्छा या बुरा जो भी लिखता हूं अपनी ख़ुशी के लिए लिखता हूं। हाँ कुछ लोग जब मेरी इस ख़ुशी को बाँटते हैं तो मुझे अच्छा ज़रूर लगता है।
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शनिवार, 1 मई 2010

ठेस लगे तो रोते कब हैं

ठेस लगे तो रोते कब हैं।
शब्द किसी के होते कब हैं॥

हम अपना ही हाल न जानें,
जागते कब हैं सोते कब हैं॥

आँसू मेरी आँखों में हैं,
उसकी आँख भिगोते कब हैं॥

हमको फ़स्लों से मतलब है,
खेत ये हम ने जोते कब हैं॥

आंखों वाले ही अन्धे हैं,
अन्धे अन्धे होते कब हैं॥
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शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

देखो ये बातें सच्ची हैं

देखो ये बातें सच्ची हैं।
तहज़ीबें मिटती रहती हैं॥

सूरज तो बेहिस होता है,
ख़्वाब ज़मीनें ही बुनती हैं॥

चाँद की मिटटी छू कर देखो,
उसकी आँखें भी गीली हैं॥

मुझको कोई ख़ौफ़ नहीं है,
मैं ने मौत से बातें की हैं॥

माँ की मिटटी के बटुए में,
मेरी साँसें तक गिरवी हैं॥

एक समन्दर मुझ में भी है,
जिसकी लहरें जाग रही हैं॥

सोने की चिड़िया के क़िस्से,
कुछ तो सुने हैं कुछ बाक़ी हैं॥
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गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

ख़्वबों से थक जाएं पलकें

ख़्वबों से थक जाएं पलकें।
कितना बोझ उठाएं पलकें॥
दिल की तमन्ना बर आने पर,
झूमें नाचें गाएं पलकें॥
मातम है एहसास के घर में,
बच्चे आँसू माएं पलकें॥
झपकें तो हलचल मच जाए,
ठहरें तो शरमाएं पलकें॥
आधी आधी जब खुलती हैं ,
एक क़यामत ढाएं पलकें॥
खामोशी के स्वाँग रचा कर,
बेहद शोर मचाएं पलकें॥
आँखों मे तुम आकर देखो,
देंगी ख़ूब दुआएं पलकें॥
दिल रंजीदा आँखें पुरनम,
किस किस को समझाएं पलकें॥
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जब भी कुछ फ़ुर्तसत होती है

जब भी कुछ फ़ुर्तसत होती है।
तनहाई नेमत होती है।
शायर कोई और है मुझ में,
पर मेरी शुहरत होती है॥
उर्दू के शेरों में बेहद,
तरसीली क़ूवत होती है॥
लफ़्ज़ों के जादू में पिनहाँ,
मानी की ताक़त होती है॥
वादा-ख़िलाफ़ी करते क्यों हो,
दोस्ती बे-हुरमत होती है॥
वो अदना होता ही नहीं है,
जिसकी कुछ इज़्ज़त होती है॥
माँ के आँसू गिरने मत दो,
बून्द बून्द जन्नत होती है॥
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देह मे जब तक भटकती सांस है/घनश्याम मौर्य

महोदय,

मै आप्के युग विमर्श ब्लॉग का नियमित रूप से अनुसरण करता हूँ. इस पर उत्कृष्ट एवं स्तरीय रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं. हिंदी साहित्य का प्रेमी होने के साथ ही मैं हिंदी में काव्य-रचना भी करता हूँ. अपनी एक ग़ज़ल आपके ब्लॉग पर प्रकाशन हेतु भेज रजा हूँ. कृपया अपने ब्लॉग पर इसे प्रकाशित करने हेतु विचार करने का कष्ट करें.

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Ghanshyam Maurya
283/459, Garhi Kanora
Lucknow-226011U.P.

देह मे जब तक भटकती सांस है.

त्रास के होते हुए भी आस है.

दर्द कितना भी भयानक हो मगर,

मुस्कुराने का हमे अभ्यास है.

पी रहा कोई सुधा कोई गरल,

किंतु अपने पास केवल प्यास है.

रास्ते मे आयेंगे तूफान जो,

हो रहा उनका हमे आभास है.

राज्सत्ता हो मुबारक आपको,

भाग्य मे अपने लिखा वन वास है.
घनश्याम मौर्य

    लखनऊ, उत्तर प्रदेश

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

काश मेरे पास कुछ होता सुबूत

काश मेरे पास कुछ होता सुबूत।
दे न पाया बेगुनाही का सुबूत॥
हो चुका है नज़्रे-आतश सारा जिस्म,
ये सुलगती राख है ज़िन्दा सुबूत्॥
क़ाज़िए-दिल वक़्त का नब्बाज़ है,
देख लेता है ये पोशीदा सुबूत्॥
इश्क़े-मजनूँ क्यों न होता लाज़वाल,
दे रही है आजतक लैला सुबूत्॥
कैसे-कैसे हैं नज़रयाती तिलिस्म,
आज लायानी है जो कल था सुबूत्॥
लोग ख़ालिक़ के भी मुनकिर हो गये,
उसके होने का न जब पाया सुबूत्॥
शायरी पैग़म्बरी का है बदल,
शेर हैं ज़रतुश्त के अच्छा सुबूत्॥
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बन्धनों में रहूँ मैं ये संभव नहीं

बन्धनों में रहूँ मैं ये संभव नहीं॥
अनवरत साथ दूँ मैं ये संभव नहीं॥
मेरी प्रतिबद्धता का ये आशय कहाँ,
झूट को सच कहूँ मैं ये संभव नहीं॥
मैं हूँ मानव,कोई तोता - मैना नहीं,
जो पढाओ पढूँ मैं ये संभव नहीं॥
पत्थरों में प्रतिष्ठित करूँ प्राण मैं,
सब के आगे झुकूँ मैं ये संभव नहीं॥
मेरी अपनी व्यथाएं भी कुछ कम नहीं,
आप ही की सुनूँ मैं ये संभव नहीं॥
मैं अदालत में जनता की जब हूं खड़ा,
रात को दिन लिखूँ मैं ये संभव नहीं॥
अपने अन्तःकरण का गला घोट कर्।
ब्र्ह्म हत्या करूं मैं ये संभव नहीं॥
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