हिन्दी के प्रति अतिरिक्त प्रेम दर्शाने वाला आज एक वर्ग ऐसा भी है जो उर्दू और अंग्रेज़ी शब्दों के प्रति कुछ ऐस घृणा भाव रखता है कि उनके स्पर्श मात्र से उसे हिन्दी के अशुद्ध हो जाने की प्रतीति होती है।रोचक बात यह है कि अपने इन विचारों को अंग्रेज़ी भाषा के माधयम से व्यक्त करना वह अपने लिए श्रेयस्कर समझता है।भाषा के इतिहास को सामने रखकर जब मैं सोचता हूं तो यह नहीं समझ पाता कि ऐसे लोग किस हिन्दी की शुद्धता की बात करते हैं।आठवीं- नवीं शताब्दी ई0 तक तो इसका कोई अस्तित्व ही नहीं था।ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में प्राकृत और पाली भाषाएं ब्रह्मणों द्वारा पोषित संस्कृत भाषा के विरोध में पूरी तरह खड़ी हो चुकी थीं और भारत की आम जनता उनसे बहुत निकट से जुड़ी हुई थी। वैसे भी बौद्ध और जैन धर्मों के अनुयायी इन्हें क्रमशाः अपना चुके थे। पाली का विकास तो अधिक नहीं हुआ किन्तु प्राकृत से ही इस देश की लगभग सभी भाषाएं विकसित हुईं।और यह विकास उसी अशुद्धता का नतीजा था जिसके विरुद्ध शुद्धतावादी गले फाड़-फाड़ कर चीख़ते रहे और शब्दों का तत्सम रूप तदभव में सहज ही ढलता रहा।मधय युग तक अरबी, फ़ारसी, तुर्की, पुर्तगी और डच भाषाओं के अनेक शब्द इसके रंग रूप को संवारते रहे।तुलसी तक ने श्री राम को "ग़रीब-नवाज़" कहा और "मालिक दीन दुनी कौ" होने की घोषणा की। ताव तो इन शुद्धता वदियों को इस बात पर भी आता होगा।पर क्या करें रामचरित मानस और विनय पत्रिका में बेशुमार अरबी-फ़ारसी शब्द भरे पड़े हैं। लेकिन तुलसीदास की भाषा विद्वानों की दृष्टि में आज चाहे जो भी कहलाये,तुलसी इसे हिन्दी नही भाखा कहते थे- का भाखा का संस्किरत प्रेम चाहिए साँच्।फ़ोर्ट विलियम कालेज की स्थापना के समय तक हिन्दी, हिन्दवी, रेख़्ता आदि से अभिप्राय उर्दू ही था।सूर तुलसी आदि की भाषा "भाखा" थी, जिसकी वजह से फ़ोर्ट विलियम कालेज में भाखा मुंशी की नियुक्ति की गयी थी, हिन्दी लिपिक की नहीं।संवैधानिक दृष्टि से जिस भाषा को हिन्दी घोषित किया गया वह शुद्धतावादियों की भाषा थी। जनता की भाषा तो गाँधी जी की दृष्टि में हिन्दुस्तानी थी, जिसका अर्थ शुद्धतावादी उर्दू लिया करते थे। अब समस्या यह है कि हम किस भाषा की शुद्धता की बात करते हैं।जनसामान्य की भाषा की या वैदिक ब्रह्मणों की भाषा की ?
भाषा का स्वभाव नदी के पानी जैसा होता है, निर्मल और तरल, जो अपनी दिशा स्वयं चुन लेता है।उसके लिए शब्द स्वदेशी और विदेशी नहीं हुआ करते।वह तो दूसरों को तृप्त देखना चाहता है।स्टेशन, रेलवे लाइन और स्कूल का बदल तलाश करना भाषा को पीछे ढकेलना है।जमुना को यमुना और बनारस को वाराणसी कर देने से रोटी की समस्या नहीं हल होती।कोमलता भाषा की जान होती है।शायद इसी लिए "ण" की धवनि ब्रज और अवधी भाषाओं ने निकाल फेंकी थी।चाक्लेट और बर्गर के ज़माने में फ़ास्ट-फ़ूड कल्चर तो पनपना ही है।संस्कृति किसी धर्म का धरोहर नहीं होती।देश, काल और भौगोलिक स्थितियाँ इसे रूप और आकार देती हैं।शुद्धतावादी दृष्टिकोण भाषा के विकास में कितना घातक है, इतिहास की आँखें इस ओर से मुंदी हुई नहीं हैं।
