शुक्रवार, 5 मार्च 2010

सदाएं देता है दरिया के पार से मुझ को

सदाएं देता है दरिया के पार से मुझ को।
निकालेगा वही इस इन्तेशार से मुझ को॥

बलन्दियाँ उसे मुझ में फ़लक की आयीं नज़र,
उठा के लाया वो गर्दो-ग़ुबार से मुझ को॥

तलाश करता हूं दश्ते-जुनूँ में जिस शय को,
वो खींच लायी ख़िरद के हिसार से मुझ को॥

मैं फूल ज़ुल्फ़ों में उसकी सजाने निकला हूं,
गिला कोई भी नहीं नोके-ख़ार से मुझ को॥

हवेलियों का पता खंडहरों से मिलता है,
लगाव क्यों न हो नक़्शो-निगार से मुझ को॥

भटक रहा हूं मैं वीरानों में इधर से उधर,
बुलाता है कोई उजड़े दयार से मुझ को॥

मैं जैसा भी हूं बहरहाल मुत्मइन हूं मैं,
मुहब्बतें हैं दिले-सोगवार से मुझ को॥
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गुरुवार, 4 मार्च 2010

ख़ेज़ाँ के ज़ुल्म से पूरा शजर बरहना था

ख़ेज़ाँ के ज़ुल्म से पूरा शजर बरहना था।
ख़मोश लब थे सभी सब का घर बरहना था॥

कोई भी अपनी रविश से न बाज़ आया कभी,
रिवायतों का भरम टूट कर बरहना था॥

ये किस को रौन्द रहे थे जफ़ा-शआर यहाँ,
ये किस का जिस्म यहाँ ख़ाक पर बरहना था॥

अगरचे शह्र में शमशीरे-बेनियाम था वो,
सभी को इल्म था वो किस क़दर बरहना था॥

वो क़ाफ़िला था असीराने-ज़ुल्म का कैसा,
के ख़ाक जिस्म से लिप्टी थी, सर बरहना था॥
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बुधवार, 3 मार्च 2010

बहोत भीनी हो जो ख़ुश्बू किसे अच्छी नहीं लगती।

बहोत भीनी हो जो ख़ुश्बू किसे अच्छी नहीं लगती।
हमारे देश में उर्दू किसे अच्छी नहीं लगती॥

हवाएं धीमे-धीमे चल रही हों हलकी ख़ुनकी हो,
फ़िज़ा ऐसी बता दे तू किसे अच्छी नहीं लगती।

वो महफ़िल जिसमें तेरा ज़िक्र हो हर एक के लब पर,
तजल्ली हो तेरी हर सू किसे अच्छी नहीं लगती॥

ग़ज़ालाँ-चश्म होने का शरफ़ मुश्किल से मिलता है,
निगाहे-वहशते-आहू किसे अच्छी नहीं लगती॥

मुहब्बत तोड़कर रस्मे-जहाँ की सारी दीवारें,
अगर हो जाये बे-क़ाबू किसे अच्छी नहीं लगती॥
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मंगलवार, 2 मार्च 2010

हाँ तबीअत आजकल मेरी परीशाँ है बहोत्

हाँ तबीअत आजकल मेरी परीशाँ है बहोत्।
ठहरी-ठहरी ज़िन्दगी लगती परीशाँ है बहोत्॥

आसमानोँ पर कहीं सुनता हूं अनजाना सा शोर,
चाँद तारों की कोई बेटी परीशाँ है बहोत्॥

ख़फ़गियाँ आपस की ग़ैरों पर न खुल जायें कहीं,
दिल को है अन्देशए-सुबकी परीशाँ है बहोत्॥

मेरी तनहाई लिपटकर मुझसे रोई बार-बार,
देखकर मेरी बलानोशी परीशाँ है बहोत्॥

नफ़्स से कुछ कट गया है इसका रिश्ता इन दिनों,
जिसके बाइस पैकरे-ख़ाकी परीशाँ है बहोत्॥

मेरी उल्झन देखकर हैरत में हैं अहले-नज़र,
ज़िक्र है अहबाब में, तू भी परीशाँ है बहोत्॥

ख़ुम, सुराही, जाम, सब पाये गये ख़ामोश लब,
रिन्द रंज आलूद हैं साक़ी परीशाँ है बहोत्॥
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अहसास के तमग़े लिए

अहसास के तमग़े लिए।
जीता हूं मैं किस के लिए॥
अब याद कुछ आता नहीं,
कब किसने क्या वादे लिए॥
ख़्वाबों को था जब टूटना,
ग़फ़लत में क्यों फेरे लिए॥
मुर्दों की बेहिस भीड़ में,
जीते रहे धड़के लिए॥
क्या दूं हिसाबे-ज़िन्दगी,
अवराक़ हूं सादे लिए॥
भटकीं मेरी तनहाइयाँ,
दामन में कुछ रिश्ते लिए॥
उसके लिए हैं राहतें,
बेचैनियाँ मेरे लिए॥
आरिज़ ग़मों के खिल उठे,
ज़ख़्मों के जब बोसे लिए॥
दिल में दुआए-ख़ैर है,
सीने में हूं नग़मे लिए॥
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शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

शुभकामना

होली के सभी रगों में है प्यार की ख़ुश्बू
उत्साह भरे स्नेह की, सत्कार की ख़ुश्बू॥
घुल-मिल के हम आपस में हैं जब खेलते होली,
मिलती है हमें एक ही परिवार की ख़ुश्बू।।
सब ख़ुश हैं कि मन में नहीं कोई भी कलुशता,
नमकीन भी मीठी भी है त्योहार की ख़ुश्बू॥
वो भी कहीं रगों में नहाया हुआ होगा,
शामिल है हवाओं में मेरे यार की ख़ुश्बू॥
अन्तस से ये शुभकामना मैं भेज रहा हूं,
निश्चित हूं कि पाऊंगा मैं स्वीकार की ख़ुश्बू।।
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होली की शुभकामनाएं

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

नारीजन्य-अनुभूति की उर्दू कवयित्री शाइस्ता जमाल / शैलेश ज़ैदी

नारीजन्य-अनुभूति की उर्दू कवयित्री शाइस्ता जमाल
शाइस्ता जमाल में शाइस्तगी यानी एक संतुलित गांभीर्य भी है और जमाल यानी सौन्दर्य भी।रूप का आकर्षण ऐसा कि उन्हें देख कर ग़ज़ल सार्थक हो उठती है।ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ भले ही महबूब से बातें करना हो।लेकिन महबूब जब स्वयं मुहिब बन जाये और अपने दर्द को शब्द देने लगे तो ग़ज़ल दोआतशा [काक्टेल] के आस्वादन से भर जाती है। शाइस्ता की ग़ज़लें ऐसी ही हैं। बशीर बद्र ने जब उनकी ग़ज़लोँ के हरम में झाँका तो अपना एक शेर ही उन्हें समर्पित कर बैठे।आप भी इस शेर का मज़ा लीजिए और इस में मानी की गहराइयाँ तलाश कीजिए-
चमकती है कहीं सदियों में आँसुओं से ज़मीं,
ग़ज़ल के शेर कहाँ रोज़-रोज़ होते हैं।
ख़ुमारे-ग़ज़ल[2007] शाइस्ता की ग़ज़लों का संग्रह है।शाइस्ता की ख़ूबी ये है के गहरी से गहरी बात बड़े सहज ढग से कह जाती हैं।अधिकतर तो ऐसा ही लगता है जैसे वो शेर कहने के बजाय ख़ुद से बातें कर रही हों।इस से पहले के मैं कुछ और कहूं आप भि उनके कुछ शेर देखिए-
ज़िन्दगी तेरी हदों में क्यों रहूं,
वक़्त की इन बन्दिशों में क्यों रहूं।
किन यादों में खो जाती हूं,
बैठे-बैठे सो जाती हूं।
सुकूं मुझको मयस्सर आ गया है नीली आँखों में,
जब उनको देख लेती हूं समन्दर याद आता है।
इक रोशनी सी फैल गयी जिस्म में तमाम,
आकर तेरे ख़याल ने क्या-क्या मज़ा दिया।
मेरी निगाह में जीने के ख़्वाब कब से हैं,
ये सारे ख़्वाब तेरे प्यार के सबब से हैं।
ज़माने भर के ग़मों से निजात मिल जाये,
क़रीब आओ के मुझको हयात मिल जाये।
शाइस्ता के अश'आर में बेबाकी है, किन्तु मर्यादाओं की सीमा पार करना उन्हें पसन्द नहीं।आग के दरिया की कई-कई तहें हैं जो मौजें मार रही हैं, लेकिन ये आग किसी दूरी का अह्सास नहीं देती।दर्द के वीरान गोशे हैं लेकिन निराशाओं के विकसित होने की कोई गुंजाइश नहीं।आस-पास के यथार्थ को भी एक पैनी नज़र से देखना उनका स्वभाव है और यही उनकी सहजता भी है।इस सिल्सिले के चन्द शेर देखिए-
सब कुछ फ़क़ीहे-शह्र ने मस्जिद में पा लिया,
अन्धा फ़क़ीर भूक की शिद्दत से मर गया।
वो जो थक के बैठा है लौट कर सराबों से,
उससे पूछ कर देखूँ तशनगी के बारे में।
रोज़ अख़बार में पढती हूं जली है दुलहन,
एक ये ज़ुल्म ही काफ़ी है बग़ावत के लिए।
जीना भी मेरा शह्र में दुश्वार रहेगा,
जबतक के यहाँ ज़ुल्म का बाज़ार रहेगा।
पहले शेर में इस्लामी धर्म-सहिता के आचार्य[फ़क़ीह] पर तीखा व्यंग्य किया गया है।वो मस्जिद में अपनी लोकप्रियता प्राप्त करके ख़ुश है और यह नहीं देखना चाहता के मस्जिद के ठीक बाहर एक फ़क़ीर जो अंधा है यानी कुछ भी जुटा पाने के योग्य नहीं है, भूक से दम तोड़ गया।उसका इस्लामी क़ानून जन-सपर्क से कितना कट गया है। दूसरे शेर में हर दरवाज़े से उम्मीदों का टूट जाना और अन्त में थक हार कर अभावों की दुनिया में लौट आने का सकेत है। दुल्हन के जलाए जाने की बात सभी करते हैं,लेकिन इन्क़लाब के लिए इसे एक ठोस आधार बना लेना शाइस्ता की सोच का मज़बूत पहलू है।इस परिचयात्मक लेख को अनावश्यक रूप से तवील करने के बजाय शाइस्ता की ग़ज़लों से कुछ शे र दर्ज कर रहा हूं-
तुम तो सूरज हो कहीं दिन में भटक जाओगे,
मुझको जीने के लिए रात के तारे दे दो॥
हसरतें अपनी जँ गँवा बैठीं,
आरज़ू मुद्दतों से प्यासी है॥
कौन कहता है उसे शह्र में आ जाने दो,
इक जगह रहते नहीं हैं कभी दीवाने दो॥
ज़िन्दगी तेरे लिए दर्द के सारे चेहरे,
अपने नग़मों के तबस्सुम में छुपाये हमने॥
ख़ुद को तामीर किया जोड़ के लमहा-लमहा,
नक़्श तहज़ीब के सदियों में बनाये हमने॥
अंधेरे नापना मुश्किल नहीं है,
मगर सूरज का इतना दिल नहीं है॥
काश वो मुझको दिखाये कभी ऐसा बनकर,
हर क़दम साथ रहे मेरी तमन्ना बनकर्॥
फ़ासला इतना ज़ियादा न रहे चाहत में,
टूट जाये न किसी रोज़ ये रिश्ता बनकर्॥
ज़िन्दगी पर मेरा यक़ीन तो हो,
साँप भी पालूं आस्तीन तो हो॥
तनहाई मेरे साथ गयी मैं जहाँ गयी,
मुझको मेरे वुजूद ने अच्छा सिला दिया॥
शाइस्ता उसके ग़म में जली हूं मैं बारहा,
लेकिन जब उसने छू लिया, सब आबले गये॥
अन्त में शाइस्ता के ही एक शेर पर अपनी बात ख़त्म करता हूं।उनकी शायरी का परिचय इस शेर से किसी हद तक हासिल किया जा सकता है-
फैल जाती हूं जहाँ तक भी नज़र जाती है,
मैं तो दरिया हूं कनारों पे कहाँ बहती हूँ॥
1978 में भोपाल में जन्मी शाइस्ता जमाल मुशाइरों की एक मशहूर शायरा हैं। बी0काम0 करने के बाद कम्प्यूटर साफ़्टवेयर में विशेष दक्षता प्राप्त कर चुकी हैं।
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हवा है तेज़ बहोत राह चलना मुश्किल है

हवा है तेज़ बहोत राह चलना मुश्किल है।
फ़िज़ा में आग है घर से निकलना मुश्किल है॥

अंधेरे आँखों की पुतली से माँगते हैं जगह,
उजालों के लिए पहलू बदलना मुश्किल है॥

हमारी क़दरें नयी नस्ल को पसन्द नहीं,
हमारा अब नये साँचे में ढलना मुश्किल है॥

हरेक दिल में है बाज़ार के तिलिस्म का साँप,
हज़ारों सर हैं हरेक सर कुचलना मुश्किल है॥

वो संग-दिल ही सही फ़िक्र मेरी रखता है,
मैं कैसे मान लूँ उसका पिघलना मुश्किल है॥

हमारे शह्र में ताज़ा हवा कहीं भी नहीं,
तुम्हारे साथ हमारा टहलना मुश्किल है॥
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युग-विमर्श की यात्रा के दो वर्ष

25 फ़रवरी 2008 को युग-विमर्श ने एक विशेष संक्ल्प के साथ अपनी यात्रा प्रारंभ की थी। आज इस यात्रा के दो वर्ष पूरे हो गये।विगत वर्ष की तुलना में यह वर्ष पर्याप्त शान्त था।क्षेत्रीयता की हलकी सी दुर्गध और उसका छुटपुट प्रभाव अवश्य दिखायी दिया। दहशतगर्दी की धूलमिश्रित हवाओं ने आँखों के सामने के दृष्य धुंधले ज़रूर कर दिए, लेकिन हमने अपना धैर्य कहीं नहीं खोया।युगविमर्श की नज़र से युगीन राजनीतिक दाव-पेच कभी ओझल नहीं रहे, किन्तु यह उसका मैदान नहीं था। इस वर्ष हमने साहित्य की ही चर्चाएं अधिक कीं।जिन मित्रों ने पत्र लिख कर जिज्ञासाएं व्यक्त कीं, हमने उनका अपनी सीमाओं को पहचानते हुए समाधान भी किया । हाँ इस बार युग-विमर्श की प्रविष्टियां बहुत कम रहीं।विगत वर्ष हमने 519 प्रविष्टियाँ दर्ज की थीं जिन्हेँ 5872 पाठकों ने 14563 बार पढा। इस वर्ष हर स्तर पर कमी आयी है। इस वर्ष कुल 138 प्रविष्टियाँ ही स्थान पा सकी हैं जिन्हें 4830 पाठकों ने 7630 बार पढा है।यह संख्या यदि और कम भी होती तो मेरे संतोष के लिए पर्याप्त थी।मुझे प्रसन्नता है कि युग-विमर्श के पाठकों ने मेरी ग़ज़लों में विशेष रुचि ली और जो शेर भी उन्हें पसन्द आये उनकी प्रशसाएं भी कीं।मेरे कुछ आलेखों को भी पसन्द किया गया।कम्प्यूटर का ज्ञान अधिक न होने के कारण और कुछ उम्र के तक़ाज़े से भी मैं उतना सब कुछ नहीं दे पा रहा हूं, जितना मुझे देना चाहिएं ।जाने कितनी चीज़ें आधी अधूरी रह गयी हैं जिन्हें पोस्ट नहिं कर पाया हूं।काश ये वक़्त साथ देता।
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बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

हूं मैं रुस्वा तेरी मरज़ी क्यों है

हूं मैं रुस्वा तेरी मरज़ी क्यों है।
फिर ये इज़्ज़त हमें बख़्शी क्यों है॥

ख़त्म होती नहीं कितना भी पढें,
दास्ताँ उम्र की लम्बी क्यों है॥

किस ने पैदा किये मज़हब इतने,
तेरी ख़ामोशी खटकती क्यों है॥

तू ने हर सम्त उजाले बाँटे,
मेरी ही दुनिया अँधेरी क्यों है॥

ख़ुद नुमाई का है क्यों शौक़ इतना,
दिल के हर गोशे में तू ही क्यों है॥

कैसे रौशन हो मेरा मुस्तक़्बिल,
साथ मेरे मेरा माज़ी क्यों है॥

रिन्द कोई भी नहीं मेरे सिवा,
रँगे-मयख़ाना गुलाबी क्यों है॥
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